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माना कि हम चमन को न गुलजार कर सके, कुछ खार कम तो कर गये गुजरे जिधर से हम।

6 मार्च, 1991 को लोकसभा में प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे के पहले चन्द्रशेखर

अध्यक्ष महोदय, पिछले कई दिनों से राष्ट्रपति के अभिभाषण पर इस सदन में चर्चा हो रही थी। मैं सबसे पहले तो क्षमा चाहूँगा कि बहुत से सदस्यों की बातों को मैं नहीं सुन पाया। कई सदस्यों ने इस चर्चा में भाग लिया और देश के सामने जो समस्याएँ हैं, उन समस्याओं के बारे में जिक्र किया। मैं सब समस्याओं की चर्चा करना न आवश्यक समझता हूँ, न उचित, क्योंकि कई बार उन समस्याओं के बारे में इस सदन में चर्चा हो चुकी है लेकिन कुछ मौलिक सवाल जो उठाये गए हैं, उनके संदर्भ में मैं दो चार शब्द कहना चाहूँगा।

अध्यक्ष महोदय, मैं सबसे पहले तो उन सवालों को लेना चाहूँगा, जो माननीय श्री रामकृष्ण यादव ने उठाये। यद्यपि वह अन्तिम वक्ता थे, लेकिन उन्होंने मौलिक सवाल उठाये, मानव मर्यादा के सवाल, गरीबी, पीड़ा और भूख के सवाल, जो सवाल हमारे देश के सवाल हैं।

आजादी की लड़ाई के बाद हमने जो संविधान बनाया, उसमें मानव मर्यादा की हमने प्रतिष्ठा करने का संकल्प लिया। हमने यह भी कहा कि हमारी जनशक्ति ही सबसे बड़ी सम्पदा है। उसी के सहारे हम इस को बना सकते हैं। महात्मा गाँधी ने हमको कहा कि श्रम की प्रतिष्ठा करना अगर हम नहीं सीखेंगे तो हम एक नया भारत नहीं बना सकेंगे। इन सवालों के ऊपर हमें ध्यान देना होगा और ध्यान देना चाहिए था, पहले भी, लेकिन दुःख है कि इन सवालों पर हम ध्यान नहीं दे सके लेकिन यह कहना सही नहीं होगा कि राष्ट्रपति के अभिभाषण में इन सवालों की ओर संकेत नहीं किया गया। जब राष्ट्रपति ने पुनर्निर्माण के लिए विशेष कोष बनाने की बात कही तो उसके पीछे भावना निहित थी कि करोड़ों लोगों की जनशक्ति को, बाहों की ताकत को हम इस धरती पर लगाकर एक रचना का नया पर्व बनायें। हमने यह भी कहा कि रचनावाहिने के जरिये करोड़ों युवकों और युवतियों को देश की गरीबी भूख निरक्षरता, विषमता को मिटाने को लिए प्रयोग किया जाय, क्योंकि, यही सम्पदा है, जो हमारे लिए सबसे बड़ी शक्ति दे सकती है।

श्री रामकृष्ण यादव ने एक बात कही कि हमारा दुर्भाग्य है कि हजारों वर्षों की सभ्यता और संस्कृति में जहाँ अनेक उदात्त भावनाएँ हैं, अनेक रूढ़ियों के कारण, जाति के नाम पर हमारे देश में हरिजन और आदिवासी हमारे पिछड़े लोग, इनके साथ समता का व्यवहार नहीं होता, उनके मन में एक पीड़ा है, उनके मन में एक दर्द है, उस दर्द को मिटाने के लिए उनकी भावनाओं को समझकर उनकी समाज में विशेष अवसर देने का काम करना होगा।

