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लोकउद्यमों को लेकर सरकार गलत नीतियों को ठीक नहीं करेगी तो आगे होगी कठिनाई

उद्योगों का राष्ट्रीयकरण और देश का विकास पर राज्यसभा में 21अगस्त 1963को चन्द्रशेखर

उपसभापति महोदय, मैं आज की चर्चा के संबंध में कहना चाहता हूँ कि उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य उत्पादन और लाभ में वृद्धि करना नहीं है बल्कि यह पता करना है कि अर्थव्यवस्था और देश के आर्थिक तंत्र पर किसका नियंत्रण होगा। राष्ट्रीयकरण शुरू करके, सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि सम्पत्ति का नियंत्रण उद्योगपतियों के हाथों से निकलकर लोगों पास चला जाए और इसके लिए, मैं सरकार को बधाई देता हूँ।

मेरे एक मित्र ने कहा है कि राष्ट्रीयकरण के पश्चात् राष्ट्रीय उद्योगों में उतनी अधिक प्रगति, विकास अथवा लाभ नहीं हुआ है, जितना निजी क्षेत्र के उद्योगों में हुआ है। इसलिए, राष्ट्रीयकरण का सिद्धांत अर्थहीन है। वह इससे सहमत नहीं है। हमारे एक माननीय सदस्य ने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा उत्पादित वस्तुएं निजी क्षेत्र के उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की तुलना में सामान्यतः महंगी होती हैं। जहां तक एच.एम.टी. फैक्ट्री के प्रश्न का संबंध है, मेरा यह मानना है कि इसके द्वारा उत्पादित मशीनों का मूल्य निजी क्षेत्र द्वारा उत्पादित मशीनों से कम होता है। यह भी एक तथ्य है कि उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र के दायरे के अंतर्गत लाए जाने के बाद जो विकास हुआ वह निजी उद्योगों में संभव नहीं था। आज भी, ऐसे कितने ही क्षेत्र हैं जो निजी क्षेत्र में संलग्न व्यक्तियों की पहली पसन्द नहीं है। मेरा यह मानना है कि बहुत से लोग उद्योगों में अच्छे हो सकते हैं और उनमें से बहुत की रुचि कुछ रोजगारों में हो सकती है, लेकिन निजी उद्योगों को चलाने के पीछे क्या मंशा है? निजी उद्योगों को चलाने के पीछे का उद्देश्य सामाजिक लाभ नहीं अपितु व्यक्तिगतलाभ है और जब तक देश में व्यक्तिगत लाभ सिद्धांत प्रचलन में रहेगा, तब तक देश के अधिकतर लोग जो कि गरीब हैं, वे प्रगति नहीं कर सकते। हम इस दृष्टिकोण से राष्ट्रीयकरण की नीति का समर्थन करते हैं और हमारी पार्टी इस नीति का समर्थन करती है।

अभी-अभी हमारे एक माननीय सदस्य ने कहा है कि हमें उद्योगपतियों को नकारात्मक भाव से नहीं देखना चाहिए। हमें नकारात्मक चीजों की तरफ नहीं देखना चाहिए। मैं उनसे विनम्रतापूर्व कहना चाहता हूँ कि उन्हें सिर्फ बिरला साहब द्वारा बनाए गए मंदिरों को ही नहीं देखना चाहिए, बल्कि बिरला, टाटा और डालमिया की फैक्ट्रियों में काम करने वाले कामगारों के बारे में भी सोचना चाहिए। जब हम समाज की बात करते हैं तो हम सिद्धांतों की बात करते हैं। हम अपवादों की अनुमति नहीं दे सकते। सिद्धांतों की बात करते समय हमें समझना होगा कि निजी उद्योगों का मूल उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ है। हमें इस परम्परा, इस उद्देश्य और व्यक्तिगत लाभ की मानसिकता को देश से निकालना होगा।

