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1947 में कश्मीर के लोगों ने खुद फैसला लिया कि रहेंगे गांधी के हिन्दुस्तान के साथ

कश्मीर पर पाकिस्तानी दावे के सवाल पर 1 अगस्त, 2001 को लोकसभा में चन्द्रशेखर

सभापति महोदय, मैं सरकार के लिए और विशेषकर विदेश मंत्री जी के प्रति सहानुभूति प्रकट करने के लिए खड़ा हुआ हूँ। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। शिकायत केवल एक ही है कि जिस भाषा का उपयोग पाकिस्तान के जनरल कर रहे थे, उस भाषा में नहीं, लेकिन अपने विचारों को उसी स्पष्टता से रखने में वह और उनके प्रधानमंत्री जी असफल रहें। बार-बार हमसे यह कहा गया कि जो कुछ कश्मीर में हो रहा है, वह आजादी की लड़ाई है।

सभापति महोदय, हम यह नहीं समझ पाये कि हमारे प्रतिनिधि मंडल ने उन्हें यह क्यों नहीं बताया कि कश्मीर में आजादी की लड़ाई 1947 में हुई थी। जब देश को धर्म के नाम पर बांटा गया था तो कश्मीर के लोगों ने जिन्ना साहब के पाकिस्तान में जाना स्वीकार नहीं किया, महात्मा गाँधी के हिन्दुस्तान में आना स्वीकार किया था। वह आजादी की लड़ाई शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में हुई थी और उस लड़ाई के कारण ही आज कश्मीर भारत का अंग है। जनरल मुशर्रफ को उस लड़ाई का ज्ञान नहीं होगा, लेकिन कम से कम हम यह आशा करते थे कि भारत का जो प्रतिनिधि मंडल था, वह उन्हें इस बात की याद दिलाता, लेकिन उस बात की याद नहीं दिलाई गई। यही नहीं दुनिया के दूसरे देश हमें बार-बार यह कहते रहे कि किसी तरह समझौता कर लीजिए। ये वही लोग हैं जिन्होंने उस समय देश को दो हिस्सों में बांटने के लिए अपने तीर चलाये थे।

मैं आपसे निवेदन करना चाहूँगा कि कश्मीर का मामला या हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का मामला इतना साधारण नहीं है जितना हम सोचत हैं। मैं बड़ी विनम्रता के साथ दादा की बात से अपने को सहमत नहीं कर पाता। क्या हो गया है विरोधी पार्टियों को? सरकार के बारे में कुछ कहूँ, उसके पहले मैं निवेदन करना चाहूँगा कि किस आधार पर आप लोग गए थे बात करने के लिए? किस आधार पर आप गए थे मुशर्रफ साहब की चाय में हिस्सा लेने के लिए, किस आधार पर आप गए थे इस उम्मीद को लेकर कि इससे कोई बड़ा फैसला होगा, हम एक कदम आगे बढ़ेंगे?

मैं मुशर्रफ साहब की बात से पूरी तरह असहमत हूँ। उन्होंने जो कुछ कहा, लेकिन एक बात कहनी पड़ेगी कि एक शब्द भी आगरा में वह नहीं कहा जो उसके पहले वह पाकिस्तान में नहीं कह चुके थे। जो बात उन्होंने इस्लामाबाद में कही, वही बात आगरा में कही, लौटकर गए तो वहाँ जाकर भी फिर उन्हीं बातों को दोहराया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि हम कश्मीर के अलावा और कोई बात नहीं करेंगे। किस आधार पर विरोधी दल के नेताओं ने यह सलाह दी थी जसवन्त सिंह जी को और वाजपेयी जी को कि आप दूसरे सवालांे पर भी चर्चा कीजिए और मैं नहीं समझता कि किस आधार पर हमारे प्रधानमंत्री जी ने और हमारे विदेश मंत्री जी ने देश को यह सपना दिखाया था कि और सवालों पर भी चर्चा होगी, कश्मीर का भी सवाल हम उठायंेगे।

