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सरकार उठाये बैंकों के राष्ट्रीयकरण का कदम नहीं तो उठ जायेगा लोकतंत्र से विश्वास

राज्यसभा में 20 दिसम्बर 1963 को बैंकों का राष्ट्रीयकरण पर चन्द्रशेखर

उपसभापति महोदय, मैं अपने मित्र श्री रघुनाथ रेड्डी को इस सभा के समक्ष यह प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए बधाई देता हूँ, क्योंकि इससे हमें इस देश के समक्ष एक महत्वपूर्ण समस्या पर अपनी राय व्यक्त करने का अवसर मिला है। मेरे माननीय मित्र श्री दह्याभाई पटेल ने यह कहते हुए एक बहुत भावपूर्ण भाषण दिया है कि कोई राष्ट्रीयकरण नहीं होना चाहिए। एक अन्य दिन, जब हम इस मामले पर चर्चा कर रहे थे, इस सभा के एक अति सम्माननीय सदस्य प्रोवाडिया ने यह कहा था कि यह प्रस्ताव देश के आर्थिक लाभ या किसी सामाजिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नहीं है बल्कि यह कार्य कुछ विशेष व्यक्तियों जिनके पास देश में कुछ सम्पत्ति है के प्रति ईष्र्या की भावना के कारण किया जा रहा है। मैं इस तर्क को समझने में असमर्थ हूँ।

श्री दह्याभाई पटेल ने अभी यह कहा है कि देश में प्रत्येक व्यक्ति हेतु मौलिक अधिकार सुनिश्चित किए जाएं और जब कभी इस सीाा के समक्ष कोई प्रगतिशील उपाय प्रस्तुत किया जाता है तब मौलिक अधिकारों के प्रश्न और लोकतंत्र को लेकर बड़े-बड़े नारे लगाए जाते हैं। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि लोकतंत्र से उनका क्या अभिप्राय है। मैं इन माननीय सदस्यों के समक्ष एक ऐसा प्रश्न रखना चाहता हूँ, यह एक ऐसा प्रश्न है जो मैंने या किसी साम्यवादी नेता, किसी कट्टरपंथी या किसी चरमपंथी व्यक्ति ने नहीं बल्कि स्वामी विवेकानन्द ने इस देश के समक्ष रखा था। आपकी अनुमति से मैं उस प्रश्न को उन सभी माननीय सदस्यों के समक्ष रखना चाहता हूँ जो इस आधार पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध कर रहे हैं कि कुछ लोगों के मौलिक अधिकारों की गारंटी सुनिश्चित की जाए। क्या यह कहने के लिए एक चेतावनीहै अथवा हमारे देशवासियों के लिए एक सुझाव है:-

‘‘मेरे भावी सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों यह अनुभव करो। क्या आप यह महसूस करते हैं? क्या आप यह महसूस करते हैं कि ईश्वर और पुण्यात्माओं के करोड़ों अवतार निर्दयी लोगों के साथ रहे हैं? क्या आप इस बात को अनुभव करते हैं कि आज करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हैं और करोड़ों लोग सदियों से भुखमरी के शिकार रहे हैं। क्या आप यह महसूस करते हैं कि अज्ञानता ने धरा को एक काले बादल की तरह ढक रखा है? क्या यह बात आपको बेचैन करती है? क्या इस बात को लेकर आप अशांत हैं? क्या यह बात आपकी शिराओं से होती हुई आपके रक्त में पहुँच चुकी है और आपके दिल की धड़कनों में समा चुकी है? क्या इस बात ने आपको विक्षिप्त जैसा बना दिया है? क्या आप विनाश की वेदना से स्तब्ध हैं और क्या आप अपने नाम, अपनी प्रतिष्ठा, अपनी पत्नी, अपने बच्चों, अपनी संपत्ति और अपने अस्तित्व तक को भूल चुके हैं?’’

