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सारी राज व्यवस्था पर काबिज है देश का एक घराना, सरकार कराये यूटीआई घोटाले की जांच

भारतीय यूनिट ट्रस्ट की निधियों के कुप्रबंधन पर लोकसभा में 21 अगस्त, 2001 को चन्द्रशेखर

उपाध्यक्ष महोदय, मै ंयह सवाल इसलिए आपके सामने रख रहा हूँ कि सारे देश में चर्चा है कि एक औद्योगिक घराना सारी राज व्यवस्था पर काबिज हो गया है। चाहे वह हमारी व्यवस्थापिका हो या हमारी कार्यपालिका हो, हर जगह पर उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। उसके बारे में एक बार नकवी जी ने चर्चा उठाई और एक बार प्रियरंजन दासमुंशी जी ने उठाई, लेकिन उस चर्चा के बावजूद भी कुछ नहीं हुआ।

उपाध्यक्ष महोदय, कई दिनों तक अखबारों में खबरें छपती रहीं कि उस घराने ने 390 रुपये पर जो शेयर भारत सरकार को बेचा था, उस शेयर को 60 रुपये में खरीदा। इस प्रकार 1070 करोड़ रुपया यूटीआई से उनको दिया गया है। उस पैसे को उन्होंने जाली कम्पनियों के नाम बेच दिया है। जो आडिटर-जनरल को रिपोर्ट आई है, उसमें कहा गया है कि उनको जो इनकम टैक्स देना था, उसका भी सही हिसाब नहीं दिया गया है।

इस तरह की एक नहीं, अनेक बातें आती हैं। प्रधानमंत्री जी के हवाले से यह बात कही गई कि इन्होंने यूटीआई और उस घराने के बारे में सीबीआई की इन्क्वायरी का आदेश दिया है। मैं नहीं जानता कि उसमें सच्चाई क्या है? मैं सरकार से जानना चाहता हूँ कि अगर यह आदेश दिया हो तो देश में जो भ्रम फैल रहा है कि वह घराना कुछ भी कर सकता है और सरकार उसे नजरअंदाज कर सकती है। ऐसा न करके, अगर सरकार ने उस घराने के विरोध में कोई कदम उठाया है तो प्रधानमंत्री जी उस बात को सदन और देश के सामने रखें। अगर नहीं उठाया है तो मैं उनसे आपके जरिए निवेदन करूंगा कि इन सवालों की जांच होनी चाहिए। मैंने उन्हें आज से एक-डेढ़ महीने पहले पत्र लिखा था। अभी हमारे पास उस पत्र की प्राप्ति की सूचना नहीं आई है। मैं कोई विषद विवेचन में नहीं जाना चाहता, लेकिन चाहता हूँ कि इसकी जांच होनी चाहिए। देश में इसे लेकर भ्रम नहीं रहना चाहिए कि सारी संसद इस मामले में चुप की जा सकती है, सारी कार्यपालिका निष्क्रिय की जा सकती है, सरकार की सारी मशीनरी इसके अंदर ध्वस्त हो सकती है।

महोदय, आज यूटीआई का मामला है, कल आईडीबीआई का और परसों आईसीआईसीआई का हो सकता है। आज ये सारी वित्तीय संस्थाएं संदेह के घेरे में पड़ी हुई हैं। मुझे इस बात पर आश्चर्य होता है कि उस व्यक्ति के या घराने के कहने पर कैसे वित्त विभाग का एक बड़ा अधिकारी तुरंत स्थानांतरित कर दिया जाता है। यहाँ वित्तमंत्री जी बैठे हैं, उन्हें सूचना तक नहीं होती और यह काम हो जाता है। जिसे चाहे जहाँ नियुक्त करा दें, स्थानांतरित करा दें- यह भ्रम सारे देश में फैला हुआ है।

मैं इस सवाल को नहीं उठाता, लेकिन मैं जहाँ भी जाता हूँ मुझसे लोग कहते हैं कि संसद इस सवाल पर मौन क्यों है? अगर नकवी साहब और मंुशी जी ने सवाल उठाया तो उस पर चर्चा क्यों नहीं हुई। इसमें लोग कहते हैं फिर आप चुप क्यों हैं। इसलिए मैं इस सवाल को उठा रहा हूँ। अगर यह प्रभाव लोगों के मन पर पड़ेगा कि यह घराना मनमानी कर सकता है और सरकार निष्क्रिय बनी रहेगी, यह संसद मौन रहेगी तो इससे अशुभ लक्षण और कोई नहीं होगा।

महोदय, किसी को धमकी, चेतावनी देने के लिए नहीं, अगर सरकार इस बारे में कोई कदम नहीं उठाएगी तो मुझे मजबूर होकर उस घराने की कुकृतियों को एक दस्तावेज बना कर सारे देश में वितरित करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। उस समय संसदीय कार्यमंत्री जी बुरा मत मानिएगा। में यह बात किसी पार्टी या व्यक्ति के हिसाब से नहीं, वित्तमंत्री जी को इसलिए नहीं कह रहा हूँ क्योंकि वह बेचारे मजबूर हैं। वह हमारे मित्र हैं। उनके बारे में तरह-तरह की बातें कही जाती हैं, जो अनायास ही सारे आरोप अपने ऊपर लेने को मजबूर हो रहे हैं। मैं यह समझता हूँ कि मजबूरी उनकी उनके लिए और देश के लिए अच्छी नहीं है। जो लोग उस घराने का विरोध नहीं कर सकते, वे वित्तमंत्री जी या सरकार के किसी एक व्यक्ति का विरोध करते हैं। यह संसदीय परम्परा के लिए स्वस्थ चिन्ह नहीं है। केवल इतना ही कह कर मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।