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चमन को सींचने में पत्तियाँ कुछ झड़ गयी होंगी। यही इलजाम मुझ पर लग रहा है बेवफाई का।।

लोकसभा में 7 नवम्बर, 1990 को मंत्री परिषद में विश्वास का प्रस्ताव पर चन्द्रशेखर

अध्यक्ष महोदय, मुझे अत्यन्त दुःख के साथ इस बहस में हिस्सा लेना पड़ रहा है। मैं कोई किसी की आलोचना करने के लिए खड़ा नहीं हुआ हूँ। मैं इसलिए खड़ा हुआ हँू कि हम जरा अपन ेदिल का ेटटाले ंेकि पिछल े11 महीनांे में हमने क्या किया है। जिन सिद्धान्तों का सवाल आज हम सोच रहे हैं और सही सोच रहे हैं, उन सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारने के लिए हमने क्या किया? मैं आपसे बहुत स्पष्ट शब्दों में निवेदन करना चाहता हूँ कि ऐसे सवालों पर हमारा आपसे मतभेद हो सकता है। जहाँ तक धर्मनिरपेक्षता का सवाल है, हमारे मतभेद भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं लेकिन मैंने जनतंत्र में यही सीखा है कि विभिन्न मतभेद होने के बाद भी हम एक साथ मिलकर देश को आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं।

अध्यक्ष महोदय, मैं समझता हूँ कि विभिन्न विचारों के लोगों को साथ लेकर हम आपस में समझौते के रास्ते से आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं और शायद इसी कारण हम सबने मिलकर इस सरकार को भी बनाया था। चाहे वे वामपंथी पार्टी के हमारे साथी हों, चाहे जनता दल के लोग हों, हमें भूलना नहीं चाहिए कि अगर बी0जे0पी0 से समझौता किया था तो उस समय यह सोचा था कि देश संकट में है, कठनाई में है और उस कठिनाई से निकलने के लिए सबको साथ मिलकर काम चलाना चाहिए। हमारे मित्रों को बहुत गुस्सा है, इस गुस्से से देश की समस्याओं का हल निकलने वाला नहीं है। जो ग्यारह महीने पहले की हालत में देश था, आज उससे बदतर हालत में है।

अध्यक्ष महोदय, क्या यह सही नहीं हैं कि हमारे देश में आतंक बढ़ा है? क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में विषमता बढ़ी है? क्या यह सही नहीं है कि बेकारी, बेरोजगारी, महंगाई बढ़ी है? क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में सामाजिक तनाव बढ़ा है? क्या यह सही नहीं है कि आज पंजाब पीड़ा से कराह रहा है? क्या यह सही नहीं है कि कश्मीर में आज भी वेदना है, क्या यह सही नहीं है कि आसाम में आतंक बढ़ रहा है। क्या यह सही नहीं है कि देश के गाँव-गाँव में धर्म और जाति के नाम पर आदमी-आदमी के खून का प्यासा हो रहा है? ऐसी हालत में देश को लाने की जिम्मेदारी किसकी है, ऐसी हालत में देश क्यों जाए, क्या यह आत्म निरीक्षण कभी किया जाएगा या नहीं किया जाएगा?

मैं प्रधानमंत्री जी से निवेदन करूँगा कि संसद को चलाना कोई ड्रामा नहीं है, सवाल यह नहीं है कि जीप चलेगी या ट्राली चलेगी। प्रधानमंत्री जी को निर्जीव चीजे दिखाई पड़ती हैं। न जीप चलती है न ट्राली चलती है, जीप और ट्राली को ड्राइवर चलाता है, ड्राइवर निकम्मा हो तो न जीप चलेगी न ट्राली चलेगी। सवाल जीप और ट्राली का नहीं है, सवाल ड्राइवर का है।

मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि ड्राइवर न जीप चला सकता है न ट्राली चला सकता है तो कैसे सही रास्ते पर चल सकता है इसलिए मैं कहना चाहता हँू कि यदि सिद्धान्तो ंका सवाल उठाते हो तो सवाल उठाओ ंक्या है धर्मनिरपेक्षता? धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है। जिसमें मानव संवेदना नहीं है, उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती। अगर हम एक-दूसरे को आदर की दृष्टि से नहीं देख सकते तो धर्मनिरपेक्षता की चर्चा करना एक थोथी दलील है। मैं यह बात कहना चाहता हूँ कि हमारे मित्र आडवाणी जी, आज उनके बारे में मैं क्या कहूँ, आज से नहीं, बरसों से ग्यारह महीनों से मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि बातचीत जब हुई थी तो मैं नहीं था, उस बातचीत में प्रधानमंत्री जी और आडवाणी जी थे। मैं पूछना चाहूँगा कि क्या बातचीत का यह तरीका है? बाबरी मस्जिद के सुझाव के लिए समिति बनाई। भारत के गृहमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को उस समिति से इसलिए हटा दिया जाता है कि विश्व हिन्दू परिषद के कुछ नेता उनकी सूरत नहीं देखना चाहते।

क्या इस तरह से देश को चलाना है, क्या इस तरह से देश की बागडोर को आगे बढ़ाना है? क्यों हटाए गए मुलायम सिंह, क्यों हटाए गए श्री मुफ्ती मोहम्मद सईद, उस दिन किसने समझौता किया था? चाहे वह समझौता विश्व हिन्दू परिषद से हो चाहे बाबरी मस्जिद के सवाल पर किसी ईमाम से बैठकर समझौता करो। यह समझौते देश की हालत इस रसातल में ले जाने के लिए जिम्मेदार हैं।

मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि अध्यादेश लगाया गया, बड़े आराम से प्रधानमंत्री जी ने कह दिया, हमने सोचा शायद इसी से रास्ता निकाला जाएगा, हम असफल हो सकते हैं, प्रधानमंत्री जी आपकी सरकार जा सकती है लेकिन याद रखिए जो संस्थायें बनी हुई हैं, उनका अपमान आप मत कीजिए। क्या यह सही परम्परा है कि बातचीत चलाने के लिए देश में राष्ट्रपति के पद को इस्तेमाल किया जाए? शायद दुनिया के इतिहास में ऐसा कहीं नहीं हुआ होगा। मैं 23 वर्षों से इस पार्लियामेंट को नजदीक से देख रहा हूँ। कभी ऐसा नहीं हुआ कि अध्यादेश लगाये जायें और 24 घण्टे के अन्दर उसको वापिस ले लिया जाए।

मैं यह कहना चाहता हूँ कि तुगलकी मिजाज इस देश को इस रसातल में पहुँचाने के लिए जिम्मेदार हैं। मैं इस तुगलकी मिजाज के खिलाफ हूँ और देश को बचाने के लिए इस तुगलकी मिजाज का विरोध करना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानता हूँ। दोस्तों से कहा जा रहा है कि आप सिद्धान्तों की चर्चा करो, सिद्धान्त की चर्चा होनी चाहिए। हम भी मानते हैं कि राम कोई एक जमीन में नहीं हैं मैं आडवाणी जी से कहूँगा कि इसी सदन के दूसरे सदन में हमने मैथिलीशरण गुप्त जी को यह कहते हुए सुना था कि-

माना राम तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या,

विश्व में रमे हुए सभी कहीं नहीं हो क्या,

तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे,

तुम न रमो तो मन, तुम मे रमा करे।’

