नेहरु और इन्दिरा गाँधी को जिन नीतियों को बनाने में 13 वर्ष लगे, राव की सरकार ने तीन दिन में बदल दिया
अध्यक्ष महोदय, मैं इन विवादों में नहीं पड़ना चाहता। कुछ ऐसे विवाद जो राष्ट्र के जीवन के बारे में हैं और जिन सवालों को देश के अन्दर और इस सदन के सामने उठाया गया है। कुछ सवालों पर मैं जिक्र करना चाहूँगा। मैं शायद इस सदन में नहीं बोलता लेकिन मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है प्रधानमंत्री जी यहाँ नहीं हैं। उन्होंने उस दिन अपने भाषण में कहा कि जो उन्होंने आर्थिक समस्याओं के समाधान के बारे में कदम उठाए हैं वे कदम उठाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी। कागजात पहले से तैयार थे, मैं कठिनाइयों के कारण उन निर्णयों को नहीं ले पाया और उन्हीं कागजातों के आधार पर प्रधानमंत्री जी ने यह निर्णय लिया है।
मैं राष्ट्र के और सदन के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझता हूँ कि यह बात सत्य से परे है। ये सवाल मेरे सामने न आए, न इन सवालों का जिक्र मेरे सामने किया गया, न इन समस्याओं के समाधान के लिये सवाल हमारे सामने उठे। मुझमें और कोई कमी हो सकती है, निर्णय लेने में कोताही करने की कोई कमी मुझमें नहीं है। मैं नहीं जानता हूँ कैसे निर्णय लिया प्रधानमंत्री ने, यह उनकी जिम्मेदारी है, वह बताएंगे। मैं यह जरूर मानता हूँ कि जो शक्ति उनमें है वह शक्ति मुझमें नहीं है, शक्ति केवल इन सदस्यों की सहायता की नहीं, मदद की समर्थन की नहीं, उनकी निर्णय लेने की जो क्षमता है, वह अद्वितीय है।
मैंने उनको एक पत्र लिखा था जिसमें कहा कि आपने बड़ी तेजी से निर्णय लिये हैं। निर्णय तेजी से लिये हैं इसमंे मुझे कोई एतराज नहीं है। जिस प्रकार के निर्णय लिये जा रहे हैं उस निर्णय से मुझे लगता है कि भारत का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। मुझे यह भी जान कर दुःख हुआ अध्यक्ष महोदय कि वह निर्णय स्वयं प्रधानमंत्री लेते, यदि उनकी कैबिनेट ने लिया होता, अगर संसद ने लिया होता, अगर कांग्रेस पार्टी ने लिया होता तो मुझे इस पर कोई एतराज नहीं होता लेकिन समाचार पत्र में जो छपा, संसद को तो मालूम नहीं था, कैबिनेट को मालूम था या नहीं मुझे मालूम नहीं लेकिन कांग्रेस पार्टी को कम से कम मालूम नहीं था।
अभी हमारे मित्र श्री राजेश पायलट जी जिक्र कर रहे थे। मैं उनको जानता हूँ। नौजवान आदमी हैं। उनके मन में कुछ आगे बढ़ने की तमन्ना है, देश को बढ़ाने की तमन्ना है। वह नेहरू जी का भाषण उद्धृत कर रहे थे। मैंने उनसे कहा कि वह उसे उद्धृत करें लेकिन वह उसे नहीं कर पाए क्योंकि एक परिधि के बाहर नेहरू जी को खींचा जा सकता। नेहरू जी की सारी नीतियों से मैं सहमत नहीं था लेकिन आर्थिक क्षेत्र में जो उन्होंने देश में एक स्वावलम्बन और स्वदेशी का संदेश दिया, जो गाँधी जी के आन्दोलन की विरासत थी। राजेश पायलट जी से आपके जरिये मैं कहना चाहता हूँ कि उस परम्परा से आपका कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। पिछले तीन महीनों में उस सम्बन्ध की आखिरी कड़ी को आपने तोड़ दिया। मैं आपसे केवल भावात्मक रूप में नहीं कह रहा हूँ, मैं पिछले 29 वर्षों से इस संसद में रहा हूँ। मैंने देखा कि आर्थिक नीतियाँ किस तरह से बनाई गईं।
