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खाद और स्टील कारखानों को बचाना है तो आयात पर रोक लगाए भारत सरकार

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर लोकसभा 28 मार्च, 1998को चन्द्रशेखर

सभापति महोदय, कल से यहाँ जो बहस चल रही है, उस बहस का प्रारम्भ भारत के प्रधानमंत्री, श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने किया। उन्होंने जो भाषण दिया उनसे असहमत होते हुए भी मैं कहना चाहूँगा कि उनके भाषण में देश के बारे में चिन्ता थी। उन्होंने हमारी चुनौतियों को समझने का प्रयास किया था। उन्होंने देश को एक दिशा में ले जाने के लिए हमें संकेत दिया था। यह बात दूसरी है कि उसके बारे में विभिन्न विचार हों और मैं उनसे सहमत न हूँ लेकिन उसके बाद जो बहस चल रही है, उससे मुझे ऐसा लगता है कि उनके निवेदन का कोई असर इस सदन पर नहीं पड़ा। दोनों तरफ से केवल एक-दूसरे की आलोचना, एक-दूसरे पर कटाक्ष, पुराने गीत दोहराने की बातें, पुरानी कुरीतियों का, पुराने कुकृत्यों का बखान इस सदन में हुआ है, भविष्य की चिन्ता कम दिखाई पड़ती है।

महोदय, मैं नहीं जानता, कोई भी राष्ट्र जो केवल अतीत पर रोता रहेगा, वह नया भविष्य कैसे बना सकेगा ? मैं इस सदन के सामने बड़े विनम्र शब्दों में कहना चाहता हूँ कि आज सारा देश और सारी दुनिया इस सदन की ओर देख रही है और यह समझती है कि भारत इस कठिन समय में, संकट की घड़ी में कुछ निर्णायक कदम उठाएगा। मैं मानता हूँ कि सदन में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। यह बात दुनिया में निराली नहीं है। दुनिया के अनेक देशों में यह परिस्थिति पैदा हुई लेकिन उन लोगों ने देश को बचाने के लिए, देश को आगे बढ़ाने के लिए, समस्याओं के समाधान के लिए अपने अन्तर-विरोधों को भुला कर, मिल कर सहयोग के रास्ते पर काम करने का प्रयास किया और उन्हें उसमें सफलता भी मिली।

महोदय, प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण का प्रारम्भ यहीं से किया। मैं बड़े विनम्र शब्दों में कहना चाहूँगा कि प्रधानमंत्री जी, अगर आपने अपनी सरकार का प्रारम्भ उसी तरीके से किया होता तो शायद उतनी कटुता इस सदन में आज न होती, जो कुछ इन पिछले 20 दिनों में हुआ। उससे देश के मानस और कम से कम इस सदन के सदस्यों के मानस में कटुता ही बढ़ी है, आपस में टकराव की भावना बढ़ी है। यह बात सही है, कि जजबातों को उभार कर वोट पाए जा सकते हैं, सरकार बनाई जा सकती है लेकिन देश की समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता। जजबातों को उभारने का जो पुराना काम हुआ, उसकी चर्चा मैं नहीं करूँगा। वे घाव अभी भी हरे हैं। उन हरे घावों पर नमक डालने से देश में कोई अच्छी बात नहीं बनेगी। मैं अपने वाणिज्यमंत्री से कहना चाहता हूँ, जो हमारे मित्र हैं, मैं उनकी सलाह पर ही चलना चाहूँगा, उन्होंने कहा है कि अभी सरकार को कोई कदम उठाने का मौका नहीं मिला, अभी सरकार थोड़े दिन पहले बनी है, उस पर अगर चर्चा होती तो हम समझते कि कोई सार्थक चर्चा हो रही है।

