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जिन हाथों में शक्ति भरी है राजतिलक देने की। उन हाथों में ही ताकत है सर उतार लेने की।।

धन्यवाद प्रस्ताव पर लोकसभा में 16 अप्रैल, 1999 को चन्द्रशेखर

उपाध्यक्ष जी, आज की बहस में हर तरह की बातें कही गईं। मैं इस बहस की उपयोगिता के बारे में शुरू से ही संदेह रखता हूँ। मैं नहीं जानता कि यह बहस किसलिए हो रही है। मैंने प्रारम्भ में भी यह कहा था, मैं क्षमा के साथ कहूँ तो राष्ट्रपति महोदय ने इस बहस की इजाजत क्यों दी, यह बात भी मेरी समझ में नहीं आती। पार्लियामैंट का बजट सेशन चल रहा था और सरकार किसी समय भी गिराई जा सकती थी।

उपाध्यक्ष जी, विरोधी पक्ष के नेता गये, यदि मैं होता तो शायद मैं भी जाता। इस सदन का जो निरर्थक समय बर्बाद किया जाता है, केवल उसकी मुझे चिंता नहीं है बल्कि नयी-नयी परम्पराएँ डाली जा रही हैं। एक ओर हम मर्यादाओं की बात करते हैं, एक और जनतांत्रिक परम्परा को सुदृढ़ करने की चर्चा करते हैं और दूसरी तरफ अगर कोई भूल एक बार हो जाती है तो उस भूल को बार-बार दोहराकर हम उसे परम्परा का रूप देते हैं। एक दो बार पहले हुआ, वह फिर हो रही है। इसके बाद क्या होगा, मुझे नहीं मालूम लेकिन सबसे दुःख की बात यह है कि इस बहस में कुछ ऐसे सवाल उठाये जाने की कोशिश हुई, आज जिन सवालों को नहीं उठाया जाना चाहिए था, वह दुर्भाग्यवश हुई।

इस सदन में मैंने पहले ही कहा था कि अगर चर्चा होनी जरूरी है तो सुरक्षा के मामले में चर्चा बहुत सीमित लोगों के बीच में होनी चाहिए। यह बात मैं आज नहीं कह रहा हूँ बल्कि निरन्तर कहता रहा हूँ। प्रधानमंत्री जी ने आज कह दिया कि कभी-कभी हमसे वह सहमत हो जाते हैं। पहले तो हम दोनों बराबर सहमत हो जाते थे लेकिन उधर कुछ असहमति ही होती है, सहमति कभी-कभी होती हैं। असहमति कोई व्यक्तिगत कारणों से नहीं है। बल्कि मौलिक विचारों में अन्तर होने के कारण है। हमारे और उनके विचारों में मौलिक अन्तर हैं।

हमारे मित्र जार्ज फर्नान्डीज से मेरी कोई सहमति नहीं है लेकिन जिस समय सुरक्षा के मामले में बयान दिये गये, जार्ज फर्नान्डीज से बिना मिले, बिना पूछे मैंने कहा कि इस विवाद में रक्षा मंत्रालय के विरुद्ध कोई बयान देना, उस व्यक्ति का मेरी समझ में उत्तरदायित्वपूर्ण नहीं है जो सुरक्षा के बारे में, सरकार चलाने के बारे में या संसदीय परम्परा के बारे में उसके भविष्य के बारे में थोड़ी सी चिन्ता रखता है। मैं किसी व्यक्ति विशेष को नहीं कहना चाहता लेकिन जो लोग उच्च पदों पर रहे हैं, जो लोग जिम्मेदारी को निभाये हैं, जिनको सुरक्षा मंत्रालय के बारे में जानकारी है, वे लोग इस बात की चर्चा चलायें कि किन कारणों से कोई अधिकारी हटाया गया, उस पर कोई कमेटी बैठायी जाये, उस पर कोई बहस चलायी जाये तो मुझे ऐसा लगता है कि हम राष्ट्रीय कत्र्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहे हैं। यदि कोई ऐसी बात हो, तो रक्षा मंत्री से बात हो सकती है, प्रधानमंत्री से बात हो सकती है। उसमें कमजोरियां हो सकती हैं, उसमें कमियां हो सकती हैं। मैंने कभी जानने की भी कोशिश नहीं की कि किन कारणों से, क्या उसमें आरोप थे, जिसके आधार पर वह व्यक्ति हटाया गया? लेकिन एक बार अगर सुरक्षा विभाग का कोई अधिकारी हटाया जाता है तो अब तक यही परम्परा रही है।

