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रसायनिक युद्ध की बात मानवता के प्रति अपराध, देश तटस्था की नीति पर कायम

22 फरवरी, 1991 को लोकसभा में स्थगन प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर

अध्यक्ष महोदय, इस मुद्दे पर विस्तारपूर्वक चर्चा हुई है। यह मुद्दा पूरे देश से सम्बन्धित है। इस मुद्दे पर न केवल पूरा राष्ट्र बल्कि पूरा विश्व हमारी ओर देख रहा है। मैं यह भी जानता हूँ कि हमारे कुछ माननीय सदस्यों ने इस समस्या के बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं। मैं उनकी भावनाओं को समझ सकता हूँ मैं उठाए गए सभी मुद्दों के बारे में विस्तारपूर्वक नहीं बोलना चाहता। मैं पिछली बातों को भी नहीं दोहराना चाहता। मैं किसी और व्यक्ति अथवा सरकार पर भी आरोप नहीं लगाऊँगा। मैं समझता हूँ कि जो कुछ भी हुआ, वह इस सरकार का दायित्व है। मैं माननीय सदस्यों द्वारा उठाए गए कुछ मुद्दों को स्पष्ट करूँगा। अन्यथा, ऐसा प्रतीत होगा कि मैं कुछ छुपाना चाहता हूँ।

सबसे पहले, मैं श्री नरसिंह राव द्वारा दिए गए भाषण में उठाए गए मुद्दों के बारे में बोलूंगा। इस देश में संयुक्त राज्य अमरीका के विमानों को खुला गलियारा देने के बारे में इस सभा को मैं यह बताना चाहता हूँ कि जब से यह सरकार सत्ता में आयी है, किसी भी सरकार को खुला गलियारा नहीं दिया गया है। उस समय ऐसा क्यों किया गया, इसका उत्तर मैं नहीं दे सकता। मैं पहले लिए गए निर्णयों के बारे में कुछ नहीं कह सकता। मैं अपने मित्र श्री गुजराल को भी कुछ बताना चाहता हूँ। वह जानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार यह परम्परा है कि प्रत्येक उड़ान को बीच में रुकना पडता है। कुछ माननीय सदस्यों ने कहा कि बीच में रुकने की सुविधा देने से सम्बन्धित देश को यह जांच करनी होती है कि उस विशेष विमान में क्या माल जा रहा है। श्री नरसिंह राव ने भी इसी मुद्दे पर बल दिया है। यदि आप खुला गलियारा दे देते हैं और बीच में उतरना अनिवार्य नहीं है, तब मेरे विचार से यह अच्छी स्थिति नही ंहागेी। खलुा गलियारा, अति पम्रख्ुा व्यक्तिया ंेराज्याध्यक्षा,ंे शासनाध्यक्षांे और अति महत्वपूर्ण सैन्य कार्मिकों को दिया जाता है जिनके आने-जाने की पहले से सूचना दी जाती है। परम्परा यही है। मुझे कूटनीति की परम्पराओं और सूक्ष्मताओं के बारे में जानकारी नहीं है लेकिन, पूरे विश्व में यही परम्परा है और ऐसा न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ किया जा रहा है बल्कि, अन्य देशों के साथ भी किया जा रहा है। हम सभी देशों को यह सुविधाएं दे रहे हैं चाहे वह एक गुट का हो या दूसरे गुट का। इसका हमारी गुट-निरपेक्ष नीति से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह देश इस परम्परा का बहुत समय से पालन कर रहा है।