सभापति जी, आपकी आज्ञा से मैं प्रधानमंत्री जी का ध्यान उन बातों की ओर खीचना चाहूँगा जो सरकार बनने के बाद हुई हैं। मैं अध्यक्ष के चुनाव की चर्चा नहीं करूँगा। कैसे सरकार बनी, कौन लोग सरकार में आए, किस तरह से एकता हुई और उस एकता के लिए कोई पृथक एजेंडा है या नहीं, इससे मुझे कोई मतलब नहीं। इससे भी मुझे कोई मतलब नहीं कि भारतीय जनता पार्टी आगे क्या करेगी? भारतीय जनता पार्टी के बारे में अपने विचार मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार प्रकट किए हैं। हमारे इन मित्रों में से बहुतों को यह आशा रही होगी, हमें तो कोई आशा नहीं थी कि भारतीय जनता पार्टी अचानक ही बदल जाएगी। चाहे जो कुछ भी आप कहें लेकिन आप बदलने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी संघ परिवार का एक सदस्य है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से हमारा चाहे जितना भी विरोध हो, वह संघठित, निष्ठावान, संकल्प वाले नवयुवकों का संगठन है। मैं यह बात आज से नहीं कह रहा हूँ। आज से कई वर्ष पहले हमारे बहुत से मित्रों ने इस बात के लिए उस समय आलोचना की जब उन्होंने कहा कि वह स्वदेशी का आन्दोलन चलाएंगे और हमने हम उनका साथ देंगे। हमारे मित्र मुरली मनोहर जोशी जी आज जो स्वदेशी की परिभाषा कर रहे थे तो मैं सोच रहा था कि इंसान कितना बदल जाता है, सरकार मेआने के पहले और सरकार में आने के बाद।

मैं आपसे कहना चाहूँगा कि भारतीय जनता पार्टी बदलेगी नहीं और बदलना भी नहीं चाहिए और हमें ऐसी आशा भी नहीं है लेकिन प्रधानमंत्री जी यह कह रहे हैं कि सहमति का रास्ता ढूंढना चाहिए, मिल करके काम करना चाहिए। मैं कुछ सवाल आपके सामने रखना चाहूँगा। समझौते क्या हुए, किसके कितने मंत्री होंगे, ये बातें अलग है। मंत्री आते हैं चले जाते हैं, प्रधानमंत्री आएंगे चले जाएंगे लेकिन यह देश रहेगा। कुछ बुनियादी सवालों का जवाब मैं प्रधानमंत्री से जरूर चाहूँगा कि वे किस रास्ते पर इस देश को ले जाना चाहते है। क्या सहमति का रास्ता उसी तरह से बनेगा जो तरीका आपने पिछले 20 दिनों में अपनाया हैं। क्या आप समझते हैं कि विरोधी पार्टियां आपके बहुमत पा जाने से आपके पीछे लग जाएंगी। क्या आप समझते हैं कि विरोधी पार्टियां आपका विरोध करना छोड़ देंगी।

मैंने पिछली बार एक बात कही थी जिससे आपके लोग बहुत नाराज हुए थे। तब मैंने कहा था कि आपको बहुमत नहीं मिलेगा, आप त्यागपत्र दे दीजिए। आज वह बात मैं नहीं कहता क्योंकि मैं नहीं जानता कि आपको बहुमत मिलेगा या नहीं। लेकिन प्रधानमंत्री जी आप विदेश मंत्री रहे हैं। आपके निकट सम्पर्क में रह करके मुझे कुछ काम करने का मौका मिला है। मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या आप चीन के बारे में अपनी नीति बदलने वाले हैं ? क्या तिब्बत के ऊपर भारत का दृष्टिकोण बदला है ? अगर नहीं बदला है तो जब आपकी कैबिनेट का, मंत्रिमण्डल का एक सदस्य इन सवालों पर कुछ और बयान देता है तो आपकी उस पर क्या प्रतिक्रिया है। क्या देश को चलाने का यही रास्ता है ? क्या देश इस रास्ते पर चलेगा। क्या संसदीय जनतन्त्र को चलाने में कैबिनेट की, मंत्रिमण्डल की संयुक्त जिम्मेदारी होती है या नहीं ?