एक दिन में इंडस्ट्रियल पाॅलिसी रेजोल्यूशन नहीं बना था, एक दिन में एमआर.टी.पी. ऐक्ट नहीं बना था, एक दिन में फेरा नहीं बना था, एक दिन में देशी और विदेशी कम्पनियों के बारे में नीति तय नहीं की गई थी। हमारे गुरुदेव अटल जी बैठे हुए हैं, कितना विवाद हुआ था राज्यसभा में, दिन के दिन, रात के रात बैठ कर एम.आर.टी.पी. ऐक्ट के लिये बने दत्त कमीशन पर बहस हुई। याद होगा कि इंडस्ट्रियल पाॅलिसी रेजोल्यूशन पर न केवल संसद के अन्दर बल्कि देश के सारे विद्वानों को बुला कर निरन्तर 1948 से 1956 तक पंडित जवाहर लाल नेहरू जी ने बहस किया। जो काम आठ वर्षों में पंडित जवाहर लाल नेहरू जी सम्पन्न कर सके, जो काम इंदिरा गाँधी जी को करने में 4-5 बरस लगे, उस काम को करने में पी.वी. नरसिंह राव जी को तीन दिन लगे।
मैं इस क्षमता के लिए उनको बधाई देता हूँ। उन्होंने इन सारी नीतियों में परिवर्तन कर दिया। दस्तावेज तैयार थे। वह दस्तावेज कहाँ से आए, किन्होंने उन दस्तावेजों को बनाया और इसलिये इन दस्तावेजों के बारे में चर्चा होनी चाहिए और देश को, मैं यह नहीं चाहता कि सब बातें बताई जाएं। उन्होंने बड़ी सादगी से कहा कि आप बजट नहीं जानना चाहेंगे और हम बजट बताएंगे भी नहीं। संसद में जो लोग आए हैं उनको इतनी परम्परा मालूम है संसदीय बजट को न कोई पूछेगा और न कोई बताएगा।
कभी-कभी आश्चर्य होता है कि नीतियों के बारे में क्या बहस नहीं होगी, क्या जब नीतियों को बदला जाएगा तो कानून को नहीं बताया जाएगा। मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि मुझे कहा गया कि जब मैंने उनको पद का भार दिया, उसके बाद कि मेरे कहने पर यह सब निर्णय हो रहे हैं। मुझे थोड़ी चिन्ता हुई और मुझे बताया गया कि विश्व बैंक की कोई रिपोर्ट है, जिसके आधार पर यह निर्णय हुए हैं। रिपोर्ट नवम्बर, 1990 में मेरे पद ग्रहण करने के बाद सरकार को दी गई थी। 1990 की नवम्बर से 1991 के जून तक मैं मैं प्रधानमंत्री था। मैं मानता हूँ कि हमारे मित्र श्री सोमनाथ चटर्जी की नजरों में एक कहने के लिए प्रधानमंत्री था, किसी के बल पर प्रधानमंत्री था लेकिन बदकिस्मती से आपकी और मुल्क की कि मैं ही इस देश का प्रतिनिधित्व कर रहा था-चाहे मुझमें जितनी भी कमजोरियां रही हों, चाहे जितनी भी कमी रही हो समझ की, निर्णय लेने की जितनी क्षमता रही हो, इन 6-7 महीनों में वह रिपोर्ट मेरे सामने नहीं रखी गई, वह रिपोर्ट वित्तमंत्री के सामने नहीं रखी गई, वह रिपोर्ट नहीं रखी गई हमारे उच्चाधिकारियों के सामने। भारत सरकार के 8 या 9 अधिकारी हैं, उनके पास वह रिपोर्ट रही। मैं इस बात को नहीं कहता, क्योंकि, आप जानते हैं, मैं किसी भी अधिकारी का नाम नहीं लूँगा लेकिन इन 8-9 अधिकारियों में अधिकतर अधिकारी वह हैं, जो एक-न-एक समय पर वल्र्ड बैंक के कर्मचारी रहे हैं।