अध्यक्ष महोदय, जब भी किसी विमान को अपने हवाई क्षेत्र से गुजरने की अनुमति देते हैं तो इसका यहाँ एक स्थान पर उतरना अनिवार्य कर देते हैं, जिसे हम ट्रान्जिट लैंडिंग अथवा ‘बीच में उतरना’ कहते हैं। उन्हें ईंधन भरने की सुविधा देना अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि यदि कोई विमान उतरता है तो ईंधन की सुविधा दिया जाना अनिवार्य है और यह सुविधा सभी देश देते हैं। अभी हमारे विमान और वायु सेना के विमान लगभग 24 या 20 देशों के ऊपर से उड़ान भरते हैं और हमें यह सुविधा मिल रही है। हमारी कुछ देशों के साथ ऐसी द्विपक्षीय व्यवस्था है जिनके विमानों को हम बीच में उतरने को नहीं कहते, लेकिन अमेरिका के साथ ऐसी बात नहीं है।

मैं इसे स्पष्ट करना चाहता हूँ। अध्यक्ष जी यह सच है और सभी जानते हैं कि खाड़ी में युद्ध की सी स्थिति पैदा हो गयी थी। हम भी जानते थे कि स्थिति बदतर हो सकती थी और युद्ध की सम्भावना थी। इसीलिए जब हमने उन्हें यह सुविधा प्राप्त करने की अनुमति दी थी, तो उनसे यह गारण्टी ली थी कि विमान में कोई घातक हथियार नहीं ले जाया जाएगा। यह पहला मौका है जब भारत सरकार ने किसी से इस प्रकार की गारण्टी लेने पर जोर डाला था। मैं कोई बड़े दावे नहीं करना चाहता। लेिकन एसेा किया गया था आरै अमरीकी सरकार इस पर सहमत र्हइु थी।

दूसरा प्रश्न जो बहुत ही प्रासंगिक है। मैं श्री नरसिंह राव से सहमत हूँ कि यह व्यवस्था सामान्य और शांति काल के लिए थी। जब युद्ध शुरू हुआ तो उस समय इसे रोक दिया जाना चाहिए था। अध्यक्ष महोदय, मैं बिल्कुल स्पष्ट तौर पर कह सकता हूँ कि हम अपने निर्धारित नीतियों, परम्पराओं और प्रथाओं, जिनका विगत 40 वर्षों से अनुसरण किया जा रहा है, उससे थोड़ा भी नहीं हटे हैं। मुझे ऐसा भी नहीं लगा कि हमारे गुट-निरपेक्षता पर कोई खतरा है और न ही किसी भी पक्ष से ऐसी शंका अथवा शिकायत की गयी है कि हमारा झुकाव किसी एक पक्ष अथवा दूसरे पक्ष की ओर हो गया है। इसे हमारी गुट-निरपेक्षता की नीतियों से कोई लेना-देना नहीं है। मेरा यह कहना है कि भारत सरकार की गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्त के प्रति आज भी उतनी ही निष्ठा है, जितनी पहले कभी थी। हाँ, राष्ट्रहित में इसमें थोड़ा लचीलापन आता रहा है और वह भी शुरू से ही।

मेरे मित्र, श्री जसवंत सिंह ने 1962 और 1971 में क्या हुआ, इस सम्बन्ध में बताया। यह युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी हैं। वे इन्हें इन युद्धों के बारे में अधिक जानकारी है। मैं नहीं जानता। इसलिए मैं इस पर चर्चा नहीं करना चाहता। श्री दिनेश सिंह उन दिनों शासन तन्त्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। उन्हें इसकी जानकारी होगी। इसलिए ऐसा कहना उचित नहीं होगा कि उन दिनों विमान उड़ाने, ईंधन की सुविधा प्राप्त करने अन्य कार्यों को करने की नीतियों में किसी प्रकार का सामन्जस्य नहीं था। लेकिन किसी सरकार के साथ उन दिनों हमारा कोई समझौता नहीं था। यह भारत की परम्परा थी, जिसका निर्वहन किया जाता था और किया गया है।

