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संसद और विधान सभाओं में अधिकांशजनप्रतिनिधि स्वयं जमींदार हैं या साहूकार

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव वाद-विवाद में 20 फरवरी 1963 को राज्यसभा में चन्द्रशेखर

उपसभापति महोदय, मैं राष्ट्रपति जी का संविधान की उन धाराओं की ओर ध्यान आकर्षित करने हेतु आभार व्यक्त करता हूँ, जिनके तहत हमने शपथ ग्रहण की है। हम देश के सामाजिक और राजनैतिक जीवन को उन्नत बनाने के लिए लगातार प्रयत्न करने की शपथ लेते हैं। वास्तव में, यह दर्शाने के लिए कि जब पहली बार मनुष्य के मन में राज्य की संकल्पना आई होगी, तो क्या हुआ होगा, मैं थोड़ा पीछे जाना चाहूँगा। मनुष्य ने अपने अधिकार छोड़ दिए और एक संगठन कासृजन किया, जिसे हम राज्य के रूप में जानते हैं। उन्नीसवीं सदी में राज्य की संकल्पना पुलिस राज्य की थी। उस समय, हर्बर्ट स्पेंसर और अन्य लोगों ने स्पष्ट किया था कि राज्य और सरकार का दायित्व लोगों की आंतरिक उत्पात और बाह्य आक्रमण से सुरक्षा करना था। प्राचीन राज्य में, जब राज्य की संकल्पना अस्तित्व में आई, उस समय राज्य के दो प्रमुख कत्र्तव्य थे। एक यह था कि आंतरिक उत्पात नहीं होना चाहिए और दूसरा बाह्य आक्रमण भी नहीं होने चाहिए। जब देश के साथ ही विश्व में बीसवीं सदी में कल्याणकारी राज्य का मुद्दा आया, तो इन दो मूल संकल्पनाओ को कायम रखते हुए राज्य के कार्यों में वृद्धि कर दी गई थी।

मुझे यह कहते हुए बहुत दुःख होता है कि मैंने कई बार इस सभा में सुना है कि हम चीन के विरुद्ध युद्ध के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर सके, क्योंकि हम अवसंरचना निर्माण में व्यस्त थे। हम चीन से युद्ध नहीं कर सके क्योंकि हम स्वयं को निरक्षरता, गरीबी और भुखमारी से ऊपर उठाना चाहते थे। राज्य के दायित्वों के संबंध में इस नए आयाम, नए दर्शन और नए सिद्धांत को व्यक्तकरने का श्रेय हमारे प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को जाता है। सम्पूर्ण विश्व में यह अत्यंत गर्व के साथ कहा जाता है कि हम शांतिप्रिय राष्ट्र हैं, हम महात्मा गांधी के देश से संबंध रखते हैं। हम सभ्य राष्ट्र हैं। मैं आपको बताना चाहूँगा कि राज्य और सरकार का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कत्र्तव्य राष्ट्र को सुरक्षा प्रदान करना है और यदि सरकार ऐसा करने में विफल रहती है तो वह सरकार विश्व में सभ्यता और शांति का प्रचार नहीं कर सकती। सुरक्षा, सभ्यता और शांति के प्रचार से पहले आती है। इस संदर्भ में, हमें चीन के विरुद्ध इस चुनौती को स्वीकार करना होगा।

मैं आश्चर्यचकित हूँ कि राष्ट्रपति के अभिभाषण में एक उल्लेख किया गया था कि एक राष्ट्र, जिससे हम मित्रता स्थापित कररहे हैं, हमें धोखा कैसे दे सकता है और हम पर अचानक हमला कैसे किया गया था। हम कब तक यह कहते रहेंगे? यह हमला अचानक नहीं था। वर्षों पहले, देश को जानकारी थी कि चीन के लोग हम पर आक्रमण करने वाले हैं। मैं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का निम्र कार्यकर्ता हूँ। नवम्बर-दिसम्बर 1957 के माह में, मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री सम्पूर्णानन्द को पत्र लिखा था कि चीनी लोग तकलाकोट में एकत्र हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश सीमा के निकट रहने वाले लोगों को चीनी लोग बहका रहे है। कृपया सतर्क रहे और अपने लोग तैनात करें। मेरे उस पत्र का उत्तर नहीं दिया गया था। तत्पश्चात्, मैने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखा कि सम्पूर्णानन्द जी शायद यह सोच रहे हैं कि मैं राजनीति कर रहा हूँ। आप सरकार के वरिष्ठ अधिकारी हैं। आपको इस सम्बन्ध में कार्यवाही करनी चाहिए।

मुख्य सचिव से प्राप्त पत्र अभी भी मेरे पास हैं। उन्होंने जवाब दिया था कि मेरे पत्र को गुप्त पुलिस द्वारा देखा जा रहा है। तत्पश्चात्, वर्ष 1959 में राष्ट्र को यह स्पष्ट हो जाना चाहिए था, जब 1959 में ‘‘पीपल्स डेली’’ में ‘‘रिवोल्यूशन इन तिब्बत एंड नेहरू फिलाॅसफी’’ शीर्षक से एक लेख दिखाई दिया। उसमें कहा गया था कि पंडित जवाहर लाल नेहरू एक साम्राज्यवादी एजेंट थे। माननीय भूपेश ज गुप्त यहां उपस्थित नहीं हैं। आज भूपेश जी गुप्त को पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रति गहरी संवेदना है। लेख 6 मई, 1959 को जानकारी हो गई होती। हम अभी भी भाईचारे औरसह-अस्तित्व के स्लोगन के नारे लगा रहे थे।

