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आर्थिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप स्वीकार किया तो राजनीतिक मामलों में भी मानना पड़ेगा

लोकसभा में 18 अगस्त, 2003 को अविश्वास प्रस्ताव पर चन्द्रशेखर

उपाध्यक्ष जी, सन् 1962 में मैं पहली बार संसद में आया था। करीब 42-43 वर्ष बीत गये हैं लेकिन आज जो दुःख अनुभव हुआ वह पहले कभी नहीं हुआ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि संसद की कार्यवाही इस स्तर पर पहुँच जाएगी। मैं किसी व्यक्ति विशेष के बारे में कुछ नहीं कहूँगा। अविश्वास प्रस्ताव शुरू होने से पहले एक घंटे में हम लोगों ने पाँच विधेयक पास किये हैं जिसमें से दो विधेयक संविधान-संशोधन के थे। सरकार पक्ष और विपक्ष दोनों उनसे सहमत हैं। मैं नहीं जानता और न ही सोच पाता हूँ कि मैं किसके पक्ष में बोलूँ। देश की हालत के बारे में सोचता हूँ तो एक-एक शब्द जो माननीय सोमनाथ जी ने कहे, केवल उनकी भाषा को छोड़कर, मैं उनसे पूरी तरह से सहमत हूँ।

मैं जानता हूँ कि आज देश में गरीबी, बेबसी और लाचारी है। मैं यह भी जानता हूँ कि हमारे चारों तरफ खतरे हैं। बड़ी ताकतों की बात छोड़ भी दी जाए तो भी हमारे जो पड़ोसी देश हैं, उनका रुख भी हमारे प्रति अच्छा नहीं है। ऐसे में हम कोई आपसी सहमति का रास्ता निकालते, मिलजुलकर काम करने की बात करते, लेकिन मालूम पड़ता है कि वह आज दूर की बात है। मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि अविश्वास प्रस्ताव इस समय क्यों रखा गया? अविश्वास प्रस्ताव उस समय क्यों नहीं रखा गया जब गुजरात का कांड हुआ था। अविश्वास प्रस्ताव तब क्यों नहीं आया जब हमारे सामने एक तलवार लटकी हुई थी कि उत्तर प्रदेश में गृह-युद्ध की स्थिति कभी भी हो सकती थी। मैं किसी व्यक्ति का नाम नहीं लेना चाहता हूँ क्योंकि उस ओर माननीय मुलायम सिंह जी ने संकेत किया है। उस पर हम सवाल नहीं उठा रहे हैं। उस समय अविश्वास का प्रस्ताव क्यों नहीं आया जब विनिवेश की बात खुलेरूप में कही गयी? इसी सदन में मैंने कहा था कि अगर आप आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप स्वीकार करोगे तो राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप स्वीकार करने के लिए मन की तैयारी रखें। उस समय मेरा मजाक बनाया गया।

अभी अरुण शौरी जी के बारे में हमारे मित्र माननीय आडवाणी जी ने प्रशंसा की। अरुण शौरी और अरुण जेटली से मैं बहुत प्रभावित रहा हूँ। जनता पार्टी की सरकार में जितना इन लोगों को महत्व देना चाहिए था, उससे अधिक महत्व मैंने दिया। लेकिन कैसे लोग बदल जाते हैं? देश की सम्पत्ति जो 50 वर्षों में बनी है, वह किसी प्राइम-मिनिस्टर के पैसे से या संसद सदस्यों के पैसे से नहीं बनी है जो कौड़ी के दामों में बेची जा रही है। ऐसे बेची जा रही है जैसे कोई बहुत बड़ी उपलब्धि की बात हो। कहा यह जा रहा है कि हम रोजगार पैदा कर रहे हैं, रोजगार बना रहे हैं। अकेले खादी जो कि कमीशन एक सरकारी संस्था है, ने कहा कि अगर कतीनियों को जोड़ दिया जाए तो 50 लाख लोग केवल खादी कमीशन में बेरोजगार हुए हैं।