अध्यक्ष महोदय, जब मैंने देश में यह विचार उभरते देखा कि ईंधन की सुविधा नहीं देनी चाहिए, तत्काल मैंने विपक्षी दलों की एक बैठक बुलायी। मैंने उनसे कहा, ‘‘यदि आप चाहें। मैं आज ही यह सुविधा देना बन्द करने के लिए कह सकता हूँ।’’ लेकिन फिर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को देखते हुए ऐसा नहीं किया गया। मेरे मित्र श्री आई.के. गुजराल, श्री नरसिंह राव और श्री दिनेश सिंह यह जानते हैं। ऐसा एकदम से नहीं कहा जा सकता कि ‘‘मैं आपको अनुमति देता हूँ’’, ‘‘मैं आपको अनुमति नहीं देता हूँ’’, क्योंकि इससे हमारा राष्ट्रीय हित जुड़ा है। हम एक ही बात कह सकते हैं कि ‘‘परिस्थिति ऐसी है कि यदि आप इस सुविधा का उपयोग न करें, तो बेहतर होगा।’’

ज्यों ही मैं उस विचार से, जिसे सभा के सभी दलों ने नहीं बल्कि महत्वपूर्ण दलों ने व्यक्त किया था, अवगत हुआ, मैंने तुरन्त अमेरिकी सरकार को यह सूचित किया कि वे इसे बन्द कर दें। इसमें थोड़ा समय लगता है। यदि मेरी गलती है तो आप मुझ पर आरोप लगा सकते हैं। मेरे कुछ मित्रों ने मुझ पर उंगली उठाई हैं। अध्यक्ष महोदय, मुझे दुःख हुआ, जब श्री गुजराल ने यह कहा कि यह निर्णय सरकार द्वारा लिया गया अथवा किसी अतिरिक्त संवैधानिक प्राधिकारियों के निर्देश पर ऐसा किया गया है। मैं और श्री गुजराल लम्बे समय से मित्र रहे हैं। अध्यक्ष महोदय, आप जानते हैं कि श्री गुजराल किसी समय कभी संवैधानिक प्राधिकारियों के परे से निर्देश प्राप्त करते होंगे। अपने जीवन में मैंने कभी भी संवैधानिक प्राधिकार से बाहर किसी से निर्देश नहीं लिया है। मैं अपनी व्यक्तिगत बात इस सभा में नहीं करना चाहता। यदि श्री आई.केगुजराल ने ऐसी बात नहीं कही होती, तो मैं अपनी व्यक्तिगत बात नहीं कहता। मैं किसी भी टिप्पणी को नजर-अंदाज कर देता, परन्तु श्री आई.के. गुजराल की टिप्पणी को नजर-अन्दाज नहीं कर सकता, क्योंकि मैं उन्हें लम्बे समय से जानता हँू और उनके लिए और मेरे मन म ेंबडा़ सम्मान है और वह भी मुझे लम्बे समय से जानते हैं। हो सकता है कि मुझमें कुछ कमी हो, शायद उतना विवेकी न होऊँ या उनके समान विदेश नीति की समझ-बूझ मुझे न हो, लेकिन एक चीज जिसकी मुझ में कमी नहीं है, वह है साहस और इसीलिए जब किसी ने यह पूछा कि क्या हमने यह सुविधा दी है, मैंने कहा, हाँ। अध्यक्ष महोदय, मैं यह मुद्दा यहीं समाप्त करता हूँ।

मेरे मित्र श्री इन्द्रजीत गुप्त द्वारा जो दूसरा अति महत्वपूर्ण मसला उठाया गया है, वह यह है कि क्या भारत सरकार गोर्बाचोब के फार्मूले के बारे में कुछ कर रही है अथवा निष्क्रिय है। श्री गुजराल ने भी कहा था कि- वह बहुत सजग थे, लेकिन मैं यह नहीं जानता। विगत एक माह में हमने इस मुद्दे पर गोर्बाचोब से पांच बार विचार-विमर्श किया। आज भी हम लगातार उनसे सम्पर्क किए हुए हैं। इसका तात्पर्य उनसे व्यक्तिगत रूप से नहीं, बल्कि सोवियत संघ की सरकार से। संयुक्त राष्ट्र से हमारे स्थाई प्रतिनिधि ने कल या परसों से ही सुरक्षा परिषद के सदस्यों तथा गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के सदस्य देशों से सुनिश्चित करने के लिए सम्पर्क करना शुरू कर दिया है कि सुरक्षा परिषद के प्राधिकार पुनः दिलाया जा सके तथा शांति प्रस्ताव कतिपय लोगों के वास्ते को न छोड़ दिया जाए।