यह राम की परिभाषा है जो कि हमारे राष्ट्रीय कवि ने दी थी। आज उस परिभाषा को ध्यान में रखें तो आपसी बातचीत से कोई रास्ता निकल सकता है। हमें बातचीत का रास्ता निकालना चाहिये। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि जितना देश के लिये मुझ में प्रेम है उतना ही देश प्रेम आडवाणी जी और सिंधिया जी में भी है। अगर हमारे विचार अलग-अलग हैं तो क्या हम आपसी बातचीत से कोई रास्ता नहीं निकल सकते। मेरे मन में आदर सोमनाथ चटर्जी और इन्द्रजीत गुप्त के प्रति भी उतना ही है, जितना कि दूसरो के प्रति है। लेकिन सिद्धान्तों की चर्चा करने वालों से मैं कहना चाहता हूँ कि सिद्धान्तों की चर्चा सरकारी पदों के गलियारों से नहीं हुआ करती है। जिसकी राजनीति सरकारी कुर्सियों से शुरू, वह आदमी सिद्धान्तों की चर्चा न करे।

मुझे मालूम है। सिद्धान्त संघर्षों से पलते हैं और संघर्ष करना जिस का इतिहास नहीं है, वह सिद्धान्तों की बात करता है। मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो कि अपनी गलती को स्वीकार ही न करें। मुझे से भी गलतियां हुई होगी। राजनीति में बहुत सी गलतियाँ हमने भी की होंगी, बहुत से गलत कदम उठाये होंगे लेकिन प्रधानमंत्री जी सिद्धान्तों के लिये थोड़ा संघर्ष हमने भी किया है। जिस समय आप कुर्सियों से चिपके रहने के लिये हर प्रकार के घिनौने समझौते कर रहे थे, उस समय संघर्ष के रास्ते पर चल कर मैं हर मुसीबतों का मुकाबला कर रहा था। आप सिद्धान्तों की चर्चा हम से मत करें जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि मुझ से भी गलतियाँ हुई होंगी।

चमन को सींचने में पत्तियाँ कुछ झड़ गई होंगी।

यही इलजाम मुझ पर लग रहा है बेवफाई का।।

मगर कलियों को जिसने नोंच डाला अपने हाथों से।

वो दावा कर रहा है इस चमन में रहनुमाई का।।

इस देश की करोड़ों कलियों की मुस्कान लूटने के लिये जिम्मेदार प्रधानमंत्री आज सिद्धान्तों की चर्चा इस सदन में न करते और इससे पहले त्यागपत्र दे दिये होते तोे इस देश की, इस राष्ट्र की, इस सदन की और शायद कुछ मात्रा में अपने गौरव की रक्षाकर पाते लेकिन गौरव सिद्धान्त मर्यादा, नियम, कानून आपके लिये कुछ भी नहीं।

मैं भी बड़ी बहादुरी की बातें जानता हूँ। मैंने कभी चर्चा इसलिये उस समय नहीं की क्योंकि दुनिया में जाना जाता है कि पार्लियामेंटरी डैमोक्रेसी में कैबिनेट की कोलैक्टिव रिस्पाँसबिल्टी होती है। यह पहली बार हिन्दुस्तान में सिद्धान्त लागू हुआ कि प्रधानमंत्री भ्रष्ट हैं, वित्तमंत्री जो हस्ताक्षर करता है वह ईमानदार है। अगर दुनिया का कोई दूसरा देश होता जहाँ सिद्धान्तों की चर्चा होती तो ऐसे व्यक्ति को कभी राजनीति में कोई आगे उठने नहीं देता।