शिवराज पाटिल जी उसकी जानकारी रखते हैं, हमारे मित्र शरद पवार जी रखते हैं, देवेगौड़ा जी रखते हैं, मुलायम सिंह जी रखते हैं। क्या उनके लिए रास्ता नही ंथा कि चाहे वह या उसके परिवार का कोई व्यक्ति राष्ट्रपति महोदय के पास जाकर अपनी अपील करता। यदि वह अखबारों में जाये, तो एक ही बहुत जुर्म था जिस पर उस अधिकारी को रक्षा विभाग से हटा देना चाहिए था। मेरी यह मान्यता है और मैं इसको मानता हूँ। दुनिया में कहा जाता है, बहुत जगह बहसें हुई लेकिन दुनिया में बहस इस तरह से नहीं हुई होगी कि रक्षा मंत्री में और अगर किसी अधिकारी में कोई विवाद खड़ा हो गया तो हम लोग रक्षा मंत्री की आलोचना करने के लिए अखबारों का सहारा लें। यह बात सही है कि रक्षा मंत्री ने संयम से काम लिया। बहस होती रही, चर्चा होती रही लेकिन जार्ज फर्नान्डीज अपने स्वभाव के विपरीत चुप रहे। जब अध्यक्ष महोदय के पास इस सवाल पर बैठक हो रही थी तो उस समय अध्यक्ष महोदय ने बड़ी कृपा करके मुझसे कहा था कि उस कमेटी की अध्यक्षता मैं करूँ। मैंने उनसे कहा था जिस पर हमारे मित्र शरद पवार को थोड़ा एतराज था क्योंकि उनको दूसरी सूचना मिली होगी कि चन्द्रशेखर का विचार कुछ अलग है। ऐसा अध्यक्ष कुछ गड़बड़ करेगा। शरद पवार जी, मैं आपसे निवेदन करूँ, मैंने जीवन में बहुत कुछ देखा है। किसी कमेटी का अध्यक्ष बनना मेरे मन की लालसा नहीं है और आप जानते हैं बड़े से बड़े पद के बारे में मेरी क्या प्रतिक्रिया होती है। इसलिए मुझे कुछ अजीब लगे उसके पहले ही मैंने राज्य सभा के अध्यक्ष और लोकसभा के अध्यक्ष को कह दिया था कि समिति का अध्यक्ष होना मेरे लिए स्वीकार नहीं है क्योंकि मैं लोकसभा में कह चुका हूँ कि इस प्रकार की कोई चीज उचित नहीं है। यह संसदीय परम्परा के अनुकूल नहीं है।

अभी हमारे मित्र जोरों से बोल रहे थे। शायद हर बयान जो एक सेना का अधिकारी देता है, वह सही है और हर बयान जो रक्षा मंत्री देता है, वह गलत है, इस धारणा के साथ हम इस सारी बहस को चलाना चाहते हैं। आज भी मैं उतने ही जोर से कहना चाहँूगा कि इस सवाल पर किसी तरह की समिति की स्थापना उसमें बहस नाजायज है। उस समय मैंने कहा था कि जो लोग रक्षा के मामले में जानते हैं, वे पाँच सदस्य थे-हमारे मित्र श्री शिवशंकर, श्री कुरियन, श्री शरद पवार, श्री प्रणब मुखर्जी और श्री मनमोहन सिंह थे। मैंने कहा कि पाँच सदस्य-श्री गुजराल, श्री देवेगौड़ा, श्री मुलायमसिंह और रक्षामंत्री 9-10 सदस्य बैठकर मामले को देख लें।

जो मामला बहस के लायक न हो, उस मामले को हम चुप रखें बाकी मामलों पर बहस हो जाए। लेकिन आखिरी दिन कोई ऐफिडैविट आ गया और सही था कि जार्ज फर्नान्डीज साहब को उससे नाराजगी हुई। कोई भी आदमी नाराज होता। उस दिन उन्होंने कहा था कि बहस होनी चाहिए और उसी दिन यह भी तय हुआ था कि यदि तुरन्त बहस नहीं हो सकती तो सवालों का जवाब देने के लिए श्री जार्ज फर्नान्डीज या रक्षा मंत्री पूरी तरह स्वतन्त्र हैं। इसलिए आज यह सवाल उठाना कि रक्षामत्रंी ने अखबारा ेंका सहारा लिया, इलैक्ट्राॅनिक मीडिया का सहारा लिया, यह बात मुझे कुछ अजीब सी लगती है।