हमारे देश में पिछड़े लोग हैं, गरीब लोग हैं, पिछड़ी जातियों से आते हैं और गरीबी भी उनके पल्ले पड़ी है इसलिए उनकी ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, उन्होंने यह भी सवाल उठाया, और कई अन्य सदस्यों ने उठाया कि भारत में हमेशा हमने सब धर्मों का आदर किया, समभाव से देखा। यह हमारा दुर्भाग्य है कि पिछले कुछ दिनों में, कुछ सालों में मैं कहूँ साम्प्रदायिकता का सवाल हमारे देश में एक बड़ा सवाल बन गया हैं और हमारे देश में धर्म के नाम पर भाई भाई के खून का प्यासा हो रहा है। कोई धर्म, कोई मजहब आपस में लड़ना नहीं सिखाता। इस संसद में हमने बार बार इस संकल्प को दोहराया है कि सभी धर्मों को हम साथ लेकर चलेंगे। उस दिशा में काम करने की जरूरत है।

बेरोजगारी का सवाल हमारे देश के सामने है। जो दौलत हैं, हाथों की ताकत, उसका इस्तेमाल नहीं होता और इसीलिए पहले कहा गया था कि हम काम के अधिकार को मौलिक अधिकार मानेंगे लेकिन मौलिक अधिकार मानने के साथ-साथ काम के नये अवसर बनाने होंगे और काम के नये अवसर यदि बनाने हैं तो सीमित साधन हमारे देश में हैं, उन साधनों का उपयोग हमें सोच समझकर करना होगा। जो सीमित साधन हैं, वैभव के लिए उनका इस्तेमाल हो या बेबसी मिटाने के लिए इस्तेमाल हो यह बात हमें तय करनी पड़ेगी। हमने तो यही कहा था, राष्ट्रपति जी ने यह कहा था कि वैभव और बेबसी के बीच में जो खाई है, इसको मिटाने के लिए हमें नए कदम उठाने पड़ेंगे। हमें किसी के बैभव से कोई झगड़ा नहीं, कोई लड़ाई नहीं, लेकिन अगर बेबसी के इलाके में उम्मीद का एक नया चिराग जलाना है तो वैभव के लोगों को थोड़ी कुर्बानी करनी पड़ेगी। ये नीतियां इस देश में बनानी पड़ेगी और इसीलिए योजना की बात हमारे देश में उठाई गई। सन् 1950 में योजना आयोग बना, हमारे पुराने मित्र और नेता यमुना प्रसाद शास्त्री जी ने यह कहा था, योजना आयोग की बातें नहीं की गई। अगर उन्होंने देखा होंगा, तो हमने कहा था उस भाषण में, 31 मार्च तक आठवीं योजना का प्रारूप तैयार कर लिया जाएगा। हम योजना को अस्वीकार नहीं कर सकते हैं नजरअन्दाज नहीं कर सकते हैं। सीमित साधनों में बड़े देश की आकांक्षाओं को पूरा करना है तो योजना की प्राथमिकता देना हमारे लिए बहुत आवश्यक है और उसी हिसाब से योजना आयागे न ेकाम किया ह ैइन पिछल ेदिना ंेम ंेआरै आज भी वह काम कर रहा ह।ै

हमारे माननीय मित्र, श्री सोमनाथ चटर्जी, ने बार-बार श्रमशक्ति के सवाल गरीबी के सवाल और बेकारी के सवालों को उठाया। हम समझते हैं कि अगर बेकारी नहीं मिटेगी तो उससे मन में संताप पैदा होगा। गरीबी स्वयं में एक अभिशाप है, लेकिन मन का संताप, जो बेकार के मन में पैदा होता है, वही समाज को तोड़ देता है और समाज में उच्छृंखलता पैदा हो जाती हैं। कुछ मित्रों ने असम के बारे में, पंजाब के बारे में और कश्मीर के बारे में सवाल उठाए।

मैं आभारी हूँ, नेता विरोधी दल, आडवाणी जी का, कि उन्होंने इन सवालों की अहमियत को समझा है। पंजाब में हमारी बराबर कोशिशों के बावजूद भी स्थिति अभी सामान्य नहीं है। आज भी वहाँ पर कत्ल हो रहे हैं, लेकिन हमने बराबर एक ही यह प्रयास किया कि यह मौत का माहौल बन्द करो। आपसी बातचीत के जरिए इस समस्या का हल करो और मैं यह जरूर कहना चाहूँगा कि पिछले तीन महीना ेंम,ें मै ंयह नही ंकहता हँू कि हालात बदल गए है,ं लेकिन तनाव में जरूर कमी हुई है और हमने वह कोशिश की तथा उस हालात को हम और आगे बढ़ाना चाहते थे। हम यह नहीं कहते कि धरती पर कोई स्वर्ग उतर आया है। न मैंने कभी यह वायदा किया था, न आज यह कह रहा हूँ, मैं मानता हूँ।