सभापति जी, मैं एक-दो बुनियादी सवालों को कुछ मिनटों में कहकर अपनी बात समाप्त कर दूंगा। मैं जानता हूँ और यह एक सिद्धान्त है कि सेना का उपयोग आन्तरिक मामलों में नहीं होना चाहिए। इसे हम सभी जानते हैं लेकिन क्या मंत्रिमण्डल के किसी सदस्य को यह स्वतंत्रता है कि किसी भी हालत में वह कहे कि किसी भी स्थिति में सेना आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी। अगर सेना में ही विद्रोह हो जाए, मैं कल्पना नहीं कर रहा हू 1984 में एक समय हुआ था। आपके मंत्रिमण्डल के एक सदस्य ने बयान दिया है, अखबारों में मैंने पढ़ा है मैं नहीं जानता, उस समय कौन जाएगा ? क्या कोई वालेंटियर कोर वहाँ जाएगी। अगर पुलिस की कोई टुकड़ी विद्रोह कर दे, तब उस परिस्थिति में क्या होगा, जैसा दिल्ली में हुआ, उत्तर प्रदेश में हुआ, बिहार में हुआ। जब ऐसे सवालों पर मंत्रिमण्डल के सदस्य बयान देते हैं तो क्या हमारे मन में यह शंका पैदा नहीं होती, क्या हमारे मन में यह नहीं आता है कि यह सरकार किसी भी हालत में देश को चलाने के लिए न तो गम्भीर कदम उठा सकती है न इसमें कोई मानसिकता है सिवाए इसके कि यह सरकार किसी तरह से कुर्सियों पर बैठे रहना चाहती है। अगर भविष्य के बारे में चिन्ता है तो इन बुनियादी सवालों पर आपका संकेत जाना चाहिए।

मैं नहीं जानता कि कोई भ्रष्टाचार का दोषी है या नहीं ? मैं उन लोगों में से हूँ जिन्होंने बार-बार इस सदन में और उसके बाहर यह बात कही है कि जब तक कोई भ्रष्ट न्यायालय से साबित न हो जाए, उसको भ्रष्ट कह कर उसकी मर्यादा को मत गिराओ। मैंने एक व्यक्ति के लिए नहीं कहा। मुझे आज भी इस बात को कहने में गौरव है कि आडवाणी जी पर जब आरोप लगा था मैंने अखबारों के जरिए कहा कि मैं विश्वास नहीं करता कि आडवाणी जी कोई ऐसा काम करेंगे। इसके लिए मेरी आलोचना हुई। मैंने लालू प्रसाद यादव, माधवराव सिंधिया और सुखराम के लिए जब ऐसा कहा तो उस समय मेरी बड़ी आलोचना हुई। हमारे इस तरफ के बैठे मित्रों ने हमारी कटु आलोचना की, व्यंग्य के शब्द कहे।

हम नहीं, जानते कब किससे जनतन्त्र में मदद लेनी पड़ जाए ? किसी के चरित्र को गिरा देना आसान है, किसी के व्यक्तित्व को तोड़ देना आसान है। आडवाणी के व्यक्तित्व को तोड़ सकते हो, लालू को मिटा सकते हो, मुलायम सिंह को गिरा सकते हो, कल्पनाथ राय को जनता की जनर से हटा सकते हो लेकिन हम और आप में सामथ्र्य नहीं है कि हम दूसरा आडवाणी या दूसरा लालू प्रसाद यादव या मुलायम सिंह या कल्पनाथ बना दें। इस बात को हमें याद रखना चाहिए। आज हम किस तरह से एक-दूसरे से मुँह छुपा रहे हैं ? उन नामों को लेकर बार-बार चर्चा होती है तो मुझे लगता है कि क्या अतीत की वही कटु स्मृतियां जगाते हुए हम भारत के नए भविष्य को बनाना चाहते हैं ? आपइस बात पर फिर से गौर कीजिए।

महोदय, भ्रष्टाचार मिटना चाहिए क्योंकि वह आपके एजेंडे का एक अंग है। लेकिन भ्रष्टाचार केवल पैसे का लेन-देन नहीं हैं। भ्रष्टाचार के साथ एक शब्द है हिन्दी में जिसको सत्यनिष्ठा कहा जाता है, जिसको अंग्रेजी में इंटीग्रिटी कहा जाता है। अगर सत्यनिष्ठा नहीं है तो सरकार नहीं चलायी जा सकती और सत्यनिष्ठा का पहला प्रमाण है कि जो जिस पद पर है, जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व को निभाने के लिए उस पर नियंत्रण रखे। कम से कम अपनी वाणी पर नियंत्रण अवश्य रखे।

