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समाजवाद का अर्थ उद्योग के क्षेत्र में सरकारी मशीनरी का एकाधिकार नहीं समिति करेगी प्रदर्शक का काम

सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति की स्थापना पर राज्यसभा में 20 नवम्बर 1963 को चन्द्रशेखर

उप सभापति महोदया, लगभग एक दशक के कष्टप्रद विलम्ब के बाद इस प्रस्ताव को पेश करने में सफलता के लिए मै ंमंत्री जी को बधाई देता हूँ। इस प्रश्न को लोकसभा में सर्वप्रथम दिसम्बर, 1953 में लाया गया था। हम इस प्रश्न पर 1963 में चर्चा कर रहे हैं। सन् 1953 में जब लोकसभा में यह प्रश्न उठाया गया था तो माननीय सदस्य, डाॅ0 लंका संुदरम ने कुछ बहुत प्रासंगिक मुद्दे उठाए थे और इस बात पर बल दिया था कि लोक उद्यमों के समुचित संचालन हेतु ऐसी समिति अत्यावश्यक है। उस समय, लोकसभा में एक विस्तृत चर्चा हुई थी।

महोदय, आपकी अनुमति से, मैं डाॅ0 लंका संुदरम के भाषण के एक अंश को उद्धरित करना चाहूँगा। मेरे माननीय मित्र श्री एन0सी0 कासलीवाल, श्री ए0डी0 मणि, प्रधानमंत्री, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस प्रश्न को प्रारंभ में ही कांग्रेस संसदीय दल की एक उपसमिति के पास भेज दिया होता, तो इसपर कोई आपत्ति नहीं होती। परन्तु सन् 1953 में, इस प्रश्न को लोकसभा में उठाया गया था और जिस सदस्य ने यह प्रश्न रखा, उसमें कहा-

‘‘भारत के निगम आज प्रतिस्पर्धा के अभाव मे ंएकाधिपति बन गए हैं, एक छोटे राज्य की तरह, जिसे प्रबंध निदेशक या चेयरमैन को पूर्ण रूप से सौंप दिया गया है। राष्ट्रीय हित में इनमें तुरंत ही कुछ किए जाने की आवश्यकता है ताकि कमी का नियंत्रण प्रभावी बनाया जा सके और सभा की सत्ता सुनिश्चित की जा सके।’’

इन शब्दों में, डाॅ0 लंका संुदरम ने संसद से सिफारिश की थी कि एकसमिति का गठन किया जाना चाहिए। पुनः वर्ष 1956 में यह प्रश्न एक माननीय सदस्य श्री जी0डी0 सोमानी द्वारा लोकसभा मे ंउठाया गया था। लोकसभा में दो दिन तक विस्तृत चर्चा हुई। उसके बाद, लोकसभा अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। माननीय सदस्यगण, कृष्ण मेनन समिति के इस प्रतिवेदन का उद्धरण दे रहे थे। मेरे मित्र, श्री भूपेश गुप्ता ने कहा कि शायद श्री कृष्ण मेनन जी के प्रति सदस्यों में कुछ विशेष स्नेह था। मगर यहां लगाव का कोई प्रश्न नहीं है। यह औचित्य का प्रश्न है। अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को जो पत्र लिखा था, मैं उससे उद्धरण देना चाहूँगा। अध्यक्ष कहते हैं-

‘‘चूंकि यह मामला सभा में कई बार उठाया जा चुका है और यह लोगों की भावनाओं से संबंधित है। अतः मुझे लगता है कि उपर्युक्त अनुच्छेद 2 में उल्लेखित कार्यों के साथ स्वायत्त निकायों हेतु एक अलग समिति के गठन के लिए नियम समिति की सिफारिश को मानने में कोई हानि नहीं है। यह समिति वास्तव में, मेरे दिशा-निर्देशों में कार्य करेगी और मेरा प्रयास रहेगा कि मैं यह सुनिश्चित करूं कि समिति उसे सौंपे गए कार्यों तक सीमित रहे और दिन प्रतिदिन के कार्यों में हस्तक्षेप न करे।’’