‘‘माना कि हम चमन को गुलजार न कर सके।

कुछ खार तो हम कर सके, गुजरे जिधर से हम।।’’

हम चमन की गुलजार नहीं कर सके, जिस रास्ते से हम गुजरे उस रास्ते में भले ही हमारे पैरों में कांटे आए हों, लेकिन हमने रास्ते के कांटे कम किए हैं।

हमारे भाई इन्द्रजीत गुप्त जी ने हमें सलाह दी, सलाह सही सलाह थी, उन्होंने यह कहा कि चन्द्रशेखर जी को सोचना चाहिए। मैं कहता हूँ-मैं जरूर साचेता हँू और मै ंजानता हँू किस पर विश्वास करूँ और किस पर न करूँ, कभी इधर से और कभी उधर से, अनुभव एक जैसा ही होता है, लेकिन मैं उसकी चर्चा नहीं करूँगा। मैं जानता हूँ जब देश पर संकट है, जिस संकट का जिक्र एक-एक सदस्य ने किया है, तो क्या इस संकट का सामना करने के लिए यह जरूरी नहीं है कि देश में आत्म विश्वास और आपसी विश्वास का माहौल बनायें और एक-दूसरे पर आस्था रखें। हम नहीं कहते कि कोई आदमी पूरी शक्ति रखता है, पूरी क्षमता रखता है। मैंने बहुत लोगों से कुर्बानी के सबक सीखे हैं। हमारे कई मित्रों ने कहा कि आकांक्षाओं को दबाकर रखना चाहिए एम्बिशन में अंधा नहीं हो जाना चाहिए।

जब मैं यह उन लोगों से सुनता हूँ, जो एम्बिशन पूरा करने के लिए कई बार मेरे दरवाजे पर आकर कह चुके हैं, तो मुझे दुःख होता है, तकलीफ होती है और कुछ नहीं कह सकता। मैं आपसे अध्यक्ष महोदय, कहना चाहता हूँ। क्योंकि इस सदन के जरिए मैं इस देश को बताना चाहता हूँ कि यह पर्सनल-एम्बिशन नहीं है, यह व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं है। अगर देश में संकट है तो हम जरूर विश्वास का माहौल बनाना चाहते थे और अगर वह हमारी गलती है, तो उससे हमारे लोगों को प्रसन्नता हो जाती है। मैंने किसी को धोखा नहीं दिया है। अगर किसी ने धोखा दिया है, तो दुनिया में एक महापुरुष नहीं है, जिसको धोखा न हुआ हो। धोखा देना बुरा है, धोखा खाना बुरा नहीं है। हमने धोखा किसी को नहीं दिया है, न इधर के लोगों को दिया है और न उधर के लोगों को दिया है। धोखा देने वाले अगर बार-बार प्रयास करते हैं और बार-बार मैं धोखा खाता हूँ, तो मैं इनको अपने जीवन की उपलब्धि मानता हूँ।

मुझे एक बात आडवाणी जी ने या किसी और मित्र ने या इन्द्रजीत गुप्त जी ने कही या कहा जाएगा कि दोनों ने कही, विरोधी पार्टियों की वजह से सरकार गिर गई। अगर सरकार जाती है तो विरोधी पार्टियों की ओर से नहीं जाएगी, सरकार जाएगी उनकी वजह से जो हमारे समर्थक लोग हैं। इसमें कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए और क्यों कर रहे हैं कैसे कर रहे हैं, क्या करेंगे, मुझे नहीं मालूम? लेकिन इतना मैं जरूर कहना चाहता हूँ कि विरोधी पक्ष की आलोचना मैं समझ सकता हूँ, विरोधी पक्ष की ओर से आक्रमण को मैं समझ सकता हूँ, लेकिन समर्थन देने वाली पार्टी की निष्क्रियता, अक्षमता और उसकी गैर-हाजिरी ये इतिहास की एक निराली घटना है जिसको मैं अच्छी तरह समझता हूँ, लेकिन नए मानदण्ड बन रहे हैं।

