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नए लायक बेच रहे हैं देश की ‘‘जागीर’’ अंतिम सांस ले रहे हैं घरेलू उद्योग

लोकसभा में 8 मार्च, 2001 को राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चन्द्रशेखर

सभापति जी, सर्वप्रथम मैं भारत के राष्ट्रपति जी को बधाई देता हूँ। जिस समय देश का गौरव दांव पर लगा हुआ था, जिस समय देश के बड़े-बड़े लोग विदेशियों के सामने सजदा करने को तैयार थे, उस समय भारत के राष्ट्रपति जी ने सारी दुनिया के सामने कहा कि विश्व एक गाँव बन रहा है, लेकिन हमने कभी यह स्वीकार नहीं किया था कि इस गाँव का कोई मुखिया होगा। उसके इस बयान की बड़ी आलोचना हुई थी। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि भारत सरकार ने भी यह जरूरी नहीं समझा कि उस समय भारत के राष्ट्रपति के सम्मान की रक्षा में वे एक बयान देती। विरोधी पक्ष के नेताओं ने भी उस पर मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा।

मैं समझता हूँ कि देश की मर्यादा, देश का सम्मान और देश के गौरव की रक्षा किये बिना कोई भी आर्थिक और राजनीतिक नीतियां कारगर नहीं हो सकती। संसदीय जनतंत्र में राष्ट्रपति का एक प्रमुख स्थान है। दुनिया का कोई दूसरा राष्ट्रपति यहाँ आकर हमें यह सीख दे कि हमारी सीमाओं की रक्षा हमारे सैनिकों ने नहीं की, उनके आदेश के जरिये हुई तो मैं समझता हूँ कि इससे बड़ी अपमान की बात और कोई नहीं होगी।

जिस समय यह अभिभाषण संसद के केन्द्रीय कक्ष में पढ़ा जा रहा था, उस समय हमारे राष्ट्रपति महोदय ने कहा कि उदारीकरण की नीति के पीछे हमारा मंतव्य देश में विकास होगा, समता होगी, गरीबों की जिन्दगी में एक नया सबेरा आयेगा और सारी दुनिया में एक विकास की लहर दौड़ेगी। अभी श्री मुलायमसिंह जी ने कहा और यह बात सही है कि आज 10 वर्षों से ये नीतियां हमारे देश में लागू हैं।

आज से एक-डेढ़ साल पहले मैंने भारत के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा कि नौ वर्ष बीत गये, एक बार हमें बैठकर सोचना चाहिए कि हमने क्या खोया और क्या पाया? आज जो बहस हम कर रहे हैं, उस राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जिसको सरकार ने निश्चित किया है, बनाया है, उसमें जो कुछ लिखा गया है, उससे ऐसा लगता है कि देश का भविष्य अंधकार की ओर जा रहा है। हमारे देश में जो भी सपने देखे गये थे, वे सब के सब केवल सपने बनकर रह गये। हमारे देश के छोटे उद्योग समाप्त हो गये और जो घरेलू उद्योग थे, उन्होंने हमेशा के लिए अंतिम सांस ले ली। हमारे लोगों ने 50 वर्षों में जो कारखाने अपनी दौलत से, अपनी सम्पत्ति से, अपने श्रम से बनाये थे, वे एक-एक करके बंद हो रहे हैं।

सरकार के लोगों ने एक साल पहले यह ऐलान किया था कि हम 10 हजार करोड़ रुपये की पूँजी इन कारखानों की बेचेंगे। यहाँ पर श्री मनोहर जोशी जी बैठे हुए हैं। इन लोगों ने या कुछ और लोगों ने विरोध किया हो, परन्तु पूँजी बेचने का काम जोरों से चला। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि भारत के प्रधानमंत्री को कभी यह वक्तव्य देते हुए मैंने नहीं सुना कि इन कारखानों को हम फिर से जागरूक करेंगे, इनमें फिर से नयी क्षमता लायेंगे। वे बार-बार यही कहते रहे कि विनिवेश का काम, डिसइन्वेस्टमैंट करने का काम और तेजी से होगा। उस दिन हमारे मित्र वित्त मंत्री जी भाषण दे रहे थे। वे भी इस बात पर जोर दे रहे थे कि सारी कोशिशों के बावजूद, बेचने की कोशिश के बावजूद भी हम वह धन इकठ्ठा नहीं कर सके। हमारा ही एक सौभाग्यशाली देश है, जहाँ इसे बेचने के लिए एक मंत्री बनाया गया है। इसका नाम अंग्रेजी में है- डिसइन्वेस्टमैंट मिनिस्टर।

