देश का बजट केवल तीन फीसदी लोगों के लिए,शेष लोग वित्त मंत्री की नजर में नहीं: चन्द्रशेखर
उपाध्यक्ष जी, मैं बजट का जोर से विरोध तो नहीं करूंगा, केवल दुःख प्रकट करना चाहता हूँ। मैं बधाई देना चाहूँगा जार्ज फर्नान्डीज जी को, जिन्होंने वास्तविकता को सामने लाने के लिए अथक प्रयास किया है। यदि मैं ऐसा कहूँ कि देश की स्थिति को तथा भारत सरकार की मानसिकता की जिस तरह उन्होंने देश के समाने रखा है, उससे शायद इस पक्ष के लोगों को भी नए सिरे से सोचने के लिए प्रेरणा मिलेगी। मैं इस बजट के बारे में केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि बजट लाने के पहले, हमारे वित्त मन्त्री जी जिस तरह की बातें इस देश में करते थे, अचानक उनकी बातों में परिवर्तन एक दिन में नहीं आया, वह परिवर्तन धीरे-धीरे आया है।
कांग्रेस पार्टी के मित्रों से मैं कहना चाहूँगा कि मुझे याद है, पहले बजट में गाँधी जी का कितना नाम लिया गया था। जवाहर लाल नेहरू के पुरुषार्थ को बखाना गया था। वित्तमंत्री जी अगर आपको याद हो तो आपने पिछला बजट राजीव गाँधी के नाम पर समर्पित किया था। उस समय जिन बातों की चर्चा आपने उठाई थी, महंगाई को घटाने का सवाल, निरक्षरता को मिटाने का सवाल, बेरोजगारी को खत्म करने का सवाल, गरीबों के साथ अपना नाता जोड़ना, आपके मसूबों को दख कर पहले लोगों को भरोसा हो गया था। मैं ऐसा समझता था कि वित्तमंत्री जी शायद इस देश को उस दिशा में ले जाएंगे लेकिन जिस दिन यहाँ उनका बजट भाषण पढ़ा जा रहा था, इस साल का बजट रखा जा रहा था, हमें आश्चर्य हुआ, जब कई सदस्योंने कहा बड़ा मनमोहक बजट था।
अखबार के लोगों ने बड़ी प्रशंसा की। हमारे मित्र, जिनको मैं गुरुदेव कहता हूँ, अटल जी ने कहा था कि उन्होंने ऐसा मोहिनी डाल दी सारे सदन पर और मनमोहन की मोहिनी से सारा देश मोहित हो गया। लेकिन मैंने उसी दिन अखबार वालों से कहा था कि यह बजट देश के 3 फीसदी लोगों के लिए है, 97 फीसदी लोग हमारे वित्तमंत्री जी की नजर में नहीं आए। शायद वे 3 फीसदी लोग वे हैं, जिनका जिक्र अभी जार्ज साहब ने अपने भाषण में किया और जिनका सीधा रिश्ता उन बाहर के पूँजीपतियों से है, उन धन्नासेठों से है, उन लोगों से है जो देश में और दुनया में केवल सुख और समृद्धि देखते हैं।
हमारी जिन्दगी सुखों का सुहाना सपना नहीं है। संलेपों की सिसकी भी है। हमारे देश की जो भी मर्यादाएं हैं, जो आज बनी हुई हैं, ये दुःखी, ये शोषित, ये पीड़ित और उपेक्षित लोग, इन्होंने ही बनाई है। महात्मा गाँधी को किसी धन्ना सेठ ने सहयोग नहीं दिया था। महात्मा गाँधी के पक्ष में कोई राजा-महाराजा नहीं आया था। किसी पँूजीपति ने उन्हें सहारा नहीं दिया था बल्कि इस देश के गरीब, बिना पढ़े-लिखे, नौजवान लोग ही उनके साथ आए थे क्योंकि उन्हें एक भरोसा था। गाँधी जी ने कहा था कि आजादी के सपने को हम पूरा करेंगे तो एक-एक घर में खुशहाली का सपना साकार होगा। इसलिए उन्होंने कहा था कि हम स्वदेशी और स्वावलम्बन के आधार पर देश बनायेंगे, वह केवल नारा नहीं था। अंग्रेजों ने केवल हमारी आजादी, राजनैतिक आजादी को ही नहीं छीना था, हमारे अर्थतंत्र का भी तोड़ दिया था।
अंग्रेजों के आने से पहले यह देश हमारा हिन्दुस्तान के सबसे धनी देशों में से था। दो सो पचास वर्ष बाद अंग्रेज इस देश से गए और हम एक गरीब देश रह गए थे। हमारे देश में जो कुछ हुनर वाले लोग थे, जो दौलत पैदा करते थे, ढाका की मलमल दुनिया भर में मशहूर थी, बनारस की जरी का काम, मुरादाबाद के बर्तन और राजस्थान की छपाई पूरी दुनिया में मशहूर थी। क्या आपको याद है कि हम लोगों को गाँधी ने उस समय, जब आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी, कहा था कि अगर इस देश को बनाना है तो हमें कुटीर उद्योगों कीओर जाना होगा, गाँवों की गलियों की ओर जाना होगा। इनके संतापों को मिटाना होगा। इनके मसूबा को बढ़ाना होगा और इस तरह नया भारत बनाने की उन्होंने कल्पना की थी। इसलिए उन्होंने स्वदेशी और स्वावलम्बन का नारा दिया था। पुरुषार्थ के बल पर ही देश और राष्ट्र बना करता है। हमें आश्चर्य होता है, अभी मैं पिछले दिनों 5 दिन के लिए अमेरिका गया था। अमेरिकन लोगों से मैंने सवाल पूछा कि डेढ़ करोड़ काले लोग हैं, उनकी गरीबी की समस्या आप हल नहीं कर पाते हैं, हमारे 50 करोड़ लोगों की गरीबों का इलाज आपके पास है, यह जानकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ।