आप यह मत समझिए कि मैं गुस्से में हूँ हमारे कई मित्र कह रहे थे कि मैं गुस्से में हूँ दुःख में हूँ न मैं गुस्से में हूँ और न मैं दुःख मैं हूँ। मित्रों के मुताबिक तो मैं किसी पद पर पहुँचने लायक था ही नहीं, जो इधर बैठे हुए है, जो बड़े ऊँचे पदों पर सरकार में थे, उनकी योग्यता, क्षमता, कुर्बानी और बलिदान ऐसा था कि उनके लिए आरती उतर रही थी सत्ता की कि बार-बार आओ। हमको तो कभी किसी ने पूछा नहीं और पहला मौका मिल गया, मैं उसमें कूद पड़ा। अगर यह कहने में आपको संतोष है तो कम से कम अपने मन की अनर्गल भावना से आप अपने छोटेपन को दिखा सकते हो, मेरे व्यक्तित्व को छोटा नहीं कर सकते हो।

अध्यक्ष महोदय, मैं यह बात जरूर कहना चाहता हूँ कि 1968-69 से पहले 1962 में पहली बार मैं पार्लियामेन्ट में आया और 1990 तक अगर मैं अपनी भावनाओं को दबा कर रख सकता था तो 1990 में भी दबा करके रखता और उसी की वजह से नहीं दबा सका, जिसका जिक्र हमारे माननीय आडवाणी जी ने किया है। मैं समझता हूँ कि देश के सामने संकट है, देश खतरे में जा रहा हैं। जो संवैधानिक खतरा आज आडवाणी जी बता रहे थे, मैं समझता हूँ मेरी समझ गलत हो सकती है, मेरा निर्णय गलत हो सकता है। लेकिन मैं समझता था कि देश को रसातल में ले जाने की जो साजिश हो रही है उस साजिश को मैं रोकूंगा, जितनी मेरी शक्ति है।

मैं कोई इतिहास का आखिरी व्यक्ति नहीं हूँ, इतिहास के आखिरी व्यक्ति तो वे पैदा हुए हैं जिसके साथ राजनीति शुरू होती है और राजनीति का अन्त होता है। मैं तो उन लोगों में से हूँ जो समझते हैं कि गाँधी जी नहीं रहे, जयप्रकाश नहीं रहे तो यह देश चल रहा है, तो चन्द्रशेखर के बिना भी यह देश चलेगा। कुछ लोग मूल्यों वाले लोग हैं जिनके बिना यह देश नहीं चल पाएगा।

अघ्यक्ष महोदय मैंने यह कोशिश की, उस कोशिश से क्या हुआ नतीजा निकला उसका यह देश और दुनिया निर्णय करेगी और उसका निर्णय हुआ है, इस देश के अन्दर भी और दुनिया के अन्दर भी। मैं अपने दोस्तों से यह कहना चाहूँगा कि कई लोगों ने जिक्र किया, न केवल देश के अन्दर संकट है, गरीबी, भूख-प्यास, बेकारी, साम्प्रदायिक उन्माद का पिछड़ों और गरीब आदि वासियों और हरिजनों के दिलों में एक बुरे एहसास का, बस दुनिया में एक ऐसी ताकतें उभर रही है जो शान्ति के लिए खतरा पैदा कर रही है। यहाँ पर खाड़ी युद्ध का जिक्र किया मैं उसके बारे में तफसील में कह चुका हूँ, मैंने सोच-समझ कर निर्णय किया और आज मैं फिर कहना चाहता हूँ कि हम पहले फिलिस्तीन की आजादी के पक्ष में हैं लेकिन हम यह कभी नहीं समझ सके कि फिलिस्तीन को आजाद कराने के लिए कुवैत के ऊपर अधिकार करना भी जरूरी है, अगर कोई तर्क शास्त्र हो, तो उस तर्क शास्त्र के पण्डित लोग ही उसको जानें। आज भी इराक के मामले में जिस दिन से युद्ध बन्द हुए, भारत अकेला देश है दुनिया में जो इराक के साथ खड़ा है, वहाँ की संरचना के काम, पुनर्रचना के काम, वहाँ के विकास के काम में वहाँ की जनता के साथ। इसी तरह हिन्दुस्तान ने पहली बार पहल की कि कुवैत में पूरी तरह से मदद की।