एक तरफ रोज चर्चा हो, अखबारों में बयान निकलें ऐफीडैविड बांटे जाएं, इलैक्ट्राॅनिक मीडिया पर इंटरव्यू दिखाया जाए, उस पर चर्चा चलायी जाए और दूसरी तरफ रक्षामंत्री को कहा जाए कि क्योंकि आपको संसद में बोलना है, इसलिए इस समय चुप रहिए। मैंने नहीं कहा था, सब लोगों ने इस बात को स्वीकार किया था कि हम रक्षामंत्री को इस बात का अधिकार देते हैं। इसलिए आज श्री जार्ज फर्नान्डीज की आलोचना करना उचित नहीं है। मैं यह बात कहना इसलिए जरूरी समझता था कि मैंने सोचा था कि सारा मामला उसी से उठा है तो चर्चा उसी पर होगी। लेकिन चर्चा उस पर नहीं हुई, चर्चा में सारे विषय उठा दिए गए और हम लोगों की एक आदत बन गई है, हम हर चर्चा को भ्रष्टाचार से जोड़ देते हैं।

मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो भ्रष्टाचार की बहस को संसद में चलाना अनुचित मानता हूँ। हम दुनिया के ऊपर कुछ ऐसा प्रभाव डालना चाहते हैं कि इस देश में भ्रष्टाचार के अलावा और कोई चीज नहीं है, यह परम्परा ठीक नहीं है। अगर कहीं भ्रष्टाचार है, उसकी जाँच कराइए, उसमें हस्तक्षेप मत कीजिए, अगर किसी के ऊपर चार्ज शीट लगे तो मुकदमा चलाइए आप ऐथिक्स कमेटी बना रहे थे, वह बनाइए लेकिन संसद में एक-दूसरे पर दोषारोपण करना एक-दूसरे के ऊपर कीचड़ उछालना ठीक नहीं है।

उपाध्यक्ष जी, हम इस संसद के बारे में क्या प्रतिष्ठा देना चाहते हैं। क्या यहाँ का हर व्यक्ति बेईमान है, क्या हर सदस्य की गरिमा पर, गौरव पर एक प्रश्नवाचक चिन्ह लगाना हमारा कर्तव्य रह गया है? हम इस बात को नहीं सोचते कि हमारी मर्यादा लोगों की नजर में यूँ ही गिर रही है, हम उसे और गिराने की कोशिश क्यों कर रहे हैं। मैं इसलिए कहता हूँ कि यह सवाल, यह बहस अगर यहीं पर बन्द हो जाए तो अच्छा है। मेरा दुर्भाग्य है, मैं उन अभागे लोगों से हूँ जो सरकार के हर कदम को, जो पिछले हमारे मित्र मुरली मनोहर जी ने उठाए हैं, मैं उनसे सहमत नहीं हो सका।

पहला बड़ा पराक्रम का काम आपने अणु विस्फोट का किया। इस सदन में बड़ी प्रशंसा लूटने की कोशिश की, आपने नहीं, आपसे पहले हमारे दूसरे मित्रों ने कहा कि वह विस्फोट हम ही करने वाले थे, थोड़ी देर हो गई नहीं तो विस्फोट हमने कर दिया होता, उसमें कोई पीछे नहीं रहा लेकिन मैंने जब उस बहस में हिस्सा लिया तो कहा कि अणु बम विनाश का हथियार है और मैं इस हथियार के बनाने के विरुद्ध हूँ। कहा जाता है सुरक्षा का अधिकार है। मैंने कहा कि यह सुरक्षा का हथियार नहीं है। प्रधानमंत्री जी, बड़ी प्रशंसाा मिली, बड़ी शोहरत दी गई, यह नहीं कि केवल राजनीतिक लोगों ने की, हमारे वैज्ञानिकों ने भी बढ़कर बड़ी प्रशंसा पायी, आपने भी राष्ट्रीय उपलब्धि को रातभर मे ंभारत रत्न बना दिया। शायद दुनिया के इतिहास मे ंएक बडा़ पराक्रम भारत की सरकार ने यह दिखाया होगा, लेकिन उसके होने के बाद कहा गया, हम लड़ने के लिए तैयार हैं, हम एक परमाणु बम बनाने वाले देश हो गये, हमारे सामने कोई टिकने वाला नहीं है। सात दिन के अन्दर जब पाकिस्तान ने वही करके दिखा दिया तो उसके दस दिन के बाद भारत की सरकार की आवाज बदल गई और कहा गया कि अब हम पाकिस्तान से दोस्ती करना चाहते हैं।