उपाध्यक्ष महोदय, मैं वित्तमंत्री से यह कहना चाह रहा हूँ कि वे ऐसा न समझें कि यह बात मैं कोई गुस्से में, कोई नाराजगी में कह रहा हूँ। मुझे आश्चर्य होता है, हमारे देश में भी विचारक हैं, हमारे देश में सोचने वाले हैं, हमारे देश में भी अर्थशास्त्री हैं और इनकी सारी समुच्चय शक्ति से हमारी नीतियाँ बनीं। एक-दो वर्ष में नहीं बनी, 40 वर्ष में बनी थी। एक-एक नीति जो पिछले 7 महीना में आपने बदली है, वे दशकों के प्रयास का नतीजा थीं। जवाहर लाल नेहरू को उद्योग नीति बनवाने में 8 वर्ष लगे थे, इन्दिरा गाँधी, एक बड़ी मनस्वी महिला थी, उनको एक एमआर.टी.पी. एक्ट बनाने में 5 वर्ष लगे थे। मैं भी संसद का सदस्य था, थोड़ा मेरा भी योगदान था, लेकिन आश्चर्य होता है, एक चिदम्बरम, एक मनमोहन सिंह उठते हैं और दूसरे दिन अखबारों में हम पढ़ते हैं कि नीतियाँ बदल दी गई हैं। देश को पता नहीं है, अर्थशास्त्रियों को पता नहीं है, विद्वानों को पता नहीं है, संसद को पता नहीं है। आपको कहाँ से बुद्धि आ गई? कहाँ से आपको प्रेरणा मिली? यह बुनियादी सवाल मैं आपसे पूछना चाहता हूँ।
मुझे सबसे बड़ी परेशानी इस बात से है उपाध्यक्ष महोदय कि उस दिन अटल जी ने एक सवाल उठाया था और उस पर वित्तमंत्री जी को थोड़ा सा रोष भी आया था, उन्होंने कहा कि क्या आप देश के नौकरशाहों पर, बड़े अधिकारियों पर, उनकी राष्ट्रीयता पर विश्वास नहीं रखते। क्या आप यह समझते हैं कि वे देशप्रेमी नहीं हैं। मैं आपके जरिए से उपाध्यक्ष महोदय, वित्तमंत्री जी से एक ही बात कहना चाहूँगा कि एक दस्तावेज, जो विश्व बैंक देता है, 7 महीनों तक, वह इतना गया-गुजरा दस्तावेज है कि मुझे दिखाया नहीं जाता है? 7 महीनों के बाद उसी दस्तावेज के पैराबाई पैरा के ऊपर आपकी एक-एक नीति निर्धारित होती है और आप हमसे जानना चाहते हैं? उस दस्तावेज की जितनी प्रतियां आती हैं, मैं वित्तमंत्री जी से जानना चाहूँगा कि किन लोगों को वे कापियां दी जाती हैं? भारत सरकार के उन अधिकारियों को वे प्रतियां दी गई जो किसी न किसी समय विश्व बैंक में या इंटरनेशनल मानिटरी फंड में नौकर थे।
उपाध्यक्ष जी, यह एक साधारण सी बात हो सकती है, ये संभावनाएं हो सकती हैं, लेकिन ये अजीब संभावनाएं हैं, जो बातें मुझसे छिपाई जाती हैं, वे उनको दिखाई जाती हैं, जो विश्व बैंक के लोग हैं। उन्हें इस बात पर नहीं कि कौन किस पद का अधिकारी है, बल्कि अगर ज्वाइंट सेक्रेटरी है, तो सेक्रेटरी को नहीं दी गई एडीशनल सेक्रेटरी को दी गई है। और उपाध्यक्ष महोदय हम क्या यह मान लें कि यह सब अनजाने में हो रहा है? ये बात हम मान भी लेते हैं, वित्तमंत्री जी, आपका सदाशयता पर, आपकी शराफत पर, आपकी ईमानदारी पर विश्वास करने का मेरा मन होता है, लेकिन जब विश्वबैंक की रिपोर्ट हम पढ़ते हैं, उसमें जब वे कहते हैं कि दुनिया की अर्थ-नीति को कैसे बदलो, तो उन्होंने कहा कि जब सरकार कमजोर हो, जब सरकार अस्थिर हो, जब किसी देश में अस्थिरता की स्थिति हो, तो इस नीति को और जोर से चालू करे, ताकि वहाँ पर कोई प्रोटेस्ट न हो सके, कोई प्रतिरोध न हो सके।
यह रिपोर्ट विश्व बैंक देती है। उसी रिपोर्टों के आधार पर हमारी नीतियां बनती हैं, तो मन में एक संदेह होता है। उस संदेह का आप निराकरण करें या न करें, यह दूसरी बात है, लेकिन हमारी वे मान्यताएं कहाँ गईं- क्या देश पैसे पर बन जाता है? हमारे मित्र अटल जी ने कहा कि सोना सस्ता हो गया, आप भी कह रहे हो कि हमारे भंडार में विदेशी मुद्रा बढ़ी हुई है, कहाँ से वह मुद्रा बढ़ी और आई है, मैं उस पर तफसील में नहीं जाऊंगा क्योंकि जार्ज ने वे सारी बातें बता दी हैं, लेकिन केवल पैसे से देश नहीं बन सकते, उपाध्यक्ष महोदय, यह जानकारी हमारे प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को हो जाए, तो शायद देश बच जाए।