कुछ उद्योगों के राष्ट्रीकरण के पश्चात्, देश को बड़ा फायदा यह हुआ कि इस देश की विचारधारा दूसरी दिशा में चली गई है। मैंने पहले एक अवसर पर कहा था कि सरकार को विगत समय, इतिहास और समाज से सबक लेना चाहिए लेकिन सरकार इस संबंध में अनिच्छुक दिखाई दे रही है।

अभी-अभी माननीय सदस्य श्री दह्याभाई पटेल ने कहा कि स्वतंत्र पार्टी ने यह नहीं कहा कि सभी चीेजें बुरी हैं। मेरे पास अधिक समय नहीं है। इसलिए मैं सिर्फ यही कहूँगा कि माननीय राजगोपालाचारी ने एक बार नहीं दसियों बार अपने समाचार पत्र ‘‘स्वराज्य’’ में लिखा है कि राष्ट्रीयकरण की नीति देश को आगे नहीं ले जा सकती। माननीय राजगोपालाचारी ने यह भी कहा कि केवल निजी उद्योग ही देश में विकास ला सकते हैं और एक नए समृद्ध राष्ट्र का विकास किया जा सकता है। जनसंघ के हमारे मित्र यहां उपस्थित नहीं हैं। पन्द्रह दिन पहले जनसंघ ने भी ऐसा ही संकल्प पारित किया है जिसमें यह कहा गया है कि सरकार को औद्योगिक नीति का विस्तार कर निजी उद्योगों को प्रोत्साहित करना चाहिए।

अभी-अभी हमारे मित्र माननीय ए.डी. मणि साहब ने कहा कि औद्योगिक नीति का दस्तावेज कोई ऐसा पवित्रतम दस्तावेज नहीं है जिसे परिवर्तित नकिया जा सके। मेरा भी यही विचार है कि इसे परिवर्तित किया जा सकता है लेकिन प्रश्न यही है कि इसे किस दिशा में परिवर्तित किया जाए और इसे किस प्रकार परिवर्तित किया जाए। क्या इसे उस दिशा में परिवर्तित किया जाए जैसा राजाजी, स्वतंत्र पाटी्र, जनसंघ और डालमिया तथा जैन जैसे लोग चाहते हैं अथवा इसे इस प्रकार परिवर्तित किया जाए, ताकि सार्वजनिक उद्योग अधिक क्षमता, अधिक विश्वास और अधिक लाभ के साथ काम कर सकें?

महोदय, मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि जब मैं सार्वजनिक उद्योगों की परम्परा का समर्थन करता हूँ तो मेरा आशय यह नहीं होता कि सार्वजनिक उद्योगों की खामियों को अनदेखा किया जाए। मेरा आशय यह नहीं है कि सार्वजनिक उद्योगों के संचालन का तरीका ठीक है। इसमें कमियां हैं, त्रुटियां हैं। इसमें एक या दो नहीं बल्कि बहुत सी कमियां हैं। बिल्कुल शुरूआत से ही बहुत सी गलतियां की गई हैं। समय कम है, अन्यथा मैं बताता कि इसके संगठन में किस प्रकार की गलतियां की गई हैं। जिन मानकों पर सार्वजनिक उद्योग को चलना चाहिए सरकार की मानसिकता उनके संबंध में स्पष्ट नहीं है। क्या इन्हें सांविधिक निगम होना चाहिए, क्या इन्हंे कम्पनी कानून के अधीन कम्पनियां होनी चाहिए अथवा इन्हें विभाग के अंतर्गत संचालित उद्योग होना चाहिए। इस संबंध में सरकार भ्रम में है। प्राक्कलन समिति ने एक बार नहीं बल्कि बहुत बार कहा है कि प्रबंध निदेशक और निदेशक के रूप में सरकारी अधिकारियों को नियुक्त करने की परम्परा बंद की जाए। महालेखापरीक्षक ने बार-बार उल्लेख किया है कि सरकार द्वारा एक तरफ तो कम्पनियों को कम्पनी कानून के तहत पंजीकृत करवाया और संचालित करवाया जाता है और दूसरी ओर इसके लिए उनकी आलोचना भी की जाती है। परन्तु, इस देश में दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि सरकार इस विषय में नहीं सोचती है।