आपने स्वदेशी का जिक्र किया। मुरली मनोहर जी होते तो बहुत अच्छा होता। वित्तमंत्री जी हमारे मित्र हैं। वह बुद्धिमान व्यक्ति हैं। कल उन्होंने बहुत सोच-समझ कर शब्दों का इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि लिबरलाइजेशन चलता रहेगा, उदारीकरण चलेगा लेकिन स्वदेशी भी चलेगा। अभी मुरली मनोहर जी कह रहे थे कि हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के हाथ से बनेगा, यह हमारे एजेंडे में लिखा है। क्या दुनिया में यही स्वदेशी की अवधारणा है। क्या गाँधी जी की यही अवधारणा है ? पता नहीं किसने कहा था, मैंने उनसे सुना कि शरद पवार जी को गाँधी जी के स्वदेशी की याद नहीं है।

जिस सज्जन ने कहा था, उनको मैं याद दिलाना चाहता हूँ कि गाँधी जी ने 1930 में विदेशी कपड़ों की होली जलायी थी। उन्होंने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार की बात की थी। हमारे एक मित्र इस तरफ से कह रहे थे कि स्टील एथाॅरिटी आफ इंडिया बन्द होने को है। मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि क्या बाहर से आने वाले स्टील पर आप रोक लगाने के लिए तैयार हैं ? इसमें स्टील एथाॅरिटी के अफसरों का कोई दोष नहीं। वहाँ कोई कमी नहीं आई है। जिस तरह से बाहरी दुनिया से स्टील का आयात हो रहा है, स्टील ही नहीं, फर्टिलाइजर का आयात हो रहा है, उसके कारण हमारी कम्पनियां बन्द हो रही हैं। आप बेरोजगारी मिटाने का वायदा एजेंडे में करते हो और चाहते हो कि देश इस पर विश्वास करे। क्या यह देश चलाने का रास्ता है ? ये सब काम सरकार बनने के बाद हुए हैं।

मैं खासतौर से प्रधानमंत्री जी से कहना चाहता हूँ कि इस तरह के असत्य वायदे करके, लोगों को भ्रम में डाल कर बहुत आशा दिलायी जा चुकी है, बहुत लोगों के दिलों में विश्वास दिलाया गया है, बहुत बार विश्वास टूटे, एक बारफिर उस विश्वास को तोड़ेंगे तो शायद यह जनतन्त्र टूट जाएगा। इसलिए हम आपके इस विश्वास तोड़ने की कला का विरोध करते हैं। अभी हमारे वाणिज्यमंत्री जो कि मेरे मित्र हैं और विशेषज्ञ हैं, उन्होंने कहा कि हमने केवल इतना कहा है कि कास्टीट्यूशन रिव्यू होगा। हमने उसे कितने बार अमैंड किया है ? मैं ऐसा समझता हूँ कि हमसे ज्यादा उनको अंग्रेजी आती है। अमैंड करने और रिव्यू करने में अन्तर होता हैं।

यहाँ पर संविधान के बहुत से ज्ञाता बैठे हुए हैं। जब आप कांस्टीट्यूशन रिव्यू करने की बात करते हैं, अपने ऐजेण्डा में तो क्या इस पर आपने न्यायविदों से चर्चा की है ? क्या दूसरी पार्टियों की सहमति ली है, क्या इस पर कोई चर्चा हुई है ? किस दिशा में आप संविधान का रिव्यू करने जा रहे हैं ? याद रखिये कि जब-जब डोमोक्रेसी टूटी है, जब-जब संसदीय जनतन्त्र टूटा है, वहाँ के नेताओं ने यह कहा है कि संविधान कमजोर है, इसको बदलने की जरूरत है। मैं जो संकेत देखता हूँ, यह खतरनाक संकेत है। मैं नहीं जानता कि इरादे क्या हैं लेकिन भाषा का इस्तेमाल करते हुए दुनिया के इतिहास को नजर में रखिये। अगर दुनिया के इतिहास पर नजर नहीं रखेंगे तो याद रखिये यहाँ के कुछ सदस्य ही आपकी बातें नहीं सुन रहे हैं, इस एजेण्डा को केवल हम ही नहीं पढ़ रहे हैं, सारी दुनिया के लोग एजेण्डा को देख रहे हैं। आपने जो एजेण्डा बनाया है, वह एक भयंकर दिशा में संकेत करता है। यह भयंकर दिशा में संकेत, मैं नहीं जानता आपने जान-बूझकर यह किया है या अनजाने में किया है, लेकिन मुझे हैरानी होती है।