हमने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि हम सोवियत संघ के राष्ट्रपति के प्रस्ताव से सहमत हैं। इतना ही नहीं, हमने सभी उपाय और पहल किए हैं जिनका मैं विस्तार से उल्लेख नहीं करना चाहता। विगत एक महीनों के दौरान उन सभी महत्वपूर्ण देशों के दूतों ने जो सद्दाम हुसैन के समर्थक हैं उन्होंने भी दिल्ली का दौरा किया और हमसे विचार-विमर्श किया था। उनमें से किसी ने भी उतना प्रयास नहीं किया, जितना हमारे मित्र श्री गुजराल ने किया है।

जी हाँ, खामोशी से भी। वह आपकी नजरों में कूटनीतिज्ञ होंगे। मेरी दृष्टि में नहीं। कई खामोशियों से मिलता हूँ। लेकिन मैं खामोशियों की बात नहीं कर रहा, मैं अराफात की अल्जिरियाई राष्ट्रपति को और चीन के प्रधानमंत्री की तथा ईरान के राष्ट्रपति की बात कर रहा हूँ और मैं उन लोगों की बात करता हूँ जो इस मामले से जुड़े हैं और जिनका इस समस्या में महत्व है।

अध्यक्ष महोदय, सभी का यह कहना है कि हम सद्दाम हुसैन के विरोधी हो गए हैं और हमने उनसे अपना सम्बन्ध खराब कर लिया है। मैं स्पष्ट तौर पर कहना चाहता हूँ कि फिलिस्तीन की समस्या के प्रति हमारा दृष्टिकोण अब भी वही है। हमने सभी को कह दिया है कि फिलिस्तीनी समस्या पर हम कोई समझौता नहीं कर सकते। हमने यह भी कहा है कि इराक के साथ हमारी मित्रता अब भी यथावत है। अध्यक्ष महोदय, आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि जब मिस्र में इराकी दूतावास को बन्द कर दिया गया था तो इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने इराक के हितों की रक्षा करने के लिए भारत के अलावा किसी और देश को नहीं चुना था। यही स्थिति है। लेकिन यदि लोग यह समझते हैं कि वक्तव्य देना या भारी भरकम शब्दों का प्रयोग करना या किसी की ओर उंगली उठाना ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का भाग है तो मैं यह नहीं जानता।

मैं नहीं जानता कि श्री राजीव गांधी से आपका क्या तात्पर्य है। श्री राजीव गांधी इस समस्या का समाधान खोजने में सहायता दे रहे थे और मैं लगातार उनसे बातचीत कर रहा था और उनके सम्पर्क में था। आज भी, जबकि सरकार इस समस्या के समाधान के प्रयास में जुटी है, मैं अपने स्थाई प्रतिनिधि से बातचीत कर रहा था तथा विदेश मन्त्रालय में उपमंत्री से बात कर रहा था, जो तेहरान और बगदाद जा रहे हैं। इस समस्या के समाधान के लिए श्री नरसिंह राव और अन्य व्यक्तियों के साथ श्री राजीव गांधी मास्को जा रहे हैं और रास्ते में वह तेहरान रुकेंगे। केवल राजीव गांधी ही नहीं, बल्कि मेरा श्री गुजराल से भी अनुरोध है कि वह भी प्रयास करें, क्योंकि उनके सद्दाम हुसैन और अन्य लोगों के साथ अच्छे सम्बन्ध प्रतीत होते हैं। मैं उनका सहयोग लेने के लिए तैयार हूँ। यदि कोई उस क्षेत्र में शान्ति स्थापित करने के प्रयास करता है तो यह प्रशंसनीय है। जब मैंने कहा कि मैं इस मुद्दे पर देश का विभाजन करना नहीं चाहता तो मेरा वास्तव में यही तात्पर्य था।