अध्यक्ष महोदय, मैंने प्रधानमंत्री जी को खत लिखा कि यह रिपोर्ट कहाँ थी, यह रिपोर्ट हमको क्यों नहीं दिखाई गई? इस रिपोर्ट के बारे में चर्चा क्यों नहीं हुई ? जब वित्त मंत्रालय के सामने हमारी चर्चा हुई, जैसा अटल जी ने कहा, पहले दिन ही या दूसरे दिन, मेरे पद ग्रहण करने के बाद मुझसे कहा गया-सिचुएशन, हालत इतनी खराब है, जो शब्द उन्होंने उद्धृत किए, वह सही हैं कि अब कुछ भी नहीं किया जा सकता। मैंने उस व्यक्ति से कहा, अगर आपकी यह धारणा है तो इस पद पर आज तक आप कैसे बने हुए हैं? मैं भाई विश्वनाथ प्रताप सिंह जी से कहना चाहूँगा कि उनके एक बड़े उच्चाधिकारी हैं, आज भी भारत सरकार में हैं, शायद फिर उच्च पद पर पहुँच जाएँ। मैंने उनको उसी दिन कहा, आप कृपापूर्वक यह निराशा, लेकर इस पद से बाहर चले जाएँ और शायद इसी कारण वह रिपोर्ट हमको नहीं दिखाई गई। मैंने प्रधानमंत्री जी से कहा, आप जांच कीजिए और मैंने उनसे कहा कि जब तक आप जांच करके हमको बताएंगे नहीं, इस सवाल को मैं सार्वजनिक रूप से नहीं कहूँगा।
मैं कांग्रेस के मित्रों से कहना चाहता हूँ अगर देश का प्रधानमंत्री मेरे पत्र लिखने के बाद यह कहे कि मेरे समय में कागज तैयार हुए थे और उन कागजों के आधार पर यह निर्णय लिया गया है तो फिर क्या मैं चुप रह जाऊँ ? क्या राष्ट्र के लिए मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं हैं, क्या इस संसद के लिए मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं ?
श्री मनमोहन सिंह जी का मैं बहुत आदर करता हूँ, मेरे मित्र हैं। उन्होंने पेपर्स तैयार किये होंगे लेकिन पिछले 5-7 दिनों से सरकार ने सहायता नहीं की तो मैं भी इतना अनभिज्ञ, अनजान नहीं हूँ, मैंने भी कुछ पेपरों को देखा है, उसके बाद वल्र्ड बैंक की वह रिपोर्ट मैंने देखी है और उस रिपोर्ट के दो पन्ने मेरे पास हैं। मैं क्या पढ़कर सुनाऊँ, यह एक अनहोनी घटना होगी। जो शब्द हमारे कामर्स मंत्री जी अपने भाषणों में कहते हैं, वही शब्द इसमें लिखे हुए हैं, जो नीतियां अपनाई जा रही हैं, एकाएक कहा गया है कि आपको क्या करना चाहिए। वल्र्ड बैंक की इस रिपोर्ट में सारे सजेशंस दिये हुए हैं, सारे सुझाव दिये हुए हैं कि क्या-क्या नीतियाँ अपनाई जानी चाहिए। कहा गया है कि स्टेट पाॅलिसी के बारे में क्या कहा जायगा, इसमें कहा गया है नीतियों के बारे में क्या कहा जायेगा। इसमें कहा गया है कि बजट में कस्टम ड्यूटी को कम करो, एक्साइज ड्यूटी को बढ़ाओ। इसमें इण्डस्ट्रीयल पालिसी के बारे में कहा गया है और मुझे आश्चर्य हुआ, यह 18 कागज हैं, जो 1987 से आज तक वल्र्ड बैंक ने भेजे हैं, इन कागजों पर आई.एम.एफ. में बहस होती हैं, इन कागजों पर वल्र्ड बैंक में बहस होती है, इन कागजों पर दुनिया के मल्टी नेशनल आर्गेनाइजेशंस में बहस होती है लेकिन इस संसद को यह कागज नहीं दिखाये जा सकते, इन कागजों को देश का प्रधानमंत्री नहीं देख सकता और हमको कहा जाता है, निर्णय हमने लिया। अगर मनमोहन सिंह जी, निर्णय आपने लिया तो आपके सोचने के तरीके में और आई.