एक बात और है, जिसकी ओर मैं माननीय वित्तमंत्री का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा कि एक तरफ लोगों में सार्वजनिक उद्योगों के विकास के लिए उत्साह है। दूसरी ओर उनके प्रति विश्वास में कमी भी उत्पन्न होती है। गरीब देश की पूँजी का एक-एक पैसा समुचित रूप से व्यय किया जाना चाहिए। सार्वजनिक उद्योगों में इसे आज जिस प्रकार उपयोग किया जाता है, क्या इसे इसी प्रकार उपयोग किया जाना चाहिए? आप ‘‘केन्द्र सरकार के औद्योगिक और वाणिज्यिक उद्यमों के कार्य संचालन पर आर्थिक प्रतिवेदन’’ 1961-62,वित्त मंत्रालय, 1963 प्रतिवेदन को पढ़िये। आपको पता चलेगा कि एक जगह नहीं, बल्कि कई जगहों पर, ऐसे मामले आए हैं कि वहां भव्य नगरों की स्थापना के लिए करोड़ों रुपये व्यय किए जा रहे हैं। यदि मैं भूल नहीं रहा हूँ तो केवल राउरकेला में ही इस शहर के लिए 14 करोड़ रुपये व्यय किया गया है। मेरा मानना है कि कुछ धन व्यय करना चाहिए, परन्तु यदि कम धन व्यय हो तो यह अधिक अच्छा होगा, क्योंकि आपको पता है कि जब कम धनराशि हो तो हमें इसका उपयोग सावधानी से करना चाहिए। इस संबंध में, मैं आपके समक्ष महान अर्थशास्त्री डब्ल्यू आर्थर लुईस के विचार रखता हूँ:

‘‘विकासशील देशों में पूँजी काफी कम होती है। इसका मितव्ययी रूप से उपयोग किया जाना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि प्रायः सबसे सस्ती संरचना से ही काम चलाया जाए। जब तीस वर्षों तक चलने वाली संरचना की कीमत काफी कम हो तो पचास वर्षों तक चलने की क्षमता वाले स्कूलों या अस्पतालों या तापीय ऊर्जा केन्द्रों का निर्माण करना गलत है। ऐसी कई संरचनाओं को बदलते मानदंडों और बढ़ती हुई आय के कारण वैसे भी तीस वर्षों में ही हटा लिया जाता है। इसी प्रकार, नई मशीनरी की तुलना में, पुरानी मशीनरी प्रायः अधिक उपयुक्त होती है और यह बहुत सस्ते में मिल सकती है क्योंकि इन उपकरणों के अधिक विकसित दशों ने अप्रचलित मान लिया है।

परन्तु, सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना करते समय इन बातों का ध्यान नहीं रखा जाता है। जैसे ही धनराशि जारी होती है, अंधाधुंध खर्च कर दी जाती है। तभी, स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ पार्टी को यह कहना का अवसर प्राप्त हो जाता है कि सार्वजनिक उद्योगों में धन बर्बाद हो रहा है। ये उद्यम लाभ उपार्जित नहीं कर रहे हैं। केवल व्यय ही दिखाया जा रहा है। हमारी सरकार को लगता है कि विकास का मानदंड केवल यही है कि विकास संबंधी कार्यों पर कितना धन खर्च हुआ था। सरकार को अपनी इस मानसिकता को बदलना होगा। इसे देखना होगा कि विकास पर किए गए व्यय से उत्पादन में किस सीमा तक वृद्धि हुई है।