अध्यक्ष महोदय, मैं यह मानता हूँ कि किसी क्षेत्र की, किसी इलाके की हिफाजत की जिम्मेदारी उस इलाके के लोगों की है। कोई बाहर की ताकत आ करके वहाँ पर पुलिस का काम करे, इसको न हमने स्वीकार किया है और न आगे हम स्वीकार करने वाले हैं। लेकिन कुछ खुदाई खिदमतगार हैं, जो हर समय पहुँच जाते हैं, हर जगह पर और वे ये कहने लगते हैं कि हम ही दुनिया को चला रहे हैं। लेकिन मैं यह जानना चाहूँगा इस सदन के तमाम सदस्यों से, विदेश नीति केवल कोरी कल्पना नहीं है, विदेश नीति कोई कविता की उड़ान नहीं है, विदेश नीति इस देश के हितों की रक्षा के लिए एक हथियार है, साधन है। मैंने पहले भी कहा था कि हमारे लिए राष्ट्र के हितों की रक्षा सर्वोपरि है और उस राष्ट्र के हितों की रक्षा करते हुए हम अपने सिद्धांतों से विचलित नहीं होंगे। मैं इनता ही कहना चाहता हूँ।

मैं उस बारे में जाना नहीं चाहता, हम लोगों को एक परनिन्दा की आदत पड़ गई है, आत्म-ग्लानि की आदत पड़ गई है हम मर गये, कोई नहीं पूछ रहे हैं, हम दुनिया में पीछे हट गये, कहाँ हट गये, 85 करोड़ के देश को कौन पीछे हटायेगा, थोड़ा आत्मविश्वास रखें। प्रधानमंत्री की नहीं यह देश के 85 करोड़ लोगों की शक्ति है, अगर हमें अमरीका की जरूरत है तो अमरीका को भी हमारी मदद की जरूरत है। थोड़ी-सी बात पर हाथ-पाँव फूल गये, अमरीका के गुलाम हो गये। गुलामी जब दिमाग में भरी हुई होती है यो जुबान से बराबर वह निकलती है और कोई बात नहीं होती। इसलिए मैं कहना चाहता हूँ कि इस देश की एक बड़ी शक्ति है और उस शक्ति का हमें इस्तेमाल करना चाहिए चाहे चीन हो, या पाकिस्तान हो, या ईरान हो।

मैंने पहले भी कहा है कि दुनिया के सब राष्ट्रों ने भारत की भूमिका की प्रशंसा की है। और कुछ खुदाई-खिदमतगार हैं जिनको चारों तरफ अंधेरा दिखाई पड़ता हैं, अगर सूरज की रोशनी में किसी चिड़िया को दिखाई नहीं देता तो सूरज की रोशनी का कोई दोष नहीं, चिड़िया की आँख का दोष है। यही मैं कहना चाहता हूँ, इसके अलावा मैं कुछ नहीं कहना चाहता।

हमको और आपको निर्णय करना पड़ेगा कि भारत किस ओर जाना चाहता है, भारत की क्या भूमिका होनी चाहिए, क्या भारत इन ताकतों का पिछलग्गू बना रहेगा, वह किसी का पिछलग्गू नहीं है, हमारी स्वतंत्र पर-राष्ट्र नीति हैं, हम गुट-निरपेक्ष के सिद्धान्तों को मानते हैं, हम पिछड़े, विकासशील देशों के साथ एका बनाये रखना चाहते हैं और मैं अपने मित्रों को अध्यक्ष महोदय, आपके जरिये यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि भारत की जनता हर समय जहाँ उपनिवेशवाद होगा, जहाँ शोषण होगा, जहाँ शान्ति का हनन होगा वहाँ दबे हुए लोगों के साथ अपनी आवाज हम मिलायेंगे, यही हमारी नीति है इसे हम ज्यों का त्यों बनाये रखेंगे।