आज भी इस बात को सोचिए, राष्ट्र कब टूटते हैं, राष्ट्र तब टूटते हैं जब देश के लोगों का दिल टूट जाता है, उनका मन टूट जाता है। हिन्दुस्तान गरीबी की हालत में कभी नहीं टूटा, हिन्दुस्तान तब हारा, जब धनी था, ऐश्वर्य था, वैभव था, राजभवनों में सोने-चांदी केअम्बार लगे थे, उस समय हमारे गांव का किसान कहता था ‘कोई नृप होय हमें का हानि, चेरि छोड़ि नहिं होइब रानी। इस राष्ट्र की समृद्धि में हमारा कोई हिस्सा नहीं है, जब देश के लोगों में यह विश्वास हो जाएगा, तभी आपके देश पर, आपके राष्ट्र पर कोई संकट आयेगा और तब कोई बचाने वाला आपको नहीं मिलेगा। ये 3 फीसदी लोग जो आज आपकी वाहवाह कर रहे हैं, वे वित्तमंत्री जी, आपकी रक्षा के लिए नहीं हैं। वे आपको गिरते हुए देखकर, फिर उपहास वाली बात कहेंगे।
आप लांछन लगाइए, आप विश्वनाथ प्रताप को गालियां दीजिए, मुझको जितना कोसना हो, कोस लीजिए, लेकिन इस बुनियादी सवाल के ऊपर आपको सोचना पड़ेगा। मैं सोचता हूँ जो लोग अपने को विचारक कहते हैं, विद्वान कहते हैं, एक सवाल उठाया जाता है, क्या हुआ सोवियत यूनियन में? जार्ज फर्नान्डीज अब अमरीका की बात करते हैं, तो झट सोवियत यूनियन की बात आ रही है। सोवियत यूनियन असफल हो गया। लेकिन क्या यह सही नहीं है कि उन्हीं लोगों की सलाह मानकर हमारे सहानुभूति के पात्र श्री गोर्बाचोव ने वह कदम उठाया? क्या यह सही नहीं है कि उन्हीं बातों को, उन्हीं सलाह को मानकर उस तरफ आगे बढे थे? श्री गोर्बाचोब ने क्या यह अपने शासन के आखिरी दिनों में नहीं कहा कि हमसे जो कहा गया था, हमको वह सहायता नहीं दी गई।
क्या आपको मालूम है कि पोलैंड के राष्ट्रपति लोक वलेंसा ने क्या कहा है? उन्होंने कहा है कि उदारता की नीतियों के अपनाने से यहाँ पर कुछ नहीं मिला लेकिन पश्चिम के जो धनी देश हैं, उनको हमारे देश के बाजार का शोषण करने का एक अवसर मिला। क्या आप भी गोर्बाचोव और वलेंसा बनना चाहते हैं? मैं नहीं चाहता भारत का कोई वित्तमंत्री, मैं नहीं चाहता भारत का कोई प्रधान मन्त्री इस रास्ते पर जाए। अगर आप ऐसा नहीं बनना चाहते हैं तो किस अधिकार से, किस भरोसे आपने समाचार पत्रों को बयान देते समय यह कहा कि स्वदेशी और स्वावलंबन की बात करना एक राजनीतिक ढकोसला है, राजनीतिक ढोंग है क्योंकि हमने कर्ज लिया चालीस वर्षों में। क्या स्वदेशी और स्वावलंबन ढोंग बन जाएगा? क्या हमारे करोड़ों लोगों की जनशक्ति बेकार हो जाएगी? यह सोचकर आपको कहना चाहिए।
इससे आप न केवल गलत आर्थिक नीतियों का प्रतिपादन करते हैं, अपितुदेश की मानसिकता को, देश की इच्छा शक्ति को, करोड़ों श्रमिकों के मनोबल को तोड़ने के अपराधी भी बनते हैं। इस बात से मैं आपसे नाराज हूँ। सत्तर फीसदी किसानों के पास एक हेक्टेयर से नीचे जमीन है, जो बाजार के लिए नहीं पैदा करते, पेट भरने के लिए पैदा करते हैं, उनका क्या होगा? उनकी सिंचाई की व्यवस्था कहीं आपके बजट में है, क्या आपने उनके लिए कोई उत्तम खेती का प्रबन्ध किया है, क्या इलैक्ट्रीफिकेशन के लिए नई योजनाएं आपके पास हैं, क्या गांव की उन विकसित होने वाली शक्तियों को बल देने को कोई काम किया है? मैं नहीं जानता फर्टिलाइजर में आप क्या करने वाले हैं लेकिन हमें आश्चर्य होता है कि अमरीका के किसान फर्टिलाइजर पर सब्सिडी पाएंगे, भारत के किसान नहीं पाएंगे।
मनमोहन जी से मैं निवेदन करूंगा, वे विचारक हैं, पढ़े लिखे हैं, बारह वर्ष पहले विश्व बैंक ने बिली बा्रन्त के नेतृत्व में एक रिपोर्ट तैयार कराई। कहा कि विकसित देश और विकास की ओर उन्मुख देश के लोग हाई टेक्नोलाजी की ओर मत जाएं। वे हार्टीकल्चर में, फिशरी में काम करें। बारह वर्ष में सारी दुनिया बदल गई। अब हमें यहाँ हाई टेक्नोलाजी चाहिए। हमारी कृषि का इन्तजाम दूसरे करेंगे। मैं उसके विवरण में नहीं जाना चाहता लेकिन कितनी जल्दी यह सब बदल जाता है। मुझे आश्चर्य यह होता है कि आप भी बदल गए। आपकी साउथ कमीशन की बुद्धि कहाँ चली गई? हमने मनमोहन सिंह को उस रूप में जाना था जब उन्होंने साउथ कमीशन में एक नेता के रूप में तीसरे विश्व के लोगों को एक नया साहस, नया भरोसा देने का काम किया था।