एक और बात, जो हम भूल जाते हैं कि जब भी संरचना पर व्यय किया जाता है, सरकार प्रशिक्षित तकनीकी श्रमशक्ति को बढ़ाने की ओर कोई ध्यान नहीं देती है। कल ही, माननीय मंत्री महोदय ने सदन में कहा था कि संसाधनाकी अनुपलब्धता के कारण तकनीकी संस्थानों की क्षमता को बढ़ाया नहीं जा सकता है। सरकार इस बात पर धन नहीं दे रही है। एक तरफ, नई इस्पात संयंत्र की स्थापना के लिए सदन में जोर दिया जा रहा है- बोकारो के लिए काफी जोर दिया जा रहा है- वहीं दूसरी ओर, तकनीकी कार्मिकों को प्रशिक्षित नहीं किया जा रहा है। यह ठीक नहीं है।

इस वर्ष, फरवरी में, टाटानगर के इस्पात संयंत्र में एक संगोष्ठी का आयोजन हुआ था। ब्रिटेन तथा भारत के विशेषज्ञों ने इस संगोष्ठी में भाग लिया था। आपको विशेषज्ञों की राय को जानकर आश्चर्य होगा। विशेषज्ञ भारत और ब्रिटेन, दोनों देश के थे। यह बताया गया कि इस्पात उद्योग का आगे विकास नहीं किया जा सकता है, क्योंकि तकनीकी संस्थानों की कम संख्या के कारण, तकनीशियनों की कमी है। उस समय, इस्पात मंत्री ने कहा था कि सरकार इस्पात के प्रशिक्षु तकनीशियनों के लिए एक संस्थान खोलने जा रही है। मुझे यह पता नहीं है कि प्रशिक्षु तकनीशियनों के लिए संस्थान कब तक खुलेगा? दो पंचवर्षीय योजनाएं पूरी हो चुकी हैं। विदेश से पूँजी आती है और संरचना बनती है, मशीनें निर्मित की जाती हैं, परन्तु इन उद्योगों को चलाने के लिए विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं हैं। एक विशेषज्ञ ने योजना के अभाव का उल्लेख करते हुए कहा:-

‘‘वास्तव में, ऐसे कार्यक्रमों की यह भी एक आम त्रुटि है कि वे मूर्त वस्तुओं के निवेश के मामले में बहुत अधिक और व्यक्तियों में निवेश के रूप में बहुत कम विकास की कल्पना करते हैं।’’ इस त्रुटि की ओर सरकार को ध्यान देना चाहिए।

दूसरी बात, मैं किए गए व्यय और इसमें शामिल सभी परिसम्पत्तियों पर नज़र रखने के लिए, उठाए गए कदमों के बारे में पूछना चाहूँगा। प्राक्कलन समिति अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करती रही है और अभी-अभी लोक सभा की लोक लेखा समिति ने अपना प्रतिवेदन पेश किया है। आप इसे देख सकते हैं। इस प्रतिवेदन का प्रत्येक पैरा कहता है कि चाहे वह इस्पात संयंत्र हो, पोत निर्माणी या एअर इंडिया हो, सभी जगह अनुचित रूप से व्यय किया गया। धनराशि बचायी जा सकती थी, परन्तु सरकार मौन है। तीसरी पंचवर्षीय योजना में कहा गया है कि इस व्यय पर नियंत्रण करने के लिए संसदीयसमिति का गठन किया जाएगा।

श्री मेनन साहब की अध्यक्षता में, कांग्रेस संसदीय समिति ने एक लम्बा-चैड़ा विज्ञापन प्रकाशित किया है। इसमें कहा गया है कि एक समिति का गठन किया जाएगा, परन्तु आश्चर्य की बात है कि अभी तक समिति का गठन नहीं हो पाया है। लोक सभा और राज्य सभा में किसी मतभेद के चलते इसका गठन नहीं हुआ। इस सदन के एक सदस्य को समिति का सदस्य बनाए जाने के मुद्दे पर लोक सभा और राज्य सभा आपस में लड़ रही हैं, तो क्या इस तरीके से हम एक नवीन भारत का गठन करने जा रहे हैं? आप सभी लोग वर्षों से इसकी आवश्यकता के बारे में जानते हैं, फिर भी सरकार ऐसा नहीं कर पा रही है। आज संसद और संसदीय समिति का उन पर कोई नियंत्रण नहीं है।