श्री अरुण शौरी जी हमारे पुराने मित्र हैं। वे नवयुवक हैं और उनसे हमें बड़ी आशा थी। हमारे यहाँ गाँव में कहा जाता है कि जो लड़का अपने बाप की जागीर बेचता है, उससे ज्यादा नालायक और कोई नहीं होता। यह नये लायक पैदा हुए हैं जो देश की जागीर को एक-एक करके बेच रहे हैं। श्री जार्ज फर्नान्डीज का जिक्र अभी मुलायम सिंह जी ने किया। वे हमारे पुराने मित्र हैं। किस दर्द और पीड़ा के साथ उस कुर्सी पर बैठे होंगे, उसका अहसास मैं कर सकता हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि जो भी नौजवान देश की सीमा की रक्षा के लिए जान देता है, अगर उसके हाथ बंधे हुए हों, उसे काम करने और लड़ाई के लिए पूरी सुविधा न हो तो उसके मन की कटोच भुलाई नहीं जा सकती। यह बात भी सही है कि हमारी सेना अनुशासनबद्ध है। यह भी सही है कि रक्षामंत्री के आदेश पर हमारे साढ़े चार सौ नौजवान कारगिल में अपने को बलिदान कर सकते हैं लेकिन यह भी सही है कि हम अपनी सीमाओं को पार नहीं कर सके। उन जवानों की कुर्बानी देना हमें मंजूर हुआ क्योंकि उस समय सारी दुनिया कहती थी कि कारगिल की उन सीमाओं को पार करोगे, जो हमारी रेखा है, तो युद्ध हो जाएगा।

सभापति जी, जिस समय पोखरण में अणु का विस्फोट हुआ था, जार्ज साहब, आपको इत्तिला नहीं दी गई थी। मुझे मालूम है, आपके ही एक सहयोगी ने कहा था- कहाँ लड़ेगा पाकिस्तान, जगह और समय बताए, हम लड़ने को तैयार हैं। यह भूल गये थे कि वे भी हमारे ही घर के लोग हैं, अगर हम बेवकूफी कर सकते हैं तो वे भी बेवकूफी कर सकते हैं। हमने पाँच अणु बम फोड़े, उन्होंने छः बम फोड़े। अब लड़ाई की बात भूल गए तो आप बस में चढ़कर लाहौर में समझौता करने के लिए दौड़े हुए गए। देश को चलाने का काम बच्चों का खेल नहीं है। जिस समय अणु का विस्फोट नहीं हुआ था, उस समय हम पाकिस्तान से पाँच गुना बड़ी ताकत थे, अब हम दोनों बराबर ताकत वाले लोग हैं। अब बहस यह है कि वे हमको पहले बर्बाद कर देंगे या हम उनको पहले बर्बाद कर देंगे।

जार्ज साहब यहाँ मौजूद हैं, तेज काम करने वाले हैं, शायद ये पहले उनको बर्बाद कर देंगे। लेकिन, जब लाहौर पर बम गिरेगा तो क्या होगा? मैंने एक बार इसी सदन में कहा था कि उसका असर अमृतसर पर क्या होगा, यह हमें कभी सोचना चाहिए। उस बात को मैं नहीं कहना चाहता। बड़े जोरों से हौंसले बनाए जाते हैं, बड़े हौंसले से लोग लड़ते हैं लेकिन आपके एक कारनामे से सब मटियामेट हो जाता है। आज कश्मीर में विराम संधि या विराम रेखा क्या है? मुझे नहीं मालूम। कौन विराम कर रहा है? विराम केवल अपने सैनिकों के लिए है, अपनी सेना को लिए है। रोज कत्ल हो रहे हैं। यही नहीं, नागालैंड में भी वही हो रहा है। वहाँ के लोगों से मेरी भी चर्चा होती है, चाहे वे फारुखअब्दुल्ला हो चाहे जमीर साहब हों। उनके दिलों पर क्या गुजरती है, उसका एहसास शायद और किसी को न हो, जार्ज साहब को जरूर होगा। बड़े अच्छे मौके पर आए हैं, इसलिए मैं आपसे अनुरोध करूँगा, कभी उन दिनों को याद कीजिए जब वे लोग आपकी ओर भरोसे की दृष्टि से देखते थे। वे समझते थे कि भारत एक शक्तिशाली देश के रूप में न केवल अपनी रक्षा करेगा। दुनिया के गरीब देशों को यह भरोसा दे सकेगा कि अगर वे पीड़ा और दर्द में होंगे तो भारत उनकी सहायता के लिए खड़ा होगा। आज हम बेबस और लाचार लोग हैं।