इस पत्र में अध्यक्ष ने बहुत स्पष्ट रूप से कहा कि उन्होंने लोकसभा की नियम समिति से विचार-विमर्श किया है और विचार-विमर्श करने के पश्चात् ही वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं और भारत के प्रधानमंत्री को सुझाव दे रहे हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस संसदीय दल के नेता के रूप में इस मामले को कांग्रेस संसदीय दल की उपसमिति को देने की सिफारिश की। महोदय, मैं आपसे यह जानना चाहूँगा कि जब इस प्रश्न पर लोकसभा में दो बार विस्तृत चर्चा हो चुकी है तो इस मामले को कांग्रेस संसदीय दल की एक उपसमिति के पास भेजना क्या प्रधानमंत्री के लिए उचित है? एक बार इसे नियम समिति में दिया गया था। नियम समिति ने सिफारिश की और उस सभा के अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को एक सलाह दी और उसके बाद यदि मैं गलत नहीं हूँ तो मई, 1958 में किसी समय प्रधानमंत्री ने इसका उल्लेख किया था। दिसम्बर, 1959 को अयोजित इस सम्मेलन में पूरे भारत से बीस विख्यात व्यक्तियों-प्रशासन के क्षेत्र से, व्यापार के क्षेत्र से और लोक उद्यमों के कुछ अधिकारियों ने भाग लिया। यह रिपोर्ट उस सम्मेलन की है।

पुनः इस सम्मेलन में सुझाव दिया गया था कि ऐसी एक समिति अत्यावश्यक है, कि बिना कोई देर किए इसका गठन किया जाना चाहिए। उस सम्मेलन मेकोई सामान्य व्यक्ति नहीं था। महोदय, आपकी अनुमति से मैं उस सम्मेलन में भाग लेने वाले व्यक्तियों का नाम पढ़ना चाहूँगा-

1. श्री अशोक मेहता, संसद सदस्य।

2. डाॅ0 ज्ञान चन्द, पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर।

3. श्री के0एन0 कौल, चेयरमैन, राष्ट्रीय खनिज विकास निगम।

4. श्री एस0एस0 खेरा, सचिव, इस्पात खनिज और ईंधन विभाग।

5. श्री एस0 लाल, चेयरमैन, दामोदर घाटी निगम।

6. श्री डी0एल0 मजूमदार सचिव कंपनी कानून प्रशासन विभाग।

7. श्री जी0 पांडे, चेयरमैन, हिन्दुस्तान इस्पात।

8. श्री एम0बी0 पायली, दिल्ली स्कूल आॅफ इकोनाॅमिक्स।

9. श्री आर0 प्रसाद, संयुक्त सचिव, गृह मंत्रालय।

10. श्री एस0 रतनम, विशेष कार्य अधिकारी वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय।

11. श्री आर0पी0 सारथी, अपर सचिव, रक्षा मंत्रालय।

12. श्री एम0एल0 सेठ, महाप्रबंधक, दिल्ली कपड़ा मिल।

13. श्री विष्णु सहाय, मंत्रिमंडल सचिव।

14. जे0एम0 श्रीनागेश, प्रबंध निदेशक, भारतीय तेल शोधशालाएं।

15. श्री एन0एन0 वांचू, सचिव, वित्त मंत्रालय,व्यय विभाग।

16. प्रो0 ए0एच0 हैंसन, विजिटिंग प्रोफेसर, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान।

17. प्रो0 वी0के0एन0 मेनन, निदेशक, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान।

18. श्री एम0एस0 रामाऐय्यर, उपनिदेशक, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान।

19. डाॅ0 परमानंद प्रसाद, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान।

20. डाॅ0 एच0के0 परांजपे, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान।

भारत सरकार के इन बीस प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने 1959 में एक सिफारिश की और उसके पश्चात्, नवम्बर, 1963 में सरकार इस प्रस्ताव के साथ आगे आई। कहा जा रहा है कि दोनों सदनों के बीच विचार में अंतर था। क्या हम देश के अंदर और बाहर के लोगों के मन में यह भावना उत्पन्न करने जा रहे हैं कि संसद के दोनों सदन समिति के गठन करने पर सहमत नहीं हैं? मैं संवैधानिक बारीकियों में जाना नहीं चाहता हँू।

