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बैंकाक में विश्व बैंक के समक्ष वित्तमंत्री का बयान आधारभूत नीतियों के खिलाफ

सार्वजनिक उपक्रमों के मामले पर 20 नवम्बर, 1991 को लोकसभा में चन्द्रशेखर

मेरे मित्र श्री इन्द्रजीत गुप्त ने अत्यन्त मौलिक प्रश्न उठाया है। मैं उद्योगमन्त्री से इस प्रकार के जवाब की आशा नहीं करता हूँ। उन्होंने कहा है कि सार्वजनिक उपक्रमों के पीछे यह दर्शन था कि कुछ बड़े, विशेष मामलों में भारत जैसे देश की आकृति और सम्मान वाला देश विदेशी स्रोत पर निर्भर नहीं कर सकता। इसीलिए सार्वजनिक उपक्रम कुछ सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थापित किए गए थे। यह एकदम अलग मामला है कि वे घाटे में चल रहे हैं अथवा लाभ कमा रहे हैं। प्रश्न यह उठता है कि जब माननीय वित्तमन्त्री देश के बाहर कोई वक्तव्य देते हैं, उन्हीं शक्तियों को आश्वस्त करने के लिए जिनके विरुद्ध यह उपाय किया गया था, तो यह हमारी आधारभूत नीति से एकदम भिन्न है। यह बी.आई.एफआर. का प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न एक वित्तीय प्रश्न नहीं है। यह राष्ट्र की प्रभुसत्ता, अखण्डता व सम्मान से संबंधित एक सामरिक राजनैतिक प्रश्न है।

मैं जानना चाहता हूँ कि सरकार का दृष्टिकोण क्या है? माननीय वित्तमंत्री जी के उस वक्तव्य से, जो उन्हें नहीं देना चाहिए था, उससे कई शंकाएं उठी हैं। बैंकाॅक में वह वक्तव्य देने की क्या आवश्यकता थी? दिल्ली में बहुत जगह थी। विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्राधिकारियों की उपस्थिति में वक्तव्य देने के स्थान पर उन्हें दिल्ली पहुँचने की धैर्य से प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। श्री इन्द्रजीत गुप्त उस मूलभूत मुद्दे का उल्लेख कर रहे थे। यदि सरकार इस मुद्दे पर हमें सूचना देना चाहती है, तो उसका स्वागत है। अन्यथा कृपया जवाब न दें।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।