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जनशक्ति से हुआ है सार्वजनिक उद्यमों का निर्माण, इसे तोड़कर देश नहीं जोड़ सकते

सार्वजनिक क्षेत्र के प्रमुख उपक्रमों की कठिनाइयों पर चन्द्रशेखर लोकसभा में 3अगस्त, 1995को

अध्यक्ष जी, सोमनाथ जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाया लेकिन हमारे वित्तमंत्री ने एक संकेत किया है। उनका कहना है कि जो कुछ संसद ने किया है, वे उसी के आधार पर काम चला रहे हैं। उनकी बात सही है। जिस दिन हमने नई आर्थिक नीतियों को स्वीकार किया, उसी दिन हमने सार्वजनिक क्षेत्र को समाप्त करने का निर्णय भी ले लिया। चाहे मनमोहन सिंह जी इस बात के लिए इंकार करें लेकिन मैं नहीं समझता, वे एक अर्थशास्त्री हैं। वह जानते हैं कि जहाँ स्वतंत्र अबाध प्रतियोगिता होगी और उस प्रतियोगिता में दुनिया के बड़े-बड़े औद्योगिक घराने आएंगे, हमारे देश के उद्योगों, खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्देश्य का क्या होगा? इससे वही नहीं, सभी अवगत हैं।

अभी इन्द्रजीत भी भारत हैवी इलैक्ट्रिकल्स की चर्चा कर रहे थे। भारत हैवी इलैक्ट्रिकल्स एक अच्छा उद्योग है, लेकिन क्या यह सही नहीं है कि आज प्रतियोगिता में वह भी अपना जीवन संरक्षण करने में असमर्थ दिखाई पड़ता है? क्या यह सही नहीं है कि भारत हैवी इलैक्ट्रिकल्स ने आपसे कहा था कि डाभोल प्रोजैक्ट को हम चालू कर सकते हैं लेकिन एक विदेशी कम्पनी के सामने हमें झुकने पर मजबूर होना पड़ा ? जब हम अबाध प्रतियोगिता की बात करते हैं और कहते हैं कि हम आत्मनिर्भरता के सिद्धान्त को आज निरर्थक मानते हैं तो हमको इन बातों के लिए तैयार रहना चाहिए कि हमारे देश के सार्वजनिक क्षेत्र के जो उद्योग हैं, उनको अन्य भारी उद्योगों के सामने धीरे-धीरे अपना दम तोड़ना पड़ेगा और वे दम तोड़ रहे हैं।

मैं वित्तमंत्री जी से निवेदन करूँगा, वे ये आकड़े बताएं कि चार वर्षों में हमारे यहाँ से कितने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग चले गए। यह भी बताएं किसार्वजनिक उद्योगों का जो शेयर हमने बेचा, उसमें कितने हजार, करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। मैं स्पैसीफिक में नहीं जाना चाहता। सवाल व्यक्तिगत नुकसान का नहीं है। सवाल राष्ट्रीय उद्योग का है और संतोष मोहन देव जी हमारे बड़े मित्र हैं। आज एक समाचार पत्र ने लिखा है कि मैंने पिछले तीन दिनों में से उन्होंने दो दिन कांग्रेस पार्टी को बचाने की कोशिश की। मैं कांग्रेस पार्टी को बचाने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार देश को बचाने की कोशिश जरूर कर रहा हूँ। यदि ये लोग खुदकुशी करने को तैयार हैं तो उसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ। जब मैंने राजनीति शुरू की थी, उस समय आचार्य नेरन्द्र देव ने जो कहा था, आज हमको उनका वह वाक्य याद आता है। उन्होंने कहा था-‘‘मैं उन अक्लमन्दों में नहीं हूँ जो खुदकुशी कर लें, दूसरे जन्म की तमन्ना में’’।

विदेशी लोग आएंगे, हमारे देश को सरसब्ज बना देंगे, हमारे देश को तरक्की दिला देंगे, इसके लिए 40-45 वर्षों में जो कुछ हुआ वह हम सब मिटा देंगे, क्या हमारी आर्थिक नीतियों के पीछे यह बात बार-बार नहीं कही गई ? वित्तमंत्री जी, यदि आप अपने ही वक्तव्य को याद करें तो आपने कहा कि 40-45 वर्षों में सब गलत हुआ। जवाहर लाल नेहरु बड़े नेता थे। लाल बहादुर शास्त्री बड़े नेता थे, इंदिरा जी और राजीव गाँधी के तो रोज दीप जलाए जाते हैं। लेकिन क्या सही बात यह नहीं है कि देश में कोई भी आदमी, जिसको थोड़ी सी भी अर्थनीति की, औद्योगिक नीति की समझ है, यह नहीं जानता कि जो कुछ भी परम्परा थी, उसको समाप्त किया जा रहा है? हमारे देश का सबसे बड़ा संकट यही है।