एक ओर युद्ध की तैयारी, एक ओर अणु बम को हथियार बनाकर अपने देश के पुरुषार्थ का बखान करना और उसके एक महीने के अन्दर दोस्ती का बखान या दोस्ती का प्रयास करना, यह बात बच्चों का खिलवाड़ हो सकती है, लेकिन किसी सक्षम, समझदार राजनैतिक नेतृत्व का यह काम नहीं हो सकता है। फिर इस प्रयास में किया क्या गया? बस से लाहौर जाया जाये, अच्छा है, लाहौर हमारे देश के साथ रहा है, हम लोगों का भाईचारा है। बस से जाना एक बात है, लेकिन कहा गया, मार्च इन दि हिस्ट्री। कहाँ इतिहास बन गया? अचानक एक बस के जाने से और बस मे ंएक लाहौर डिक्लेरेशन करने से कौन सा इतिहास बन गया। दुनिया के कुछ देशों ने कहा, बड़ी भारी घोषणा हो गई। हमारे अखबारों ने प्रशंसा के पुल बांध दिये, लेकिन जब हम लोग लंका में गये और सार्क में पाकिस्तान के लोगों ने कहना शुरू किया कि यह बड़ी घोषणा है, इसको सार्क डिक्लेरेशन में जुटा लीजिए, शामिल कर लीजिए तो हम लोग बगलें झांकने लगे। पूरी तरह तो नहीं जुटा कुछ तो जुट गया।

इस सरकार की यह बड़ी भारी उपलब्धि है। 50 वर्षों में सारी कोशिशों के बावजूद पाकिस्तान कश्मीर के मसले को अन्तर्राष्ट्रीय मसला नहीं बना सका था। इस सरकार ने उसको अन्तर्राष्ट्रीय मसला बना दिया, यह बड़ी भारी उपलब्धि है और उस उपलब्धि का नतीजा हम लोग देख रहे हैं। किस तरह के वक्तव्य पाकिस्तान के आ रहे हैं, किस तरह की त्यौरी दिखाई जाती है और इस घटना के बाद आपस में इतना विवाद, अग्नि का परीक्षण केवल चार दिन रुक नहीं सकता था। यह बहस खत्म होने के बाद वह काम नहीं हो सकता था, दो दिन पहले अग्नि की परीक्षा करके यह दिखाने की कोशिश की गई कि हमीं पुरुषार्थी हैं, हमीं सामथ्र्यवान हैं, हमीं शक्तिशाली हैं।

नतीजा यह निकला कि पाकिस्तान भी वही कर रहा है, जिस का हमको डर था। वह डर आज साबित हो रहा है। यह क्षेत्र एक बार फिर हथियारों की होड़ का क्षेत्र बन रहा है। कोल्ड वार, शीत युद्ध समाप्त हो गया था, रूस और अमेरिका के अन्दर, क्षमा कीजिएगा, मेरा डर है मेरे मन की शंका है, मैं बहुत बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को नहीं जानता, लेकिन जाने-अनजाने हम इस भूखण्ड को शीत युद्ध का एक एरिया, एक क्षेत्र बनाने की गलती कर रहे हैं। इसे लेकर मेरे मन में डर पैदा होता है कि या तो मेरे मन में डर ज्यादा ही पदैा हा ेगया ह ैक्यांिेक म ंैउतना परुुषार्थी पराक्रमी नही ंह,ँू जितना यहा ँबठै ेआरै लागे ह।ंै

उपाध्यक्ष महोदय, मेरे मन में यह डर है, मेरे मन में यह शंका है और इस शंका को और बल मिलता है। जब दुनिया में कुछ बड़ी ताकतें सारी दुनिया को एक सूत्र में पिरोना चाहती हैं। और अपने रास्ते पर अनुशासित करके चलाना चाहती हैं। वे ताकतें अगर कभी कोरिया में जा सकती हैं, कभी वियतनाम में जा सकती हैं, कभी इराक में जा सकती हैं, कभी यूगोस्लाविया में जा सकती हैं तो क्या वे हिन्दुस्तान की ओर नजरें नहीं उठा सकतीं? वही सवाल है, हम एक क्षेत्र विशेष का नाम मैं नहीं लेता, लेकिन हमारे देश के ऊपर एक खतरा है और इस खतरे के द्वारा बिना आगाह हुए और इस खतरे के द्वारा बिना सोचे हुए आप अपनी प्रशस्ति पढ़ते जाइये, लोगों को भ्रम में रखते जाइये, लेकिन वास्तविकता, हमारी आँखों के सामने मुँह बाये खड़ी हुई हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय जगत में हम कहाँ पहुँच गये हैं। अभी हमने सुना कि दुनिया के देशों में हमारी बड़ी इज्जत बढ़ गई है। अभी मैं 3-4 दिन पहले गुजरात में गया था मोरार जी भाई की एक मूर्ति का अनावरण करने के लिए, वहाँ चन्द्रशेखर धर्माधिकारी, जो दादा धर्माधिकारी के पुत्र हैं, वे एक कमेटी के अध्यक्ष हैं, जो कमेटी इस बात की जाँच कर रही है कि कितनी वेश्यावृत्ति हमारे देश में है। उन्होंने जो बातें उस सार्वजनिक सभा में कहीं कि लोगों की आँखों में आँसू आ गये। एक-दो नहीं, हमारी लाखों बहनें आज शरीर व्यापार करने के लिए मजबूर हैं। आज हमारे देश में कहा जाता है कि सेक्स वर्कर हैं। सेक्स वर्कर की उपाधि देकर उनका संगठन बनाया जा रहा है। सांस्कृतिक क्षेत्र में, मानव मर्यादा के क्षेत्र में यह उपलब्धि हैं। महिलाओं को जो आप 33 फीसदी रिजर्वेशन देना चाहते हो, क्या कभी इस तरफ ध्यान गया है? प्यासे-भूखे गाँव की तरफ कभी ध्यान गया है?