हमारे साम्यवादी दोस्तों को शायद स्मरण हो कि वारसा शक्तियों पर माॅस्को में एक सम्मेलन का आयोजन हुआ था औररूस तथा चीन के सह-अस्तित्व मुद्दे पर विवाद हो गया तत्पश्चात्, चीन ने रूस पर हमला कर दिया। अप्रैल, 1960 में, चीन के ‘‘रेड फ्लैग’’ नामक अखबार ने अपने सम्पादकीय में लिखा था- ‘‘हम लेनिनवाद विचारधारा की पूर्ण यथार्थता में विश्वास करते है। युद्ध अपरिहार्य है।’’ लेख बहुत लम्बा है। मैं इसमें नहीं पड़ूंगा। ‘‘रेड फ्लैग’’ में यह लेख प्रकाशित हो जाने के बावजूद कांग्रेस सरकार ने अपनीआंखें नहीं खोलीं और कहा कि भारत पर अचानक आक्रमण हुआ था। मैं आपको बता दूं कि जब दलाई लामा को स्वायत्तता देने के मुद्दे पर चर्चा हो रही थी, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तिब्बत के लोगों को आश्वासन दिया कि उनकी स्वायत्तता बनी रहेगी, किन्तु यह जारीनहीं रही। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कम से कम सात बार संसद में कहा था कि हम तिब्बत के लोगों के साथ हैं। और जब तिब्बत के लोगों को मारा जा रहा था, तो पंडित जवाहर लाल नेहरू सहानुभूति दर्शा रहे थे। मैं इस सदन के माध्यम से आपसे जानना चाहूँगा कि क्या इन मुद्दों को दोहराए जाने की आवश्यकता है? ये सभी चीजें क्यों हुई थीं? आज हमारे एक सदस्य ने कहा कि वे युद्ध की बात करते हैं। गुप्त जी ने कहा कि वे युद्ध की बात करते हैं। वे युद्धोत्तेजक कार्य करते हैं। मैं खुश हूँ। मैं विधि मंत्रालय को सभा में खुले रूप से यह कहने के लिए बधाई देता हूँ कि चीन का मुद्दा सेना का मामला है और यह मुद्दा सेना के माध्यम से सुलझ सकता है। विधि मंत्रालय ने यह वक्तव्य देकर दृढ़ इच्छा व्यक्त की किन्तु जब मैं प्रधानमंत्री के विचारों के संदर्भ में सोचता हूँ, मुझे आश्चर्य होता है। कोलम्बो शक्तियों संबंधी प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए हमेशा से ही हमें बताया जाता है कि यदि हम इस तरह बात करेंगे तो हम असभ्य माने जायेंगे। सभ्य देशों में चर्चा से कभी भी इंकार नहीं किया जाता है। मुझे इतिहास की ज्यादा जानकारी नहीं है, किन्तु मुझे जितना याद है, यदि मैं गलत हूँ तो मुझे सही जानकारी दे दें, कि डी0 वल्लेरा ने इंग्लैंड के प्रधानमंत्री के साथ हाथ मिलाने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि उनके हाथ हमारे शहीदों के खून से रंगे हैं। क्या यह सही नहीं है? जब मैं एक विद्यार्थी था, भारत में इसका व्यापक प्रचार किया गया था, प्रधानमंत्री नेहरू, उस समय प्रधानमंत्री नहीं थे, एक नेता थे और उन्होंने कहा था कि, ‘‘हम मुस्मोलिनी से बात नहीं करेंगे, क्योंकि उनके हाथ मासूम लोगों के खून से रंगे हैं।’’

मैं नहीं जानता कि क्या पंडित जवाहर लाल नेहरू व्यर्थ की बात कह रहे थे। मैं नहीं जानता कि पंडित नेहरू का यह कृत्य बचकाना था। मैं समझता हूँ कि पंडित नेहरू एक सिद्धांत पर प्रचार कररहे थे। सभा और इस राष्ट्र को इस ओर ध्यान देना चाहिए, यदि उन सिद्धांतों का सत्ता में आने के बाद प्रचार नहीं किया जा रहा है।

मैं इस संदर्भ में यह भी कहना चाहता हूँ कि इस संसार में कभी-कभार ही सुअवसर मिलते हैं औरजब ऐसे सुअवसर प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक राष्ट्र के द्वार पर दस्तक देते हैं तो चुनौती को स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है। उपसभापति महोदय, शायद आपको स्मरण होगा कि इंग्लैंड संकट में था, एक प्रतिष्ठित कवि, इंग्लैड के राष्ट्रीय कवि, रूडयार्ड किप्लिंग ने विश्व से कहा था- ‘‘वन्स मोर वी हियर द वल्र्ड
दैट सिकन्ड द अर्थ आॅफ ओल्ड:
नो लाॅ एक्सेप्ट द स्वोर्ड,
अनशीथ्ड एंड अनकंट्रोल्ड’’

क्या आप सोचते हैं कि रूडयार्ड किपलिंग एक असभ्य व्यक्ति थे? क्या आप सोचते हैं कि रूडयार्ड किपलिंग में आम आदमी के प्रति सहानुभूति कम थी? मगर परिस्थितियोंवश वह ऐसा करने के लिए बाध्य थे। अभी कांग्रेस पार्टी के हमारे एक मित्र ने महाभारत का उल्लेख किया। महाभारत के दौरान एक समय आया जब कृष्ण भगवान को यह कहना पड़ा।

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम जित्वा वा भोक्षसे महीम्;
तस्मादुतिष्ठा कौंतेय युद्धया कृतनिश्चयः।।

हे, अर्जुन युद्ध के लिए आगे बढ़ो, युद्ध करते हुए यदि तुम्हारी मृत्यु हो जाती है तो तुम स्वर्ग जाओगे और यदि बच गए तो इस संसार में गौरवपूर्ण जीवन व्यतीत करोगे।