मेरा, केवल यही निवेदन है कि भारत का संविधान केवल आज ही समस्याएं उत्पन्न नहीं कर रहा बल्कि आगे भी राज्यसभा और लोकसभा केसंबंधों के बारे में अनेक जटिल समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। परन्तु, इस प्रश्न में मामला बिल्कुल स्पष्ट था। हम कोई वित्तीय मामला हाथ में नहीं ले रहे हैं। हम लोक उद्यमों के बारे में संसद द्वारा प्रतिपादित एक नीति लागू करने जा रहे हैं। सरकार द्वारा नीति के क्रियान्वयन हेतु दोनों सदन समान रूप से उत्तरदायी हैं। परन्तु, इस असंगति के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या विपक्ष के सदस्यगण इसके लिए जिम्मेदार हैं? जब मैं कहता हँू कि यह सरकार उचित रूप से कार्य नहीं कर रही है, कि कांग्रेस संगठन के सर्वोच्च व्यक्ति का कांग्रेस पार्टी पर कोई नियंत्रण नहीं है तो मेरे कुछ मित्र बहुत उत्त्ेजित हो जाते हैं।

महोदय, मैं आपसे बहुत ही विनम्र रूप से कहता हूँ कि जब मैं सोचता हूँ कि एक राजनीतिक दल, जिसे दोनों सदनों में भारी बहुमत प्राप्त है, लगातार दस वर्ष से संसदीय समिति के गठन हेतु सक्षम नहीं है तो मुझे मानसिक कष्ट होता है और दोनो ंसदनों के समक्ष देश के लोगों के समक्ष और इस दुनिया के समक्ष यह बहाना करते हैं कि दोनो ंसदन सहमत नहीं हैं। महोदय, मै ंश्री पाॅल एच0 एपल्वी के प्रतिवेदन से केवल एक उद्धरण दूंगा। भारत सरकार ने उन्हें भारत की प्रशासनिक प्रणाली का पुनर्परीक्षण करने के लिए कहा था। यहां भारत सरकार द्वारा प्रकाशित प्रतिवेदन है। उन्होंने लोक उद्यमों के बारे में, जो कुछ भी कहा था, मैं उसे पढ़ूंगा। यह प्रतिवेदन-यदि मैं नहीं भूला हूँ तो-1956 में किसी समय पेश किया गया था। वे कहते हैं-

‘‘भारत, वास्तव में इस समय ऐसी आपातकाल की स्थिति में है कि जैसे देश युद्ध के दौर से गुजर रहा हो। यह आपातकाल शीघ्र निर्णय लेने, तुरंत कार्यवाही किए जाने पर निर्भर करता है। यह मौजूदा आपातकाल उस मोर्चे पर अधिक तीव्र है, जहां नए उद्यमों का विकास हो रहा है। जैसा कि युद्ध में, आपातकाल उन प्रक्रियाओं की स्थापना को निर्धारित करता है जिसमें लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरक्षण के साथ सतत् वृद्धि की संभावना हो।’’ यह चेतावनी भारत सरकार द्वारा 1956 में नियुक्त किए गए व्यक्ति द्वारा दी गयी थी, परंतु श्री जवाहर लाल नेहरू की इस लापरवाह सरकार ने इस संबंध में कोई कार्यवाही नहीं की। इसका क्या कारण था। वह एक ऐसा व्यक्ति है, जो प्रधानमंत्री की सदैव प्रशंसा करता है। उनका कहना है-

’’भारत अथवा भारत सरकार में आदर्शवाद अथवा दूरदर्शिता की कोई कमी नहीं है। परंतु अत्यधिक उत्साह और उद्देश्यों के निर्धारण का वर्णनकरने वाली संकीर्ण संकल्पनाओं संबंध प्रक्रियाओं के नीचे दब जाता है।’’ वे उच्च सिद्धांतों की बात करते हैं, वे समाजवादी, लोकतंत्र सार्वजनिक उपक्रमों, राष्ट्रीयकरण और प्रत्येक विषय पर बात करते हैं, परंतु जब निर्णय लेने का समय आता है तो ऐसा नहीं कर पाते। इसका क्या कारण है? इसके पीछे क्या है?