अध्यक्ष महोदय, कानून व्यवस्था की बात की गई। यह भी कहा गया कि कठपुतली की सरकार है और कहा गया कि इस कठपुतली की सरकार ने निर्णय लिये और निर्णय तो कोई मालूम नहीं हुए, एक तमिलनाडू का निर्णय है जिस पर बड़ी चर्चा होती है। पांडिचेरी भी और जोड़ दीजिए। पांडिचेरी की जो हालत है वह आप अखबारों में पढ़ लीजिए, अगर मेरी रिपोर्ट पर विश्वास नहीं है।

मैं यहाँ पांडिचेरी के बजाय तमिलनाडू की बात करता हूँ। इस सदन के अन्दर, इस सदन के अन्दर ही नहीं बल्कि इस सदन के पहले वाले सत्र में मैंने विरोधी नेताओं से आपसी व्यक्तिगत बातचीत में जहाँ हमारे मित्र बैठे हुए थे उस समय मैंने कहा था, जब हमसे कहा गया कि आप एक विश्वास दिलाइये कि आप तमिलनाडू सरकार को भंग नहीं करेंगे, उस समय मैंने कहा चूंकि आप हमसे पूछ रहे हैं मैं एक ही विश्वास दिलाता हूँ अगर तमिलनाडू की सरकार अपना रास्ता नहीं बदलेगी तो मुझे उसको भंग करने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहे जायेगा।

मैंने यह नहीं कहा कि नहीं करूँगा, मैंने कहा कि भंग करने के लिए पहले सौ बार सोचूंगा, इतनी बुद्धि हमारी है। फर्क यह पड़ता है कि मुझे भंग करना पड़ा इसलिए मैंने भंग कीं।

मैं इस तरह के विवाद में नहीं पड़ना चाहता, न इन विवादों की वजह से उन बातों को कहना चाहता हूँ जिनसे लगे तमिलनाडू की सरकार को भंग करना पड़ा। दूसरे सदन का रिकार्ड है, वहाँ पर विपक्ष के नेता गुरूपदस्वामी जी माननीय दण्डवते जी की पार्टी के नेता हैं उनके वक्तव्य को उठाकर पढ़ लीजिए कि मैंने क्या कहा और उन्होंने क्या कहा। मैं ऐसी बात नहीं कहता हूँ कि जो एक जगह पर एक हो और दूसरी जगह पर दूसरी हो। कांग्रेस पार्टी एक राजनीतिक पार्टी है, इस सदन में भी हमारा समर्थन कर रही थी। मैं यह नहीं कहता कि उस पार्टी की मैं कोई बात नहीं मान सकता, लेकिन हर बात मानने के पीछे कोई मर्यादा होती है, उस मर्यादा का उल्लंघन करके किसी की कोई बात मानने के लिए मैं विवश नहीं हूँ।

इसीलिए मैं यह कहना चाहता हूँ कि देश की मर्यादा ऐसी है जिस मर्यादा को ध्यान में रखकर कई बार समझौते करने पड़ते हैं। पिछले दो-तीन दिन में जो हुआ इसी सदन में, इसी सदन में ही नहीं, दूसरे सदन में भी जो हुआ, आडवाणी जी ने कहा उससे मैं पूरी तरह सहमत हूँ। इससे अशोभनीय और दुःखद बात कोई नहीं हो सकती। लेकिन उन बातों को मैं चुपचाप सुनता रहा और उसका एक ही कारण था कि अध्यक्ष महोदय आपके नेतृत्व में चर्चा हो रही थी। मैं नहीं चाहता था कि इस चर्चा को बीच में रोककर कोई बात कहूँ।

