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सियासत के लिए मजहब का इस्तमेाल खतरनाक सदन कर राष्ट्रीय उत्तरदायित्व का निवार्ह

लोकसभा में 27 दिसम्बर 1990 को साम्प्रदायिक स्थिति के सवाल पर प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर

अध्यक्ष महोदय, मैं एक बात स्पष्ट करना चाहता हूँ। सांप्रदायिक स्थिति काफी तनावपूर्ण और खराब है। यह देश के लिए शर्म की बात है। हम चाहते हैं कि सदस्यों को इस मामले पर चर्चा करनी चाहिए और इस समस्या का समाधान ढूँढना चाहिए। माननीय सदस्य ने ठीक नहीं कहा है। जब दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे हुए तो मैं एक घण्टे के भीतर ही उस स्थान पर गया।

मैं राज्यों में नहीं गया, वहाँ कानून और व्यवस्था की स्थिति के लिए राज्य सरकारें उत्तरदायी हैं और मुझे राज्य मुख्यमंत्रियों से सलाह लेनी पड़ी। मैं किसी भी स्थान पर राज्य सरकारों की अनुमति और सलाह के बिना नहीं जाता हूँ। मैं यह बात स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जहाँ भी ऐसी समस्याएं थीं, मैंने वहाँ के मुख्यमंत्रियों से लगातार संपर्क बनाए रखा और जिस भी सहायता की उन्हें आवश्यकता थी, वह केन्द्र सरकार ने उन्हें दी। मेरे वहाँ जाने से केवल पे्रस द्वारा मुझे ख्याति मिलती लेकिन उससे स्थिति में कोई सुधार नहीं होता।

अध्यक्ष महोदय, मैं चाहता हूँ कि सदस्य इस मुद्दे के बारे में और अधिक गम्भीर बनें। मुझे आशा है कि बहस कटुता के वातावरण में नहीं होगी बल्कि हम सांप्रदायिक दंगे होने के कारण और इस स्थिति से निपटने के उपाय ढूँढ़ने का प्रयास करेंगे। चर्चा की यही भावना होनी चाहिए। इस मुद्दे पर हमें एक-दूसरे पर आरोप नहीं लगाने चाहिए। मुझे इतना ही कहना है।

उपाध्यक्ष महोदय, मुझे बहुत दुःख है कि जब चैधरी साहब (चैधरी देवी लाल, उपप्रधानमंत्री) बोल रहे थे तो मैं आडवाणी जी को विश्वास दिलाता हूँ कि उनका यह मतलब नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी लोगों को देश से बाहर निकालना चाहती है। कुछ लोग ऐसे नारे लगाते हैं ‘‘बाबर की सन्तान छोड़ो हिन्दुस्तान’’।

मैं ऐसा समझता हूँ कि चैधरी साहब उस तरह के नारों का जिक्र कर रहे थे कि अगर सारे देश से निकालने की बात कही गई तो गलत है। भारत के संविधान में सबको समान रूप से रहने का अधिकार है। दुनिया के सामने हम यह चित्र पेश नहीं करना चाहते हैं, कोई भी किसी को इस देश से निकालने की कोशिश करेगा तो यह सरकार इस बात की इजाजत नहीं देगी, चाहे वह कोई भी व्यक्ति हो। चैधरी साहब का मतलब भारतीय जनता पार्टी की नीति से नहीं था, उन नारों से था जो नारे कुछ लोग लगाते हैं और इसके लिए आप लोग जिम्मेदार नहीं हैं तो यह अच्छी बात है।

उपाध्यक्ष महोदय, हमने बड़ी पीड़ा के साथ इस सारे विवाद को सुना। जो कुछ भी पिछले दिना ेंम ेंहुआ है, उससे किसी भी भारतीय को लज्जा का अनुभव होगा। मैं किसी दूसरे पर आरोप नहीं लगाना चाहता। इस सदन के नेता के रूप में और भारत के प्रधानमंत्री के रूप में मैं पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता हूँ। मैं मानता हूँ कि अगर एक भी हिन्दुस्तानी मरता है तो हमारे लिए कलंक की बात है, एक शर्म की बात है। मै ंबहुत ही विनम्र शब्दा ंेम ंेउन मित्रा ंेस ेकहना चाहूँगा कि सारी बीमारी डेढ़ महीने में पैदा नहीं हुई हैं। यह बीमारी पुरानी है। इसके इलाज के लिए हम कोशिश कर रहे हैं लेकिन यह इलाज ला-इलाज रहा। मैं आँकड़ों में नहीं जाऊँगा।