यशवंत जी हमारे छोटे भाई जैसे हैं, मैं इनकी बुद्धि एवं विचारों की बड़ी इज्जत करता हूँ, लेकिन पता नहीं इन्हें क्या हो गया है? मुझे एक दिन इनका भाषण सुन कर आश्चर्य हुआ, इसका राजनीतिक परिणाम जो भी हो लेकिन सुधार जारी रहेगा। श्री जार्ज फर्नान्डीज, ऐसा आपके वित्तमंत्री बोल रहे थे। मैं समझता हूँ कि 1991 में जिन लोगों ने लिब्रलाइजेशन या उदारीकरण किया, उन्होंने अपराध किया। मैंने इसी सदन में कहा था कि मनमोहन सिंह जी, जो कुछ सोचा था, पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गाँधी जी ने, वह सारी जवाहर लाल जी और गाँधी जी की बुद्धि आपकी और राव जी की बुद्धि से कम हो गई, यह स्वीकार करने के लिए मेरा मन नहीं मानता। उन्होंने किया तो जार्ज साहब आप बयान दे रहे थे, बड़ा उत्साहजनक लगा लेकिन क्या आपकी सरकार ने उसे बदलने का कोई कदम उठाया?

स्वदेशी का नारा देना आसान है, इसके लिए क्या कुछ कदम भी उठाए गए। आपने बहुत आंकड़े दिए, मैं जानता हूँ हमारे मित्र बैठे हैं जो बड़े स्वदेशी वाले हैं। जो कुछ हो रहा है, राज्य सरकारें जो कर रही हैं, केवल वेस्ट बंगाल में नहीं हो रहा है, आज सारे मुख्यमंत्री आजाद हैं, विदेशों से पैसा मांगने के लिए, वल्र्ड बैंक और आई0एम0एफ0 से समझौता करने के लिए। कितना बड़ा बोझ भारत की अर्थनीति पर आर्थिक स्थिति पर पड़ने जा रहा है, जब यशवन्त जी रात को सोते होंगे तो इनको बात याद आती होगी कि राज्यों ने जो कर्जा लिया है, राज्य उसे भुगतान नहीं कर पाएगा तो क्या होगा?

फिर इसकी देनदारी आपके ऊपर होगी, क्या आपने इस पर कोई रोक लगायी? क्या किसी मुख्यमंत्री को ऐसे एडवरटाइजमैंट छापने से आपने मना किया? क्या आपने कभी स्वदेशी के लिए कहा, अपने देश के लोगों को कहा, इतना बड़ा एडवरटाइजमेंट निकल रहा है। क्या वित्त मंत्रालय ने कहा कि अपने देश की बनी हुई वस्तुओं को खरीदो। जोशी जी, आपके पुरुषार्थ को क्या हुआ? मैं बार-बार आपसे कहा करता था-‘‘मोर मुकुट कट काशनी भले बने हो नाथ, तुलसी मस्तक तब नवे जब धनुष बाण हो हाथ’’ वह धनुष बाण हाथ में नहीं रहा। आप बिखर गए, दबक गए।