उन बातों का जिक्र मैंने शुरू में इसलिए किया कि जार्ज साहब को देखकर पुराने दिनों की बात याद आ गई। लेकिन, आप अगर अपने देश की आर्थिक हालत को देखें तो यह पुलिन्दा, जिसे राष्ट्रपति जी ने एक घंटे में पढ़ा, लोगों को भ्रम में रखने वाला है। हम कितने दिनों भ्रम में रहने वाले हैं। कौन नहीं जानता कि पिछले दस वर्षों में, जब से यह नीतियां लागू हुई हैं, (केवल यह सरकार नहीं, इससे पहले की सरकारों के दिनों से लेकर आज तक) हमारे कितने लाखों छोटे उद्योग समाप्त हो गए। हमारे घरेलू उद्योग कहाँ गए? हमारे बुनकर, बढ़ई, लुहार, उनके हुनर का क्या हुआ? आदिवासी गाँव की कलाकृतियां आज किस हालत में हैं? आखिरकार हिन्दुस्तान अंग्रेजों के आने से पहले दुनिया का धनी देश था। हमारे देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां नहीं थीं, हमारे देश में खेती करने वाला किसान था, बड़े कारखाने नहीं थे लेकिन हुनर वाले लोग, गाँव-गाँव में फैले हुए लोग हमारे देश में जो दौलत पैदा करते थे, वही दुनिया के बाजारों में जाती थी।

जब अंग्रेजों से लड़ने के लिए महात्मा गाँधी इस देश में आए तो गोखले ने उनसे कहा कि जाओ, गाँवों में जाकर गाँव वालों की ताकत को पहचानों और उससे जो प्रेरणा मिलेगी, उससे नया हिन्दुस्तान बनाने की शक्ति तुम्हारे अंदर आयेगी। गाँधी जी ने गाँव की परम्परा को, गाँव की इस शक्ति को परखा था, एक मुर्दा देश में उन्होंने नई, जान डाल दी थी और 1914 से लेकर 1942 तक गाँव-गाँव घूमकर गाँधी जी ने एक शक्ति पैदा की, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ निहत्था देश खड़ा किया। ‘करो या मरो’ का नारा देने वाले गाँधी, ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा देने वाले गाँधी, शायद सरकार की फाइलों में उनका नाम न हो लेकिन आजहिन्दुस्तान के कण-कण में, हिन्दुस्तान के दिलों में वह आवाज गूँज रही है। वह आवाज केवल हिन्दुस्तान के दिलों में नहीं गूँज रही है, दुनिया के लोगों गे बीच गूँज रही है।

मुझे वह दिन याद आता है, जिस दिन गाँधी जी की मौत हुई थी तो आइन्सटाइन ने कहा था कि एक दिन दुनिया के लोग सोचेंगे कि हाड़-मांस का ऐसा आदमी इसी धरती पर कभी चढ़ा था, जिस धरती पर आज हम हैं। उसी समय रोम्यां रोलां ने कहा था, कभी दुनिया अगर सोचेगी मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति, इंसान की तहजीबों तमद्दुन कहाँ से शुरू हुई तो उसे एक ही देश याद आयेगा और वह देश है भारत, हिन्दुस्तान, दुनिया का दूसरा कोई देश नहीं है। ऐसे देश को गाँधी ने मनोबल दिया था। 1991 में उस मनोबल को तोड़ने का काम हुआ और उस मनोबल को लगातार तोड़ने का काम आज भी हो रहा है।

आज कहा जाता है कि हम बेबस लाचार लोग हैं, दुनिया के लोग दौलत नहीं देंगे तो हमारे देश का कुछ भी नहीं हो सकता। हमें किसलिए दौलत चाहिए, जो दौलत आयी है, किसके लिए है। श्री जार्ज तुम्हें याद है, जब हमने और तुमने मिलकर कोकाकोला का 1977 में विरोध किया था और 77 लागू करने वाले जार्ज फर्नान्डीज आज पेप्सी और कोकाकोला की अगवानी का स्वागत करने वाले जार्ज बन गये हैं। हमें इस बात का दर्द होता है। हमारे किसान अपने बाहुबल से खेती करके अनाज के मामले हमें आत्मनिर्भर बना रहा है। हमारे मजदूर, चाहे वे किसी क्षेत्र में काम करते हों, मैं मानता हूँ, उनमें कुछ गड़बड़ियाँ आईं, काम ठीक नहीं हुआ, लेकिन फिर भी देश को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया।