14 नवम्बर, 1962 को हमारी संसद ने रूडयार्ड किपलिंग की उसी भावना और गीता के संदेश को पुनः याद किया, किन्तु मैं यह आरोप लगाता हूँ कि प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनकी सरकार ने यह भावना को गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने कहा कि यदि हम कोलम्बों संकल्प को स्वीकार नहीं करेंगे तो ये छह देश हमसे नाराज हो जाएंगे। मैं यहां उपस्थित वरिष्ठसांसदों को याद दिलाना चाहूँगा कि यह मामला उस समय भी उठाया गया था, जब अगस्त, 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक में ‘‘भारत छोड़ो’’ संकल्प लाया गया और जब ‘‘करो या मरो’’ का नारा दिया गया था। शांति का मसीहा कहे जाने वाले व्यक्ति ने उस समय कहा था कि अमरीका और चीन हमारी स्वतंत्रता के समर्थक हैं। यदि युद्ध में हम अंग्रेजों के खिलाफ लड़ेंगे तो चीन और अमरीका क्या कहेंगे?

महात्मा गांधी ने क्या कहा? महात्मा गांधी ने कहा था- मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं है कि अमरीका और चीन क्या कहेंगे। मुझे चिन्ता है कि इतिहास क्या कहेगा। मैंने इतिहास बनाने की जिम्मेदारी ली है। मुझे याद है हमारी पार्टी के महासचिव श्री नारायण गणेश गोरे ने आगा खान महल में महात्मा गांधी को अनशन तोड़ने का आग्रह करते हुए एक पत्र भेजा था क्योंकि महात्मा गांधी का जीवन देश के लिए बहुमूल्य था। उपसभापति महोदया, महात्मा गांधी जी ने इसका क्या उत्तर दिया? गांधी जी ने उनसे कहा कि उन्हें उपदेश देने की आवश्यकता नहीं हैं यदि उनमें क्रांति का जज़्बा है तो आगा खान महल आकर उनका साथ दें और देश की स्वतंत्रता के लिए बलिदान दें। मैंने जो यह नारा दिया है ‘‘करो या मरो’’ का अर्थ ही है ‘‘करो और मरो’’।

राष्ट्र निर्माता इस प्रकार के थे। वे दृढ़ निश्चयी थे। वे अपने मत बदला नहीं करते थे। वे रातों-रात अपने निर्णय नहीं बदला करते थे। मुझे यह कहते हुए खेद है कि सरकार अपने निर्णय प्रतिदिन बदलती है। मैं चाहे और कुछ भी करूं मगर अपने देश को युद्ध की आग में नहीं झोंक सकता। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसे मुद्दे अक्सर हमारे सामने आते हैं जब युद्ध के बारे में चर्चा हो रही थी तो एक नारा सामने आया था। मैं समझ नहीं पाया। मैं भी राजनीति का छात्र रहा हूँ। युद्ध का प्रश्न यदि एक तरफ करें तो प्रत्येक वक्ता ने कहा है गुटनिरपेक्षता समय की कसौटी पर खरी उतरी है। इसका अर्थ क्या है? गुटनिरपेक्षता का प्रश्न ही कहां है? केवल कुछ लोगों को छोड़कर सभी ने कहा है कि गुटनिरपेक्षता की नीति सही है किन्तु गुटनिरपेक्षता का क्या अर्थ है? क्या चीन के संबंध में हम गुटनिरपेक्ष हैं? जहां तक रूस और अमरीका जैसी विश्व शक्तियों का संबंध है, उनके प्रति हमने तटस्थता की नीति अपनाई है। यदि उन दोनों के बीच विवाद हो तो हम परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय लेंगे, किन्तु क्या चीन के प्रति हमारी मनःस्थिति इस प्रकार की होगी? इतनी गलतफहमी क्यों है? ऐसा इसलिए क्योंकि चीन न केवल शत्रु है, बल्कि रूसका मित्र भी है, अतः यदि हम चीन के विरुद्ध कोई कठोर कदम उठाते हैं तो मुझे लगता है, जैसा कि माननीय भूपेश गुप्त जी ने कहा, रूस नाराज हो सकता है। मैं नहीं जानता रूस के साथ हमारी इस प्रकार की मित्रता कितने दिन चल सकती है।

एक और मुद्दा उठाया जा रहा है, जो मैं समझ नहीं पा रहा कि कुछ देश कश्मीर मुद्दे पर हम पर दबाव डाल रहे हैं। एक महिला, मैं नाम नहीं लेना चाहूँगा, जो एक उच्च पद पर आसीन हैं और पूरा राष्ट्र उसे आदर की दृष्टि से देखता है, ने लखनऊ विश्वविद्यालय में व्याख्यान देते हुए कहा कि हम लद्दाख के बदले कश्मीर नहीं देंगे। मैं नहीं जानता कि यदि कोई उत्तरदायी व्यक्ति, चाहे महिला हो या पुरुष, इस तरह का वक्तव्य देता है, तो आज जो लोग उसके साथ हैं, इस बारे में क्या सोचेंगे। मैं ऐसे व्यक्तियों का पक्ष लेने के लिए नहीं कह रहा। हमारे धर्मग्रन्थों में भी कहा गया है कि जो व्यक्ति मित्र को मित्र और शत्रु का शत्रु नहीं समझता, वह मूर्ख और संकीर्ण विचारों वाला है। मैं नही जानता कि ये व्यक्ति मूर्ख हैं या संकीर्ण विचारों वाले हैं, किन्तु दोनों में से एक अवश्य है। या तो वे इसे समझ नहीं पा रहे या जानबूझकर ऐसा कररहे हैं- शब्द मेरे मस्तिष्क में हैं, किन्तु मैं बोलूंगा नहीं, वे वास्तविकता से कोसों दूर हैं।