यहाँ हमारी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बैठी हुई हैं। कल उन्होंने हिन्तुत्व की परिभाषा सदन में सुनायी। मैं भी उनका भाषण कहीं बैठा सुन रहा था क्योंकि उस समय मैं सदन में उपस्थित नहीं था। वही हिन्दुत्व की परिभाषा श्री मुरली मनोहर जोशी जी ने आज बताने की कोशिश की। आप उच्चतम न्यायालय की बात बार-बार हमारे सामने दोहराते हैं। मैंने प्रधानमंत्री की हैसियत से कहा है कि मुझे इस बात का अभिमान है कि मैं हिन्दू हूँ लेकिन मेरी दृष्टि में हिन्दुत्व क्या है, यह भी मैंने उसमें कहा था। मैं आपसे जानना चाहूँगा खासतौर से प्रधानमंत्री जी से कि अभी उन्होंने सर सैयद अहमद की एक किताब पढ़कर सुनायी। मैं इसका जिक्र नहीं करता लेकिन इस तरह की किताबों को पढ़कर किसको भ्रम में रखना चाहते हैं ? 1939 में इसी देश में एक किताब छपीथी ‘द इंडियन नेशनहुड डिफाइन्ड।’ उसमें लिखा है कि एक चैरिटी आफ रेस का रास्ता हमको हिटलर ने बताया है। भारत के लिए वह रास्ता देखने और समझने योग्य है। उसमें लिखा है कि माइनौरिटी को नागरिकों का अधिकार नहीं होगा। उसमें लिखा है कि हमारे देश में ये केवल अतिथि के रूप में है। चाहें तो रहें, नहीं तो उनको इस देश से बाहर जाना पड़ेगा।

मैं समझता हूँ कि इसमें बैठे हुए सब लोग बीजेपी के लोग जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हैं, उन्होंने उस किताब को पढ़ा होगा। 1939 में लिखी गई उस किताब का क्या आपने कभी खंडन किया ? क्या कभी आपने कहा कि उसमें हिन्दुत्व की जो परिभाषा दी गई है, उससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या बीजेपी सहमत नहीं है ? आडवाणी जी, मैं आपकी बड़ी इज्जत करता हूँ। यह कह देना आसान है कि आपकी सरकार, आपकी पार्टी इस बात से सहमत नहीं है। आप में यह शक्ति है कि आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से असहमति जाहिर कर सकते हैं। मैं नाम नहीं लेना चाहता। अगर यह बात है तो फिर आर.एस.एस. को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि वह कहे कि उस पुस्तक में जो विचार व्यक्त किये गए हैं, उससे आर.एस.एस. असहमत है और उससे बीजेपी का कोई सम्बन्ध नहीं है। अगर ऐसा हो जाए तो यह बात बहुत अच्छी है।