मैं जानता हूँ प्रधानमंत्री जी, स्पिलिंटर ग्रुप पर सरकार चलाना मुश्किल है, लेकिन हताश, निराश, फ्रस्सेरेटिट इण्डीविजुअल के हाथों में सरकार आपने दी थी, दण्डवते साहब आपने दी थी, मेरे मित्र शरद यादव और जार्ज फर्नान्डीज और देवी लाल जी और अजीत सिंह जी, आप उसका हश्र देख रहे हो। आपको सिद्धान्त उस दिन याद नहीं आया, जब आप नेता चुने गए थे, इस पार्टी के, क्या वह सिद्धान्तों का चुनाव हुआ था। आज हमको चुनौती दे रहे हो, आप हमसे यह बातें कर रहे हो। धर्मनिरपेक्षता का सवाल शाश्वत सवाल है। धर्म के नाम पर आदमी आदमी का खून न बहाये, धर्म के नाम पर अक्लियतों के मन में दहशत पैदा न की जाय अगर दहशत पैदा की जायेगी तो हम उसके खिलाफ संघर्ष करेंगे। हम उसके खिलाफ लड़ाई लड़ेंगे। अगर आडवाणी साहब के रथ को रोकना था तो उस दिन तक इन्तजार क्यों करते रहे जब तक मुलायम सिंह पर मुसीबत के बादल न ढह जाये? दिल्ली में उसको क्यों नहीं रोका गया? उसको पहले क्यों नहीं रोका गया? आडवाणी जी ने कहा कि चार महीनो में एक बार भी उनसे कोई बातचीत नहीं हुई।

अध्यक्ष महोदय, आपको हैरानी होगी कि एक कमेटी बनी है, एक समिति है राष्ट्रीय एकता परिषद की, उसका मैं भी सदस्य हूँ, एक बड़े विद्वान व्यक्ति उसके कन्वीनर थे। उस कमेटी में मैं गया, सुलह समझौते का रास्ता निकालने की कोशिश हुई, मुझे कहने में संकोच नहीं कि आडवाणी जी ने और अटल जी ने उसमें सहयोग किया। दूसरे दिन प्रधानमंत्री के कार्यालय से उन सारी बातों को सबोटेज किया गया। क्या देश चलाने का यही तरीका है, क्या देश चलाने का यह रास्ता है? हमें लज्जा आती है, शर्म आती है इस पर। हम कभी मंत्री नहीं बने लेकिन अध्यक्ष महोदय, मैं भी जानता हूँ, कि राजनीति की संसदीय जनतंत्र की क्या मर्यादाएं होती हैं।

आडवाणी जी और अटल जी से बातें हों, हम यह कहें कि यह बातें अखबारों में नहीं जाएंगी और उसके दूसरे दिन वह सारी बातें अखबारों में आ जायें। आप शंकराचार्य से बात करें आप अली मियां से बात करें और बात करने के बाद चार दिन में मुकर जायें, आपने किसी को नहीं छोड़ा, चाहे आपके साथ रोज डिनर खाने वाले आडवाणी हों, चाहे आपकी प्रशंसा करने वाले अली मियां हो और शंकराचार्य हों।

अध्यक्ष महोदय जी, यह सबसे बड़ी समस्या हमारे देश की है विश्वास टूट रहा है, आस्था टूट रही है। अब आस्था और विश्वास इस सिस्टम से नहीं टूट रहा है बल्कि इस सिस्टम को, इस संस्था को, इस देश को, इस सरकार को चलाने वाले जो मुखिया हैं, उनमें लोगों की आस्था टूट गई है और इस टूटी हुई आस्था को फिर से जीवित करने के लिए हम सबसे सहयोग लेंगे।

मैं समझता हूँ आज देश एक तूफान के कगार पर खड़ है, मैं जानता हूँ कि बुराइयों की ओर जा रहा है। मैं यह जानता हूँ, मुझे इस बात का कोई अभिमान नहीं कि हम इसी घड़ी इसको ठीक कर देंगे लेकिन हम कोशिश करेंगे इसका बचाने के लिए। हतोत्साहित होकर हाथ पैर हमारे फूले नहीं हैं, हम प्रयास करेंगे, इस देश की इस बिगड़ी घड़ी को निकालने की। बड़े घड़ियाल के आंसू बहाये जा रहे हैं, गरीबों के लिए, पिछड़ों के लिए। आपने अपने मुख्यमंत्री पद की याद दिलायी है, मैं उसका जिक्र नहीं करता। मैं इनके मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी की इनको याद नहीं दिलाता लेकिन अध्यक्ष महोदय, उस समय की विधान सभा की प्रोसीडिंग्स को उठाकर आप देख लीजिए। प्रधानमंत्री जी का मुख्य मंत्री का वह चेहरा बड़ा काला चेहरा है, जिस पर हजारों बेगुनाह लोगों की लाशों के धब्बे लगे हुए हैं। आप हमको यह बातें याद मत दिलाइये।