पिछले दिनों में कितने दंगे हुये, कितने लोगों की मौत हुई, इससे हमारा ढांढस नहीं होता है। जैसा कि मैंने कहा कि यदि एक भी आदमी मरता है तो हमारे लिए यह कलंक की बात है। हमें इसकी तह में जाना पड़ेगा कि ये दंगे क्यों होते हैं? हमारी भावना और हमारे जज्बात क्या हैं? जब हमने इन्द्रजीत जी और सैफुद्दीन जी का भाषण सुना तो हमें थोड़ा ढांढस मिला कि हमारे दिल में बैठा हुआ वह जज्बा जो भाई-भाई को और इनसान को इनसान से अलग करता है, वह दंगे की जड़ में है। दंगे के लिए मजहब जिम्मेदार नहीं है लेकिन जब मजहब का इस्तेमाल सियासत के लिए करते है ंतो मजहब खतरनाक चीज हो जाती है। मजहब अगर भगवान और आदमी के बीच रिश्ता कायम करने का हथियार है तो यह मजहब आदमी को ऊँचाईयों की ओर ले जाता है। जब मजहब हमारे सामाजिक और धार्मिक जीवन में प्रवेश करके इनसान की फितरत और आदमी के स्वभाव को प्रभावित करने लगता है तो मजहब खतरनाक बन जाता है और यही बीमारी हमारे देश में है।

यह बीमारी पुरानी है। इसके नाम पर इस देश का बंटवारा हुआ और वह इतिहास हमारे पीछे है। हमारे उप-प्रधानमंत्री ने जब उस जमाने का जिक्र किया तो उस समय भी यही नहीं कि जिन्होंने पाकिस्तान बनाया, वे भावावेश में जकड़े हुए थे, दूसरी ताकतें भी थीं जो बहुमत की ताकतें थीं, उनके मन में भी वही जजबात काम कर रहा था। हम नहीं जानते हैं, हम किसी पार्टी का नाम नहीं लेना चाहते और न ही किसी नेता का नाम लेना चाहते हैं क्योंकि यह वातावरण ऐसा नहीं है कि हम यहाँ तनाव पैदा करके कुछ और लोगों की मौत का कारण बनें।

उपाध्यक्ष महोदय, मै ंबहुत विनम्र शब्दो ंमे ंकहना चाहँूगा कि जब हिन्दुस्तान के किसी कोने में कोई नारा लगाता है कि ‘‘बाबर की सन्तान, छोड़ो हिन्दुस्तान’’ तो इससे पता चलता है कि जज्बा क्या है? दिलों में कितना द्वेष, कितनी घृणा, कितना एक-दूसरे के प्रति नफरत भरी हुई हैं। ये नारे लगाने वाले हमारे ही भाई हैं। ये नारे लगाने वाले हमारे ही बीच के लोग हैं और जब हमारे देश में यह कहा जाता है कि धर्म के मामले में सबको बराबरी है, हमको इसमें कोई ऐतराज नहीं हैं। किसी धर्म में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए-चाहे वह बहुमत का धर्म हो, चाहे अल्पमत का धर्म हो। लेकिन जब यह कहा जाता है कि अल्पमत वालों को समान अवसर क्यों नहीं दिए जाते, उनको अगर कोई विशेष मदद दी जाती है, जो उनको तुष्ट करने की बात है, उनके साथ वोट की राजनीति है, मैं बड़े विनम्र शब्दों में उन लोगों से कहूँगा कि उन्होंने शायद हमारे संविधान की मूल धाराओं को नहीं समझा।

हमारे संविधान में धर्म में सबको बराबरी दी गई है लेकिन अल्पमत को विशेष सुविधा देने का प्रावधान हमारे संविधान में क्यों रखा गया? क्योंकि अल्पमत के लोगों के दिलों में जो डर होता है, जो उनके मन में शंका होती है और मैं यह कहूँ अगर मुझे गलत न समझा जाए-समाज में जो उनका तिरस्कार होता है या उनकी जो जरूरत की मांगें पूरी नहीं होतीं, उसके पीछे हमारे संविधान के बनाने वालों ने सोचा था कि उस समय कोई ऐसा संविधान में प्राॅविजन हो, ऐसा अंश हो जिससे हमारे अल्पमत के लोगों के मन में एक विश्वास पैदा हो जाए।

उपाध्यक्ष महोदय, मैं फिर यह कहना चाहूँगा कि हमारे देश की कोई नई बात नहीं। सारी दुनिया में अल्पमत के लोगों के मन में यह डर होता है, यह शंका होती है, चाहे अकलियत हों जुबान की भाषा की, चाहे वह अकलियत हों धर्म की या ‘‘ऐथनिक माइनाॅरिटीज’’ हो उन अकलियत के दिलों के इस डर को मिटाने की जिम्मेदारी अकसरियत की, हुकूमत की और सरकार की होती है। अगर इस जिम्मेदारी को हम निभाने के लिए तैयार नहीं हैं तो उपाध्यक्ष महोदय, बिना किसी की ओर संकेत किए हुए मैं आपके द्वारा इस सदन से कहना चाहूँगा कि हम अपने राष्ट्रीय उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं करते। हम अपनी कौमी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं करते। यह बात हमें समझनी चाहिए। हमारे देश में वह बात एक ओर बड़े जज्बे के साथ जुड़ी हुई है जो कुछ अच्छी यादें नहीं हैं, बुरी यादें हैं। उन यादों को मैं दोहराना केवल इसलिए चाहता हूँ कि हम असलियत के नजदीक पहुँच सकें।