महोदय, यदि वे मेरी बात नहीं समझ सकते तो मैं इसमें सहायता नहीं कर सकता क्योंकि मैं तर्क दे सकता हूँ, तथ्य प्रस्तुत कर सकता हूँ, परन्तु बात समझने के लिए मैं दिमाग नहीं दे सकता। अध्यक्ष महोदय, नरसिंह राव ने एक प्रश्न पूछा है। ऐसा ही प्रश्न दूसरी भाषा में मेरे सहयोगी श्री इन्द्रजीत गुप्त ने पूछा था। नीतिगत प्रश्नों के बारे में मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि गुटनिरपेक्ष नीति अब भी संगत है। क्योंकि हम नहीं चाहते कि कोई ताकत, चाहे अमेरिका की हो अथवा दूसरी, किसी विशेष क्षेत्र में शांति बहाल करने की जिम्मेदारी लें। यदि किसी क्षेत्र में ऐसा करने की अनुमति दी जाएगी तो इसका हम पर भी प्रभाव पड़ेगा। हम अपने हितों के प्रति जागरूक हैं।

श्री चित्त बसु ने कहा है कि हमें अमेरिका की निन्दा करनी चाहिए। मेरी निन्दा करने की राजनीति नहीं है। उन्हीं की सरकार ऐसा कार्य करती है। मैं लोगों की निन्दा नहीं करता हूँ। मैं कुछ विशेष लोगों और राष्ट्रों के कार्यों की निन्दा करता हूँ। यदि उन्होंने समाचार पत्र पढ़े होंगे तो उन्हें यह मालूम होगा। जिस दिन अमेरिका के उपराष्ट्रपति ने यह कहा था कि वह कभी भी आणविक हथियारों का प्रयोग कर सकेंगे तो मैंने कहा था कि यह मानवता के प्रति अपराध है। मैंने कहा था कि आणविक हथियारों के प्रयोग तथा रासायनिक युद्ध की बात करना मानवता के प्रति अपराध है। अध्यक्ष महोदय हम इसका विरोध करते हैं। परन्तु स्थिति से निपटने के कुछ तरीके हैं। कुछ लोग समझते हैं कि उन्हें कुछ लोगों के विरुद्ध साहस के साथ अपने विचार व्यक्त करने चाहिए और कुछ लोगों में आत्म-निन्दा और आत्म-ग्लानि की प्रवृत्ति होती है। वे कहते हैं कि भारत कुछ नहीं कर सका है और भारत को पीछे धकेल दिया गया है। फ्रांस, चीन, ईरान और सोवियत संघ का क्या हो गया है?

यदि श्री राजीव गांधी ने ऐसा कहा है तो वह भी कुछ कर रहे हैं। परन्तु कुछ लोग इन सब बातों को तो कह रहे हैं लेकिन वे कोई कार्य नहीं कर रहे हैं। इतना अन्तर है। यदि आप कुछ करते हैं तो आप कुछ कह सकते हैं। अध्यक्ष महोदय, मेरे सहयोगी श्री इन्द्रजीत गुप्त ने यह मालूम करना चाहा है कि सरकार को सोवियत प्रस्ताव के बारे में कोई जानकारी है अथवा नहीं? हमें इसकी कुछ जानकारी है। परन्तु इसकी कुछ सीमाएं हैं। यदि संबंधित सरकार कहती है कि यह गोपनीय बात है तो दूसरे देश के प्रधानमंत्री को, चाहे वह कितना ही महत्वहीन क्यों न हो, समाचार पत्रों को बताने की स्वतन्त्रता नहीं है। यह सीमा है। परन्तु सोवियत रूस ने आज हास के माध्यम से इसको अपने आप उजागर कर दिया है।