हम इस विवाद को इस स्तर पर नहीं लाते लेकिन आप हमको सिद्धांतों की शिक्षा दें, आप हमको कहें कि कुछ लोगों को आसानी से सरकारें मिल जाती हैं, सारे दिनों आप सरकारों में रहे, कभी सरकारों से बाहर आकर राजनीति करोगे तब पता चलेगा कि राजनीति क्या होती है। सरकारों के गलियारे से राजनीति करने वाले सिद्धान्त नहीं देते हैं। मैं जानता हूँ, राजा भी सिद्धान्त दे सकते हैं लेकिन कोई बुद्ध दे सकता है, कोई महाबीर जैन दे सकता है जो एक वर्ष नहीं, जिसने वर्षों तक तपस्या की हो, जिसने भूख, पीड़ा को देखा हो, वह राजा नहीं जो केवल तिकड़म के सहारे राजनीति के हर गलियारे में खेलने के लिए तैयार है।

मैं कहना चाहता हूँ कि पिछड़ों के लिए हमारी जिम्मेदारी है। हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे देश में जाति परम्परा है, एक बिगड़ी हुई जाति परम्परा जिसकी वजह से हमारे पिछड़े वर्गों के लोग जो गरीब हैं, निर्धन हैं। मैं दो व्यक्तियों का तो याद दिलाना चाहूँगा-एक माननीय दंडवते जी को और एक माननीय चैधरी देवी लाल जी को। इन्हें याद होगा जब बंगलौर में बड़े नेताओं की मीटिंग हुई उस समय मुझ से कहा गया कि आप विश्वनाथ प्रताप सिंह जी का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित कीजिए। मंजिल सिंह जी आपको याद होगा, मैंने कहा कि मैं केवल नाम का विरोध नहीं करूँगा पर इस नाम का समर्थन या प्रस्ताव मैं कभी भी नहीं कर सकता हूँ। इसलिए मैं बहुत सी बातें जानता हूँ। गृहमंत्री जी, अगर उन बातों को पूछने लगिएगा, तो आपके लिए अच्छा नहीं होगा। मैं एक ही बात कहना चाहता हूँ, मैं इस विवाद को व्यक्तिगत स्तर पर नहीं लाना चाहता हूँ। लेकिन अचानक अभिनयकर्ता के नाते जो-जो ड्रामें किए गए, आप महोदय जानते होंगे, ड्रामें का पात्र कभी-कभी जब आता है, तो लोगों को उससे प्रसन्नता होती है। लेकिन अगर किसी ड्रामे को वही पात्र पूरी तरह से अपने ऊपर अच्छादित कर ले, तो ड्रामा ड्रामा नहीं रह जाता है, वह माखौल बन जाता है।

मैं उस पात्र के बारे में नहीं कहना चाहता हूँ। लेकिन दोस्तों मैं आप से यह निवेदन करूँगा कि आज देश के सामने समस्यायें हैं, गरीबी की, भूख की, प्यास की। पिछड़ों के लिए आरक्षण हैं, लेकिन नौकरियाँ कहाँ हैं? उनको रोजी देने के लिये आपने पास क्या साधन हैं? क्या कभी उनके बारे में आपने सोचा? महगंाई से पीडित़ लोगो ंके बारे मे ंआपने आसं ूबहाए? बेगुनाह और बेबस लोगों को रोटी-कपड़ा देने के लिए क्या कभी सोचा? घोषणा पत्र में केवल यही बात नहीं थी, उस घोषणा पत्र में और अनेक बातें थीं।