हमारे देश में जहाँ पहले सुई नहीं बनती थी, वहाँ 13 औद्योगिक देशों में भारत एक देश है। जार्ज, वह दिन याद है, जब आपने रेलवे की हड़ताल करायी थी। हमारे लाखों मजदूर इस देश के एक बार तैयार हो गये थे और वहीं मजदूर अगर बालकों के मामले में इस बेच को स्वीकार नहीं करता तो आप सुप्रीम कोर्ट में आते हो, कम्पनी के गुमाशते बनकर इजाजत लेने के लिए कि उनके यहाँ फौज भेजी जाये, पुलिस भेजी जाये। वहाँ बन्दूक के बल पर, सत्ता के बल का काम करने के लिए मजबूर किया जाये। यह कम्पनी आपकी नहीं है, याद रखिये, वहकम्पनी देश के एक पूँजीपति की है। हमारे देश के पूँजीपति के मित्र ने यह सवाल उठाया था। पूँजीपति की ओर से भारत के डिसइन्वेस्टमेंट मिनिस्टर जाते हैं, हमें बताते हैं, कैसे देश चलता है। हमें बताते हैं कि कैसे फेवरेटिज्म का काम होता है, हमें बताते हैं कि किस तरह से केन्द्र सरकार की सत्ता काम करती है। कहाँ गई थी केन्द्र सरकार की सत्ता जब हमारे मिनिस्टरों के कहने के बावजूद आपके नौकरशाहों ने 1-1 करके जो मन में आया वह कर दिया। आप जितनी आलोचना कर लें, सोमनाथ चटर्जी जी के भाषण की, मैं उस भाषा का इस्तेमाल नहीं करूँगा, लेकिन जब आपका एक सरकारी अधिकारी खुले आम बयान, साक्षात्कार देता है, अखबार में वह छपता है, जब आपकी पार्टी, जो प्रमुख पार्टी थी, उसकी नेशनल एग्जीक्यूटिव का मेम्बर पिछले दो महीनों से टीवी. पर रोज प्राइम मिनिस्टर कार्यालय के कारनामों का जिक्र करता है, तो इन्फार्मेशन मिनिस्ट्री कहाँ गई, सूचना विभाग कहाँ गया, पी.एम.ओ. कहाँ गया, उसका खंडन क्यों नहीं होता। अगर उसका खंडन नहीं होता तो हमारे मित्र सोमनाथ चटर्जी जी अगर उसका जिक्र करते हैं तो आप गुस्सा क्यों दिखाते हैं?

आप गुस्सा दिखाकर लोगों की आवाज दबा सकते हो, अपने बहुमत से यहाँ पर संसद में जो चाहो प्रस्ताव पास कर सकते हो, लेकिन याद रखो दोस्तों, कभी भी दुनिया में क्रान्तियां, दुनिया में अराजकता पार्लियामेंट के प्रस्तावों से नहीं होती, सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट से नहीं होती। उच्चतम न्यायालय के निर्णय रखे रह जाते हैं, पार्लियामेंट बैठी रहती है और लोग बगावत के रास्ते में खड़े हो जाते हैं।

आज जो बाल्को में हो रहा है, यह एक अशुभ संकेत है। एक मुख्यमंत्री अगर चुनौती देता है और आप इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण लेते हैं, आपको इस बात की निगाह नहीं आती कि आप पार्लियामेंट के सामने जाएं, आप भारत सरकार की कैबिनेट के सामने जायें और इस संसद के सामने आयें और कहें कि यह काम नहीं हो रहा है, लेकिन आप सुप्रीम कोर्ट में जाते हैं। एक दिन आयेगा जब यही उच्चतम न्यायालय आपको भी इस्तीफा देने के लिए कह सकता है। एक दिन आयेगा जब यही उच्चतम न्यायालय आपके ऊपर भी प्रतिबन्ध लगा सकता है।

सभापति जी, माफ कीजिएगा, आप जिस कुर्सी पर बैठे हुए हैं, मैंने भी इस संसद को काम करते हुए देखा है, एक बार नहीं, अनेक बार,दर्जनों बार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सम्मन्स को इस कुर्सी पर बैठे हुए लोगों ने उठाकर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है। कहा गया है कि हम इसमें सीमित नहीं हैं। मैंने अध्यक्ष जी को लिखा है कि मैं ऐसा मानता हूँ कि उस पद पर बैठे हुए व्यक्ति के अधिकार का, उसके कर्तव्य का निर्णय केवल पार्लियामेंट करती है, सुप्रीम कोर्ट न उसको कम कर सकता है, न सुप्रीम कोर्ट उसको बढ़ा सकता है।

आज उस कर्तव्य का निर्वाह कर सकने में असफल सरकार दिन-रात उसी तरफ निगाह लगाए बैठी है। लोगों को डरा रही है, जो देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद से नहीं डरा, वह डर रहा है इस कानूनी दांव-पेंच से, यह कोई शुभ संकेत नहीं है।