इस देश के दो टुकड़े हुए। कौन लोग पाकिस्तान गए। जितना यहाँ का धनी मुसलमान था, बड़े ओहदे पर था, वह पाकिस्तान चला गया। यहाँ गरीब मुसलमान रह गए। जिस समाज में साधन कम होते हैं, अवसर कम होते हैं वहाँ अवसर उन लोगों को मिलते हैं जो लोग अवसर पाने के लिए सिफारिश कर सकते हैं। हमारे हिन्दू और मुसलमान में कोई फर्क नहीं। मुसलमान के साथ भी यह होता है, हिन्दू के साथ भी यही होता है। बड़ी जातियों के साथ यही होता है और पिछड़ी जातियों के साथ यही होता है। जो समाज पर ऊँचे तबके में बैठे हुए हैं वह अपने तबके के लोगों को ज्यादा प्रश्रय देते हैं। यह इन्सानी फितरत है, मानव स्वभाव है। यह सारी दुनिया में होता है, हिन्दुस्तान उससे कोई अछूता नहीं है। जब जितने धनी लोग थे चले गए, यहाँ गरीब मुसलमान रह गया। उसकी सिफारिश करने वाला कोई नहीं था। इसीलिए अगर हम देखें-हमें यह मत फिर कहिएगा कि मैं चुनाव के लिए कोई वोट मांग रहा हूँ।

मैं केवल इस सदन के जरिए इस देश को बताना चाहता हूँ कि 1947 के बाद चाहे वह सरकारी नौकरी हो चाहे वह तिजारत हो, चाहे दूसरे औद्योगिक प्रतिष्ठान हों, उनमें अकलियत के लोग, माइनाॅरिटीज, के लोग धीरे-धीरे पीछे होते गए। हमारे मित्र विजय कुमार मल्होत्रा ने एक बात कही, जिनकी मैं बड़ी इज्जत करता हूँ, उनसे मैं कहना चाहता हूँ कि उन्होंने एक आँकड़ा दिया जो आँकड़ा अपने ही खिलाफ दिया। ‘‘जो बच्चे ज्यादा पैदा करता है, वह ज्यादा गरीबी पैदा करता है’’। जो ज्यादा पिछड़ा होता है, वही ज्यादा बच्चे पैदा करता है, चाहे वह हरिजन हो, चाहे मुसलमान हो, चाहे झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाला इन्सान हो जिसके पास भविष्य के लिए कोई और आशा नहीं होती है, वह बच्चे ज्यादा पैदा करते हैं।

इसलिए नहीं कि मुसलमान इस देश पर बहुमत करके 13 करोड़ अगर होंगे तो 85 करोड़ को पीछे नहीं कर सकते। 85 करोड़ में 72 करोड़ को पीछे नहीं कर सकते। इस नजरिए से अगर हम अकलियत की समस्याओं को उनके मसायल को देखेंगे तो हम गलत नतीजे पर पहुँचेंगे।

कभी-कभी हमारे अकलियत के नेता और अकलियत के लोग गुस्से में बातें करते हैं। यहाँ सदन के अन्दर भी और सदन के बाहर भी। मैंने फिर कहा कि सारी दुनिया में होता है। मगर अकलियतों की बातों का अर्थ अगर हम शब्दकोष से लगायेंगे, डिक्शनरी से लगायेंगे तो हरदम हम गलत राजनीतिक फैसले पर पहुँचेंगे। अकलियत के लोग गुस्से में बोलते हैं तो वह हमारे लिए चुनौती नहीं है, वह उनके मन का दर्द है उनके मन की पीड़ा है, उनके दिल के जजबात हैं, जिन जजबातों को जाहिर करने के लिए वे मजबूर हैं। मैं बड़े विनम्र शब्दों में कहना चाहूँगा कि अकलियत के लोगों की बातों पर इस देश के बहुमत को, इस देश की अक्सीरियत को नहीं जाना चाहिए। हम उनके जजबातों को देखें। वे भी आप ही के भाई हैं। वे बाबर की संतान नहीं हैं।

बाबर तो 10 हजार लोगों को लेकर आया था, यहाँ के करोड़ों लोग वैसे 10 हजार नहीं पैदा कर सकते थे। वे तो हमारे ही भाई, हमारे ही घर के तिरस्कृत लोग थे, हमसे दुत्कारे गए थे, जो मुसलमान हो गए थे। इसलिए इतिहास को हमें इस नजरिए से नहीं देखना चाहिए। अगर इतिहास को हम इस नजरिए से देखेंगे तो हमेशा इतिहास को बर्बाद करने के लिए जिम्मेदार हम ही होंगे। मैं मानता हूँ कि सवाल कुछ उठाये जाते हैं। क्या राम हमारे विवाद का विषय हो सकते हैं। कोई भी हो, जो भारत में रहता है, समझता है कि राम हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनूठे व्यक्तित्व थे। यों कहिए कि ऐसी विभूति थे जिस पर किसी भी भारतीय को गर्व हो तो क्या राम के नाम पर भाई का खून बहायेगा।

मैं नहीं जानता कि किस राम की परिभाषा में हमसे कहा गया है कि राम एक गज जमीन के अन्दर पैदा हुए। मैं यहाँ कोई उस विवाद में नहीं जाना चाहता। अगर हमारे मुसलमान भाई कृपापूर्वक उनको कहेंगे कि राम को आप यहाँ बना लो तो हमें कोई ऐतराज नहीं होगा, लेकिन किस हिन्दू धर्म में कहा गया है ऐसा। उपाध्यक्ष महोदय, राज्य सभा में मैथिली शरण गुप्त ने कहा था।