यहाँ पर जब चर्चा होती है तो सिवाय एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के कुछ नहीं होता, कभी गरीबी, बेरोजगारी के सवाल पर बहस नहीं होती। कृषि नीति की बात मैं नहीं कहूँगा, लेकिन सारी कोशिशों के बावजूद आज किसान बेहाल है। किसान आत्म-हत्या करने पर मजबूर है। कई लोग इस बात को दोहरा चुके हैं। महाराष्ट्र में, गुजरात में, पंजाब में और विकसित दृष्टि से खेती के काम में लगे जो राज्य है, वहाँ पर किसान मजबूर हुए। किन कारणों से हुए, मैं उन कारणों में नहीं जाना चाहता हूँ। हम उसके बारे में चर्चा नहीं कर पाए। उस समय अविश्वास प्रस्ताव श्री शिवराज पाटिल जी आप नहीं लाए।

आप चार वर्ष बाद लाए और किस विषय पर लाए, जब पी0ए0सी0 में एक रिपोर्ट में एक रिपोर्ट को नहीं दिखाया गया। उस रिपोर्ट को नहीं देखने के बाद आपके मन में बहुत गुस्सा आया और यह बात कही गई, श्री सोमनाथ चटर्जी जी ने भी कही कि एक संसदीय संस्था पर बड़ा भारी आघात हुआ है, लेकिन संसदीय परम्परायें भी हैं। कई बार ऐसा हुआ है कि अगर पी0ए0सी0 की रिपोर्ट में कोई ऐसी बात हो, किसी रिपोर्ट पर कोई बात हो, जिसको दिखाने में सरकार को गुरेज हो, तो अध्यक्ष जी के कमरे में अध्यक्ष जी, पी0ए0सी0 के चेयरमैन और उस विभाग के मंत्री, तीनों बैठकर उसको देख लेते, तो मामला सुलझजाता। एक बार नहीं, अनेक बार ऐसा बातें हुईं हैं।

मैं व्यक्तिगत बात नहीं कहना चाहता हूँ, लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि मैंने रक्षा मंत्री जी से कहा कि आप इस परम्परा को क्यों तोड़ रहे हैं, आप परम्परा को मानकर दिखा क्यों नहीं देते हैं? उन्होंने कहा- मैं दिखाने के लिए तैयार हूँ। हमने पब्लिक एकाउन्ट्स कमेटी के चेयरमैन साहब से कहा- आप देख क्यों नहीं लेते? उन्होंने कहा- वे दिखाने के लिए तैयार नहीं हैं। मैंने दूसरे दिन जब पूछा तो पब्लिक एकाउन्ट्स कमेटी के चेयरमैन साहब की बात दूसरी और रक्षा मंत्री ने कहा- उन्होंने कहा है कि हम अकेले नहीं देखेंगे, सारी कमेटी देखेगी। जब मैंने पब्लिक एकाउन्ट्स कमेटी के चेयरमैन साहब से पूछा, तो उन्होंने कहा कि हम अकेले देखने के लिए तैयार थे, वे तैयार नहीं हैं। मैंने कहा- आप इसी समय चलिए, मैं अध्यक्ष जी से निवेदन करूँगा और रक्षा मंत्री जी को भी बुलायेंगे। वे सारी बातें उस समय मानने के लिए तैयार नहीं हुए।

