संसद सर्वोपरि, संसदीय जनतंत्र नहीं रहेगा तो न्यायापालिका की आजादी भी नहीं रहेगी
अध्यक्ष जी, मैं पिछले साढ़े चार वर्षों से इस सवाल पर चुप रहा। आज यदि मैं न बोलूं तो मैं समझता हूँ कि सदन के साथ न्याय नहीं होगा। मैं आपसे एक दिशा-निर्देश चाहता हूँ। कोई भी जज किसी जगह बैठकर के कोई भी बयान दे दे, तो क्या उस बयान के आधार पर संसद की कार्यवाही रोकी जा सकती है या नहीं? अगर उस बयान पर बहस होती है, तो क्या जज के बारे में भी यहाँ पर बहस हो सकती है या नहीं? जिस तरह से यह आयोग काम कर रहा है, उस पर चर्चा करने का निर्देश देंगे या नहीं? ये सवाल ऐसे जटिल सवाल हैं जिनके उत्तर हमें, आपको इन सवालों को उठाने से पहले देने चाहिए।
अध्यक्ष जी, मैं समझता हूँ कि जाँच होनी चाहिए। मुझे दुःख इस बात का है, क्षमा करेंगे हमारे सरकारी पक्ष के लोग, जब कोई दबाव पड़ता है, तो ये लोग कोई न कोई बयान दे देते हैं बिना यह सोचे हुए कि इसका नतीजा क्या होगा? चिदम्बरम जी ने कहा कि दिसम्बर तक हम इस जांच को पूरा कर देंगे। क्या चिदम्बरम जी के अधिकार में है? जज महोदय, रोज-रोज नये गवाहों को बुला रहे हैं। उनकी गवाहों की सूची अनन्त है। इस अनन्त सूची का अन्त कब होगा, यह शायद इस देश का कोई भी व्यक्ति नहीं बता सकता। चिदम्बरम जी कल यहाँ पर आएंगे या स्वयं प्रधानमंत्री जी ही यहाँ आएँ, तो वे क्या उत्तर देंगे, मुझे मालूम नहीं।
अध्यक्ष जी, इस सदन में या बाहर बहस होती है, तो पाँच, सात या आठ अफसरों को नोटिस दे दिया जाता है। उन पर जांच करने का आदेश दे दिया जाता है। मन्त्रिमण्डल किस तरह से काम करता है, मुझे नहीं मालूम, लेकिन उन अधिकारियों में से कुछ को मैं जानता हूँ।
विनोद चन्द पांडेय से लोगों के मतभेद हो सकते हैं। वे एक ईमानदार अफसर हैं। सही अफसर हैं। नारायण जी अच्छे अफसर हैं। गौरी शंकर वाजपेयी को मैं जानता हूँ। ये सब भले और ईमानदार अफसर हैं। अगर उन्होंने कोई राय दी, तो निर्णय लेने का अधिकार तो जो राजनीतिक लोग थे, उनको था, लेकिन राजनीतिक लोगों को निर्णय लेने के लिए क्या उन अधिकारियों को दंडित किया जाएगा? किस आधार पर इस सरकार ने उन अफसरों को नोटिस दी, मुझे मालूम नहीं। हर समय दबाव पड़ता है, चाहे कांग्रेस का आन्तरिक मामला हो, चाहे देश में कोई जनमत बनाने की कोशिश हो रही हो, यह काम ठीक नहीं है।
इस संसद का उपयोग इस काम के लिए नहीं होना चाहिए। अर्जुन सिंह जी की मैं बड़ी इज्जत करता हूँ। उन्होंने हमसे पूछा कि आप नाराज हैं। मैं नाराज नहीं हूँ, दुःखी जरूर हूँ। वे उस मन्त्रिमण्डल के साढ़े चार वर्ष तक सदस्य रहे, साढ़े चार वर्ष तक उनका यह दुःख क्यों नहीं जागा? मैं जानना चाहता हूँ, जब ये बातें कहीं जाती हैं तो हम कोई मर्यादा रखेंगे या नहीं। जिसकी चाहो पगड़ी उछाल दो,
वे कौन हैं, उनके बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा क्योंकि फिर अध्यक्ष जी कहेंगे कि आयोग के चेयरमैन का नाम मत लो। लेकिन क्या आयोग के चेयरमैन के बारे में चर्चा होगी, जैसा उन्होंने अभी उठाया है? जब यह सब होने लगेगा तो जो संसद के सदस्य हैं, जो कभी दुर्भाग्य से, सौभाग्य से सरकार में आ गए, वे सब अपराधी हैं, केवल उन लोगों के अलावा जो लोग जांच कर रहे हैं। इस परम्परा को कहीं रोकना पड़ेगा। मुझे इस बात का दुःख होता है कि सरकार के हाथ-पांव क्यों फूले रहते हैं। यदि यह सवाल उठता है तो प्रधानमंत्री जी क्यों नहीं आकर सब बातों का खुलासा करते।
सोमनाथ चटर्जी ने सही कहा, सरकार जब पंगु हो जाती है, कमजोर हो जाती है तो सब उसको आंख दिखाते हैं। किसी एक व्यक्ति का सवाल नहीं है, यह राष्ट्र की मान्यता का सवाल है। मैं जो संसदीय जनतन्त्र समझा हूँ, उसमें ससंद सर्वोपरि है। म ैंजानता हँू कि न्यायपालिका को पूरा अधिकार है। मैं जानता हूँ कि दूसरे जो अंग हैं, उनको पूरे अधिकार हैं। लेकिन अन्तिम निर्णय संसद का होता है। मैं संसदीय जनतन्त्र का महत्व समझा हूँ। यदि संसदीय जनतन्त्र नहीं रहेगा तो न्यायपालिका की आजादी भी नहीं रहेगी। यदि ये बातें किसी की समझ में नहीं आती हैं तो उसको समझाने का काम भी अध्यक्ष महोदय और इस संसद का है। इस बात को समझाना चाहिए। बड़ी कृपा होगी यदि ऐसे सवाल पर बहस करते समय हम कुछ मर्यादा और नियमों का ध्यान रखें।
अध्यक्ष महोदय, इस बहस में मैंने एक सवाल उठाया, आप हमको यह बताइये कि कोई जज साहब, जिनके बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता, फैसले के बाद कोई स्टेटमेन्ट दे दे, तो क्या उस स्टेटमेन्ट के ऊपर संसद में बहस हो सकती है और अगर वह बहस होगी तो जज साहब के बारे में बहस होगी कि नहीं, यह पहले हमको बताइये, उसके बाद आगे की कार्यवाही बढ़ेगी। यह मौलिक सवाल है। हत्या और जाँच, वह अलग की बात है। सवाल यह है कि जो कार्यवाही आज सबेरे से सदन में हो रही है, उस कार्यवाही का जो आधार है, उस आधार को आप एक अध्यक्ष के नाते मान्यता देते हैं या नहीं, मैं यह बात जानना चाहता हूँ।