मैं कहना चाहूँगा एक-एक करके जिस क्षेत्र में देखिए, कितने उद्योग बंद हुए, कहा गया कि केवल घाटे वाली कम्पनीज को बेचेंगे। दस हजार करोड़ रुपया इकट्ठा करेंगे। फिर कहा गया कि घाटे वाली कम्पनीज कोई खरीदने वाला नहीं, इसलिए मुनाफे वाली कम्पनीज भी बेची जाएंगी। उस बारे में बयान दिया हमारे विनिवेश मंत्री जी ने, जो यहाँ पर अभी मौजूद नहीं हैं। उसका समर्थन किया हमारे मित्र ने, जो योजना आयोग के उपाध्यक्ष हैं। यह क्या आपकी जागीर है। आज आप सरकार में हैं, कल चले जाओगे। जिन कम्पनीज को बेच दोगे, मान लीजिए अगर कल कोई दूसरा प्रधानमंत्री हुआ, कोई दूसरी पार्टी सत्ता में आयी, तो फिर क्या होगा? कौन सा तमाशा खड़ा होगा? आज आप ऐसी नीतियां बना रहे हैं, जिससे गरीब देश की बेबसी और लाचारी बढ़े। आज इस देश को इस हालत में पहुँचाने के लिए जिम्मेदार आज की सरकार की नीतियां हैं।

अभी कुछ दिन पहले आयी वित्त आयोग की रिपोर्ट के ऊपर गरीब राज्यों के मुख्यमंत्री और अमीर राज्यों के मुख्यमंत्री एक दूसरे के सामने खड़े होकर चुनौती देने लगे। कभी हुआ है ऐसा, पिछले 50-52 वर्षों में यह आपकी बड़ी भारी कामयाबी है। हमारे मित्र मुलायम सिंह जी ने कहा कि आप अटल जी को गुरुदेव कहते हैं। मुझे उनको अब भी गुरुदेव कहने में कोई संकोच नहीं, लेकिन याद रखिए कभी द्रोणाचार्य के चरणों में बाण चलाने के लिए अर्जुन को मजबूर होना पड़ा था। इसलिए मैं बता रहा हूँ कि आज कहाँ ले जा रहे देश को, देश को किस कठघरे में खड़ा करना चाहते हो? आज इस देश कोखुलेआम विदेश के लोग बताते हैं कि हमें क्या कृषि नीति अपनानी चाहिए, हमें मजदूरों के प्रति क्या व्यवहार करना चाहिए। एक हजार मजदूर तक की कम्पनी बंद की जाएगी, सरकार से पूछा नहीं जाएगा। कहाँ गया शौर्य और कहाँ गया पराक्रम और कहाँ गया पुरुषार्थ, जो मजदूर नेता जार्ज फर्नान्डीज का था। मनोहर जोशी जी, मैं आपसे पूछना चाहता हूँ। आप जिम्मेदार हैं, उन मजदूरों की जिन्दगी के लिए।

बैंकों का राष्ट्रीकरण करने में मेरा थोड़ा हाथ था। उस समय हमने कहा था कि बैंकों का राष्ट्रीकरण इसलिए जरूरी है कि पूँजी गरीब इलाके से जा रही है अमीर इलाकों में, बड़े शहरों में चंद पूँजीपतियों के हाथों में, आंचलिक विषमता बढ़ रही है, उसको रोकने का उपाय यह है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो। बैंकों के राष्ट्रीयकरण में अनेक कमजोरियां आयी बैंक मजदूरों ने कुछ गलतियां कीं, भूलें कीं, कमियां की, लेकिन क्या यह सही नहीं है कि जहाँ 14 परिवारों को बैंकों की पूँजी इस्तेमाल करने की इजाजत मिलती थी, वहाँ लाखों लोगों की मदद बैंकों ने की। किसानों को टैªक्टर खरीदने के लिए, पम्प खरीदने के लिए, हमारे छोटे दुकानदारों को दुकान बनाने के लिए। जो चंद हाथों में दौलत कैद थी, उसको उठाकर बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद सरकार के माध्यम से आपने इनको वहाँ पहुँचा दिया।

आज बड़े उच्च आदर्शों की बात इसमें की गई है। मैं एक-एक पढ़कर सुनाना नहीं चाहता। आप शिक्षा देना चाहते हैं, आप गाँव के लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं देना चाहते हैं, आप लोगों को बिजली देना चाहते हैं। कहाँ गए हमारे मित्र सुरेश प्रभु जी, वे जानते हैं कैसे बिजली कहाँ पर पहुँचेगी। जो आपकी नीतियां हैं, दो वर्षों के अंदर इस देश में चारों और केवल अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देगा। एनरान सिर्फ 30-35,000 करोड़ रुपये ही वसूल नहीं करेगा, शिवराज पाटिल जी, आपका राज्य इस मामले में सबसे ज्यादा खतरनाक स्थिति में हैं। उस समय हमारे एक मित्र ने दस्तखत किए थे और हमारे दूसरे गुरुदेव कह लीजिए, मित्र ने आपको एप्रूवल दी थी। लेकिन उस समय मैंने कहा था यह बर्बादी की ओर उठाया गया कदम है।