राम तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या,

विश्व में रमे हुए, सभी कहीं नहीं हो क्या।

तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे,

तुम नरोत्तम हो, मन तुममें रमा करे।।

यह हमारी कल्पना है। राम हर मन्दिर में हैं, हर मस्जिद में हैं, हममें, तुममें हर कण-कण में व्यापे राम हैं-यही हिन्दू धर्म है। कौन-सा हिन्दू धर्म हमें यह बताता है कि एक गज जमीन के लिए, राम के नाम पर हत्याओं का व्यापार इस देश में चले। यदि कोई राजनैतिक नेता कहे, कोई धार्मिक नेता कहे तो याद रखिये, हजारों वर्षों की सभ्यता और संस्कृति की धारा को हम नहीं बदल सकते हैं। हम लोग संसद के सदस्य हो सकते हैं लेकिन भारतीय संस्कृति के नीतिकार नहीं हो सकते हैं। हम कोई शास्त्रकार भी नहीं हो सकते हैं।

भारतीय संस्कृति की अनवरत धारा गंगा की तरह बहती है। इसकी एक ही विशेषता है, कि हमने हर धर्म के लोगों को अपने में समाविष्ट किया। किसी का हमने तिरस्कार नहीं किया। समाविष्ट करने के लिए, हमने किसी के विरुद्ध हथियार नही ंउठाये, अपने म ेंसमाविष्ट करने के लिए हमने कोई जोर जबर्दस्ती नहीं की बल्कि समझा-बुझाकर समाविष्ट किया।

इसीलिए जब मैंने प्रयास किया कि राम जन्मभूमि के मसले का हल आपसी बातचीत के जरिए किया जाए तो हम समझते थे कि जो भारतीय संस्कृति की अनमोल देन है, जो हिन्दुओं के मन में भी है और मुसलमानों के मन में भी है, मैं आपसे निवेदन करूँ कि भारतीय संस्कृति किसी एक व्यक्ति की विरासत नहीं है। हमारी संस्कृति उन करोड़ों लोगों की उपलब्धि है जो भारत माँ की धरती में जन्मे हैं। कौन कहेगा कि ताजमहल हमारी संस्कृति का अंग नहीं है। कौन इंकार करेगा कि लाल किला हमारी संस्कृति की अनूठी देन नहीं है। अगर यह बात है तो किसको आप अपने से अलग कर रहे हो। क्या अपने एक अंश को, टुकड़े को काटकर शरीर को विकसित करना चाहते हो। इस तरह से न तो हमारी संस्कृति का विकास होगा और न देश का विकास होगा। यही बुनियादी सवाल आज हमारे सामने हैं।

इसीलिए मैं आज आपसे कहूँगा, उपाध्यक्ष जी, मैं आपके जरिए इस देश की जनता से कहना चाहता हूँ कि इस सवाल पर कोई विवाद मत खड़ा कीजिये। हमारे पास विवाद के लिये अनेक अवसर हैं। विवाद के लिए हमारे सामने आर्थिक सवाल हैं, दूसरे सवाल हैं। इंसान-इंसान के रिश्ते के बीच में किसी तरह का विवाद हमें पैदा नहीं करना चाहिए। हम राम और रहीम के बीच में फर्क करने की कोशिश न करें। यदि राम और रहीम के बीच में फर्क करेंगे तो क्या उससे हमारे देश की प्रतिष्ठा बढ़ जायेगी, क्या हमारा गौरव बढ़ जाएगा। आज मुझे इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं, जैसा कि हमारे मित्र सैफुद्दीन साहब ने कहा, वे नौजवान आदमी हैं, उनमें जोश ज्यादा है, जब कि मुझमें उतना जोश नहीं है। मैं जानता हूँ कि कोई भी मुख्यमंत्री हो, उसे रोक नहीं सकता लेकिन जिस समय दंगे होते रहते हैं, गोलियाँ चलती हैं, छुरे चलते हैं, मुश्किल से 100-200 या 500 पुलिस के लोग वहाँ होते हैं।