एम.एफ. और वल्र्ड बैंक के सोचने में इतनी साम्यता है जो प्रकृति की एक अनहोनी घटना है और इस अनहोनी घटना के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता लेकिन दूसरी बात मैं कहता हूँ, मान लीजिए आपने निर्णय लिया तो तीन दिन के अन्दर इसकी क्या आवश्यकता थी, क्या एक हफ्ते तक देश इन्तजार नहीं कर सकता था, क्या आप अपनी पार्टी को विश्वास में नहीं ले सकते थे, जिन नीतियों को 20-21 वर्ष में इस संसद ने, इस राष्ट्र ने बनाया, उन नीतियों को आप देश के नाम पर, जनता के नाम पर, विकास के नाम पर, विवशता के नाम पर बदलना चाहते हैं और देश का कहना चाहते हैं, हमने सोच-समझ कर इन नीतियों को बदलने का निर्णय लिया है।
आपकी समझ पर मुझे पूरा विश्वास है लेकिन मैं किसी भी प्रधानमंत्री, किसी भी संसद सदस्य, किसी भी वित्तमंत्री की समझ को भारत की 21 वर्षों की समुच्चय समझ से ऊँचा मानने के लिये तैयार नहीं हूँ। यह मेरी विवशता है। इसलिए मैं यह कह रहा हूँ कि इस पर और गम्भीरता से विचार करना चाहिये। मैं यह नहीं कहता कि इरादा खराब है, मैं यह नहीं कहता कि नीयत खराब है, मैं यह नहीं कहता कि कोई गड़बड़ बात है, लेकिन क्या यह गड़बड़ नहीं हैं कि आठ अधिकारी रिपोर्ट को सात महीने रखे रहें, पन्द्रह दिनों तक उसकी जांच न करें। क्या यह अच्छा होगा कि आप इतनी बड़ी नीतियों में परिवर्तन करें और आप किसी से सलाह-मशविरा न लें? मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि बहुत बावेला उठाया गया, कहा गया कि हमारी सरकार के समय में सोना भेजा गया बाहर, तो कहा गया देश के साथ गद्दारी हुई है। कांग्रेस पार्टी ने कहा कि यह नेशनल-ब्रिट्रयल है और वही नेशनल-ब्रिट्रयल आज राष्ट्रभक्ति हो गया, जो राष्ट्रद्रोह था मई के महीने में। मैं वे बातें नहीं कह सकता हूँ, जो फाइलों पर हैं। मैंने एक दिन नहीं दो दिन नहीं, दस दिन-पन्द्रह दिनों तक उस निर्णय को रोके रखा। लेकिन सोमनाथ जी आप जैसे लोगों ने मुझे मजबूर किया, जिन्होंने यह कहा कि काम चलाऊ सरकार है और काम चलाऊ सरकार में जो और ताकतें थीं, जो बड़ी ताकतें थीं, जो गलत निर्णय लेने के लिये कभी-कभी मजबूर करना चाहती थीं।
मैं इससे ज्यादा नहीं कहना चाहता हूँ, लेकिन मैं चाहता हूँ कि इन बातों की जांच हो। मैं चाहता हूँ कि इन बातों के ऊपर देश के सामने सफाई से बात हो। मैं यह समझता हूँ कि कोई जरूरत नहीं थी। मैं आज भी समझता हूँ लेकिन मैं उसमें नहीं जाऊंगा कि अवमूल्यन नहीं हुआ है या गलत हुआ है। मेरी दृष्टि में बिना अवमूल्यन के काम चल सकता था। श्री वी.