कुछ समय पहले, यह प्रश्न देश के समक्ष रखा गया था। मैं उसी प्रश्न को अपने माननीय मित्र श्री दह्याभाई पटेल के सामने रखना चाहता हूँ। आप कुछ विशेष लोगों को लेकर चिंतित हैं जो कुछ सैकड़ों में या देश के बीस बैंकों के मालिक होंगे। किन्तु इस देश के करोड़ों लोगों का क्या? उन निर्धन लोगों का क्या होगा, जो सदियों से पीढ़ी भुखमरी के शिकार हैं? वे लोग फुटपाथ पर रहते हैं उनके पास अपने घर नहीं हैं। उनके पास दो वक्त का भोजन नहीं है, चूंकि वे अज्ञानता से पीड़ित हैं इसलिए उनके लिए लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं है। जिस दिन इस देश के नब्बे प्रतिशत लोग अज्ञानता के अंधकार से बाहर निकलकर यह कहेंगे कि उन्हें उनके अधिकार दिए जाएं तब इस देश के लोकतंत्र और इस संसद का क्या होगा।

राष्ट्रीयकरण से इस समस्या का समाधान नहीं होगा। केवल यही समाधान नहीं है। मेरा पूरा मुद्दा यह है कि आप मामले को इस प्रकार पेश करना चाह रहे हैं कि यदि बीस या तीस बैंक मालिकों या कुछ सौ निदेशकों से प्रोत्साहनों को वापस ले लिया जाए तो पूरा देश बर्बाद हो जाएगा। वह ऐसा महसूस कर रहे हैं जो कि सही भी है कि उनके साथ न्याय नहीं किया जा रहा है लेकिन यदि देश में करोड़ों लोगों की इस भावना को सम्मान नहीं दिया जाता है तो यह देश प्रगति नहीं कर पाएगा, न केवल देश प्रगति नहीं कर पाएगा बल्कि लोकतांत्रिक प्रणाली की पूरी इमारत ही ढह जाएगी। अतः मेरा उन सदस्यों से यह अनुरोध है कि उन्हें देश के करोड़ों लोगों की भावनाओं का सम्मान करनाचाहिए। आपको इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए। हमें उनके बीच यह भावना जागृत करनी चाहिए कि यह देश केवल कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों का नहीं है बल्कि इस देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का है।

अगले दिन माननीय श्री भुवालका ने यह कहा और सही ही कहा कि कोई बैंक व्यवसायी किसी मजदूर से अधिक भोजन नहीं खाता। यह सत्य है। परन्तु, उसे अपने पास अधिक सम्पत्ति क्यों एकत्र करने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि सम्पत्ति के उसके पास जमा होने से उसे समाज में सम्मान मिलता है। समाज में सम्मान मिलना एक बहुत बड़ी बात है। परन्तु, क्या आप ऐसे अन्य लोगों को सम्मान नहीं देंगे जिनके पास ऐसा मनोवैज्ञानिक माहौल बनाने के लिए धनराशि और सम्पत्ति नहीं है? यह आवश्यक है कि उत्पादन के सभी संसाधन, मानव की प्रगति के लिए आवश्यक सभी संसाधनों पर राज्य का स्वामित्व होना चाहिए।

राज्य के संबंध में गलतफहमी है। राज्य का अर्थ क्या है? मुझे यह जानकारी है कि राज्य की वास्तविक अवधारणा बाध्यकारी शक्तियों के केन्द्रित होने पर आधारित थी। राज्य का गठन, निश्चित अनुभव के बाद कुछ व्यक्तियों द्वारा किया गया है। उन्होंने अपने अधिकारों को सीमित करके, राज्य नामक एक संगठन को सौप दिया। यहां भ्रष्टाचार और अक्षमता मौजूद है। परन्तु यह भ्रष्टाचार और अक्षमता समाज की पूरी प्रगति को रोकने का नारा नहीं बन सकता। मैं श्री दह्याभाई पटेल की बात समझ सकता हूँ।