उपाध्यक्ष महोदय, मेरे मन की कमजोरियाँ हो सकती हैं। यदि प्रधानमंत्री कहीं जाता है तो कोशिश चाहे कितनी भी करते रहिए, सारी पुलिस उस प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लग जाती है और कोई दंगाग्रस्त इलाके में नहीं जाता। मैं नहीं जानता, मेरा आंकलन गलत हो सकता है, मैं यह नहीं कहता कि मैं सही हूँ, मैं अपने दोस्त, बुजुर्ग मुस्लिम लीग के नेता से भी कहना चाहता हूँ कि जहाँ हम जानते थे कि इतनी फौज है, इतनी पुलिस वहाँ लगी हुई है, पाँच सौ, हजार लोग प्राइम मिनिस्टर की सुरक्षा में लग जायें तो उन गलियारों में जहाँ लोग तड़प रहे थे, शायद एक भी पुलिस का आदमी न रह जाए। यह मेरा एडमिनिस्ट्रेटिव दृष्टि से डिसीजन गलत हो सकता है, लेकिन कोई इसलिए नहीं कि मेरे पास साधन की कमी है, कोई इसलिए नहीं कि मुझे डर था कि वहाँ जाने पर कोई हमको मार डालेगा, लेकिन हर आदमी की अपनी कमजोरियाँ होती हैं। शायद वह मेरी कमजोरी हो, इसको स्वीकार करने में मैं हिचकूंगा नहीं, लेकिन इसलिये नहीं कि दंगे के बारे में मुझे जानकारी नहीं थी। उसके हर घण्टे की बात, जहाँ कहीं भी दंगा हुआ है, चाहे वहाँ के मुख्यमंत्री से, चाहे वहाँ के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट से और चाहे वहाँ के एस.पी. से, हमने सम्पर्क किया है।

सैफुद्दीन साहब ने अलीगढ़ की बात की। मैं जानता हूँ कि कई जगह पर अधिकारियों ने असावधानी बरती और वे जानते हैं, लेकिन दूसरा पहलू उन्होंने नहीं कहा कि वहाँ के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और एस.पी. को 4 घण्टे के अन्दर वहाँ से ट्रांसफर किया है। हमको यह जानकारी थी और कदम उठाया गया। ऐसा नहीं है कि हमने कदम नहीं उठाए, जहाँ हवाई जहाज से फौज और पुलिस भेजी जा सकती थी, हमने कोशिश की।

यह भी एक बात कही जाती है कि वायदे किए गए। मैं नहीं जानता कि कितने वायदे किए गए। राइट पुलिस बनाने के बारे में लोगों ने बात कही और इस मामले को उठाया है कि इसमें कठिनाई है। हमारे साथी सुबोध कांत कहते रहे हैं-कठिनाई यह है कि बहुत-सी राज्य सरकारें, क्षमा कीजिएगा फिर कोई यह न समझे कि मैं फिर उनकी कोई आलोचना कर रहा हूँ या उनको कोई धमकी दे रहा हूँ, लेकिन बहुत-सी राज्य सरकारें शायद इसके लिए तैयार नहीं हैं और जिस तरह की वे बनायेंगे उस पर लोगों को विश्वास नहीं है। आज से कुछ दिन पहले हमारे यहाँ एक प्रस्ताव आया। प्रस्ताव यह आया कि जैसे हमारे यहाँ नेशनल सिक्योरिटी गार्ड हैं, जो किसी भी इमरजेंसी में भेजा जा सकता है, अगर यह सदन इजाजत दे, तो हम यह चाहते हैं और हमने अपने अधिकारियों को कहा है कि इस बात पर वे सोचें कि भारत सरकार के अन्दर एक राइट पुलिस होनी चाहिए। जहाँ-कहीं भी राइट हो, उसके 3 घण्टे के अन्दर उसको हम वहाँ भेजने का इन्तजाम कर सकें लेकिन इसमें सदन का समर्थन चाहिए, इसमें राज्य सरकारों की सहमति चाहिये और इसके लिए अगर आप हमें इजाजत दें, तो इसमें साल दो साल नहीं लगेंगे, अगले सैशन में आने से पहले वह राॅयट पुलिस बनकर तैयार होगी, अगर आप इस बात के लिए तैयार हों।

इसकी इजाजत आपको देनी होगी, सोचना पड़ेगा। लेकिन ऐसी बात नहीं मानिए कि मैं कोई यह नयी बात कह रहा हूँ-नेशनल सिक्योरिटी गार्ड हैं-जहाँ हाईजैकिंग होती है, कहीं खतरा पैदा होता है, तो जो सेंट्रल पुलिस है, वह जाती है। उसी तरह से अगर हम उस पैमाने पर सोचें और मैं कहता हूँ कि हमें सोचना चाहिए। अगर कहीं राइट होता है, तो वहाँ पर जिम्मेदारी मर्कज को संभाल लेनी चाहिए और उसमें राज्यों की सरकारों का सहयोग ले और उसमें भी मजिस्ट्रेसी हो, उनकी इजाजत से किया जाए, लेकिन उस पुलिस को अपनी मर्जी से काम करने की छूट होनी चाहिए। शर्ते लगा सकते हैं कि वह पुलिस कहीं पर भी 3 दिन या 7 दिन से अधिक नहीं रहेगी। केवल रायट कंट्रोल करके, वापस आ जायेगी। इस तरह की बात हो सकती है। नहीं तो, एक पुलिस की बात करते रहिए, बातें चलती रहेंगी-कब टेस्ट होगा, कब उनकी भर्ती होगी, किस आधार पर बनेगी, कहाँ से लोग ढूंढ़े जायेंगे, कौन भर्ती करने वाली मशीनरी होगी, जो उसमें फिर पक्षपात नहीं करेगी, ये सारे सवाल हैं जो उठेंगे।