दूसरों की आलोचना करना बड़ा आसान है लेकिन सत्ता का मोह बड़ा मुश्किल होता है। मैं जानता हूँ कि आप में कोई कमी नहीं, आडवाणी जी के पुरुषार्थ में कोई कमी नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी जी के चिन्तन में कोई कमजोरी नहीं, लेकिन जिस कुर्सी पर आप बैठे हुए हैं, यह आदमी को ऐसा पकड़ लेती है कि इसे छोड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है। इसे छोड़ने के लिए आत्मविश्वास चाहिए, उस स्तर की भावना चाहिए, आत्मबलिदान चाहिए। इसे छोड़ने के लिए केवल वर्तमान से नहीं बल्कि भविष्य में देखने की दूरदृष्टि होनी चाहिए, वह आपमें नहीं है। आर्थिक क्षेत्र में क्या हो रहा है, कितनी बेकारी बढ़ी। जार्ज जी आंकड़े बहुत देते हैं। वह 1952 से लेकर आँकड़े दे सकते थे और शायद हमारे कांग्रेस के मित्रों की या जो लोग भी सरकार में रहे थे उनकी जुबान बन्द कर सकते थे, लेकिन आपने ये आँकड़े क्यों नहीं दिए, पिछले आठ-नौ वर्षों में जब से उदारीकरण हुआ तब से कितने छोटे उद्योग बन्द हुए। आपके जमाने में कितने उद्योग बन्द हुए, कितने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का आपने डिसइनवेस्टमेंट किया और करने जा रहे हैं। यह और कुछ नहीं है अपनी कमाई हुई 50 वर्ष की सपंदा का ेबचे कर आज का खर्चा चलान ेका काम आप कर रहे हैं-‘‘बड़े-बड़े नाम और बड़े-बड़े नारे’’।

मैंने लालू जी का भाषण सुना था। उन्होंने कहा कि स्टेटिस्टिक से सब कुछ साबित नहीं होता। यह सच है, इससे सब कुछ साबित नहीं होता मैंने तो आपकी सरकार से कहा था कि इसके आधार पर ही देख लीजिए कि लिब्रलाइजेशन से जो हमने सोचा था उसकी हमें किस हद तक उपलब्धियाँ हुईं। चाहे विदेशी पँूजी के बढ़ाने के सवाल पर, चाहे उद्योगों और रोजगार के बढ़ाने के सवाल पर, चाहे बेकारी मिटाने के सवाल पर-एक नहीं हमारे सारे कुटीर उद्योग एक-एक करके बन्द हो गये। हमारे देश में 40-50 फीसदी कुटीर उद्योग बन्द हो गये हैं। टाटा जैसी कंपनी में 20 हजार लोगों की छंटनी हुई है। हमारे मित्र जानते होंगे कि कितने उद्योग हैं जो बन्द हुए हैं।

विदेशी और स्वदेशी के झगड़े में मैं पड़ना नहीं चाहता। आप स्वदेशी चलाना चाहते हो, साथ में सुषमा स्वराज की चलाई हुई टेलीविजन की नीतियां भी चलाना चाहते हो। जरा देखो टेलीविजन को, उसमें कितना स्वदेशी है। टेलीविजन के होते हुए उमा जी तपस्वनी हैं। कभी-कभी उस टेलीविजन को देखती भी है या नहीं। उस टेलीविजन का और स्वदेशी का क्या सम्बन्ध है? उसका कोई दूर का भी रिश्ता हो सकता है, क्या उसको आप नहीं रोक सकते थे, क्या उस पर आप प्रतिबन्ध नहीं लगा सकते थे, क्या उसमें कोई नये तरीके की तस्वीरें नहीं दिखा सकते थे?

मैं जानता हूँ कि डब्ल्यू0टी0ओ0 पर दस्तखत करने के बाद हम बहुत हद तक मजबूर हैं। लेकिन पेटेंट बिल पास करते समय विधि आयोग की सिफारिशों को छिपाकर रखना क्या जरूरी था? क्या सदन में उसकी चर्चा नहीं हो सकती थी? उस कानून में जो परिवर्तन हो सकते थे वे क्यों नहीं किए गये? हमारे मित्र कांग्रेस के लोग भी कहते हैं कि उसका करना जरूरी था। जहाँ तक आर्थिक सवाल है, आप में और उनमें कोई फर्क नहीं है। जहाँ तक विदेशों से सम्बन्ध का सवाल है, हमारे मित्र इंद्रजीत और सोमनाथ जी नहीं हैं। मुलायम सिंह जी और लालू प्रसाद जी आपसे मैं कहना चाहता हूँ कि शिवशंकर जी और राजेश पायलट जी भी बड़े स्वदेशी के समर्थक हैं। हमारे मित्र शरद पवार जी तो विदेशी पूँजी लाने के पक्ष में हैं। मुझे मालूम है कहने की कोई जरूरत नहीं हैं। एक बार जो नशा आदमी को लग जाता है तो छूटता नहीं है। चाहे उसके लिए उसे मौत का आलिंगन ही क्यों न करना पड़े यह दौलत का नशा बहुत बुरा नशा है। ‘‘कनक-कनक से सौ गुनी मादकता अधिकाय, एक खाए बौरात है एक पाए बौरात।’’ सोना मिलने पर आदमी पागल हो जाता है, धतूरा के तो खाने पर ही आदमी पागल होता है। मत इस सोने की ललक में पड़ो, बहुत लम्बी जिन्दगी है।