मैं आपसे एक दूसरी बात पूछना चाहता हूँ। आप राष्ट्र को नयी दिशा देने वाले हैं, एक नयी राजनैतिक संस्कृति देने वाले है। क्या राजनैतिक संस्कृति है मुझे मालूम नहीं लेकिन उसमें लिखा गया है कि एक नयी राजनैतिक संस्कृति बनेगी। क्या वह संस्कृति वही होगी जिसका प्रदर्शन दो दिनों से इस सदन में हो रहा है? एक तरफ से नहीं, दोनों तरफ से और इस संस्कृति को बदलने का क्या यही रास्ता है ? मैं एक और सवाल आपके सामने रखना चाहूँगा। विदेश मंत्री जी और प्रधानमंत्री जी ने दुनिया की बहुत सी संस्थाओं में भारत का नेतृत्व किया है। आपको बड़ा अनुभव है। मुझे याद नहीं शायद आपको ज्यादा याद होगा। ईदी अमीन के अलावा दुनिया में कोई दूसरा राष्ट्रनायक हुआ जिसने बयान देकर कहा हो कि हम ऐटम बम बनाएंगे। आपके मंत्रिमण्डल का एक सदस्य पे्रस काॅन्फ्रेन्स करके कहता है कि मैं ऐटम बम बनाऊँगा और दूसरे ही दिन पाकिस्तान से मांग आती है कि इण्डिया पर रोक लगाई जाए। क्या अपने पड़ोसियों के साथ रिश्ते सुधारने का ये पहला कदम है जो आपकी सरकार उठा रही है। इन सवालों का जवाब देश ही नहीं,दुनिया जानना चाहती है। इन सवालों का जवाब दिये बिना हम कहाँ जायेंगे। मैं नहीं चाहता कि विवादास्पद सवालों को उठाया जाए। लेकिन इस देश में हमें अंग्रेजी और हिन्दी में सारे काम करना तय किया था। हमने यह कहा था कि सब भाषाओं को समान आदर दिया जायेगा। आपने लिखा है कमीशन बनेगा। 19 भाषाओं को वही दर्जा दिया जायेगा जो अंग्रेजी और हिन्दी को दिया जायेगा। इसी सदन में नीतीश जी बैठे हुए हैं। सैकड़ों बार तो इनके मुँह से मैंने सुना है कि हिन्दी का अनुवाद कहाँ है। अगर आपका यह एजेंडा लागू हो गया तो 19 भाषाओं का अनुवाद अब नीतीश जी आपको करना पड़ेगा। क्या एजेंडा लागू करते समय आपने सोचा कि इसका क्या दूरगामी परिणाम होगा। कुछ लोगों को प्रसन्न करने के लिए भारत के भविष्य के साथ और सारी कार्य पद्धति के साथ खिलवाड़ किया जा सकता है। क्या इस तरह की बातें हमारी गैर जिम्मेदाराना हरकतों की परिचायक नहीं हैं।

इन सवालों पर हमें और आपको गौर करना पड़ेगा। मैं कहता हूँ जज्बातों के साथ हम सब लोग बहुत खेल चुके हैं। जाति का सवाल हो, धर्म का सवाल हो, भाषा का सवाल हो, क्षेत्रीय सवालों के ऊपर हम एक-दूसरे को भड़काकर साथ लेकर बहुत कुछ कर सके। आप चार राज्य बना रहे हैं। मैं समझता हूँ आप अवगत हैं। यहाँ नेता विरोधी दल बैठे हुए हैं। क्या उनके राज्य में चार और राज्य बनाने की मांग नहीं चल रही है। विदर्भ का क्या होगा, मराठवाड़ा का क्या होगा, सौराष्ट्र का क्या होगा, तेलंगाना का क्या होगा। एक जगह ही नहीं, कोई राज्य नहीं है जहाँ इस तरह की मांग न हो। उस दिन बोडो के हमारे साथी सवाल उठा रहे थे। क्या आप यह काम कर सकते हो।

प्रधानमंत्री जी, क्या वह दिन आपको याद है जब पहली बार जनता पार्टी की सरकार बनी थी और उस दिन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में यह कहा गया था कि हम छोटे राज्य बनायेंगे। पहली पार्लियामेंट्री बोर्ड की मीटिंग में हमारे वरिष्ठ नेताओं ने यह कहा था कि छोटे राज्य बनाने का काम हाथ में ले लो। मैंने हाथ जोड़कर निवेदन किया था, मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिए। गाँधी जी का नेतृत्व था, राष्ट्रीय आन्दोलन की सहमति थी, राजेन्द्र बाबू राष्ट्रपति थे, पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे, सरदार पटेल गृह मंत्रीथे। उस समय सिद्धान्तों के आधार पर जो भाषावार राज्य बनाने की बात की, हमने उसको स्वीकार किया था। इस देश में कितना खून बहा था। उस समय का देश हिन्दुस्तान ऐसा नहीं था, जो आज है। 1977 में हमने अपने नेताओं से कहा था कि कुछ और काम कर लीजिए, उसके बाद छोटे-छोटे राज्य बनाने का काम कीजिए।