आज हमारे पास बहुत से पुलिस आर्गेनाइजेशन हैं, उनसे लोगों को लेकर हम इस तरह की एक व्यवस्था कर सकते हैं। जहाँ तक दूसरा सवाल है, जो इन्द्रजीत जी ने उठाया है, रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद के बारे में। अब हम कहते हैं कि हमारे पास क्या रास्ता है-सोच सकते हैं-या तो आपस में बातचीत करके फैसला करें या दूसरा रास्ता, जुडीश्यरी के जरिए हम फैसला करें। इस मुद्दे पर बहुत विवाद उठाया गया और कहा गया कि कांग्रेस पे्रसीडेण्ट ने यह प्रस्ताव दे दिया-मैं मजबूर था उस प्रस्ताव को मानने के लिये। यहाँ के दैनिक अखबारों ने, बड़े मशहूर अखबारों ने भी एक टिप्पणी की, एडीटोरियल लिखे हैं कि राजीव गाँधी के दबाव में चन्द्रशेखर इस बात को मानने के लिये तैयार हुए। उपाध्यक्ष महोदय, आप पूछ लीजिये-वे किसी पार्टी के मेम्बर नहीं हैं-जस्टिस कृष्णा अयर, वर्गीस साहब और स्वामी अग्निवेश, हमारे पुराने मित्र हैं, हालांकि हमारे वे समर्थक नहीं हैं, इन लोगों ने पहले पहल वह प्रस्ताव रखा था। उसी प्रस्ताव को परिष्कृत रूप में श्री राजीव गाँधी ने रखा और मैंने कहा कि इस पर सोचना चाहिये, इस पर विचार करना चाहिए। अगर सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला कर सके, उसमें ऐतराज हो सकते हैं। किसी ने उपाध्यक्ष महोदय से पूछा कि क्या दोनों पक्ष उसको मानने के लिए तैयार है? दोनों पक्ष उसको मानने के लिये तैयार नहीं हैं, लेकिन इतना जरूर है कि दोनों पक्षों ने उसका विरोध नहीं किया है।

दोनों पक्षों के नेताओं से हमने बातचीत करने की कोशिश की, कम से कम बाबरी मस्जिद समिति ने तो यह कहा है कि न्यायालय का निर्णय हमें मान्य होगा। जो कुछ भी होगा उस निर्णय को हम मान लेंगे। मैं यह अपेक्षा करता हूँ कि विश्व हिन्दू परिषद के लोग भी इस तरह का एलान करेंगे। यही एक रास्ता है देश को बचाने के लिए, बनाने के लिए और एक बार में यह बात हो जाए तो फिर उसमें यह भी सुझाव है कि दूसरे पूजास्थलों के ऊपर कोई परिवर्तन नहीं किया जाए चाहे 1947 की तारीख मान लीजिए या जिसमें संविधान लागू हुआ 1950 को।

संसद में प्रस्ताव लाकर संविधान में परिवर्तन करके जो भी करना होगा, करना है। इस बात को एक समय के लिए और हमेशा के लिए हल करना होगा। अगर हम नहीं करेंगे तो यह भूत हमारा पीछा करता रहेगा और इसके लिए हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम उसके लिए कृत संकल्प हैं चाहे उसके लिए जो भी कठिनाई उठानी पड़े। इंसान की जिन्दगी से बेशकीमती चीज कोई नहीं है।

मैं यह समझता हूँ कि पुलिस की गोली से दस लोगों को मरना पड़े तो मरें लेकिन छुरा मारने वालों के छुरे से कोई भी इंसान मरने को मजबूर नहीं होगा। आखिर राजसत्ता किसलिए है? राजसत्ता लोगों की शक्ति का एक समुच्चय है। जब आदमी अपनी हिफाजत खुद नहीं कर सका तो उसने अपनी ताकत राजसत्ता में, सरकार में दी। हमारी हिफाजत एक कलैक्टिव पाक्र्स, कलैक्टिव ऐनर्जी, स्ट्रैन्थ में सामूहिक शक्ति का प्रोत्साहन है यह राजशक्ति। राजशक्ति का उपयोग गाँधी के देश में, बुद्ध के देश में न हो तो यह सबसे बड़ी बात होगी। लेकिन अगर मजबूरियाँ हों, आदमी आदमी का खून बहाने के लिए बैठा हो तो राजशक्ति हाथ में हाथ धरकर नहीं बैठ सकती।

हमें आश्चर्य होता है, जगह-जगह से खबरें आती हैं कि कहीं फौज जा रही है, कोई सरकार तोड़ी जा रही है। कोई फौज न कहीं जा रही है न कोई सरकार तोड़ी जा रही है, सबकी अपनी-अपनी सीमाएं हैं और सबको अपनी-अपनी सीमाओं के अन्दर काम करना होगा।

भारत सरकार की अपनी सीमा है, राज्य सरकार के काम में दखलअन्दाजी करने का हमें कोई अधिकार नहीं है लेकिन राज्य सरकारें जब अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करतीं हैं तो भारत सरकार की भी अपनी जिम्मेदारी होती है और दुःख के साथ उस जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए उसे कभी-कभी कठोर कदम उठाने पड़ते हैं। यह बात हमें मालूम हैं। उसी तरह राजशक्ति सहारा, सुरक्षा देने के लिए है लेकिन इंसान की सुरक्षा के ऊपर अगर कोई दूसरा खतरा करे तो ऐसे लोगों को डर के जरिए, कानून-व्यवस्था के जरिए सही रास्ते पर लाने का काम भी राजशक्ति का है।