उनके प्रस्तावों का विवरण मेरे पास है। मैं अभी उन बातों को पढ़ता हूँ। (1) इराक बिना किसी शर्त के कुवैत से अपनी सेनाओं की वापसी की घोषणा करता है। (2) युद्ध विराम होने के बाद दूसरे दिन सेनाओं की वापसी शुरू होगी। (3) सेनाओं की वापसी एक निश्चित समयावधि में होगी। (4) कुवैत से दो-तिहाई इराकी सेनाओं की वापसी के बाद संयुक्त राष्ट्र द्वारा इराक पर लगाए आर्थिक प्रतिबन्ध हटा लिए जायेंगे (5) कुवैत से इराकी सेनाओं की वापसी के अन्त म ेंवे सभी कारण दरू हो जायगें जिनकी वजह से सकंल्प लगाए गए थे, इस प्रकार ये संकल्प निष्प्रभावी हो जायेंगे (6) युद्ध समाप्त होने के तुरन्त बाद युद्धबन्दियों को छोड़ दिया जाएगा (7) सेनाओं की वापसी की निगरानी उन देशों के द्वारा की जाएगी जो प्रत्यक्ष रूप से युद्ध में सम्मिलित नहीं हैं, यह कार्य सुरक्षा परिषद द्वारा किया जाएगा (8) विशेष विवरण सम्बन्धी कार्य जारी रहेगा। इस कार्य का अन्तिम निर्णय संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के सदस्यों को आज बता दिया जाएगा। यही बताया गया है।

अध्यक्ष महोदय, यह संयोग की बात हो सकती है। मैं कोई श्रेय नहीं लेना चाहता। इन आठ बातों में से चार बातें शुरू में संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारे प्रतिनिधि द्वारा आमराय के लिए सुरक्षा परिषद में उठायी गयीं थीं। यह सरकार के लिए संयोग की बात है अथवा इसका सौभाग्य है। यदि आप हमारी प्रतिक्रिया जानना चाहते हैं तो हम इस प्रस्ताव का समर्थन करते हैं। मुझे बताया गया है कि अमेरिका के राष्ट्रपति को इस पर कुछ आपत्ति है। मुझे बताया गया है कि एक स्थिति में उन्होंने कहा है कि वे अपने सहयोगियों के साथ विचार-विमर्श करके निर्णय करेंगे। मैं इस सभा की ओर से अपील करना चाहता हूँ कि श्री जार्ज बुश को इस क्षेत्र में शान्ति स्थापित करने के लिए इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। इससे कोई निष्कर्ष निकालने के लिए सार्थक बातचीत की शुरुआत होती है। मुझे उनकी आपत्तियों के बारे में सूचना मिली है परन्तु मैं नहीं सोचता कि अमेरिका के राष्ट्रपति की आपत्तियों के बारे में बात करना दूरदर्शिता होगी।