मैं आपसे कहता हूँ, आरक्षण के नाम पर चार महीने तीन महीने, छः महीने हम आश्वासन के नाम पर उनको जिला सकते हैं। लेकिन अगर हमारे पास साधन नहीं हैं, अगर हम अपनी पूरी अर्थ-नीति को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं, तो फिर हम उनको कैसे रोजी दे सकेंगे? हमारे पास क्या साधन हैं? सबसे बड़ी हमारे पास मानवशक्ति और श्रम-शक्ति है तथा करोड़ों लोगों के बाहों की ताकत है, लेकिन, अध्यक्ष जी, हमें उन पर भरोसा नहीं है। हमें भरोसा विदेशी पूंजीपतियों के ऊपर है और उनके सहारे से हम देश को बनाना चाहते हैं।

इसलिए दोस्तों, मैं कहना चाहूँगा कि जिस समय उद्योग नीति बनी। मैंने उद्योग नीति का विरोध किया। उस समय कहा गया था कि जल्दी ही उसकी सफाई होने वाली है। आठ महीने हो गए, सरकार चली गई, लेकिन उद्योग नीति के बारे में देश के लोगों को कुछ मालूम नहीं हैं। अर्थ-नीति के बारे में कुछ पता नहीं चला। मैं सोमनाथ चटर्जी जी से निवेदन करूँगा, ये बुनियादी सवाल हैं, इस पर हम और आप आज से नहीं बरसों से लड़े हैं। मैं यह जानता हूँ, जो दुध-मुँहे बच्चे हैं, जो थोड़े दिनों से राजनीति में आए हैं, उनकी बातों का मैं कुछ जवाब नहीं देना चाहता हूँ। लेिकन मरेी भी राजनीति का काफी बडा़ रिकार्ड ह,ै म ंैइसस ेबहतु घबराता नही ंह।ँू

अध्यक्ष महोदय, इन बुनियादी सवालों पर चर्चा जरूर होनी चाहिए, लेकिन मैं आज यह कहना चाहता हूँ कि अगर एक महीना पहले इसी पार्लियामेंट में इन्हीं कांग्रेस के लोगों से समझौता करके, विनती करके पंजाब में चुनाव टालने के लिए आपने सर्वसम्मति से या बहुमत से कांस्टीट्यूशन अमेंडमेंट किया था। अध्यक्ष महोदय, मैं आपसे कहना चाहँूगा कि अगर इस देश को बचाना है, नये रास्ते पर लाना है, अगर विपन्नता से, बेबसी, लाचारी और वेदना से इस देश को निजात देना है तो हमको प्रधानमंत्री से निजात लेना पड़ेगा। मैं चाहूँगा कि वे अब भी स्वयं चले जायें, नहीं तो इस सदन को अपनी राष्ट्रीयता, सभ्यता का निर्वाह करने के लिए उन्हें यहाँ से हटाना पड़ेगा, इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

अध्यक्ष महोदय, एक बात मैं और कहना चाहूँगा खास तौर से अपने भारतीय जनता पार्टी क ेमित्रा ंेस ेकि हम सब मिल कर सद्भावना का वातावरण बनायें। उसमें हम सहयोग चाहते हैं, लेकिन फिर भी याद रखिये कि इस प्रशासन को चलाने के लिये, सरकार को चलाने के लिये कभी-कभी अप्रिय कदम उठाने पड़ते हैं और दुःख के साथ उठाने पड़ते हैं।

मैं अपने मित्र भाई खुराना जी से कहूँगा उसका बुरा न मानें। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पर आवश्यक गुस्सा करने से कोई लाभ नहीं है। हम आपको विश्वास दिलाते हैं, वे टकराव नहीं चाहते हैं वे नहीं चाहते हैं कि बात बढ़े। मैं यह चाहूँगा कि हम विवाद को मिटाने के लिये मिले-बैठ करके कोई रास्ता ढूंढे लेकिन अगर प्रशासन में कभी कठोर कदम उठाने पड़े तो उसको आडवाणी जी, मजबूरी मानियेगा, इच्छा नहीं है।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।