उपाध्यक्ष महोदय, हम चाहे चाहें न चाहें, भारत कोई साधारण राष्ट्र नहीं है। हमने अपने ऊपर जिम्मेदारी ली नहीं है, प्रकृति ने, इतिहास ने वह जिम्मेदारी दी नहीं है, अगर भारत घुटने टेक देगा तो तीसरे विश्व के देश घुटने टेकने के लिए मजबूर हो जाएंगे। हमने अपनी इस मानसिकता को नहीं समझा, हमने अपनी इस जिम्मेदारी को नहीं समझा, हमसे पूछा जाता है आप रास्ता बताइए। सोवियत यूनियन में जो कुछ हुआ, वह सही है दुःखद हुआ है लेकिन क्या इससे यह भी सही हो जाता है कि अक्टूबर क्रान्ति के पीछे जो आदर्श थे, उद्देश्य थे वे सब निकम्मे आदर्श थे? क्या समता का सिद्धान्त निकम्मा सिद्धान्त है, क्या शोषण के विरुद्ध संघर्ष करना पागलपन की बात है, क्या लेनिन ने जो गरीबों का नेतृत्व किया वह बेकार गया? करोड़ों लोगों ने जोशहादत दी गरीबों के नेतृत्व को एक नया सपना देने के लिए, वह सब निरर्थक नहीं जाएगा। इतनी आसानी से आज सोवियत यूनियन यदि किसी एक की गलती से टूट रहा है तो यह भी याद रखिए कम्युनिज्म कोई भगवान के हाथ से नहीं गिरा था। जब पूँजीवाद साफ हो गया, जब पूँजीवाद लोगों की मान्यताओं के अनुरूप कार्य नहीं कर सका, जब टूटे हुए लोगों को एक नई आशा की किरण नहीं मिली तो इस दुनिया में साम्यवाद का, मार्कसिज्म का नया आन्दोलन चला। आज आप अच्छे बन रहे हैं। आज सब आजाद हैं। जो पैसा कमा सकता हो, वह पैसा कमाये, जो भूखा मरता है, वह भूखा मरे, सबको आजादी है। एक को लखपति से करोड़पति बनने की आजादी है, दूसरे को भूख से मरने की आजादी है। यह आपकी नीति है, जहाँ राज्य की कोई जिम्मेदारी न ले।
हमने अपना संविधान बनाया, इतने समझदार लोग नहीं होंगे जितने राजेश पायलट जी हैं, गुलाम नबी आजाद हैं, मनमोहन सिंह जी हैं लेकिन थोड़ी अक्ल राजेन्द्र बाबू को, जवाहर लाल जी और अम्बेडकर जी को भी रही होगी मौलाना अबुल कलाम आजाद भी थे, उस समय उन्होंने हमारे डायरेक्टिव प्रींसिपल्स में कहा कि हम गरीब को शोषण से बचाने के लिए सहायता देंगे। उस समय पंडित जवाहर लाल जी ने जो शब्द कहे, वे मेरे कानों में गूंजते हैं। उन्होंने योजना आयोग का पहला उद्घाटन करते हुए जहाँ गरीबी और विषमता की बात की, वहीं कहा कि हमारे देश में आंचलिक विषमता रीजनल इम्बैलेंस जो है, गरीब इलाके जो हैं, इनकी खबर नहीं ली गई, इनकी सेवा नहीं की गई, इनकी मदद नहीं दी गई तो वहाँ से बवंडर उठेगा और इस देश के लिए यह खतरनाक होगा। आंचलिक विषमता की बात कहाँ गई, आपकी नीतियों में इसके ऊपर कभी विचार हुआ है? गरीबों का क्या होगा, आदिवासियों का क्या होगा, इन सारी बातों पर अगर आपने मन में सोचा होगा तो आपके मन की बातें आपके बजट में नहीं हैं।
मैं यह कहता हूँ कि आप मन को खोल कर लोगों के सामने रखो। जनतंत्र में, लोकशाही में षड्यंत्र से काम नहीं होते, खुले दिमाग से निर्णय लिए जाते हैं। एक हम आपसे बात करना चाहते हैं, मुझे आश्चर्य होता है आप इसको छोटे रूप में लेते हैं। अटल जी बोल रहे थे। वह मेरे गुरुदेव हैं। मैं उनसे शिक्षा लेता हूँ। उन्होंने कहा कि मनमोहन जी ने अपना चीरहरण कर लिया लेकिनउनके लिए गोपियांे का चीरहरण हुआ जबकि यह गोपियों का चीर-हरण नहीं है, यह द्रोपदी का चीरहरण है जो कि अटल जी नहीं कह सके। मैं उनसे कहना चाहूँगा कि यह रासलीला बहुत दिनों तक नहीं चलेगी क्योंकि आर्थिक विषमता का भूत, गरीबी और भूख व प्यास का सवाल आदमी को चुप नहीं रहने देता। याद रखिये मनमोहन सिंह जी, आप न करें कोई मोहन पैदा होगा जो सुदर्शन उठायेगा और विवश होगा महाभारत करने के लिए। फिर यह कहना पड़ेगा कि यह मोहिनी नहीं चलेगी। एक दिन न्याय के सवाल पर इस देश में युद्ध होकर रहेगा। मैं इस बारे में कहने में कोई हिचक नहीं करना चाहता, देश के लोग किस ओर जायेंगे? करोड़ों गरीबों की ओर या चन्द पूँजीपतियों, सामन्तों और धन्ना-सेठों के साथ। जब धर्म युद्ध इस तरह का हो रहा हो और व्यक्ति चाहे किसी पार्टी का हो, चाहे किसी दल का हो, चाहे किसी जाति-धर्म का हो, इस लोकतंत्र में उसको भागीदार होना पड़ेगा। यह नहीं चलेगा राजेश पायलट जी। पिछड़ों की नेतागिरी और मनमोहन सिंह के बजट की तारीफ दोनों साथ चलना सम्भव नहीं है। आप हमसे जानना चाहते हैं कि गाँधी जी ने क्या कहा था? गाँधी जी ने कहा था कि अच्छे बन जाओ। वेदों से लेकर ऋषियों तक, मोहम्मद साहब से लेकर क्राइस तक, सबने कहा कि अच्छा बनों, लेकिन समाज अच्छा नहीं बना। इस पर बुद्ध ने कहा कि ‘‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’’। ईसा मसीह ने गरीबों की सेवा का व्रत लिया लेकिन सब चले गये, गरीब पिसता रहा, टूटता रहा आदमी भला बना? चन्द व्यक्ति इतिहास में ऊपर उठे, उस जमाने में थोड़ा-बहुत हुआ लेकिन गाँधी जी किसी को अपना ट्रस्टी नहीं बना पाये।