मुझे आशा है और विश्वास है कि वह अपने सहयोगियों से विचार-विमर्श कर कोई निष्कर्ष निकालेंगे क्योंकि युद्ध में किसी की विजय नहीं होती है। युद्ध मे ंकेवल मानवता की पराजय होती है।ं जनता की परेशानी और कष्ट के कारण हमें इसके बारे में सोचना पड़ता है। हम इसके प्रति बड़े चिंतित हैं। श्री फैलीरो ने बताया है कि हम विशेष रूप से इसलिए चिंतित हैं क्योंकि इसमें हमारे नागरिक सम्मिलित हैं। आज भी 5,000 से अधिक हमारे नागरिक कुवैत में हैं। इसलिए हमें इसके बारे में चिन्ता है। ये वे लोग हैं जिन्होंने अन्तिम समय तक कुवैत से आने के लिए मना कर दिया था। मैं इसका विस्तार से उल्लेख नहीं करना चाहता कि समय सीमा स्थगित करने तथा कुछ अन्य उपाय करने के बारे में हमने क्या पहल की है। हमने बार-बार प्रयास किया है, परन्तु कुछ लोगों के हठी दृष्टिकोण के कारण केवल भारत की ही आवाज नहीं सुनी बल्कि सोवियत संघ, चीन, ईरान श्री यासर अराफात जैसे मित्रवत व्यक्तियों तथा फ्रांस की आवाज से भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला। मुझे विश्वास है कि अब वातावरण बदल गया है।

मैं इस बात से सहमत हूँ कि भारत को इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है क्योंकि हम अरब विश्व की घटनाओं से जुड़े हुए हैं। हमारे सम्बन्ध बहुत पुराने हैं। मैं इतिहास का उल्लख्ेा करना नहीं चाहता अन्यथा मैं श्री जसवन्त सिंह और श्री गुजराल द्वारा पैदा किए गए विवाद में फंस जाऊँगा। मैं इतिहास का उतना अच्छा शिष्य तो नहीं हूँ, परन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है कि अरब देशों के साथ विशेष रूप से इराक के साथ हमारे सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण तथा मैत्रीपूर्ण रहे हैं। हम कभी भी यह नहीं चाहेंगे कि इराक का विभाजन हो। हम चाहते हैं कि उसकी राजनैतिक एकता तथा अखंडता कायम रहे।

मेरे मित्र श्री इन्द्रजीत गुप्त यह जानना चाहते थे कि हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के संकल्प के पक्ष में हैं अथवा नहीं? यदि हमें संयुक्त राष्ट्र संघ में रहना है, तब हमें इस संकल्प का पालन करना होगा परन्तु प्रश्न उनके व्याख्या करने का है, यह देखने का है कि उनकी परिधि कहाँ तक जाती है, तथा यह देखना है कि इस सम्बन्ध में कोई कार्रवाई करने के लिए हम इसे किस प्रकार से देख सकते हैं। यह संवेदनशील मामला है। मैं सदस्यों से निवेदन करूँगा कि वे उस प्रधानमंत्री को कुछ छूट दें जो कभी भी सरकार में नहीं रहा है तथा जिसे अन्तर्राष्ट्रीय मामलों की कभी कोई जानकारी नहीं रही।

ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व में हो रही घटनाओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के बारे में अन्य सभी सदस्यों को अधिक जानकारी है। परन्तु मुझे अपने राजदूत, विदेश मन्त्रालय तथा कभी-कभी आप सब द्वारा जारी किए गए विलक्षण वक्तव्यों से जो भी जानकारी मिलती है, मैंने उन सभी पर गौर करने की तथा आप सब की अपेक्षाओं के अनुकूल कार्य करने की कोशिश की है। यदि इस मामले में कहीं कुछ गलती हुई है, तब भी आप इस मसले पर देश में मतभेद पैदा क्यों कर रहे हैं? क्या दूसरी समस्याएं नहीं हैं? अध्यक्ष महोदय, मुझे ज्ञात हुआ है कि दूसरी सभा में सर्वसम्मति से संकल्प पारित किया गया है। अतः मैं आपके माध्यम से सभी सदस्यों से यह निवेदन करना चाहूँगा कि हम सभी को इस समस्या के बारे में विश्व शांति, मानव अधिकारों विशेष रूप से विश्व के निर्धन राष्ट्रों, विकासशील विश्व के दलित तथा शोषित देशों के हितों को ध्यान में रखते हुए इस समस्या के बारे में एकजुट होकर रहना चाहिए क्योंकि उन्हें हमसे काफी अपेक्षाएं तथा आशाएं हैं।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।