मैं श्रम कानूनों के बारे में कुछ कहना चाहूँगा। मैं इसके लिए एक मिनट का समय लूंगा। सरकार ने कहा था कि निजी क्षेत्र में श्रम नीति लागू की जानी चाहिए और तीन दिन पूर्व जब हमने श्रम मंत्री से पूछा कि कया यह सही है कि सार्वजनिक क्षेत्र में श्रम कानूनों को पूरी तरह लागू नहीं किया जाता है? उन्होंने अलग शैली में उत्तर दिया कि हां, कानून लागू किए जाते हैं, यद्यपि कुछ कमियां रह गयी हैं। उसके लिए कौन जिम्मेदार है? सत्ता में रहने वाले लोग यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते हैं कि कुछ कमियां रह गई हैं। मैं कहना चाहूँगा कि तीसरी पंचवर्षीय योजना में श्रम के संबंध में कहा गया है कि:-

‘‘लोक क्षेत्र के उद्यमों पर श्रम नीतियों के अनुपालन का विशेष दायित्व है। इसके लिए प्रोत्साहनों के साथ उपयुक्त वेतन नीति, कार्मिकों का सावधानी पूर्वक चयन, सभी स्तरों के श्रमिकों के कौशल में सुधार करने के लिए सुव्यवस्थित प्रशिक्षण, श्रमिकों की क्षमता में सुधार के बाद उन्हें उच्च पद प्राप्त करने के अवसरों, उद्यमों के संचालन में सुधार करने के लिए सुझाव देने हेतु श्रमिकों को सक्रिय प्रोत्साहन और उपयुक्त पुरस्कारों के द्वारा उपयोगी विचारों को मान्यता, आदि की आवश्यकता है।’’

यह उद्देश्य क्यों नहीं प्राप्त हो पाया? यदि एक मंत्री अपनी जिम्मेदारी दूसरे मंत्री पर डालता है तो बात नहीं बनेगी। इसीलिए, उप-सभापति महोदय, आपके माध्यम से, मैं सरकार को चेतावनी देना चाहूँगा कि मैं उत्पादन की मात्रा या इस उत्पादन से हुए लाभ और हानि के प्रति कम चिंतित हूँ, जबकि, इसके पीछे राजनीतिक षड्यंत्र और राजनीतिक संभावना के प्रति अधिक भयभीत हूँ।

समस्या यह नहीं है कि सरकार राष्ट्रीयकरण की नीति को क्रियान्वित नहीं कर पाएगी या यह सरकार लोक उद्यमों की समुचित रूप से स्थापना नहीं कर रही है। यदि सरकार अपनी गलतियों को नहीं सुधारती है और अपनी गलत नीतियों को दूर नहीं करती है, तो भावी सरकार और समाज को समाजवादी पथ पर देश को ले जाने में कठिनाई होगी। तब, यह सरकार न केवल नए उद्योगों की कमी, उत्पादन में कमी, लोगों के धन की बर्बादी के लिए ही नहीं बल्कि देश के भविष्य को भी बर्बाद करने के लिए उत्तरदायी होगी। सरकार का यह दायित्व है कि देश के उज्जवल भविष्य का निर्माण करे। इसलिए, मुझे विश्वास है कि सरकार इन उद्योगों का नियंत्रण और प्रबंध न करने में इस बात को ध्यान में रखेगी, ताकि पीछे धकेलने वाली शक्तियों को लोक उद्यमों की मूलभूत संकल्पनाओं को चुनौती देने का अवसर न मिले।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।