मैं अपने मित्र श्री अटल बिहारी वाजपेयी की बात भी समझ सकता हूँ। परन्तु, आपकी अनुमति से मैं वस्तुतः यह कहना चाहता हूँ कि मुझे इस विचित्र सत्ताधारी पाटी्र कांग्रेस को लेकर आश्चर्य है। किसी अन्य दिन उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवाद को अपना उद्देश्य घोषित करते हुए जयपुर में एक संकल्प पारित किया था। उस नीति के निर्माता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह घोषणा की कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए। परन्तु उसी पार्टी के सदस्य आगे आकर स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ पाटी्र और देश में बड़े मिल मालिकों का समर्थन कर रहे हैं और यह कह रहे हैं कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं होना चाहिए और यह देश में सर्वाधिक दुःखद स्थिति है।

मैं इस बात से बहुत दुःखी हू ँ कि सत्ताधारी पार्टी जिसके पास सभा में काफी अच्छा बहुमत है, यह इस सीमा तक जा रही है कि उसके सदस्य देश के सर्वोच्च मंच पर एक सुर में नहीं बोल रहे हैं। ऐसी स्थिति में पूरे राष्ट्र और उस पार्टी को भी भविष्य में दुःख के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा।

आपकी अनुमति से, मैं एक बात का उल्लेख करना चाहता हूँ। जब कुछ व्यक्ति इस मुद्दे पर विरोध कर रहे थे मुझे अकस्मात् एक महान आत्मा, 19वीं सदी की एक महानतम आत्मा का स्मरण हुआ। मेरा अभिप्राय कार्ल माॅक्र्स से है। मेरे मित्र श्री गोविन्दन नायर ने एक दिन अपने भाषण में यह कहा था कि उन्हें कांग्रेस के सदस्यों के भाषण पर आश्चर्य हुआ है। परन्तु, मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि, बहुत समय पहले 19वीं सदी में कार्ल माॅक्र्स ने सामाजिक शक्तियों का विश्लेषण किया था। उन्होंने उन लोगों का विश्लेषण किया, जिनके पास कुछ सम्पत्ति थी। अपनी महान कृति ‘दास कैपिटल’ की रचना करते हुए अपने पहले जर्मन संस्करण के आमुख में उन्होंने यह कहा था यह नोट करना रोचक बात है कि केवल कार्ल माॅक्र्स जैसा कोई व्यक्ति ही एक शताब्दी पहले इस प्रकार किसी व्यक्ति के मनोविज्ञान को समझ सकता है। उन्होंने कहा:-

‘‘राजनैतिक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में स्वतंत्र वैज्ञानिक जांच के समय विशेष शत्रुओं का सामना करना पड़ता है। इस विषय-वस्तु का विशेष स्वरूप मानवीय अंतर्मन के सर्वाधिक हिंसक, सर्वाधिक तुच्छ और सर्वाधिक घृणित मनोभाव-निज हित के आवेश पर नियंत्रण पाने की मांग करता है। उदाहरण के लिए, एंग्लिकन चर्च अपनी उनतालीस वस्तुओं में से उनतालीसवीं वस्तु जो उसकी आय है को छोड़कर, अड़तीस वस्तुओं पर हमले को सहर्ष माफ कर देगा। वर्तमान में पारंपरिक संपत्ति आधारित रिश्तों की आलोचना की तुलना में नास्तिकता एक गौण अपराध है।’’