मैं निश्चित रूप से सोवियत संघ से मित्रता बनाए रखने का पक्षधर हूँ किन्तु हमें माक्र्सवादी दर्शन को ध्यान से समझना होगा। माननीय लालबहादुर शास्त्री जी ने इसी सभा में एक बार कहा था कि स्वतंत्रता संग्राम में जनसंघ के लोगों की भूमिका नहीं थी और कम्युनिस्ट पक्के देशभक्त है। उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार उस प्रस्ताव के लिए कम्युनिस्ट समर्थन पाने में समर्थ है। मैं लालबहादुर शास्त्री जी का दिल से सम्मान करता हूँ किन्तु नम्रतापूर्वक मैं कहना चाहता हूँ कि या तो उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास नहीं पढ़ा है अथवा पढ़ने के बाद भीउसे समझने काप्रयास नहीं किया है। मैं रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की 22वीं कांग्रेस के नवीनतम प्रारूप में से एक अंश पढ़ना चाहूँगा। अब सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी का कहना है-

‘‘क्रांति की विजय के लिए कामकाजी वर्ग द्वारा शुरू किए गए संघर्ष की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि कामकाजी वर्ग और उनका दल शांतिपूर्ण, हिंसात्मक, संसदीय और गैर-संसदीय सभी प्रकार के संघर्षों मेंकतनी महारत हासिल कर पाता है और कितनी तत्परता और मुस्तैदी से वे संघर्ष के एक स्वरूप को दूसरे स्वरूप से बदल पाते हैं।’’

अतः, सोवियत संघ ने कम्युनिस्ट पार्टी को संघर्ष के दोनों स्वरूपों में विश्वास बनाए रखने का निर्देश दिया है।

उपसभापति महोदया, आपको, मुझे और पूरे देश को कम्युनिस्ट पार्टी के दृष्टिकोण पर विचार करना होगा। कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध करने का अर्थ यह नहीं है कि हमारे उनसे कुछ निजी मतभेद हैं और राजनीतिक लाभ के लिए हमारी एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा है। किन्तु हमें आधारभूत तथ्यों पर विचार करना चाहिए। जहां तक कत्युनिस्ट पार्टी और उसके नेताओं द्वारा दिए गए वक्तव्य का संबंध है, आॅल इंडिया जनरल परिषद् में कम्युनिस्ट पार्टी के 104 सदस्य हैं, 42 सदस्य जेल में हैं और 62 सदस्यों द्वारा प्रस्ताव पारित किए जाने के बाद भी सर्वसहमति नहीं बन पायी है। आप कम्युनिस्ट पार्टी का दृष्टिकोण भलीभांति समझ सकते हैं। एक बार मेरे यह कहने पर कि वे इन सब बातों में यकीन नहीं रखते, कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भूपेश गुप्त नाराज हो गए थे। परन्तु, मैं कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में कोई उल्लेख नहीं करना चाहता। उनके एक प्रतिष्ठित नेता पी.सी. जोशी ने एक पुस्तक लिखी है। पी.सी. जोशी ने अपनी केन्द्रीय समिति को 11 फरवरी, 1950 को एक पत्र लिखा था और उस समय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के साथ उनका विवाद चल रहा था। उन्होंने उन नेताओं के बारे में लिखा था:-

‘‘वे झूठे हैं, सफेद झूठ बोलते हैं। वे बेशर्मी से झूठे बयान देते हैं। वे बिना किसी पश्चाताप के सच्चे साक्ष्यों को छिपाते हैं।’’

कम्युनिस्ट पार्टी के एक नेता का अपने सहयोगियों के बारे में यह एक प्रमाण-पत्र है। यहां ऐसी अनेक बातें हैं, मैं जिनका उल्लेख नहीं करना चाहता, क्योंकि मेरे पास समय नहीं है। मेरा आपसे आग्रह है कि आप गृहमंत्री साहब तक मेरा यह अनुरोध पहुंचा दें कि पूरे विश्व के साम्यवाद की बजाय वे एक बार फिर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास का अध्ययन कर लें। मैं यहां यह उल्लेख करना चाहता हूँ कि यह केवल शास्त्रों और कूटनीति की लड़ाई नहीं है। यह लड़ाई अन्य मोर्चों पर भी लड़ी जा रही है, जिसका आमतौर पर भूपेश गुप्त द्वारा उल्लेख किया जाता है- इस देश के करोड़ों लोग आज भुखमरी के शिकार हैं और उनके स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के कुछ सपने हजन्हें पूरा किए जाने की आवश्यकता है। हमें कम्युनिस्ट पार्टी को इस मोर्चे पर भी उत्तर देना है। यदि हम लोगों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं करते हैं, तो हमें यह पता नहीं है कि हम इस क्षेत्र में अपनी लड़ाई कब तक जारी रख पाएंगे।