श्रीमन्, छोटे राज्य की कल्पना से हमारा कोई विरोध नहीं है। लेकिन क्या यही अवसर है, जब चारों तरफ तूफान खड़ा हो रहा है। छोटे-छोटे मुद्दों पर आतंकवाद जैसी स्थिति पैदा हो रही है। अगर चार राज्य बनेंगे तो क्या 12-14 जगहों से इनकी मांग नहीं उठेगी ? क्या उसके बारे में आपने सोचा है। क्या उन चार राज्यों का ज्यादा दवाब था। चाहे असेम्बली का प्रस्ताव हो, यह काम मत कीजिए। देश की राजनीति से अगर यह खिलवाड़ होगा तो यह देश के भविष्य के साथ बड़ा भारी विश्वासघात होगा।

सभापति महोदय, खंडूड़ी साहब ने जो सवाल उठाया है। उसको मैं समझता हूँ। हमारे देश में अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पर विकास का काम नहीं हुआ है और उस बात को मैं जानता हूँ। लेकिन खंडूड़ी साहब उसके लिए हमारे संविधान में प्रोविजन है। जितने अविकसित इलाके हैं, वहाँ पर विकास परिषदें बनाई जाएं। उनके लिए विशेष योजनाएँ चलाकर वहाँ विकास का काम किया जा सकता है। यह कदम पहले ही नहीं उठाया गया, अगर वह कदम उठाया गया होता तो आज उत्तराखण्ड, उत्तरांचल, वनांचल की मांग इतनी जोर नहीं पकड़ती। यह बात आज से नहीं 1967-68 से मैं अपने राजनेताओं से बार-बार कहता रहा हूँ। मैं ही नहीं कह रहा हूँ 1950 में प्लानिंग कमीशन का उद्घाटन करते हुए पंडित नेहरू ने कहा था- आंचलिक विषमता हमारे लिए अभिशाप बन जायेगी।

अगर हम आंचलिक विषमता को नहीं मिटा सके, अगर हम पिछड़े इलाकों के लिए विशेष योजनाएं नहीं बना सके, तो देश टूट जाएगा। हमें दुःख है कि पं. जवाहर लाल नेहरू की राय के बावजूद, 50 वर्षों के प्रजातंत्र के प्रयोग के बाद भी हम उस काम को नहीं कर सके।

मैं चाहता हूँ कि छोटे राज्य बनने चाहिए, परन्तु आज जब चारों तरफ खून-खराबा, आपसी विग्रह, घृणा और नफरत का वातावरण है, तब यह नहीहोना चाहिए। यहाँ हमारे सोमनाथ दादा बैठे हैं। क्या होगा, आपके यहाँ भी वनांचल बनेगा, आपके यहाँ भी गोरखालैंड बनेगा। कोई राज्य बचा नहीं रहेगा। प्रधानमंत्री जी और खासतौर से गृहमंत्री जी, क्या आप उस स्थिति को पैदा करना चाहते हैं ?

सभापति जी मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह बुनियादी सवाल है। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि इन बुनियादी सवालों पर जो देश के भविष्य से जुड़े हुए हैं, जो किसी के मान-सम्मान से नहीं जुड़े हैं, किसी पार्टी की एकता के टूटने से नहीं जुड़े हैं, इन पर ध्यान नहीं दिया गया है। देश में जो पार्टियों को जोड़ने और तोड़ने का काम हो रहा है उस पर मुझे कुछ नहीं कहना है। उस पर बोलने के लिए बहुत से पारंगत लोग यहाँ बैठे हैं, ये विचार व्यक्त करेंगे।

प्रधानमंत्री जी, आप जानते हैं, मैंने आपसे आज नहीं, 1967 में कहा था गुरूदेव आप रास्ते से भटक रहे हो और आपका रास्ते से जो भटकाव होगा, वह देश के लिए बहुत कीमती होगा और इसीलिए आज मैं आपको चेतावनी देने के लिए खड़ा हुआ हूँ और देश की जनता से यह कहना चाहता हूँ कि यह नेशनल एजेंडा और कुछ नहीं, केवल विश्वासघात का एक दूसरा दस्तावेज है जिससे देश की बरबादी होगी। इसलिए मैं इस विश्वास मत के प्रस्ताव का विरोध करता हूँ।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।