पी. सिंह ने अवमूल्यन नहीं किया, मैंने अवमूल्यन नहीं किया, मुझसे अवमूल्यन की किसी से बात नहीं चली और अचानक सात दिनों में सारा देश बदल गया और सारी परिस्थितियां बदल गईं और हम इतने अनाथ हो गए। मैं जानता हूँ कि हमारे पास धन की कमी है। कर्ज की बात में मैं नहीं जाऊंगा कि किसकी कितनी जिम्मेदारी है। राजेश पायलट जो आप ने विद्वतापूर्ण भाषण दिया। मैं आपको बधाई देता हूँ, कांग्रेस पार्टी को बधाई देता हूँ कि आप जैसा सदस्य उनको मिला है। आपने यह तो बताया कि कितना कर्जा छोड़ कर गए थे, लेकिन आपने यह नहीं बताया कि छह हजार करोड़ रुपया जो सिक्रेट रिजर्व में फाॅरेन एक्सचेंज का रखा था, उसका क्या हुआ? पांच हजार करोड़ रुपए आपने खत्म कर दिये और हजार करोड़ रुपया जो बचा था, वी.पी. सिंह ने खत्म कर दिया।
भारत एक पिछड़ा हुआ देश है। तीसरे विश्व का गरीब देश है, लेकिन हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारत तीसरे विश्व का नेता हैं। सारी दुनिया में अकेला भारत है जो अपनी आवाज आज भी उठाए हुए है। हमारे मित्र, इन्द्रजीत जी ने उस दिन कहा था- उरुगुवे-राउन्ड बातों में, पिछले दिनों तक अकेला हिन्दुस्तान है जो अपनी आवाज उठा रहा है और ब्राजील दूसरा था तथा सब दब गए। एशिया के लोग, पिछड़े हुए इलाकों के लोग आज आपको आशा भरी निगाह से देखते हैं, लेकिन अध्यक्ष महोदय, तरह-तरह की बातें कही गईं, जो राजनीतिक ज्ञान से शून्य लोग हैं....कभी रूस की बात करते हैं, कभी गोर्बाचोव की बात करते हैं, लेकिन अध्यक्ष महोदय, क्या उनको यह मालुम है कि गोर्बाचोव जिस समाज को चला रहे हैं उस समाज में एक सेना है जो सजग है, सचेत है और राजनीतिक रूप से सक्रिय है। उसमें और हमारे में बड़ा अन्तर है। उसके बावजूद भी गोर्बाचोव जैसा आदमी जी-7 के सामने इन्तजार कर रहा है कि हमको निमंत्रण मिलेगा कि नहीं, उसको भी मदद नहीं मिलने वाली है।
हमारे देश को आज दूसरी परिधियों में जाना पड़ेगा, दूसरे संकल्प लेने पड़ेंगे। आज जापान और जर्मनी जैसे देश हमारी सहायता करने को तैयार हैं, ऋण देने के लिए तैयार हैं। अध्यक्ष महोदय, मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ कहता हूँ कि हमारे यहाँ एक ऐसी प्रवृत्ति है, ऐसा शासन है जो देश को चलाना नहीं चाहता। वह देश में एक ही भावना बनाने की बात करता है आई.एम.एफ. नहीं रहेगा, वल्र्ड बैंक नहीं रहेगा, यह देश मिट जाएगा। मैं आई.एम.एफ. अैर वल्र्ड बैंक के खिलाफ नहीं हूँ, मैंने खुद कर्जा लिया था। 1200 करोड़ रुपये, इस देश के अन्दर मैंने टैक्स भी लगाया था। इस देश के बड़े पूँजीपतियों को कहना पड़ेगा कि अगर हमें कमर कसनी है तो पहले तुमको कमर कसनी पड़ेगी।
अध्यक्ष जी, वास्तविकता क्या है? अगर आप जानना चाहते हैं तो वल्र्ड बैंक की रिपोर्ट को उठा कर पढ़ लीजिए, जो रिपोर्ट प्रेसीडेंट को है उसको उठा कर देख लीजिए वे कोई छिपा कर काम नहीं करते, इसकी सारी दुनिया को सारे देश को जानकारी है, केवल भारत की संसद को इसकी जानकारी नहीं है। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि अगर जानबूझ कर कदम उठाए जा रहे हैं, मुझे इसमें कुछ नहीं कहना है। लेकिन मुझे डर लगता है कि हम एक अन्धेरी गली में घुस रहे हैं, हम भविष्य को गिरवी रख रहे हैं। अध्यक्ष महोदय, मुझे डर लगता है कि हम अपनी आर्थिक आजादी को सौदे पर चढ़ा रहे हैं। अपनी राजनीतिक आजादी के साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं और यह कोई हमारा अनुभव नहीं है, दुनिया के बहुत से देशों ने ये कदम उठाए हैं। कहाँ गए वे देश, कहाँ गई वह आर्थिक आजादी, कहाँ गया उनका आर्थिक विकास? सभ्यता और संस्कृति के पुजारी, अटल जी, मैं आपसे निवेदन करूँगा कि कोरिया और ब्रिसबान की संस्कृति का क्या हुआ? ये आर्थिक विकास, ये सोने चांदी की चमक, ये मोटर गाड़ियां, क्या यही हमारे देश की मर्यादाएं हैं? मैं उनकी बात करता हूँ जो विकसित माने जा रहे हैं। साउथ कोरिया हो, चाहे फिलीपींस हो, थाइलैंड और तेईबान हो, तो क्या हुआ उनकी संस्कृति का, क्या हुआ उनकी सभ्यता का? भारत उस रास्ते पर नहीं जा सकता और जिस दिन इस देश को आप उस रास्ते पर ले जाने की कोशिश करोगे तो यह देश आपके साथ नहीं रहेगा। इसलिये मैं इस बात को आपके सामने रखना चाहता हूँ। पंजाब के मामले में चर्चा चली और हमारे इन्द्रजीत गुप्ता ने कहा कि किसने फैसला लिया, इसका जवाब दें। तो हमारे मित्र बूटा सिंह ने कहा कि मैंने किसी से राय नहीं ली, जबकि राय सबकी मालूम थी। सी.पी.एम., बी.जे.पी., उसमें हिस्सा ले रही थी, कम्युनिस्ट पार्टी इसमें हिस्सा ले रही थी और चन्द अकाली दल के लोग इसमें हिस्सा ले रहे थे। केवल एक्सट्रीमिस्ट नहीं चाहते थे कि चुनाव न हों और दूसरी ओर हमारे पड़ोस का एक देश था वह चाहता था कि चुनाव न हो।
मैं कोई गुप्त वार्ताएं नहीं करता हूँ, मैंने सारे लोगों से सलाह ली, वहाँ के राज्यपाल से सलाह ली। हमारे प्रशासन के जितने अंग हैं, उन सबसे सलाह ली और सर्वसममति से हमने निर्णय लिया कि आसाम और पंजाब में चुनाव होने चाहिए। राष्ट्रपति महोदय ने इस पर एतराज किया, यह बात कोई किसी से छिपी हुई नहीं है। मैंने कहा कि आपको एतराज हो सकता है लेकिन हम समझते हैं कि परिस्थितियां ठीक हैं। कांग्रेस के मित्रों से, मैं खासतौर से जो भाई आसाम से आए हैं उनसे कहना चाहूँगा कि बड़ा विरोध हुआ आसाम के चुनाव का, लेकिन आसाम में चुनाव हुए और शांतिपूर्वक वहाँ चुनाव हुए। आपकी सरकार भी बन गई, 15 दिनों में क्या हो गया, हमारे मित्र बूटा सिंह ने कहा कि मैं दिल्ली से बाहर 4 घंटे के लिए जा रहा हूँ और प्रेजीडेंट साहब ने हालत सुधार ली, नहीं तो 1984 जैसी हालत होती। मैं प्रेजीडेंट साहब की बड़ी इज्जत करता हूँ और उनका वरदहस्त हर समय प्राप्त था, लेकिन बूटा सिंह ये कैसे भूल गए कि 1984 में वे होम मिनिस्टर थे जो आज के प्रेजीडेंट हैं, वे भी मंत्री थे। फिर 84 का यह हादसा कैसे हो गया? बूटा सिंह जी यहाँ मौजूद नहीं हैं, उस समय मैंने उनसे फोन पर पूछा था, उनसे बात की थी तो वे रो रहे थे, कह रहे थे कि मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा।