हमारे देश में अनेक विवाद हुए, नक्सलवादी आन्दोलन चले, हिन्सा की घटनाएं हुईं लेकिन जो राष्ट्र की मान्यताएँ थीं, उनमें हम सब एकमत हुए। स्वावलम्बन का सिद्धान्त, अपने गरीबों के बल पर देश बनाने का सवाल, इस पर चाहे कोई भी पार्टी हो, जो हमारे देश में हिन्सा की बात करते थे, उन्होंने भी राष्ट्रीय आन्दोलन के मूलभूत सिद्धान्तों से अपने को अलग नहीं किया। इसलिए उस समय समाज के टूटने का खतरा पैदा नहीं हुआ, हम बड़े से बड़े संकट से निकल सके क्योंकि कुछ बातों में यह देश एक आवाज से बोलना जानता था।

वर्तमान में आप, इन मान्यताओं से दूर हट रहे हैं। इन मान्यताओं से दूर हटकर आप देश को एक साथ नहीं रख सकते। देश के लोगों के मन में जोवषाद, जो वितृष्णा, उनके मन में जो रोष पैदा हो रहा है, जिसकी अभिव्यक्ति हमारे इन्द्रजीत गुप्त जी ने की है, उसको आप नहीं रोक सकते। आप उनकी आवाज को बन्द कर देंगे, क्योंकि आप बहुमत में हैं, आपके पास आंकड़े हैं। शायद आप मेरी बातों को गलत साबित कर देंगे, लेकिन याद रखिये, आप कितने लुभावने सपने दिखायें, जब मजदूर उद्योगों से निकाला जायेगा, जब उसकी रोजी छीनी जायेगी, जब उसके बच्चे भूख से मरेंगे तो भूख की आवाज दुनिया में कोई नहीं दबा सकता है और भूख की आवाज ही हिन्सा की आवाज हुई है।

हमें यह लगता है कि उस भूख से आपका रिश्ता टूट गया है। देश की राजनीति का रिश्ता इसलिए टूटता जा रहा है, क्योंकि देश की राजनीति का रिश्ता आज हमारे विदेशों के वैभव से है। हमारे मन के सोचने की बात आज दुनिया की चकाचैंध से है, जिसका जिक्र अभी इन्द्रजीत गुप्त जी ने किया। हम अचानक एक रात में विश्व नागरिक बन गये हैं। मैंने एक बार और कहा था कि अब हम भारत के नागरिक केवल नहीं रह गये हैं, हमने अपनी सीमाओं के अन्दर सोचना छोड़ दिया है, हम किसी दिवास्वप्न में अपने को भूल रहे हैं और यही भूल सार्वजनिक उद्योगों के विनाश का कारण बन रही है।

अध्यक्ष महोदय, मैं वित्तमंत्री जी से कहूँगा, मैं उनको बहुत दिन से जानता हूँ, मैंने उनके साथ काम किया है। उनमें बुद्धि है, उनमें समझ है, उनमें ईमानदारी भी है, लेकिन पता नहीं इनको हो क्या गया है? मैं कई बार अकेले में उनसे कहता हूँ कि हरदम एक ऐसा लुभावना सपना मत दिखाइये, इस लुभावने सपने ने दुनिया कई देशों को बर्बाद किया है। भारत अपवाद नहीं होने वाला है, सारे अफ्रीका, सारे लेटिन अमेरिका, सारी दुनिया के देशों ने, गरीब देशों ने इस लुभावने सपने में अपना नाश कर लिया है। भारत में भी वह विनाश आयेगा। यह दूसरी बात है कि आप पाँच वर्ष काट लें, हम लोग 2-4 वर्ष पार्लियामेन्ट में काट लें, लेकिन यह देश धीरे-धीरे बिखर रहा है।

हमारी सबसे बड़ी सम्पदा जनशक्ति है और वह जनशक्ति हमसे दूर हो रही है, वह बेबस और लाचार हो रही है। कृपा करके उस पर सोचिये। उसी जनशक्ति के आधार पर इन सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का निर्माण किया गया था, उस जनशक्ति को तोड़कर आप देश को जोड़ नहीं सकते।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।