इसका एकमात्र कारण यह है कि उनका दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है, उन्हें स्वयं अपने उद्देश्य की जानकारी नहीं है। आप जयपुर में कोई भी संकल्प पारित कर सकते हैं, भुवनेश्वर में और अधिक कठोर अधिक सक्रिय अधिक समाजवादी संकल्प पारित कर सकते हैं लेकिन जब तक आप में ऐसे कदम उठाने का आत्मविश्वास नहीं होगा जब तक आप मे ंपूरे देश को एक विशेष दिशा मे ंअग्रसर करने की भावना नहीं होगी तब तक पूरे समाज को गतिशील बनाने तथा उत्पादन की पूरी प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के किसी भीप्रयास मे ंसफलता नहीं मिलेगी।

इन्हीं शब्दों के साथ, मैं श्री कासलीवाल से इस संदर्भ में पूरे प्रश्न पर विचार करने का अनुरोध करता हूँ। प्रधानमंत्री को आवश्यकता पड़ने पर लोकमत से जुड़े सभी वर्गों के सदस्यों वाली एक समिति को यह मामला सौंपना चाहिए था। आप अपना कार्य करते रहिए। मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि मैं एक मामूली आदमी हूँ, मैं बहुत बड़ी-बड़ी बातें नहीं करता परंतु मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि यदि शीलभ्रद जी जैसा कोई माननीय सदस्य यह सोचता है कि प्रधानमंत्री की इच्छा और कांग्रेस पार्टी का अहंकार देश के हितों से अधिक महत्वपूर्ण है तो मैं उनके इस प्राधिकार पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं करूंगा। उन्हें यह कहने का पूरा अधिकार है क्योंकि वह एक ऐसी पार्टी से जुड़े हुए हैं जिसका दोनों सभाओं में बहुमत है, एक ऐसा बहुमत है, जिसके बारे में मेरा यह मानना है कि कम से कम उसे इस समय चुनौती नहीं दी जा सकती।

महोदया, अब मैं इन सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबंधन और कुछ अन्य जटिलताओं के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ। इनमें जब प्रबंधन का प्रश्न उठता है, तो इतनी काफी कठिनाइयां सामने आती हैं। इसे लेकर प्रबंधन कोई पहल करने में सक्षम नही है- मुझे इसकी जानकारी नहीं है कि ऐसा क्यों होता है? इसका कोई वैध कारण हो सकता है परंतु क्षेत्र में कार्यरत प्रबंधकों का यहकहना है कि भारत सरकार उन्हें समुचित अधिकार प्रदान नहीं करती। उनके मार्ग में कुछ बाधाएं हैं, जबकि अन्य लोगों का यह कहना है कि प्रबंधक यह नहीं चाहते हैं कि ये सार्वजनिक उपक्रम सफल हों। इन सार्वजनिक उपक्रमों में कार्यरत प्रबंधकों और अधिकारियों का इन कंपनियों अथवा निगमों में कोई वित्तीय हित नहीं है इसलिए वे इन उपक्रमों के उचित प्रबंधन में कोई रुचि नहीं लेते। कुछ समय पहले हिन्दुस्तान स्टील का पुनर्विन्यास और पुनर्गठन करने की बात थी परन्तु नौकरशाही इतनी अधिक प्रभावशाली थी कि उसने पुनर्विन्यास प्रक्रिया को पूरा नहीं होने दिया। प्रभारी मंत्री कंपनी का टुकड़ों में पुनर्गठन करने के लिए विवश थे। अब सार्वजनिक उपक्रमों के नौकरशाहीकरण के विरुद्ध संघर्ष किया जाना चाहिए इसका मुकाबला किया जाना चाहिए, क्योंकि समाजवाद का यह अर्थ कदापि नहीं है कि पूँजीवाद को नौकरशाही में बदल दिया जाए समाजवाद का अर्थ उद्योग के क्षेत्र में नौकरशाही मशीनरी का एकाधिकार होना नहीं है।