मैं यह नहीं चाहता कि इन सवालों के ऊपर जो मानवीय संवेदना के सवाल हैं, मानवीय पीड़ा के सवाल हैं, इतनी छोटी बातें की जाएं, लेकिन हमारे यहाँ जादू का खेल आपने देखा होगा, मदारी जो कहता है, जमूरा वही बोलता है। जमूरे के बोलने का मुझे ऐतराज नहीं जब तक मदारी अपने देश का हो लेकिन अगर मदारी बाहर का हो और जमूरे बोलने लगें, तब हालात बहुत खराब हो जाती है।
असम में क्या हुआ, बदलाव शुरू हो गया। वह आपको एक सरकार मिली, वही सेना है, वही फौज है, वही पुलिस है। मैं इसका श्रेय नहीं लेना चाहता, लेकिन बार-बार एक वितृष्णा की भावना पैदा करना, बार-बार कटुता की बाते करना, ये बातें करना अगर हम छोड़ दें तो देश की समस्याओं को शायद हम ज्यादा आसानी से हल कर सकते हैं।
अंत में मैं एक बात कहना चाहूँगा, अभी विश्वनाथ जी ने एक बात कही, विश्वनाथ जी नए सिद्धांतों को देने में पड़े उतावले नजर आते हैं, कृपा करके रिजर्व बैंक को इंडिपेंडेंट बनाने का सुझाव मत दीजिए। रिजर्व बैंक ने जो काम किया है, आपको ज्यादा अनुभव होगा, आप वित्तमंत्री रहे हैं, यह कोई व्यक्ति का सवाल नहीं है, संस्थाओं का सवाल है। अच्छे से अच्छा व्यक्ति दबाव में आ सकता है, बाहरी ताकतें कितनी सबल हंै, कितनी सशक्त हैं यह हम सभी को मालूम है।
अगर फाइनांस बिल पर नहीं सरकारें जाएंगी तो पता नहीं आडवाणी साहब और नरसिंहराव फाइनांस के मामले में कितने दिन तक अलग रह सकेंगे, यह बात सोचने की है। इसलिए आर्थिक सवालों का सवाल बड़ा पेचीदा सवाल है। चाहे माक्र्स और बातों में गलत निकल गया हो, एक ही बात उसने शाश्वत सत्य की कही है कि आर्थिक सवाल मनुष्य को चेतना शक्ति से, मनुष्य की आंतरिक शक्ति से निर्णय लेते हैं, उसको ठेस पहुँचती है। उसका उदाहरण दिया है, जो मुझे याद है। ब्रिटिश चर्च के पादरी से अगर बहस की जाए और उसके 32 कार्डिनल प्रिंसीपल का खण्डन करते रहिए तो वह हमेशा यह कहता रहेगा कि हम सब उसी भगवान की संतान हैं, हमको प्यार से, मोहब्बत से, भाई चारे से रहना चाहिए, लेकिन उसी पादरी से, बिशप से कहिए कि चर्च की एक गज जमीन हमारी है तो वह सब भूल जाएगा और वही क्रास लेकर तुम्हारे सिर पर पटक देगा। इसलिए बड़ा अच्छा लगता है, सुहावने स्वप्नों का संदेश, लेकिन यह खतरनाक खेल है।
आर्थिक मामलों में एक तरफ आपकी पीड़ा गरीबों के लिए है, एक ओर आपकी पीड़ा पिछड़ों के लिए है और दूसरी ओर आर्थिक मामलों का समन्वय इस तरह से। बुद्ध जैसे व्यक्ति ने ‘‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’’ की बात कही है, ‘‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’’ नहीं कहा, ‘‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’’ की बात नहीं चल सकती। इन सवालों पर हाचपाच नहीं हो सकता। इस पर आपको, हमको, कांग्रेस पार्टी को, सब लोगों को सोचना चाहिए, ये बंटी हुई धाराएं हैं, इन धाराओं में मेल नहीं हो सकता, यह बात समझे रहिये। इन बातों को अध्यक्ष महोदय यदि हम सोच सकेंगे तो शायद भारत भविष्य के बारे में और भारत की गरीब जनता के बारे में सही निर्णय ले सकेंगे।