आज सुरेश प्रभु जी के गले में वह पड़ा हुआ है। वहाँ महाराष्ट्र की सरकार कह रही है केन्द्र सरकार इसको ले ले, केन्द्र सरकार कहती है कि इसकालेकर बिजली पैदा करके सात रुपये अस्सी पैसे की यूनिट बिजली देंगे, कहाँ पर बेचोगे? इसे लेकर, आपने जो अनुबंध किया है, आपने जो कांटेªक्ट किया है, शायद आप हुकूमत में नहीं रहेंगे, हम लोग संसद में नहीं रहेंगे, आने वाली संतानें इसको देने के लिए मजबूर होंगी। इन बातों को सोचकर मैंने सोचा कोई सुने या न सुने, मुझे अपनी आवाज उठानी चाहिए।

मुझे देश के लोगों को बताना चाहिए कि आप देश को कहाँ ले जा रहे हैं? इस देश में फीस बढ़ाई जा रही है। यूनिवर्सिटी ग्रान्ट्स कमीशन के लोग कह रहे हैं कि अगले पाँच वर्षों में हम आपको कोई मदद नहीं देंगे। पाँच या दस वर्षों में हर साल दस फीसदी फीस बढ़ाकर लोगों को कहते हैं कि अपना खर्चा खुद चलाइए। मैं इलाहाबाद और लखनऊ यूनिवर्सिटी गया था। वहाँ का एक-एक नौजवान कह रहा था कि हमारे घर के लोग अपना पेट काटकर हमें वहाँ भेजते हैं और नौकरी आप दे नहीं सकते। मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि जो आवाज उधर से निकलती है, उसी आवाज का समर्थन आप भी करते हो। हिन्दुस्तान की राजनीति में इससे दुर्भाग्यपूर्ण दिन और कोई नहीं आया था, जब सरकार पक्ष और विरोध पक्ष दोनों की देश को बेचने के लिए एक राय हो। ऐसी हालत में मैं आपको पूछना चाहता हूँ कि आप देश को कहाँ ले जाना चाहते हैं? आज जब गरीब का बेटा यूनिवर्सिटी और काॅलेज में नहीं जाएगा तो देश आगे कैसे बढ़ेगा?

मुलायम सिंह जी आरक्षण के लिए लड़ते रहे कि आरक्षण होता रहे। जब नौकरी ही नहीं होंगी तो आरक्षण कहाँ से आएगा? जहाँ विदेशी कंपनियां आएंगी तो क्या आप उन पर आरक्षण का कानून लगा पाएंगे? वे अपने ऊपर आपका कोई प्रतिबंध मानने वाली नहीं हैं। क्या आपने कभी इस बात को सोचा है कि इससे आगे क्या होगा? एक-एक करके हम लोग बड़े उद्योग बेचते जा रहे हैं। मैं केवल ‘बाल्को’ की बात नहीं करता। आज इंडियन एयर लाइन्स और एयर इंडिया के भी प्राइवेटाइजेशन की बात की जा रही है और बड़े अभिमान के साथ देश को बेचने का काम यह सरकार कर रही है। मजदूरों के साथ वही विश्वासघात हो रहा है, सरकारी कर्मचारियों के साथ भी वही हो रहा है। 5 या 8 मिनिस्ट्री खत्म कर दी। अब मिनिस्ट्री खत्म होंगी या रहेंगी, यह फैसला कैबिनेट में आप नहीं करेंगे, यह फैसला वल्र्ड बैंक करेगा,यह फैसला इंटरनेशनल मोनीटरी फंड करेगा। खुलेआम निर्देश आते हैं। अगर आप कहेंगे तो विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्ट दिखा सकता हूँ जिनमें बताया गया है कि भारत में कितने लोगों की छंटनी करनी चाहिए, किस तरह से इकोनाॅमिक व्यवस्था को निर्धारित करना चाहिए।