मेरा आपसे आग्रह है कि हमें देश के आंतरिक मामलों को इस दायरे में लाना पड़ेगा। जहां एक ओर हमें बाहरी सुरक्षा की आवश्यकता है, वहीं हमें आंतरिक स्थितियों पर भी ध्यान देना होगा। मुझे खेद के साथ यह कहना पड़ रहा है कि हमारी सरकार इस मोर्चे पर भी विफल रही है। इसका कारण यह नहीं है कि वे कार्य नहीं करना चाहते। उनकी मंशा स्पष्ट नहीं है। उनका उद्देश्य स्पष्ट नहीं है। वे समाजवाद की बात करते हैं, परन्तु भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय मामलों को लेकर उलझन में हैं और उनका आंतरिक मामलों के संबंध में भी विजन स्पष्ट नहीं है। मैं पं. जवाहर लाल का बहुत सम्मान करता हूँ। मैं एक ऐसे व्यक्ति की पुस्तक से उद्धरण पेश करता हूँ, जिनकी सत्यनिष्ठा पर कोई संदेह नहीं हैं उनका नाम तिबोर मेंडे है, जिन्होंने ‘चाइना एंड हर शैडो’ नामक पुस्तक लिखी है। उन्होंने पं. जवाहर लाल नेहरू के बारे में एक पुस्तक लिखी जिसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है और जिसका चैदह भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उन्होंने पं. जवाहर लाल नेहरू का महिमामंडन किया है।

अब उनका क्या कहना है। विशेष रूप से चीन के संदर्भ में भारत की सभी समस्याओं के बारे में बात करते हुए, उन्होंने यह कहा है कि भारत को निर्धन लोगों से जुड़े मुद्दों का समाधान करने संबंधी सुस्त रवैये के परिणाम झेलने पड़ेंगे। उन्होंने हमारे साथ सहानुभूति दर्शाई परन्तु, उन्होंने यह कहा है:- ‘‘श्री नेहरू जन्म से भारतीय थे परन्तु, उनकी परवरिश ब्रिटिश उदारवादी विचारों से प्रभावित थी और उनका व्यवहार ऐसा था, जैसे कि वह स्वतंत्र भारत के पहले वायसराय थे। वह तेजी से बदलाव लाने के लिए आंतरिक शक्तियों को तैयार करने की बजाय यथा स्थिति बनाए रखने के प्रति अधिक चिन्तित थे। उनका यह कार्य आसान नहीं था। तथापि, रूढ़िवादी ताकतों के मौजूदा गठबंधन में किसी और ने नेतृत्व नहीं किया था और समान प्राधिकार या जनमानस के विश्वास के साथ निकट भविष्य में नेतृत्व करने की संभावना भी नहीं है। विदेशों में एक राजनेता के रूप में, उनकी छवि से भारत को जो भीलाभ हुआ हो, परन्तु इससे देश में अनसुलझी मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता।’’

आप देख सकते हैं कि तिबोर मेंडे ने नेहरू जी की प्रशंसा की है, परन्तु उन्होंने उनकी मजबूरियों का भी उल्लेख किया है। मजबूरियों की बात करते हुए हमारे मित्र भूपेश गुप्त जी ने यह कहा है: ‘‘प्रतिक्रियावादी ताकतें मजबूत हो रही हैं, आपको सतर्क रहना चाहिए।’’ इसका क्या परिणाम हुआ? यह पंजवाहर लाल नेहरू, कांग्रेस और स्वयं देश का दुर्भाग्य है कि सारी जिम्मेदारियों एक ही व्यक्ति को सौंप दी गई हैं- और केवल जवाहर लाल नेहरू ही देश की प्रगति और पतन के लिए जिम्मेदार होंगे।

हाल ही में इस बात का बार-बार उल्लेख किया गया है कि इस देश में आपातकालीन शक्ति का दो प्रयोजनों हेतु उपयोग किया जाएगा। एक बार इसका उपयोग नेहरू जी के विरुद्ध उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए किया गया था। दूसरी बार नेहरू जी की प्रशंसा करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया। नेहरू जी की आलोचना करने के लिए दिल्ली से तीन व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया। ये व्यक्ति राष्ट्रवादी थे और उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था, उन्होंने केवल पं. जवाहर लाल नेहरू की आलोचना की थी। परन्तु, दूसरी ओर आपको यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि भूपेश गुप्त अनेक कम्युनिस्ट नेताओं की गिरफ्तारी पर बहुत क्रोधित थे। तथापि, उन्होंने पंजवाहर लाल नेहरू जी के हस्तक्षेप पर पंजाब में तेजा सिंह स्वतंत्र की रिहाई का उल्लेख नहीं किया। यह बात मैं अपनी ओर से नहीं कह रहा हूँ।

महोदया, मैं व्यक्तिगत रूप से यह जानता हूँ कि रामनगर (उ.प्र.) में एक बैंक डकैती हुई थी, जिसमें दो लोगों की हत्या कर दी गई थी लाखों रुपए लूटे गए और 15 लोगों को आजीवन कारावास की सजा दी गई। प्रधानमंत्री पंजवाहर लाल नेहरू, जो कि लोकतंत्र और शालीनता के प्रतीक हैं, ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को एक पत्र लिखकर उनके विरुद्ध मामलों को वापस लेने और उन्हें रिहा करने के लिए अनुरोध किया है। उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। क्योंकि गृह मंत्रालय और न्यायपालिका इसके लिए तैयार नहीं है। इसके बाद दूसरा पत्र लिखा गया और उत्तर प्रदेश सरकार को डकैती और हत्या के दोषी व्यक्ति को छोड़ने के लिए विवश किया गया। यह सब किसके लिए किया गया? क्या यह कम्युनिस्ट पार्टी के नरमपंथी तत्वों को बढ़ावा देनेके लिए किया गया था?

पंजाब की कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव, सुरजीत सिंह ने चीन के मुद्दे पर हाल ही में त्यागपत्र दे दिया है। श्री सुरजीत की काट करने के लिए तेजा सिंह स्वतंत्र के खिलाफ हत्या और डकैती के मामले को वापस लिया गया। यह आपातकालीन शक्ति है। कानून और न्याय की यह स्थिति है। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि क्या हम माननीय राष्ट्रपति द्वारा अपने अभिभाषण में व्यक्त किए गए समता, स्वतंत्रता और समाजवाद के सिद्धांतों की इन विचारों के साथ स्थापना कर सकते हैं। क्या हमें आगे ले जाने के लिए ये विचार सहायक हैं?