महोदय, मैं इन सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा अर्जित लाभ के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ। जब मेरे मित्र श्री भूपेश गुप्ता बोल रहे थे और मेरे विद्वान मित्र श्री मिश्रा जी ने यह कहा कि यद्यपि, निजी उद्यम लाभ से प्रेरित होते हैं। और हम हानि से प्रेरित हैं। यह सत्य नहीं है। हमारे उपक्रमों के मामले में कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें हमें समझना चाहिए। आपके माध्यम से मैं यह कहना चाहता हूँ कि सरकार को सावधानी पूर्वक यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ये सार्वजनिक उपक्रम लाभ अर्जित करें। केवल दो उपक्रम, अर्थात् हिन्दुस्तान मशीन टूल्स और एंटबायोटिक्स कुछ लाभ कमा रही हैं। परन्तु, महोदय यह उनकी कार्यकुशलता के कारण नहीं है। यह इसलिए है क्योंकि आयात पर प्रतिबंध लगा हुआ है और उनके लिए एकाधिकार की स्थिति पैदा की गई है। हमें यह देखना चाहिए कि सरकार का और हमारे द्वारा गठित की जा रही समितियों का यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चत करें कि ये उपक्रम देश में सामान्य बाजार प्रतिस्पर्धा में टिक सकें।

महोदय, एक अन्य मुद्दा जिसका मैं उल्लेख करना चाहता हूँ, वह यह है कि यह समिति नीतिगत मामलों पर विचार करने के लिए अधिकृत नहीं है, मैं यह नहीं जानता कि श्री कासलीवाल ने इसे तर्कसंगत ठहराने का प्रयास कैसे किया? परन्तु, यह तथ्यों पर आधारित नहीं है। जब अध्यक्ष ने 1956 अथवा 1957 में प्रधानमंत्री को यह सिफारिश की थी, तब उन्होंने स्पष्ट रूप से यहकहा था कि प्रस्तावित समिति, ऐसे नियमों के दैनिक प्रशासन की समस्याओं पर विचार नहीं करेगी और उनके नीतिगत प्रश्नों और व्यापक रूप से उनके कार्यकरण पर भी विचार नहीं करेगी। सरकार को इस समिति को यह अधिकार देना चाहिए और उन्हें व्यापक रूप से नीतिगत मामलों पर विचार करने में समर्थ बनाना चाहिए और यह देखना चाहिए कि सरकार द्वारा निर्धारित नीति का कार्यान्वयन हो।

श्री भूपेश गुप्ता ने श्रम संबंधों का प्रश्न उठाया। यह शर्म की बात है कि राउरकेला स्थित सार्वजनिक उपक्रम तथा गुजरात के तेल क्षेत्रों के बारे में मंत्री जी को कुछ दिन पहले यह कहना पड़ा था कि सरकार द्वारा बनाए गए श्रम कानूनों को यहाँ लागू नहीं किया जा रहा है। ऐसा क्यों है? औद्योगिक संबंधों में इन सार्वजनिक उपक्रमों को मुख्य भूमिका दी जानी चाहिए और यदि उन्हें यह भूमिका नहीं दी जाती है तो आप यह कैसे कहेंगे कि श्रमिक संतुष्ट रहेंगे? सरकार ने प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी की नीति की पहल की। परन्तु इन सार्वजनिक उपक्रमों में कुछ भी नहीं किया जा रहा है। मैं यह नहीं जानता कि सरकार इस कदम को कैसे तर्क संगत ठहराएगी।