सब चला गया तो अब नयी कृषि नीति बनेगी। हमारे मित्र वित्त मंत्री जी कह रहे थे कि देश में पहली बार कृषि नीति बनी है। क्या वह भूल गये कि यहाँ जमींदारी एबोलिशन हुआ था। क्या वह भूल गये यहाँ पर को-आपरेटिव फाॅर्मिंग के लिए कितना बड़ा आंदोलन हुआ था? क्या वह भूल गये कि ग्रीन रिवोल्यूशन के जमाने में सरकार ने कितनी बड़ी सम्पत्ति लगायी थी? सरकारी काम करने के तरीकों के विरुद्ध मैं रहा हूँ लेकिन सारी गलतियों और सारी कमजोरियों के बावजूद मैं यह कहूँगा कि 1947 से लेकर 1990 तक इस देश में पूँजी बनाने का काम हुआ है और 1991 के बाद पूँजी बेचने की शुरुआत हमने की है। इस बात को सुनकर कोई भी सरकार, कोई भी प्रधानमंत्री, कोई भी वित्त मंत्री या कोई भी विनिवेश मंत्री अभिमान के साथ गौरव के साथ कैसे बोल सकता है? आज इस संसद में यह हालत है तो देश की गरीब जनता का क्या मनोबल होगा, आप उनको कब तक भ्रम में रखेंगे? कब तक आप उन्हें भुलावे में रखेंगे? आज वह समाज भी जग रहा है।

हम इस बात को आज इसलिए कहना चाहते हैं कि हमारे आदिवासी, गरीब दलितों के मन में एक पीड़ा है, एक दर्द है। दलित और आदिवासियों के कितने लड़के और लड़कियां आज यूनिवर्सिटी और काॅलेजों में पढ़ रहे हैं। ये कौन लोग हैं जिनको आज से नहीं सैकड़ों वर्षों से कहा गया था कि भगवान ने तुम्हें यही जीवन दिया है और तुम यह प्रारब्ध लेकर पैदा हुए हो। वे लड़के और लड़कियां आज इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्होंने दुनिया की क्रान्ति और इतिहास पढ़ा है। उन्होंने इंकलाब क्या होता है, यह देखा है। उनके सामने वियतनाम है, क्यूबा है, फ्रैंच रिवोल्यूशन है। उनके सामने रूस और चाइना की क्रांतियां हैं। उन्होंने देखा है कि यह कोई भगवान नहीं है। ये सब सरकारी नीतियां ही इन्हें गरीब बनाने की तैयारी कर रहीं हैं ओर उसका नतीजा यह है कि उसी के कारण ये आज के इतिहास पर अपने कदम रखना चाहते हैं।

हमारे लिए एक ही रास्ता है, उनकी आवाज सुनकर उसके मुताबिक नीतियां बनाएं। संसद में बैठे हुए मित्रों याद करो, आपके प्रस्तावों के जरिए, राजसत्ता के सहारे उनकी भावनाओं को दबाया नहीं जा सकता है। याद रखिए, इंसान का दिमागी परिन्दा कभी कफन में कैद नहीं होता। मानव चेतना को कोई बन्दी नहीं बना सकता। भूख की पीड़ा से उपजी हुई आग बड़े-बड़े महलों को जला देती है। कहीं यह आग जला न जाए संसद भवन, कहीं जला न जाए भारत का यह सारा ढकोसला, कहीं जला न जाए पीएमओ में बैठे हुए राजनेता और नौकरशाहों को। मैं इसलिए चेतावनी देने आया हूँ। एक बार आयी थी ईस्ट इंडिया कम्पनी, बाहर से फौज लेकर नहीं आयी थी। यहाँ भाई-भाई को आपस में लड़ा दिया, हिन्दू-मुसलमान को लड़ा दिया, सिख-मराठा को लड़ा दिया और यहाँ काबिज हो गए। आज एक ईस्ट इंडिया कम्पनी नहीं, अनक हैं। 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा महात्मा गाँधी ने दिया था और आज हम नारा दे रहे हैं- अंग्रेज, जर्मनी, जापानी, कनैडियन, अमेरिकन जो चाहे आओ, सबके लिए दरवाजे खुले हैं। सभापति जी, बड़ी बेदर्द है यह दुनिया। कोई किसी की मदद के लिए नहीं आता है, सब अपने फायदे के लिए आते हैं। गरीबों का शोषण करने के लिए आते हैं। गरीबों को लूटने के लिए आते हैं। जो पूँजी लगाएगा, दस रुपए लगाएगा, तो बीस रुपए ले जाने के लिए आएगा।

आज बड़े जोरों से भाषण हो रहे हैं, लिखा जा रहा है कि हमने बड़ी तरक्की की है। हमारे पास बहुत पैसा रिवर्ज बैंक में फौरन एक्सचेंज का हो गया है। मैं इस बात को बार-बार सुनता रहा कि चन्द्रशेखर जी ने सोने को गिरवी रख दिया। मैंने तो चार महीने में कर्जा नहीं लिया था, लेकिन सोना जरूर गिरवी रखा था। पहले के लोगों ने कर्जा लिया था, लेकिन उनका कोई अपराध नहीं है। नीतियां गलत थीं, यह दूसरी बात है। किसलिए सोना गिरवी रखा गया, इस पर सवाल उठ सकता है। हमारे गाँवों में गरीब औरतें रहती हैं और कहती हैं कि हमारा पति इतना निकम्मा निकला कि हमारा गहना गिरवी रख दिया, वैसे ही राजनेता सोने को गिरवी रख दिए हैं और विलाप करते हैं। ये विलाप करके क्या करते हैं। देश की इज्जत बड़ी थी या देश का सोना बड़ा था। अगर देश की इज्जत बड़ी थी, तो देश का सोना गिरवी रखा जा सकता था।