मैं पंचवर्षीय योजनाओं का उल्लेख करना चाहता हूँ जिनकी बड़े पैमाने पर चर्चा की जा रही है। उनका देश की प्रगति में कोई योगदान नहीं है। कृषि क्षेत्र का उदाहरण लीजिए, वर्ष 1930, 1932 से कांग्रेस यह कह रही है कि भूमि सुधार कानूनों को लागू किया जाना चाहिए और भूमि पर खेती करने वाले किसान का अधिकार होना चाहिए।

कांग्रेस समिति के संकल्प में ऐसा केवल एक बार नहीं बल्कि लगभग दस बार कहा गया है। आज स्थिति क्या है? राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि जो व्यक्ति स्वयं खेती नहीं करते हैं, उनके स्वामित्व में ही अधिकांश भूमि है। हमारे देश में 75 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो कि या तो भूमिहीन हैं या उनके पास एक एकड़ से कम भूमि है। यह पूरे भारत की तस्वीर है जो इस सरकार द्वारा गत पन्द्रह वर्षों के द्वारा की गई आश्चर्यजनक प्रगति को दर्शाता है। इस देश की 45 प्रतिशत किसानों की जनसंख्या की कुल भूमि में हिस्सेदारी केवल एक प्रतिशत है। 30 प्रतिशत लोगों के पास 15.6 प्रतिशत भूमि है 12.5 प्रतिशत लोगों के पास 17.34 प्रतिशत भूमि है। 11.54 प्रतिशत लोगों के पास 46 प्रतिशत भूमि है और एक प्रतिशत लोगों के पास कुल भूमि का 20 प्रतिशत भाग है। इस देश में भूमि सुधारों की यह स्थिति है।

जहां तक उत्पादन का संबंध है, मैं आंकड़ों की बात नहीं करूंगा क्योंकि मैं पहले ही काफी समय ले चुका हूँ। मैं यह उल्लेख करना चाहता हूँ कि हमारे देश की सकल कृषि आय 1700 करोड़ रुपये है, जिसमें से तीन प्रतिशत लोगों की आय 462 करोड़ रुपए हैं अर्थात् 27 प्रतिशत हैं। हमारे देश में कृषि आय का बंटवारा इस तरह से है। ये मेरे आंकड़े नहीं हैं। ये आंकड़े के.एल. राजसाहब के हैं जो दिल्ली स्कूल आॅफ इकोनाॅमिक्स के निदेशक हैं। आपको पता होना चाहिए कि वे हमारी पार्टी के सदस्य नहीं हैं और वह सरकार के खिलाफ नहीं हैं। सिर्फ यही नहीं, भूमिहीन लोगों की आय कम हुई है और ऋण का बोझ बढ़ा है। इन सभी बातों का उल्लेख सरकारी रिपोर्ट में है।

अब, मैं सामुदायिक विकास के बारे में बात करना चाहता हूँ जिसके बारे में बहुत विस्तार से चर्चा की जा रही है। सामुदायिक विकास और पंचायती राज में क्या हो रहा है? हाल ही में पंजाब में एक सर्वेक्षण किया गया। जिन लोगों की आय 300 रुपए से अधिक है, जो कि पंजाब की जनसंख्या का 12. 2 प्रतिशत हैं, उनके पास पंजाब की पंचायत समिति की 41.7 प्रतिशत सीटें हैं। 150 रुपए से कम आय वाले लोगों की संख्या 62.9 प्रतिशत है। लेकिन इन लोगों में से 26.3 प्रतिशत लोग ही पंचायतों में स्थान पाते हैं। यह स्थिति पंचायतों में है। सिर्फ यही नहीं अपितु मसूरी संस्थान के निदेशक डाॅ. एस.सीदुबे कहते हैं:-

‘‘इसका लगभग 70 प्रतिशत लाभ उच्च समूह और अधिक समृद्ध तथा प्रभावशाली किसानों को मिला।’’

यह स्थिति है देश में। तिबोर मेंडे साहब के विचार इससे अलग हैं। यह उद्धृत करने के लिए कृपया मुझे क्षमा करे। लेकिन देश के लोगों की भावना समझने का प्रयास करें। देश की भावना उसी तरह की है जिस तरह कोई विद्वान व्यक्ति बिना पूर्वाग्रह के सोचता है। इस देश में बनाए गए नियमों और सुधारात्मक कानूनों को देखते हुए, यूरोप के वरिष्ठ पत्रकार श्री तिबोर मेंडे कहते हैं-

‘‘भारत के कृषि क्षेत्र की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय है। भारतीय कृषि का मौजूदा आर्थिक और सामाजिक ढांचा किसानों के हित में पहल को बढ़ावा देने की अपेक्षा उसे हतोत्साहित करता है। भारत की संसद और राज्य विधानसभाओं में अधिकांश जनप्रतिनिधि या तो स्वयं जमींदार और साहूकार हैं अथवा उन्हीं के हितों को मुखरित करने वाले हैं।’’

ये विचार हैं विश्व के हमारे प्रति। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि इस पृष्ठभूमि में हम एक नया समाज बनाने जा रहे है। मैं एक उद्धरण के साथएक मिनट में अपनी बात समाप्त करूंगा और मुझे विश्वास है कि आप इसके लिएमुझे क्षमा करेंगे। 1921 की राज्यों की परिषद की कार्यवाही की प्रस्तावना लिखते समय श्री एल0 प्राईज कहते हैं-