मैं पूछना चाहता हूँ, क्या संसदीय जनतन्त्र इस तरह से चलेगा? क्या ये हमारी परम्परायें हैं? क्या इस तरह से परम्पराओं का निर्वहन होगा? गुस्सा तब आया, जब दूसरे सदन में कहा गया कि कारगिल के मामले में विजिलेंस कमिश्नर की रिपोर्ट नहीं है, तो रास्ता निकाला गया कि किसी तरह से इस एक ऐसा अस्त्र बनायें, जिससे लोगों का ध्यान हमारी ओर जाए। मैं यह बात इसलिए कर रहा हूँ कि यह बड़ी दुःखद बात है। चार राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना हमारे लिए सुखद है। हमारे लोग उपादेय हैं, हमें लाभ पहुँचेगा। अगर इसलिए अविश्वास प्रस्ताव लाए हैं, तो मैं पूरी तरह से सोमनाथ चटर्जी जी, मुलायम सिंह जी आपसे सहमत होते हुए भी, नेता विरोधी दल से सहमत होते हुए भी, इस प्रस्ताव का कभी समर्थन नहीं कर सकता हूँ। मैं इसलिए नहीं कर सकता हूँ, क्योंकि मेरी आत्मा गवाही नहीं देती है।

अध्यक्ष जी, मैं संसदीय कार्य मंत्री की बड़ी रिसपैक्ट करता हूँ लेकिन उनको बहुत विनम्र शब्दों में कहना चाहूँगा कि मैं भी थोड़ी संसदीय परम्परा को जानता हूँ। राज्यसभा ने पास कर दिया था तो इससे आपका काम उचित नहीं हो जाता। दूसरी बात यह है कि संविधान में उसका भले ही परिवर्तन न हुआ हो, कोई विधेयक पास होता है जो संविधान के प्रतिकूल होता है। उसकी अनुमति न संविधान देता है, न संसदीय परम्परा देती है, न संसदीय व्यवहारदेता है और न संसदीय नियम देते हैं।

मैं जानता हूँ कि किस तरह संसदीय परम्परा को तोड़ा जा रहा है। मैं एक निवेदन करूँगा, क्षमा करेंगे, यह कहने के लिए कि संसद में कोई सवाल उठाना भी अब कठिन हो गया है। एक दिन इसी संसद में, पता नहीं वह सदस्य है या नहीं, बादल साहब के पुत्र के घर सी0बी0आई0 ने छापा मारा। वह राज्यसभा में हैं। मैंने उस समय कहा था कि जिस तरह संसद सदस्य के घर पर पंजाब पुलिस ने छापा मारा, उसे लेकर मैंने उस सवाल को उठाना चाहा लेकिन आपकी अनुमति नहीं मिली, मैं चुपचाप बैठ गया।

मैं समझता हूँ कि एक-एक करके यह परम्परा पड़ रही है कि हम लोग अपने विरोधी पार्टियों लोगों को नीचा दिखाने के लिए कोशिश कर रहे हैं। संसदीय परम्परा में मैंने यह सुना था कि वाकआउट किए जाते हैं, मैंने यह सुना था कि सरकार का बहिष्कार किया जाता है लेकिन सरकार के साथ सहयोग और एक मंत्री के साथ बहिष्कार, यह एक नई परम्परा आपने डाली है, अब यह परम्परा कहाँ तक उचित है, यह सदन बताएगा और सदन का इतिहास बताएगा।

मैं अपने मित्रों से कहूँगा कि गठबंधन बड़ा जोरदार है, मल्होत्रा जी, एन0डी0ए0 का गठबंधन बड़ा जोरदार है लेकिन गठबंधन के कुछ नियम होते हैं। गठबंधन में समस्याओं पर एक मत होने पर गठबंधन होता है। कार्यक्रमों में, नीतियों में और बाहर बोलने में एकमत होता है लेकिन मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हमारे गृहमंत्री को तो कम लेकिन प्रधानमंत्री को कई बार अपने सहयोगियों का सहयोग बनाए रखने के लिए अपने वक्तव्यों को बदलना पड़ा है। न इससे देश की इज्जत बढ़ी है, न सरकार की इज्जत बढ़ी है, न संसदीय परम्परा की इज्जत बढ़ी है। अगर हम इससे विरक्त हो सकें तो बड़ी अच्छी बात है। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि मैं इस प्रस्ताव पर कोई मत नहीं दूँगा इसलिए कि कोई भ्रम न फैले।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।