मैं समझता हूँ कि साम्प्रदायिक उन्माद के सवाल पर मजहब की सीमा या शक्ति को हमें परखना होगा। मजहब को उत्तेजित नारों के जरिए न इस्तेमाल कीजिए, न ही गुस्सा दिखाने के लिए इस्तेमाल कीजिए। असलियत में लोगों के मन में जो डर है, भय है, उनके दिल में जो दर्द है, वह मैं समझता हूँ। उनसे भी मैं अपील करना चाहूँगा कि अपने गुस्से में कभी ऐसी बात का इजहार मत कीजिए जिसकी वजह से दूसरों को बहाना मिले। कुछ ऐसी ताकतें हैं जो बहाना ढूँढ़़ती रहती हैं। मैं आपसे फरियाद, दरख्वास्त करूँगा कि बहाना देने का काम मत कीजिए। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि सरकार आपके हितों की रक्षक है।

मैं लोगों को कहना चाहता हूँ कि इसका यह मतलब नहीं है कि अकलियत कानून-व्यवस्था, संविधान या नियम के ऊपर है। जो हमें जानते हैं और कम से कम मुझे आचर्य और दुःख हुआ कि हमारे मित्र खुराना साहब और विजय कुमार मल्होत्रा साहब जानते हैं कि मेरा रुख दिल्ली के साम्प्रदायिक दंगों में क्या रहा। मैं उन बातों को वक्तव्यों में नहीं कहना चाहता हूँ लेकिन जब यह कहा जाता है कि सरकार असफल रही, सरकार ने कुछ नहीं किया, सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठी थी तो मैं आपके जरिए सदन से कहना चाहता हूँ कि यहाँ ऐसे वक्ता हैं जो कहते हैं जैसे मैं पूरे शान्तिमय वातावरण में प्रधानमंत्री हुआ था, चारो ंओर शान्ति थी, किसी मे ंकोई तनाव नही ंथा, और सुख की गगंा बह रही थी, अचानक मेरे जाते ही विप्लव अवस्था तैयार हो गई तो क्या डेढ़ महीने में यह सब कुछ हो गया?

हमारी सरकार थी, इसलिए मैं कहता हूँ और मैं इसकी राष्ट्रीय जिम्मेदारी समझता हूँ, इसलिए मैं किसी व्यक्ति के बारे में कोई लांछन लगाने के लिए तैयार नहीं हूँ। मैंने पहले भी कहा, आज भी कहा कि अतीत से जो जुड़ा रहता है वह भविष्य में आगे नहीं बढ़ सकता, अतीत की गलतियाँ दोहराने से हम नया भविष्य नहीं बना सकते।

नया भविष्य बनाने के लिए तो इस सदन से एक ही निवेदन करूँगा कि आइए अल्पमत के लोगों को विश्वास दिलाएं कि उनकी रक्षा के लिए सारा देश है, सारी सरकार है, सारा सदन मिलकर कहे कि हम भाई-भाई की तरह से रहने के लिए तैयार हैं। मैं पंडित नहीं हूँ नियम का, जो आपके सदन का नियम है लेकिन अगर यह सारा सदन मिलकर एक आवाज में कहे कि हम सब मिलकर सुरक्षा की व्यवस्था करंे, सारे देश के भाई-भाई मिलकर रहेंगे तो कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं होगा तो हम देश की एक बड़ी सेवा करेंग,े इस सदन की मर्यादा को ऊँचा उठायेंगे।

यहाँ से अगर एकता का एक संदेश जायेगा तो एकता स्थापित करने में बड़ी सहायता मिलेगी। इधर से कांग्रेस के श्री संतोष मोहन देव जी ने प्रस्ताव रखा कि आपके जरिये अगर कोई प्रस्ताव जाये तो हम सर्वसम्मति से कहें कि आइये, हम सबके मन में विश्वास पैदा करेंगे, हम सबके मन में एक नई आस्था पैदा करेंगे, यह दंगे का दिन बीतेगा और एक नई शुरुआत होगी। मैं भी इसका स्वागत करता हँू। इस बारे मे ंनाम मै ंकिसी का लेेना नही ंचाहता हँू। जो कैसेट बंट रहे हैं, वह बहुत बुरे हैं।

हमसे बार-बार कहा गया कि उस कैसेट पर कोई कानूनी कार्यवाही की जाये। इतने छोटे कैसेट जो आदमी अपनी पाकिट में ला सकते हैं। अनेकों में गाँव में जाकर पुलिस उनको जब्त नहीं कर सकती है। अगर हम उनको जब्त करेंगे तो अदालत उनको सुनेगा। इसलिए उसे जब्त नहीं किया गया। लेकिन कैसेट में जो बातें कहीं गई हैं, वे किसी तरह से शोभनीय नहीं हैं और किसी भी तरह से उचित नहीं हैं। बड़ी कृपा होगी अगर उस कैसेट का वितरण बन्द कर दें।