इस लम्बी जिन्दगी में बहुतों को लुढ़कते आपने देखा है। दो-तीन वर्ष पहले जो एशियन टाइगर्स थे, वे आज कहाँ चले गये? कहाँ गया वह सारा नारा जो हमने गाँधी जी से सीखा था। इसलिए प्रधानमंत्री जी मुझे शिकायत आपसे यह नहीं है आपने कोई नयी गलती की है लेकिन जो पुरानी गलतियाँ थीं उनमें से एक को भी आपने सुधारने का काम नहीं किया। मैं उन बातों में पड़ना नहीं चाहता कि आपने किससे समझौता किया, किसने नखरे किए और उन नखरों को मानने के लिए आपने किस प्रकार से प्रधानमंत्री पद की गरिमा को कम कर दिया। जैसा हमारे किसी मित्र ने कहा कि आडवाणी जी किसी को समझाने चले गये तो उनकी मर्यादा गिर गयी। क्योंकि राज को चलाना है तो कभी हथियार उठाना पड़ता है और कभी लोगों की मिन्नत भी करनी पड़ती है, कभी लोगों को समझाना पड़ता है।

हमारे घर का कोई आदमी पागलपन करे और झगड़ा करने पर उतारू हो जाए तो क्या हम उसको समझाते नहीं हैं। नहीं मानता है तो उसको दोस्तों से मनवाते हैं। हमारे कम्युनिस्ट मित्रों के दिल से अभी तक बन्दूक नहीं चली गयी। माक्र्स और लेनिन चले गये लेकिन इनके दिल से बन्दूक नहीं गयी। बन्दूक ही सब चीजों का इलाज नहीं है दोस्तों। इसी देश में महात्मा गाँधी ने करोड़ों लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ खड़ा कर दिया था। आडवाणी जी, आप आलाचेना स ेघबराइयगेा नही,ं जरूरत पडऩ ेपर लागेा ंेका ेसमझाइयगेा, लेकिन जरूरत पड़ने पर हिम्मत भी दिखाइयेगा। हर समय एक ही बात नहीं कि समझौता करने के लिए डरकर पैर पकड़ लिए जाएं। आप सरकार में हैं तो सरकार में कभी-कभी कटु निर्णय भी लेने पड़ते हैं और वह कटु निर्णय देश के लिए लेने पड़ते हैं, राष्ट्र के लिए लेने पड़ते हैं।

मैंने जसवन्त जी की एक बात सुनी। उन्होंने अच्छी बात कही कि आपको इस स्थिति के लिए आपसे क्या मतलब है? आप आइये ‘‘ऊका-बुका तीन तडुका’’ के लिए। ऊका-बुका तीन तडुका को आप छोटा मत समझिये। उससे आगे वाला आप भूल गये। ‘‘चन्दा मामा आरे आवे, पारे आवे नदिया किनारे आवे, सोने की कटोरिया में दूध भात लेने आवे’’। यही दादी माँ सिखाती थी। इसके पीछे एक सिद्धान्त और आदर्श है। हमारी प्रकृति में जो साधन हैं, उन पर हमें विश्वास है। हमारा आत्म शक्ति पर विश्वास, हमारा ममत्व पर विश्वास, हमारा इच्छा शक्ति पर विश्वास है। यही स्वदेशी की अवधारणा है, यही स्वदेशी का केन्द्र बिन्दु है जिसे आप समझें। गाँव की बोली में कही बात को आप मजाक की बात न समझिए। लालू जी, आप भी गम्भीर बातों को जरा गम्भीरता से कहिए। हर समय गम्भीर बातों को छिछला बना कर हम देश की अस्मिता को कमजोर करते हैं।

मेरी जार्ज जी से दोस्ती है। मेरा जार्ज जी से कोई लेना-देना नहीं है। हमारे कांग्रेस के मित्र बड़े गुस्से में थे। वे गुस्से में होकर क्या करेंगे? जो कागज वह चाहते थे वह कागज उनके पास अभी आ गया। वह उसको देखना चाहते थे। किसी ने कहा कि वह कागज आ गया। क्या हम यही एक दूसरे को दिखाना चाहते हैं? क्या इसी के लिए संसद है? इसी के लिए क्या विश्वास मत और अविश्वास मत है? क्या इसी चर्चा के लिए संसद है? क्या इसी के लिए हम हैं?