मनमोहन सिंह जी और नरसिंह राव जी की मैं बड़ी इज्जत करता हूँ। आप इस जन्म में गाँधी नहीं बन सकते। जो गाँधी जी नहीं कर सके, वह आप भी नहीं कर सकते। इतनी क्षमता को और सीमा को समझ कर आपको काम करना चाहिये। अगर इस सीमा का अन्दाज नहीं है तो हरदम गलत निर्णय पर पहुँचेंगे। इसके बदले में माक्र्स ने कहा, समाज को किसी तरह बदल दो, आदमी बदलने को मजबूर हो जाएगा, लेकिन उपाध्यक्ष महोदय, जो मित्र पूछ रहे थे रास्ता क्या है? महात्मा गाँधी जी ने कहा था कि आदमी केवल बदल जाये, यह काफी नहीं है। समाज किसी तरह बदल जाये, यह काफी नहीं है। पहले अपने को बदलो, समाज में जो बुराइयां हैं, उनको बदलो और समाज की बुराइयाँ को मतलब उनका था जहाँ शोषण हैं, उत्पीड़न है, जहाँ गरीबी है, जहाँभूख है, बेरोजगारी है, उसके खिलाफ लड़ो। महात्मा गाँधी केवल सन्त नहीं थे, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय आन्दोलन के एक योद्धा थे, मानवता के एक सिपहसालार थे, जिन्होंने इन्सानियत को बुलन्दी पर पहुँचाने के लिए एक कोशिश की। उन्होंने एक नई प्रेरणा दी और आप हमसे पूछते हो कि रास्ता क्या है? सोवियत यूनियन असफल हो गया तो क्या हिन्दुस्तान असफल हो जायेगा? हाँ, असफल हो जायेगा, अगर गाँधी के स्वदेशी और स्वालवम्बन को आप ढोंग समझोगे तो आपको दुनिया, आज की पार्लियामेंट भले ढोंगी न समझे लेकिन इतिहास बड़ा निर्दयी, निष्ठुर समीक्षक होता है, वह आपको ढोंगी समझेगा।
हम किसी की नीयत पर सन्देह करना नहीं चाहते लेकिन क्या वित्तमन्त्री जी, मैं आपसे निवेदन करूं कि जो वायदे आपने किये हैं,वह आप पूरे कर सकोगे? 49 पब्लिक अण्डरटेकिंग्स को क्या बन्द कर दोगे? अगर नहीं बन्द कर सके तो यह वायदे क्यों किये? तीन लाख लोगों को आप क्या निकाल सकते हो? हमारे दूसरे मित्र हैं, नहीं दिखाई पड़ते, चिदम्बरम् साहब, एक हजार लोगों को निकालने गये थे, उनके अपने ही आफिस में क्या हुआ था, याद है आपको? तीन लाख लोगों की बड़ी संख्या होती है और हम लोगों को इस पार्लियामेंट के बाहर भी जाना है। इस पार्लियामेंट के सन्तरियों के घेरे में रहकर हम संसद को नहीं चला सकते, लोकशाही को नहीं चला सकते, यह बात भी हमको याद रखना चाहिए।
यह वायदा क्यों किया गया, बैंक के ऊपर जब बात कर रहे थे। मैं उन बातों में नहीं जाना चाहता, हमें दुःख होता है, हमें आश्चर्य होता है, नीतियों का मतभेद हो सकता है, अटल जी जैसा आदमी जब कहता है, बैंक के राष्ट्रीयकरण से क्या हुआ? हम चेक भुनाने के लिए जाते हैं, हमारा चेक भुनने में देरी होती है, थोड़ी देर खड़े रहना पड़ता है, बड़ा गुस्सा आता है, हम लोगों को, क्योंकि हमारे पास चेक होता है। लेकिन आप जानते हैं 90 प्रतिशत लोग के पास कोई चेक नहींे है? क्या आपको मालूम है, 95ः से ज्यादा लोग इस देश में कोई बैंक एकाउण्ट नहीं रखते? जिस समय राष्ट्रीयकरण हुआ था, उस समय बैंक गरीब को, किसान को, मजदूर को अपने पास फटकने नहीं देते थे। गाँव की कितनी बचत बैंकों में तब जमा होती थी, आज कितनी जमा होती है? मैं आँकड़ों में नहीं जाऊंगा आप इन बातों को जरा सोचें।
पब्लिक अण्डरटेकिंग्स के बारे में मैं नहीं कहता, उसको बन्द कर दो, सबको बन्द कर दो लेकिन बी.एल.ई.एल. के बारे में एक दिन यहीं पर सवालउठा, मैंने कहा, हैवी इन्जीनियरिंग कारपोरेशन जगाएंगे, हमारे प्रधानमंत्री जी ने उठकर कहा मैं आपसे सहमत नहीं हँू। मैं हैवी इन्जीनियरिंग कारपोरेशन को फिर से पुनर्जागृत कर दूँगा। आप कहोगे, इम्पोर्ट सारा जायज है, जो चाहो सारा इम्पोर्ट कर लो। बाहर से कैपीटल इण्डस्ट्रीज इम्पोर्ट होंगी और आर्डर मिलेगा नहीं लेकिन हैवी इन्जीनियरिंग चलेगा। बी.एच.ई.एल. का आज क्या हो रहा है? क्या तीन महीने बाद या 6 महीने बाद भी बी.एच.ई.एल. चल सकेगा, इन बातों को आप सोचो।