उपाध्यक्ष महोदय, मैं यह नहीं कहता कि यही एक कैसेट है क्योंकि उसके बारे में पूछा गया है और वह ज्यादा आपत्तिजनक कैसेट हैं लेकिन उन कैसेटों को बजाने वाले लोग हमारी सीमाओं के पार हैं। उस कैसेट को चलाने वाले लोगो ंका इस सद्न मे ंकोई प्रतिनिधि नही ंहै। मै ंजानता हँू कि कश्मीर मे ंबहुत बुरी बातें हो रही हैं लेकिन कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, उसका उपाय भी हम कर रहे हैं। दिल्ली में जो कुछ हो रहा है, उसका हम उपाय नहीं कर रहे हैं, इसलिए गुस्सा इन्द्रजीत जी को है, लेकिन हम नहीं चाहते कि यहाँ पर भी वही करना पड़े जो कश्मीर में हुआ।

उपाध्यक्ष महोदय, एक और निवेदन करके मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। कई मित्र और फिर विजय कुमार जी ने बहुत गुस्सा दिखाया, यू.पी. के मुख्यमंत्री पर और यह कहा गया कि प्रचार बहुत जोरों से हो रहा है। दूसरी बात हमारे चैधरी जी ने कही कि कुछ अखबार के लोगों ने छापा कि अलीगढ़ में 28 लोगों को मुसलमान डाक्टारों ने अस्पताल में मार दिया। यह बिल्कुल तथ्यहीन बात है और कोई इसमें सत्यता नहीं है। इस बात को लेकर बनारस में दंगे हुए। कानपुर में भी हुए। क्या करें अखबार वालों का? अखबारों की स्वतंत्रता है। मशहूर, प्रमुख बुद्धिजीवी लोग हैं फिर भी एक नहीं 3-3 और 4-4 अखबारों में इस तरह की अनउत्तरदायित्वपूर्ण खबरें प्रकाशित हुई। उधर वह अखबार वाले जो मुझ पर बड़े वर्षों से कृपालु हुए इसलिए जरूर इस सदन के जरिये उनसे विनम्र निवेदन करता हूँ कि अब वह अपनी हरकत से बाज आयें तो अच्छा है नहीं तो कभी मजबूरन कुछ करना पड़ा तो उन्हें कष्ट होगा और हमें भी कष्ट होगा। एक बार जो हो गया है उसको न दोहरायें।

उपाध्यक्ष महोदय, मैं राजमाता जी की बहुत इज्जत करता हूँ। उन्होंने गुस्से से मुझसे कहा था और मैं तब से लगातार उसकी छानबीन कर रहा हूँ। सैकड़ों लाशें बोरियों में बन्द करके अयोध्या में सरयू नदी में फेंक दीं। मैं लगातार लोगों से कह रहा हूँ सैकड़ों का नहीं, दस आदमियों का नाम हमको दीजिये। ताकि हम जांच कर सकें कि कौन लोग हैं और याद रखिये, केवल आपकी ओर से नहीं, दूसरी ओर हमारे एक बहुत सम्मानित मुस्लिम नेता हैं, उन्होंने कहा, डेढ़ हजार मुसलमानों को मारकर बिजनौर में कब्र में दफना दिया गया, यह जिम्मेदार लोगों की बातें हैं। राजमाता जी ने खुद नहीं कहा, कहीं से सुना होगा लेकिन मैंने आपसे फिर तो भेंट नहीं की। जो लोग आपसे यह बातें कह रहे थे, उनसे दो बार मैं कह चुका कि आप 10 आदमियों का नाम दो, जिनके घर के लोगों की लाशें सरयू के अन्दर चली गई हैं और नहीं मिलीं। उसी तरह से मैंने उस मुस्लिम नेता से कहा, डेढ़ हजार में से 5 लोगों का नाम लाओ, जिनकी लाशें उनके घर वालों को नहीं मिलीं। आज तक मुझे दोनों में से किसी ने कोई सूचना नहीं दी। इसलिए हमारी कुछ मजबूरियाँ होती हैं।

उपाध्यक्ष महोदय, मैं आपके जरिये से इस सदन से कहना चाहता हूँ, मैं उन लोगों में से हूँ, जो जब्त बहुत कम रखते हैं लेकिन हालात इतने खराब हैं कि उन खराब हालात में अगर मैं भी जब्त न रखूं तो पता नहीं क्या होगा। इसीलिए इस जब्त को मेरी कमजोरी न समझा जाय तो बहुत अच्छा है। मैं चुप हूँ, इसलिए कि हालत और न बिगडे़। इस मौन को अगर कोई यह समझता है कि यह मेरी कमजोरी है तो वह गलतफहमी में हैं। मैं नहीं चाहता कि कोई इस तरह की बातें हों। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, उपाध्यक्ष महोदय, कि इस देश मंे साम्प्रदायिक सद्भावना बनाये रखने के लिए, यहाँ कानून और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए, यहाँ अक्लियत के मन में एक नया विश्वास पैदा करने के लिए जो भी कदम उठाने पड़ेंगे, वह कदम उठाये जायेंगे और मुझे विश्वास है कि इस सदन का सहयोग इस काम में मुझे मिलेगा।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।