महोदय, मैं बोलता नहीं हूँ। मेरी बोलने की इच्छा नहीं थीं। बड़ी कृपा हुई कि आपने मुझे इस समय बोलने की अनुमति दे दी लेकिन कहीं गलतफहमी न हो जाए। जब आजादी की स्वर्ण जयन्ती मनायी गई तो मैंने उस समय कहा था कि क्या हम एक साल के लिए पुरानी गलतियों को नहीं भूल सकते? चाहे कोई भी सरकार हो हम भूख के सवाल पर, प्यास के सवाल पर, बेरोजगारी के सवाल पर, शिक्षा के सवाल पर सब लोग मिल कर काम करे।ं क्या हम लोग वे काम नहीं कर सकते? क्या हम रोज-रोज ऐसे ही लड़ते रहेंगे। इसलिए मैंने उस दिन कहा था कि यह विवाद न हो तो अच्छा है। प्रधानमंत्री जी, आपने वह माहौल नहीं बनाया। आडवाणी जी, मैं वे बातें नहीं कहूँगा जो दूसरे लोग कहते हैं लेकिन रोज जो चर्चा होती है, मैं नहीं जानता कि संघ परिवार क्या कहना और करना चाहता है? आपस में टकराव करके या आपकी टांग खींच कर क्या वे लोग देश पर हावी होना चाहते हैं? क्या वह एक नई विधा देश में लाना चाहते हैं? यह खतरनाक बात है। अगर उनके मन में यह बात है और जो संसदीय जनतंत्र की परिधि से बाहर है तो लोगों के मन में शंका होना स्वाभाविक है। इसलिए यह खतरा लोगों के मन में दिखाई पड़ रहा है। बहुत चीजें इसलिए बिगड़ जाती हैं कि हम लोग आपस में बातचीत नहीं करते।

हमारे मित्र मुलायम सिंह जी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से बड़ी नाराजगी है और वह सही है। उन्होंने सुबह मुझ से कुछ बात कही। दोपहर को मुख्यमंत्री जी मिल गए। मैंने उनसे कहा कि ऐसी गलती क्यों की? उन्होंने कहा कि हमने गलती नहीं की, हमने उस गलती को सुधारने के लिए कदम उठाए। हम चार दिन में वह गलती सुधार देंगे। मैं उसकी तफसील में कुछ नहीं कहूँगा। मैंने उनसे कहा कि मुलायमसिंह जी को खुद ही बता देना, मुझे याद नहीं रहा। चर्चा करते समय मेरे दिमाग में बात आ गई। कभी-कभी चर्चा और बात कर लेनी चाहिए।

आर्थिक और राजनैतिक सवालों पर मतभेद होते हैं। आखिरकार हम इन्सान है।ं राजनीति हमारे जीवन मे ं10 परसैटं होगी, हम 90 फीसदी राजनीति से अलग हैं। अगर 90 फीसदी को विकसित नहीं करेंगे तो देश बनाने का काम हम नहीं कर सकते, हम निर्माण का काम नहीं कर सकते। आपस में हम लोगों में सहायोग नहीं होगा तो करोड़ों लोगों का सहयोग लेकर राष्ट्र निर्माण का काम कसै ेहागेा? हमारी समस्याआ ंेका समाधान लदंन वाशिगंटन, आइर्0एम0एफ0 और वल्र्ड बैंक में नहीं है। जसवन्त जी, समस्याओं का समाधान हमारे नौजवानों के मनोबल में, हमारे कल-कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की बाँहों की ताकत में है। आइए हम उनको सजाएं।

महात्मा गाँधी जी ने देश को आजाद कराया था। सबसे बड़ा राजनैतिक अपराध क्या आप लोगों ने नहीं किया था? शिवशंकर जी, यह कहने के लिए क्षमा करिए, 1991 में सबसे बड़ा राजनीतिक अपराध आपने शुरू किया था। जो मनोबल महात्मा गाँधी जी ने गुलाम देश में बनाया था, उस मनोबल को तोड़ने की जिम्मेदारी हम सब पर है। हमने उसके साथ समझौता किया था। मुझे एक ही बात का संतोष है, मेरी बात कोई सुने या न सुने, मैंने इन बातों पर समझौता नहीं किया। इसलिए मैं चाहते हुए भी आडवाणी जी, आपके प्रस्ताव का समर्थन नहीं कर सकता। इसलिए नहीं कि मेरे मन में कोई कटुता है। मैं नहीं जानता मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव कम्युनिस्ट मित्रों या हमारे उधर बैठे नेता शरद पवार जी की कितनी चलेगी? लेकिन आप लोग याद रखना और यह मत समझना कि सत्ता पाकर सब कुछ हासिल कर लेंगे। अन्त में हिन्दी की एक कविता की पंक्तियां सुना देता हूँ।

जिन हाथों में शक्ति भरी है, राजतिलक देने की, उन हाथों में ही ताकत है, सर उतार लेने की।

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लखनऊ,
उत्तर प्रदेश

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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।