‘‘इस परिदृश्य में मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि भारत के किसानों औरउद्योगपतियों के बीच आर्थिक संघर्ष निश्चित है, किन्तु स्थिति उद्योगपतियों के पक्ष में है क्योंकि कृषि में लगे लोग अपने हितों पर मंडराते खतरों के प्रति जागरूक नहीं हैं। ऐसी स्थिति लम्बी अवधि तक जारी रही तो भारत में बहुसंख्यक किसानों के अलावा अन्य सभी के पा अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का अवसर होगा।’’

श्री विलियम जेंनिग्स ब्रायन द्वारा अपने विख्यात भाषण ‘‘क्रास आॅफ गोल्ड’’ में यह चेतावनी दी गई थी। उन्होंने कहा था-

‘‘अपने शहरों को जला डालो और हमारे खेतों को छोड दो तो तुम्हारे शहर जादू की तरह दोबारा से समृद्ध हो जाएंगे। लेकिन अगर हमारे खेतों कोनष्ट करोगे तो तुम्हारे शहरों की गलियों में घास की उगेगी।’’

यह अतिश्योक्ति हो सकती है, लेकिन इसमें कुछ सच्चाई है। संसद में जब भी यह मुद्दा उठता है और वस्तुतः आज भी माननीय भूपेश गुप्त ने मिल मालिकों के ऊपर किसानों के बकाया धन की वसूली के लिए सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों के बारे में पूछा है।

हमारे खाद्य मंत्री का कहना है कि वसूली का प्रयास किया जा रहा है। यदि कोई गरीब किसी पांच रुपये का कर नहीं चुकापाता है तो उसे जेल भेज दिया जाता है। उद्योगपतियों और चीनी मिल मालिकों के ऊपर किसानों का पांच करोड़ रुपये से अधिक का बकाया है और सरकार उस धन की वसूली के लिए क्या कर रही है? इसे छोड़ दीजिए, सरकार पिछले चार सालों से यह कह रही है कि गन्ने और चीनी का उत्पादन बढ़ना चाहिए। अतः किसानों ने अधिक मात्रा में गन्ने का उत्पादन किया किन्तु दो वर्ष के बाद ही अतिरिक्त गन्ने को नष्ट करने के लिए कहा गया क्योंकि हम इसका प्रबंध नहीं कर सकते तथा इसका उपयोग सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है। खांडसारी और गुड़ के उद्योग को किसानों ने ही स्थापित किया है। इस वर्ष क्या हुआ? गन्ना कम मात्रा में बोया गया और इसके परिणामस्वरूप गन्ने का उत्पादन कम हुआ। अब किसान अपने गन्ने से खांडसारी बनाना चाहते हैं, जबकि सरकार किसानों को उनका गन्ना मिल मालिकों को देने का दबाव बनारही है। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या ऐसा इसलिए नहीं हो रहा है कि मिल मालिक संगठित हैं और वे सरकार पर दबाव बना रहे हैं।

मैं श्री भूपेश गुप्त से सहमत हूँ कि श्री बिरला और अन्य पूँजीपति सरकार को नियंत्रित करते हैं और अभी तक सरकार की यही मानसिकता है, यह चीन के साथ लड़ने से ज्यादा मुश्किल हैं चाहे मैं इसे प्रभावी रूप से कहूँ अथवा नहीं लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हँू कि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि प्रजा सोशलिस्ट पाटी्र के सदस्यों ने सरकार को चीन के प्रति सावधान किया था, लेकिन इसे मजाक समझा गया। भारत के लोगों के लिए यह प्रमाण के रूप में होना चाहिए कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों ने गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी और बीमारी के प्रति सचेत किया था लेकिन सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया।

जहां तक स्वास्थ्य का संबंध है, मैं अपनी बात एक मिनट में समाप्त करूंगा। स्वास्थ्य के संबंध में कहा गया कि देश में मलेरिया का उन्मूलन कर दिया गया है। मलेरिया के उन्मूलन हेतु बहुत सी योजनाएं बनाई गई हैं लेकिन उपसभापति महोदया, आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि उ.प्र. विधान परिषद में डाॅ. ए.जी. फरीदी द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया गया। डाॅ. फरीदी हमारी पार्टी के नेता हैं और एक प्रसिद्ध चिकित्सक हैं। उनका प्रस्ताव था कि बच्चों को मलेरिया के साथ-साथ चेचक और दूसरी बीमारियों के टीके भी लगाने चाहिए। इस प्रस्ताव पर चर्चा हुई लेकिन इसे अस्वीकृत कर दिया गया।

आज स्थिति क्या है? उत्तर प्रदेश में कई हजार लोग चेचक से मर चुके हैं। देश से चेचक को मिटाने का मुद्दा उठाया जा रहा है लेकिन क्या इसके लिए कोई सुविचारित कार्यक्रम बनाया गया है? एक टीकाकर्मी मलेरिया का पता लगाने के लिए खून की जांच के लिए आता है और टीकाकरण हेतु वह दोबारा तीन वर्ष के बाद वापिस आता है। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि यह किस तरह की योजना है और यह किस प्रकार का स्वास्थ्य प्रबंधन है? टीकाकरण किसी विशेषज्ञ का कार्य नहीं है। जब एक व्यक्ति मलेरिया उन्मूलन के लिए डी.डी.टी. छिड़कने जाता है तो यदि उसके पास चेचक का टीका है तो वह साथ ही साथ टीका भी लगा सकता है, परन्तु इस प्रकार का कोई प्रबंध नहीं किया गया और आज हमारे देश के लोग चेचक से पीड़ित हैं औरसमय-समय पर हैजा फैल रहा है।