अब आप सोना ही गिरवी नहीं रख रहे हो, आप जमीन को बेच रहे हो। आपने कहा है कि किसानों की जमीन को बड़े पूँजीपतियों के हाथ में, चाहे वे हिन्दुस्तानी हों या विदेशी, लीज पर दी जा सकती है और वे बड़े-बड़े फार्म बना सकते हैं तथा वहाँ मशीनों के जरिए खेती होगी। दूसरी तरफ हमारे शान्ता कुमार जी का बयान कि हमारे पास अनाज रखने की जगह नहीं है। मैं सुना करता था, पढ़ा करता था कि अमरीका के लोग अपने अनाज को समुद्र में डुबा देते हैं, खड़ी फसल को जला देते हैं, लेकिन आप अपने अनाज को सड़ा रहे हैं और दूसरी ओर कालाहान्डी में लोग भूख से तड़प-तड़प के मर रहे हैं। यह देश को चलाने का तरीका है? अगर कोई दुर्घटना घट जाती है, गुजरात में जो कुछ हुआ, अगर कोई आवाज उठाता है, मान लीजिए कोई गलत आवाज उठाता है, तो हमारे प्रधानमंत्री का सारा पौरुष जाग उठता है। मैं उस दिन यहाँ नहीं था।

एक वरिष्ठ सांसद कहते हैं कि मैं कठघरे में खड़ा करूँगा। प्रधानमंत्री जी आप कठघरे में खड़े हैं, आपको कठघरे में खड़ा किया है, आपके सरकारी नौकरों ने, जो अखबारों को बयान देते हैं। आपको कठघरे में खड़ा किया है, आपकी नेशनल एक्जीक्यूटिव के मेम्बर ने जो रोज-रोज बयान दे रहे हैं, अखबारों में नहीं, टीवी के जरिए और सारा देश सुन रहा है। महिला दिवस पर महिला सदस्य कर रही थी, जो सदन में अभी नहीं है, कि अटल जी ने महिला दिवस पर बड़ा भारी काम किया है, इसलिए उनको नोबल पीस प्राइज मिलना चाहिए। इधर मैं सुनता था, सीज फायर हो रहा है और हमारे नौजवानों को मौत के घाट उतारने के लिए छोड़ दिया है, ताकि दुनिया के लोगों को हम कह सकें कि पाकिस्तान दुश्मन है शांति का और हम शांति के पैगम्बर हैं और हमें शांति के लिए बड़ा पीस नोबल प्राइज मिलना चाहिए। कहाँ गए, अफगानिस्तान के बुराहानुद्दीन। अमेरिका की दो एम्बेसीस को उड़ा दिया। उसके जहाज को ध्वस्त कर दिया। उसके ऊपर अगर इनका मिसाइल नहीं चला तो आपकी मदद के लिए अमेरिकन मिसाइल कारगर नहीं होगी। हमारे मित्र विदेश मंत्री हैं, जिसके जरिए वे बात करते थे और आपको भी आश्वासन देते थे। वे अब नहीं रहे, कहीं चले गए। डूबते हुए सूरज को कोई सलाम नहीं करता, कोई प्रणाम नहीं करता। डूबते हुए सूरज को प्रणाम करके गये सबेरे की ख्वाहिश करने वाले लोग देश को नहीं चला सकते।

महोदय, मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि राष्ट्रपति जी के पद की गरिमा को इस अभिभाषण से कम करने की कोशिश की गई है। मैं इतना जरूरकहूँगा कि राष्ट्रपति जी ने समय-समय पर राष्ट्र को चेतावनी देकर अपने पद की गरिमा ही नहीं रखी, बल्कि राष्ट्र की बड़ी सेवा की है। इसलिए मैं राष्ट्रपति जी का अभिनंदन करता हूँ। मैं सरकार से निवेदन करता हूँ कि ‘‘मत आंख मिचैनी खेलो, मत दुनिया को भ्रम में डालो, मत भारत के लोगों को भूल-भूलैया में डालो।’’ बुरे दिनों में साथ मिलकर काम करने की जरूरत है और लोगों को सही बातें बताने की जरूरत है। इसलिए मैंने विवश होकर अपनी भावनाएं इस समय आपके सामने कहीं हैं।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।