अब मैं इस समिति के कार्य क्षेत्र के बारे में बात करना चाहता हूँ। महोदय, मैं कुछ बातें और कहना चाहता हूँ। श्री कासलीवाल ने उचित ही प्रोफेसर राबसन को उद्धृत किया था, जिन्होंने यह सुझाव दिया था कि इस संबंध में कार्यकुशलता की जांच की जानी चाहिए और कुछ प्रतिष्ठित व्यक्ति, अर्थशास्त्री, व्यवसायी और अन्य बुद्धिजीवियों की इस समिति के मार्गदर्शन करने के लिए सेवाएं ली जानी चाहिए। न केवल इतना ही, 1956 में जब लोक सभा में चर्चा हो रही थी, उस समय योजना आयोग के वर्तमान उपाध्यक्ष श्री अशोक मेहता ने यह कहा था कि इस समिति को एक विशेषज्ञ सेवा उपलब्ध कराई जानी चाहिए और सभापति और लोक सभा अध्यक्ष के प्राधिकार में इस समिति का एक पृथक् सचिवालय होना चाहिए और उन्हें नौकरशाही के सामान्य चैनल पर निर्भर नहीं रहना चाहिए तथा उनकी एक पृथक् मशीनरी होनी चाहिए, ताकि वे इन सार्वजनिक उपक्रमों के पूरे मामलों की जांच कर सकें और सही निर्णय को समझ सकें।

महोदय, कुछ अन्य बिन्दु हैं। मैं रक्षा उद्यमों का उल्लेख करना चाहता हूँ और मेरा कहना है कि यह इस समिति के क्षेत्राधिकार में नहीं है और बहानाफिर से केवल यही है कि इससे सुरक्षा संबंधी मुद्दे जुड़े हुए हैं, मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि यदि इस समिति को केवल प्रशासनिक मामले ही देखने हैं तो, इन रक्षा उद्यमों में सुरक्षा मामले किस प्रकार आते हैं। केवल रक्षा उद्यम ही नहीं, खादी आयोग जैसा आयोग, कर्मचारी राज्य बीमा, आदि जैसे ये सार्वजनिक उद्यम भी इस समिति के अधिकार क्षेत्र में नहीं हैं। मैं यह नहीं समझ पाया हूँ कि इस वर्गीकरण के पीछे भारत सरकार का क्या तर्क है।

महोदय, मैं एक बार फिर से कहना चाहता हूँ कि इस समिति को सार्वजनिक उद्यमों के दोष निकालने वाली समिति के रूप में कार्य नहीं करना चाहिए। मैं कृष्ण मेनन समिति की इस सिफारिश के साथ पूर्णतः सहमत हूँ। मैं मेरे माननीय मित्र श्री भूपेश गुप्ता से इस बिन्दु पर जोर न देने का अनुरोध करता हूँ, चाहे यह अच्छा ही क्यों न हो मुझे मालूम है लोग परेशान हैं, कामगारों को दंडित किया जा रहा है, उनका शोषण किया जा रहा है लेकिन यदि संसद प्रत्येक मामले का संज्ञान लेती है तो हम उन लोगों के इशारों पर चलेंगे जो यह कहते हैं कि इन सार्वजनिक उद्यमों पर संसद का कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिए। सिर्फ यही नहीं, ये अधिकारी जो कोई भी पहल नहीं करना चाहते, जो अपने ऊपर कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, वे बेकार की दलील देंगे और वे यह कहना शुरू कर देंगे कि संसद के इतने अधिक हस्तक्षेप के कारण वे इन सार्वजनिक उद्यमों में कुछ नहीं कर पा रहे हैं। इससे मेरे मित्र श्री मिश्रा जैसे लोगों को सहारा मिलेगा जो कहेंगे कि इन सार्वजनिक उद्यमों में सभी पहलों की कमी है और उन्हें समुचित तरीके से नहीं चलाया जा सकता। महोदय, मेरा अनुरोध है कि अतीत के सभी झगड़ों को भुला देना चाहिए। मुझे खुशी है कि आखिरकार लोक सभा निष्कर्ष पर पहुंची है और राज्य सभा के मित्र भी एक समिति के साथ मिलकर काम करने पर सहमत हो गए हैं। उन संवैधानिक संकटों पर हम भविष्य के विचार करेंगे लेकिन अभी हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि संसद द्वारा गठित यह समिति सार्वजनिक उद्यमों के लिए पथ-प्रदर्शक सितारे का काम करे और यह कतिपय ऐसी परंपराओं का निर्माण करे, जिससे किसी की पहल को समाप्त किए बिना और उद्योग तथा व्यापार के क्षेत्र में इसके समुचित कार्यकरण को समाप्त किए बिना इन सार्वजनिक उद्यमों पर सरकार का नियंत्रण रहे।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।