जवाहर लाल नेहरू का मैं बड़ा प्रशंसक कभी नहीं था। जहाँ ये बैठे हुए लोग हैं। जब मैं इनको रोज-रोज सुनता हूँ तो मुझे आश्चर्य होता है। हमें दुःख होता है कि नाशुकरेयन की भी कोई हद होती है। जिस जवाहर लाल नेहरू के नाम पर आप अपने को सैकुलर कहते हो, प्रगतिशील कहते हो, धर्मनिरपेक्ष कहते हो, आगे के भविष्य को बनाने वाले कहते हो, कभी सोचा है कि जवाहर लाल नेहरू को पब्लिक अण्डरटेकिंग्स क्यों बनानी पड़ी थी? उस जमाने में देश का कोई पूँजीपति पब्लिक अण्डरटेकिंग्स में पैसा लगाने को तैयार यहीं था। उपभोग की वस्तुओं में थोड़ा पैसा लगाकर अधिक लाभ मिलता था। स्टील में; पावर जैनरेशन में अधिक पैसा लगाकर लाभ नहीं मिलता और आज भी आप इलैक्ट्रीफिकेशन के लिए पूँजीपतियों को बुला रहे हो; जैनरेशन के लिए आने के लिए तैयार हैं लेकिन डिस्ट्रीब्यूशन के लिए वह आने के लिए तैयार नहीं; इन बातों को कभी आपने सोचा है।
शिक्षा पर आपने खर्चा कम किया, स्वास्थ्य पर आपने खर्चा कम किया। संविधान में हमने कहा था कि 10 वर्ष में इस देश में कोई निरक्षर नहीं रहेगा, आज उनका क्या होगा? 3 फीसदी शिक्षा आज प्राइवेट सैक्टर के पास है, मुश्किल से एक परसेन्ट लोग होंगे, जो प्राइवेट क्लीनिक्स में इलाज कराते हैं, बाकी लोगों का क्या होगा? इनको आप भाग्य के भरोसे छोड़ना चाहते हो? हमारा बुनियादी सवाल यह है कि इन सवालों पर आपने कभी गौर किया है? कभी आपने सोचा है कि समाचार पत्रों के जरिए टी.वी. और रेडियो के जरिए आप जो प्रचार कर देंगे, वह लोग मान लेंगे? शायद मान भी लेते लेकिन भूख और प्यास ऐसी होती है जो आदमी को बोलने के लिए मजबूर कर देती है, वह भूख और प्यास लोगों को बोलने के लिए मजबूर कर रही है। क्या वह संकेत हमको नहीं मिल रहा है? कभी इस पर आपने विचार किया है कि हमारा सेना और पैरामिलिटरी आर्गेनाइजेशन के कितने सिपाही अपने देश के लोगों को शान्त रखने में लगे हुए हैं।
मैं कोई दूसरा कटु शब्द इस्तेमाल नहीं करना चाहता हूँ, करीब-करीब आधी हमारी आम्र्ड-फोर्स लगी हुई है अपने ही देश के लोगों को शान्त रखने में। भूख और प्यास से जो ज्वाला उठेगी, उसमें आप कितनी फौज लगायेंगे और उसमें भी फोर्स का इस्तेमाल कहाँ-कहाँ करोगे। पड़ोसी देशों को सबक भी सिखाना है, मजदूरी के आन्दोलन को दबाना है। गरीब किसानों की सब्सिडी का सवाल हल करके उनको भी शान्त रखना है। यह आपके बस की बाहर की बात है वित्तमंत्री जी और आपके बस की बाहर की बात है प्रधानमंत्री जी। मुझे खतरा यह लग रहा है कि यह समाज टूट जाएगा, इसलिए मैं इस पीड़ा और दर्द की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। हर समाज की परम्परा होती है, हर एक राष्ट्र की अपनी मर्यादा होती है और हर एक राष्ट्र की अपनी मान्यता होती है, जो राष्ट्र अपनी मर्यादा, मान्यता और अपनी परम्पराओं को छोड़ देते हैं, अनजाने में, वे राष्ट्र विनष्ट होने के लिए विवश होते हैं और दुनिया की कोई ताकत उसको बचा नहीं सकती है।
सत्तर वर्षों की बनी हुई परम्परा को गोर्बाचोव साहब ने जिस सदाशयता से तोड़ने की कोशिश की, वे समाज उसके लिए तैयार नहीं कर पाए, यह सब आप लोगों को पता है। चालीस वर्षों की नेहरू और गाँधी जी की देन में खामियां और त्रुटियां हो सकती हैं, लेकिन आप उसे तोड़ना चाहोगे तो वह सम्भव नहीं है। मैं नेहरू जी के जमाने में उनका आलोचक रहा हूँ, लेकिन मैं मनमोहन सिंह जी से और नरसिंह राव जी से बड़े विनम्र शब्दों में निवेदन करना चाहता हूँ, आप लोगों का व्यक्तित्व उन नीतियों को बदलने के लायक नहीं है। आप अपने व्यक्तित्व के अनुसार काम कीजिए। समाज को, इस धारा को आप बदल नहीं सकते हैं, जो धारा 40 वर्षों से इस देश में बनी है। यह काम आप मत कीजिए। मैं आपसे कहता हूँ, अभी भी समय है, समय रहते हुए पीछे लौटिए।
मैं एक बात और कहना चाहता हूँ, इन्टरनेशनल मोनेटरी फण्ड और वल्र्ड बैंक आपको पैसा देने वाला नहीं है। तीन लाख लोगों को नहीं निकालोगे सार्वजनिक संस्थाओं से, सार्वजनिक उद्योगों से, तो आपको पैसा नहीं मिलेगा। अगर बैंको से आप समझौता नहीं करोगे तो आपको पैसा नहीं मिलेगा। मैं आपसे एक बात पूछता हूँ, उन्होंने इसका एक जगह प्रयोग भी किया है। मैं अपने मित्रों से, खासकर राजमाता जी से निवेदन करना चाहूँगा, फिलिपीन्स का जिक्र किया जाता है, आप कभी गई हैं, मैं नहीं गया हूँ, लेकिन पढ़ा हूँ। क्या फिलिपीन्स में आई.एम.एफ. और वल्र्ड बैंक के लोगों ने जो परम्परा और जोसंस्कृति कायम की है, भारत की जनता उस संस्कृति और परम्परा को अपनाने के लिए तैयार है?