कार्ल माॅक्र्स का यह कहना था। यदि आप कार्ल माॅक्र्स के इस विश्लेषण को ध्यान में रखते हैं तो कांग्रेस पाटी्र और उसके जयपुर में पारित संकल्प को समझना आसान हो जाएगा। जैसे ही लोकतांत्रिक समाजवाद को लागू करने की बात की जाती है, कांग्रेस पार्टी उसका कड़ा विरोध करने लगती है। आप लोकतांत्रिक समाजवाद, राष्ट्रीयकरण या किसी अन्य विषय पर बात कर सकते हैं। उसे लेकर कांग्रेस पार्टी एक सर्वसम्मत संकल्प पारित कर देगी, परन्तु यदि आप किसी मद को संसद के एजेंडा में शामिल करते हैं तो कांग्रेस पार्टी हाय-तौबा मचा देती है। जयपुर अधिवेशन में श्री कृष्ण मेनन ने कहा था कि हमें इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि यह एक पूँजीवादी समाज है। उन्होंने कहा कि गत पन्द्रह वर्षों के दौरान सम्पत्ति कुछ लोगों के हाथ में केन्द्रित हुई है। न केवल इतना ही बल्कि 1 नवम्बर, 1963 के एआईसीसी आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार हमारे वित्त मंत्री श्री टी.टी. कृष्णामचारी ने प्रेससंवाददाताओं से अपनी अनौपचारिक वार्ता में गैर-हिसाबी धन को सबसे बड़ी समस्या, सबसे बड़ी सामाजिक बुराई बताया जिसने देश में आर्थिक जीवन को विकृत किया है। बिक्री कर और आय कर का क्रमशः 80 प्रतिशत और 60 प्रतिशत तक भुगतान न करने के कारण 200 करोड़ रुपये तक की गैर-हिसाबी धनराशि जमा हो गई है। क्या आप यह नहीं जानते कि इन निजी बैंकों द्वारा यह बेहिसाब धनराशि छिपाई जाती है? यह बात वित्त मंत्रालय और वित्त मंत्री की जानकारी में है परन्तु वह इस समस्या का समाधान करने के लिए कोई कदम उठाने के लिए तैयार नहीं है।

मैं एक और बात का उल्लेख करना चाहता हूँ कि हमारे देश की पूरी अर्थव्यवस्था अथवा अर्थव्यवस्था के एक बड़े भाग को केवल 20 महत्वपूर्ण बैंक नियंत्रित कर रहे हैं। कम्पनी विधि प्रशासन के श्री राज के. लिंगम ने यह बताया है कि 20 अग्रणी बैंकों के 180 निदेशक हैं जो विभिन्न उद्योगों में 1640 निदेशक के पदों पर आसीन हैं। कुछ निजी बैंकों के पास संपत्ति के जमा होने या केन्द्रित होने की यह स्थिति है। यदि आप इस स्थिति को ध्यान में रखते हैं तो इस बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने में कोई दुविधा नहीं हो सकती। मुझे यह जानकारी नहीं है कि इस संबंध में सरकार के सामने क्या बाधाएं आ रही हैं। देश में पूँजीपतियों, एक विशेष लाॅबी और निहित हितों के दबाव में कांग्रेस पार्टी कोई साहसी कदम नहीं उठायेगी

मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि आज के समाचार पत्र में यह समाचार प्रकाशित हुआ है कि कांग्रेस के 54 सदस्यों ने प्रधानमंत्री के समक्ष यह याचिका प्रस्तुत की है कि उन्हें कांग्रेस संसदीय दल में इस मामले को उठाने का अवसर दिया जाए कि कांग्रेस को इन बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के लिए साहसी कदम उठाने चाहिएं। मेरा आपसे अनुरोध है कि आप अपने कार्यालय की ओर से कांग्रेस के इन सदस्यों को यह बताएं कि वे जयपुर में पारित अपने संकल्प पर टिके रहें। यदि सत्ताधारी पाटी्र अपने दायित्वों पर खरा नहीं उतरती हैं तो पूरा देश बर्बाद हो जाएगा और पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली से विश्वास उठ जाएगा।

महोदय, इन्हीं शब्दों के साथ मैं श्री रेड्डी जी द्वारा प्रस्तुत संकल्प का समर्थन करता हूँ।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।