मैं आप से कहना चाहता हूँ कि न मैं कोई तालमेल बैठा रहा था और न मैं सुलह, समझौता कर रहा था। मैं अपनी बात जानता हूँ कि मुझे कहाँ जाना है। मैं जानता हूँ कि किस समय क्या कदम उठाने हैं। अगर सहयोग मिलता है तो स्वागत। अगर सहयोग नहीं मिलता है तो उनकी मरजी क्योंकि वे हमारे अधिकार में नहीं हैं। मैं एक बात कहना चाहता हूँ, सोचना जरूर चाहिए कांग्रेस पार्टी को। दो कांस्टेबल चले गए, इसके लिए भारत के संविधान को खतरे में डाल दनेा, इस ससंद का ेइस हालत म ंेपहँुचा दनेा, इसलिए जैसी जिसकी बुिद्ध होगी वैसे ही इस्तेमाल करेगा। इसके अलावा मैं कुछ और नहीं कहना चाहता था। बुद्धि के अनुरूप सभी लोग अपना काम करेंगे।

उधर से भी कुछ लोग कहते हैं कठपुतली है तो भी अपनी बुद्धि के अनुसार बोलते हैं। कठपुतली को कठपुतली ही दिखाई पड़ेगी। वे नहीं जानते हैं कि कभी-कभी छोटा हनुमान लंका को दहन कर देता है। इसलिए यह गलत फहमियां निकाल दीजिए। सवाल व्यक्तियों का नहीं है। सवाल व्यक्तियों के विश्लेषण का नहीं है। सवाल देश की परिस्थितियों और देश की समस्याओं का है। इन समस्याओं पर हमें और आपको आज नहीं तो कल मिलकर देखना पड़ेगा।

मैं धन्यवाद देता हूँ विरोध पक्ष के सभी नेताओं को, जिन्होंने कहा है कि संवैधानिक संकट को समाप्त करने के लिए वे सहयोग करेंगे। मुझे विश्वास है कि सहयोग से कोई रास्ता निकलेगा। मुझे विश्वास है कि इस संकट को मिटाने में आपका सबका सहयोग मिलेगा। मैं एक बात नम्र शब्दों में कहना चाहता हँू। यह सही है कि राजनीतिक वास्तवकिता है और ससंदीय राजनीतिक वास्तविकता गणित ने वास्तविकता है जिसमें अंक गणित को बदला नहीं जा सकता। अगर कांग्रेस पार्टी यहाँ मौजूद नहीं हैं, वे पता नहीं है।

मैं जानता नहीं कि उनका समर्थन हैं या नहीं। लेकिन आज उनका जो आचरण है, मैं विचार के बारे में नहीं बल्कि आचरण के बारे में कह रहा हूँ कि आचरण पर रहकर के मैं इस सरकार को नहीं चला सकता। अध्यक्ष महोदय, मैं आपकी अनुमति से अभी राष्ट्रपति महोदय के पास जाकर के इस सरकार का त्याग-पत्र देता हूँ और आपसे अनुरोध करता हूँ कि इसके बाद इस सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी जाए। यह राष्ट्रपति महोदय पर निर्भर करता है कि वे क्या निर्णय लेते। मैंने अपने सहयोगियों से सलाह ली है और हम इस निर्णय पर कल ही पहुँचे थे कि इस सदन को चलाने की कोई मान्यया, कोई आवश्यकता नहीं।

मेरा निर्णय है कि सरकार इस्तीफा दे रही है। मैं आपसे कहता हूँ कि सदन की परम्पराओं के अनुसार मेरे त्याग-पत्र की इस घोषणा के बाद इस सदन की कार्यवाही एक मिनट नहीं चल सकती। यह सदन स्थगित करने का मैं आपसे औपचारिक रूप से अनुरोध करता हूँ कि सरकार जब नहीं है तो सदन नहीं चल सकता। मैं अभी जाकर के राष्ट्रपति महोदय को त्याग-पत्र देता हूँ और अपने मित्रों को विश्वास दिलाता हूँ कि कोई दांव-पेच की राजनीति इधर से नहीं होगी, उधर से न हो तो ज्यादा अच्छा है। हम सब मिलकर स्पष्ट राजनीति की ओर आगे बढ़े यही मेरी कामना है।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।