भारतीय सम्यता और संस्कृति की बात करने वाले मित्रों, जरा इस ओर भी सोचें- विदेशों से पूँजीपति पैसा लेकर आपको धनी बनाने के लिए नहीं आता है, वह आता है अपने उद्योगों को पनपाने के लिए, लाभ कमाने के लिए अपनी संस्कृति को बनाने के लिए। यह बात मैं नहीं कहता हूँ, आप 1980 में ‘अमेरिकन टैªजरी’ की रिपोर्ट को पढ़,ें उसको शायद किसी ने न पढ़ा हो, लेकिन मनमोहन सिंह जी आप जरूर पढ़े होंगे। उसमें उन्होंने साफतौर से कहा है इन संस्थाओं का, वल्र्ड बैंक का और आई.एम.एफ. का इस्तेमाल हम करते हैं, बाहर अपनी नीतियों को कामयाब बनाने के लिए: उसमें साफतौर से उन्होंने कहा है- हम कम से कम यह अपेक्षा करते हैं, ये देश हमारा विरोध न करें। इतना तो हम जरूर चाहेंगे, जो लोग हमसे कर्ज लेते हैं वे हमारा समर्थन करें। उन्होंने यह भी कहा- हमने चिली में हस्तक्षेप किया और पी.एल.ओ. को सदस्य नहीं बनने दिया।
बड़े अभिमान के साथ हमारे प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि हम भी इन संस्थाओं के सदस्य हैं। मुझे कभी-कभी लगता है कि हम कहाँ पहुँच गए हैं। मैं मनमोहन सिंह जी से पूछना चाहूँगा कि आपका जितना डैंफिसिट बजट है, उससे बीस गुना डैंफिसिट अगर अमरीका का हो जाए और वह वल्र्ड बैंक से धन लेना चाहे, तो क्या उस पर भी इतनी कंडिशनेलिटी लगेगी, जो हम पर लग रही है। इसलिए आप हमको कितना भ्रम में रखने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि आप अंग्रेजी बोल सकते हैं और अखबारों में आपके बयान छप सकते हैं।
हमारे बारे में जो आप कहते हैं, मैं उसका जवाब नहीं देना चाहता हूँ, क्योंकि व्यक्तिगत बातों में नहीं जाना चाहता हूँ। लेकिन उपाध्यक्ष महोदय, क्या यह सही नहीं है कि उस समय हमारी सरकार ने जो काम किया था, उससे 3.7 मिलियन डालर का आपको लाभ हुआ? क्या आपने उसको चालू नहीं रखा? आपने किसलिए कोलापारेशन किया? क्या टुथपेस्ट के लिए, साबुन के लिए और स्पाडी फूड्स के लिए आपने किया? क्या यह देश के लिए जरूरी था? हमारे सामने हमसे भी बात हुई थी कभी-कभी, मैं इतना लोगों को नहीं जानता हूँ, जितना आप लोग जानते हैं। विश्व बैंक के एक बड़े आफिसर ने हमसे पूछा, अगर हम मदद न दें तो आप क्या करेंगे? हमने कहा साहब, इम्पोर्ट बन्द कर देंगे। उन्होंने कहा आप कर सकते हैं? हमने कहा- मजबूरी हो गयी तो क्या करेंगे। लेकिन मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, क्या भारत को आप छोडेंगे? वहाँ का बाजार आपको नहीं चाहिए, यहाँ की जनता का सहयोग आपको नहीं चाहिए। उपाध्यक्ष महोदय, उन्होंने कहा है, यह मैं नहीं कह रहा हूँ। मैंने यह कहा- मुझे मालूम है, हमें आपका साथ चाहिए, तो आपको भी हमारा साथ चाहिए।
उपाध्यक्ष महोदय, जब इस राष्ट्र की सरकार एक बार नहीं, अनेक बार कहती है कि हम सहायता के बिना डूब जाते, मर जाते, हमें आश्चर्य होता है कि कहाँ मर रहे थे, कहाँ डूब जाते। अगर पिछली बातों का जिक्र होगा कि कैसे मैंने सोना बाहर भेज दिया, क्या किया, तो क्या उसकी सच्चाई को आप सुनना चाहेंगे। क्या मेरे लिए आज यह सही होगा कि मैं इस संसद में ये बात कहूँ, क्या आपको इस राष्ट्र की मर्यादा का ध्यान नहीं है। आप वित्तमंत्री हो करके राष्ट्र की मर्यादा के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं तो करें, आप जितनी उत्तेजना दें, लेकिन मैं उन बातों का जिक्र करना नहीं चाहता हूँ: मैंने तो कहा था कि एक कमीशन बनाओ। किसने फाॅरेन एक्सचेंज की हालत को खराब किया, जार्ज जी ने अभी वे सब आंकड़े दिए हैं, आप तफसील में जाने की कोशिश करो, उस बात को देखो। उपाध्यक्ष महोदय, लेकिन आज हम बर्बादी की आरे जा रहे हैं और इस बर्बादी से उबरने का एक ही रास्ता है कि हम अपने देश की श्रम शक्ति पर, अपने देश के किसान और मजदूरों पर विश्वास करें। उनकी आस्था पर, उनके बल पर विश्वास करें।
मैं यह नहीं कहता हूँ, केवल गाँधी जी नहीं कहते थे, आप 1965 की बात याद करो, जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे, पाकिस्तान का हमला हुआ था, देश की हालत खराब थी, खाने के लिए नहीं था, उस समय उन्होंने नहीं कहा कि जय वल्र्ड बैंक और जय आई.एम.एफ., उस समय लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया था ‘जय जवान, जय किसान’। हमारे किसानों और हमारे देश के जवानों के बल पर यह देश बना। हम नहीं जानते कि जिस रास्ते पर आप चल रहे हो वह रास्ता बड़ा स्लीपरी है, छलकने वाला रास्ता है और कही आप उसमें न गिर जाओ, लेकिन अगर आप गिर जाओगे तो मुझे कोई दुःख नहीं होगा, जैसे कि जार्ज ने कहा, लेकिन यह देश गिर जाएगा, यह देश टूट जाएगा, समाज गिर जायगा तो मुझे दुःख होगा। इस देश को, टूटे हुए देश को गाँधी जी ने अपने पुरुषार्थ से एक सबल राष्ट्र के रूप में खड़ा कर दिया था, धनी नहीं थे लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद का हम मुकाबला कर सकते थे और जिस देश ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुकाबला किया है, वह आई.एम.एफऔर वल्र्ड बैंक से डर जाए, हम ऐसा सुधार करना नहीं चाहते।