मुझे आश्चर्य तब हुआ जब मैंने इस संबंध में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों से बात की। उन्होंने बताया कि पिछले वर्ष ही हैजे पर नियंत्रण पा लिया गया था, परन्तु आंत्रशोथ इस वर्ष फैला है। मैंने उनसे पूछा कि आंत्रशोथ और हैजे के बीच क्या अंतर है? मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ, अतः मैंने मेडिकल काॅलेज के प्रधानाचार्य से बात की और डाॅ. फरीदी से भी मिला मगर वह स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों द्वारा बताए जा रहे इस पेच को समझ नहीं पारहे थे कि हैजे का उन्मूल हो चुका है, परन्तु आंत्रशोथ अभी भी फैल रहा है। ऐसी चीजें तत्काल कह दी जाती हैं परन्तु कुछ समय के बाद इसका अंत हो जाता है।

हमारे मित्रों में से एक ने दो राज्यों अर्थात उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच संघर्ष का उल्लेख किया। उन मामलों में क्या हो रहा है? ये छोटे मामले वर्षों तक लंबित रहे हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच सीमा संबंधी मुद्दे पर 1946 से चर्चा चल रही है। स्वर्गीय पंडित गोविन्द बल्लभ पंत के नेतृत्व में एक समिति का गठन हुआ था। इस समिति ने कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत किए थे और दोनों ही राज्य उस पर सहमत हुए थे। उसके बाद कुछ अवरोध उत्पन्न हो गया था, उसके बाद क्या हुआ? प्रधानमंत्री को निर्णायक बनाया गया। उन्होंने सी.एल. त्रिवेदी को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया। महीनों गुजर गएः सभी फाइलें वहां हैं; पत्र भी हैं; परन्तु अभी तक निर्णय नहीं लिया गया है।

मेरे मित्र खांडेकर साहब और चैरडिया साहब रिहंद बांध के लिए संघर्षरत हैं। उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि रिहन्द बांध का निर्माण पूर्वी जिलों के गरीब लोगों को कृषि के लिए बिजली प्रदान करने के लिए किया गया है। उस बिजली का एक बड़ा भाग सस्ती दरों पर बिरला साहब को दिया जा रहा है। संविदा पर हस्ताक्षर हो चुके हैं। समझौता सम्पन्न हो गया है। क्या यह सब योजना का एक हिस्सा है?

अंत में, मैं एक और चीज कहना चाहूँगा। अभी हाल में, इस मामले की जांच-पड़ताल करने के लिए एक दल उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में गया है। यह वहां कैसे गया है? दूसरे सदन में एक माननीय सदस्य ने उल्लेख किया है कि पूर्वी जिलों की आर्थिक दशा बहुत खराब है। मजदूरी बहुत कम है। प्रधानमंत्री इस पर चकित रह गए। ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेशकी खोज अभी-अभी हुई हो और उन्होंने इसे पहली बार देखा है। श्री अशोक मेहता की अध्यक्षता में 1957 में खाद्यान्न जांच समिति का प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ था। इस समिति का गठन पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार द्वारा हुआ था। यह प्रतिवेदन कहता है- मैं यह नहीं कहना चाहूँगा कि उत्तर प्रदेश के इन 15 पूर्वी जिलों के संबंध में विशेष जांच की जानी चाहिए।

इसके अतिरिक्त प्रतिवेदन में, ओडिशा, मद्रास के रायलसीमा या कुछ अन्य क्षेत्रों, पहाड़ी क्षेत्रों, बंुदेलखंड और मध्य प्रदेश का भी उल्लेख किया गया है। इस प्रतिवेदन में एक अध्याय है जिसका शीर्षक है- ‘अभावग्रस्त क्षेत्र’। मुझे नहीं पता कि क्यों इस पत्र को कूड़ेदान में डाल दिया गया और प्रधानमंत्री ने इसे पढ़ा या नहीं? इस संबंध में उनसे एक निवेदन किया गया था। उत्तर प्रदेश के तीन से चार हजार लोगों को जेल में डाल दिया गया था। उस समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर दिया था कि जो कानून तोड़ेगा, उसे जेल भेजा जाएगा। परन्तु, आज वे पूछ रहे हैं कि क्या कोई ऐसे पूर्वी जिले हैं, जहां मजदूरी दो आना है? चार लोगों की एक टीम वहां जांच-पड़ताल के लिए गई है। अब गुलजारी लाल नंदा वहां जाने की योजना बना रहे हैं। मैं कहना चाहूँगा कि इन पिछड़े अभावग्रस्त क्षेत्रों के लिए एक क्षेत्रीय योजना की रूपरेखा प्रस्तुत की जानी चाहिए।

एक अकेला दल इसे नहीं कर पाएगा। विशेषज्ञों के एक जांच दल को वहां जाना चाहिए। जो उस क्षेत्र की समस्याओं को समझेगा और पिछड़े तथा अभवग्रस्त क्षेत्रों के लिए एक अलग योजना तैयार करेगा।

अंत में, मैं यह कहना चाहता हूँ कि राष्ट्रपति के अभिभाषण का अंतिम वाक्य यही है कि देश को सचेत होना चाहिए और चैकन्ना रहना चाहिए। यदि प्रधानमंत्री नेहरू इन शब्दों का अभिप्राय समझ पाते। यदि यही सरकार इन शब्दों की भावना समझ पाती, तो इस देश का भविष्य उज्ज्वल होता और देश तथा सरकार अपने कत्र्तव्य पूरा करने में सफल हो जाते।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।