अभी इन्होंने कहा कि हम इस देश को सुधारने चले हैं, लेकिन इस देशें क्या हो रहा है, फैक्ट्रियाँ आज बन्द पड़ी हैं, वित्त व्यवस्था बिगड़ रही है, वहाँ का राष्ट्रपति जा रहा है जापान और कोरिया से मिलने के लिए, क्या जापान और कोरिया ने किसी को अपने विकास के लिए बाहर से बुलाया था, उन्होंने अपने बल पर विकास किया।
मैं उस तफसील में जाना नहीं चाहता, मैं केवल एक ही बात करना चाहता हूँ कि अनावश्यक रूप से अपनी बहादुरी दिखाने की कोशिश न की जाए तो अच्छा है क्योंकि इस बहादुरी का पर्दाफाश आज नहीं तो कल जरूर होगा। मैं यह कहना चाहता हूँ कि संसदीय इतिहास में एक अनहोनी घटना उस दिन हुई जिस दिन बजट पेश किया जा रहा था और लोग शोर मचा रहे थे कि बजट लीक हो गया। यह एक निराली घटना थी। मैं उस बारे में इस समय कोई चर्चा नहीं करूंगा, फिर कभी मौका मिलेगा तो मैं बताऊंगा कि क्या हुआ था, लेकिन अचानक जब सारा विपक्ष बोल रहा है, नेता विरोधी दल उठकर खड़े होते हैं और कहते हैं कि ये सारा बजट राजा चेलैया की रिपोर्ट पर है। मुझे नहीं मालूम कि उनको कैसे मालूम था और अगर हमारे वित्तमंत्री यह कह दें कि यह रिपोर्ट उन्होंने वल्र्ड बैंक को नहीं दिखाई है तो हम मान जाएंगे। आडवाणी जी का कहना है नहीं, और वित्तमंत्री जी उठकर खड़े हो गए और उन्होंने कहा कि हमने राजा चेलैया की रिपोर्ट नहीं दिखाई है और सब लोग शांत हो गए।
इस संसदीय जनतंत्र में एक अचूक, अनोखा काम होते हुए मैंने देखा है, लेकिन उसी वल्र्ड बैंक की रिपोर्ट में लिखा हुआ है कि भारत सरकार अपना कमेटियों की रिपोर्ट को अपने बजट में दिखाएगी, बजट में प्रस्तुत करेगी, बिना देखे हुए वल्र्ड बैंक के लोग, बिना देखे हुए इस बात को मान लें, ये आडवाणी जी मान सकते हैं लेकिन विश्व बैंक के प्रेसीडेंट साहब नहीं मानेंगे क्योंकि उनको अपने स्वार्थों का ज्यादा ध्यान है।
आडवाणी जी, मैं भी चाहता हूँ कि अस्थिरता न हो, मैं भी चाहता हूँ कि सरकार चले और रोज चुनाव न हो, लेकिन आडवाणी जी, मैं आपसे निवेदन करूंगा कि हम केवल सरकार नहीं चला रहे हैं, हम इस देश में एक ऐसी परम्परा को जन्म दे रहे हैं जो परम्परा हमारे अस्तित्व को नकार देगी, जो परम्परा हमारे इतिहास के विरुद्ध है, जो परम्परा हमारी संस्कृति के विरुद्ध है, जो परम्परा हमंे दासता की ओर ले जाती है। मैं आपसे निवेदन करूंगा, आप नेता विरोधी दल को कि विरोध हर दम मत करो, लेकिन एक बात जो मैंने पहले भी कही थी कि हर समय मत देखो कि कोई चीरहरण गोपियों का हो रहा है, गोपियों के चीरहरण में एक रस है, एक भावुकता है, लेकिन द्रौपदी के चीरहरण में आप ही जैसे कोई भीष्म पितामह चुप रह गये थे। इस देश का क्या होगा क्योंकि ये चीरहरण हो रहा है, इस देश के गरीब का, निर्धन का, भूखों का। मैंने बड़े दुःख के साथ लेकिन थोड़ा अजीब मानसिकता में वह भाषण सुना जब वित्तमंत्री जी को तालियों से अपार प्रसन्नता हुई, तो उन्होंने उठकर कहा- सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना, बाजुए कातिल में है।
कौन सरफरोशी करता है, सरफरोशी करने वाले कम लोग होते हैं। जो मार दिया जाता है, वह शहीद नहीं हो जाता। मार्काेस और चाइसेस्को चाहे समाजवादी हों, चाहे पूँजीवादी हों, जो जनता की आवाज को नहीं पहचानता, उनको सड़कों पर घसीट दिया जाता है, वे शहीद नहीं होते। वित्तमंत्री जी इस गलतफहमी में मत रहिएगा, शहादत नहीं मिलने वाली है, यह बात याद रखिए। मैं यह चेतावनी इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि आप अकेले नहीं होंगे, हम सब लोग जो इस सदन में बैठे हैं, आदर्शों और सिद्धान्तों की बात छोड़ दीजिए, चाहे कोई चाइसेस्को हो या मार्कोस हो, जनता की भावनाओं के साथ जो नहीं जुड़ा है, उसको इतिहास कभी माफ नहीं करता।
उपाध्यक्ष महोदय, मैं लम्बा भाषण नहीं दूंगा, मैं आज इतना ही कहना चाहता हूँ कि वित्तमंत्री जी, आप में काबिलियत है और उस काबिलियत का उपयोग करके इस चंगुल से बाहर निकल आइये। यह ऐसा चंगुल है जो देश को मिटा देगा, आपको मिटा देगा, आपको बरबाद कर देगा, हम कहीं के नहीं रहेंगे। आज मैं बहुत संयम से इसलिए बोल रहा हूँ, क्योंकि आज भी मुझे आपसे उम्मीद है कि आप इस रास्ते को छोड़ देंगे, आज भी कांग्रेस के लोगों से उम्मीद है, कम से कम दिखाने के लिए ही गाँधी जी को याद रखो, नेहरू की परम्परा को इस तरह मत नकारो, देश की मनस्कता को इस तरह मत तोड़ो नहीं तो याद रखो-
जिन हाथों में शक्ति है राजतिलक देने की, उन्हीं हाथों में ही ताकत है सर उतार लेने की।