यह बात मैं इसलिए कहता हूँ कि बार-बार जनरल साहब ने इस बात को सारी दुनिया के सामने कहा और वह इस हद तक गये कि हमें शायद निमंत्रण इसलिए मिला कि कोई बाहरी देश हमारे देश को मजबूर कर रहा है, इस न्यौते को देने के लिए। इसके बावजूद भी हम गये, हमने उनको निमंत्रण दिया और निमंत्रण भी किन परिस्थितियों में दिया? इससे पहले सार्क की दो चार मीटिंगें स्थगित हो गई थीं। सार्क को बनाने के लिए हम लोग ही जिम्मेदार हैं। जब सारी दुनिया में आंचलिक सहयोग की बात चल रही थी, जब यूरोप के देश एक हो रहे थे, जब मास्को, कनाडा और अमेरिका एक हो रहे थे, जब आसियान के देश आपस में मिलकर सहयोग बढ़ा रहे थे, उस समय हमने सार्क की स्थापना की थी। सार्क ऐसा फोरम है जहाँ पर हमारे प्रधानमंत्री जनरल साहब से मिल सकते थे बिना किसी हल्ला गुल्ला के बिना किसी शोर शराबे के और बिना किसी अपमान के बात कर सकते थे। उस समय हमें कहा गया कि हम जनतंत्र में विश्वास करने वाले लोग हैं, हम लोकशाही में विश्वास करने वाले लोग हैं, किसी अधिनायक के साथ नहीं बैठ सकते।

सभापति महोदय, इसके पहले भी सार्क की मीटिंगों में बहुत से लोग गये थे जिन्होंने जनरल के साथ बातें की थी। मैं उन घटनाओं को याद दिलाने की जरूरत नहीं समझता। मणिशंकर अय्यर जी कभी साथ गये होंगे पाकिस्तान के जनरल के साथ और बांगलादेश के जनरल के साथ तो मैंने ही बैठकर बात की थी। ऊँचे आदर्शों की बात हमारे प्रधानमंत्री जी ने की। भारत के लोगों ने बड़ी तारीफ की, हमारे समाचारपत्रों ने कहा कि इतने बड़े जनतंत्र का हिमायती प्रधानमंत्री अचानक एक दिन कह गया कि जनरल साहब को निमंत्रण दे दिया गया और निमंत्रण देने के बाद विरोधी पार्टियों को बुला लिया गया। इन लोगों ने भी कहा बड़ा भारी काम हो रहा है, एक नयी शुरुआत हो रही है। भारत और पाकिस्तन के रिश्ते बदलने के लिए एक नया कदम उठाया जा रहा है।

मुझे समझ में नहीं आता कि यह सपने कहाँ से दिखाई दे रहे थे। क्योंकि जो भी जनरल साहब कह रहे थे, इस्लामाबाद से जो भी वहाँ अखबारों में छप रहा था, जो उनकी भाव-भंगिया थी, जिस तरह की बात चली आ रही थी, उससे स्पष्ट था कि है कश्मीर का सवाल उठायेंगे। लेकिन मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि कभी भी हमारे मन में क्या संकोच था कि लोगों की कुर्बानी के बाद, लोगों के बलिदान के बाद, शेख अब्दुल्ला के प्रयासों के बाद जिस कश्मीर ने हमारे देश मे ंआना स्वीकार किया था, उस कश्मीर के सवाल को हम नजरअंदाज कर देंगे अपनी दृष्टि से।

याद रखिये कश्मीर हमारे लिए कोई जमीन का सवाल नहीं है, कश्मीर हमारे लिए मौलिक सिद्धांतों, मौलिक आदर्शों का सवाल हैं। कश्मीर ही ऐसा इलाका है जिसके कारण हम यह कह सके कि हिन्दुस्तान एक धर्मनिरपेक्ष देश है। सैक्यूलरिज्म में हजारों वर्षों से हमारे देश की जो परंपरा रही है कि मजहब अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन भगवान, खुदा तो एक ही है, मंजिल जब एक है तो कौन राही किस राह से वहाँ पहुँचेगा, इसके लिए हम झगड़ा नहीं करेंगे और यह बात साबित की थी कश्मीर के लोगों ने। शेख अब्दुल्ला ने यह बात समाप्त की थी, 1947 की लड़ाई के दिनों में और इसीलिए उसके बाद जो संविधान बना, उसमें हमने धारा 370 को स्वीकार किया, लेकिन यह बात क्यों नहीं की गई, यह बात क्यों नहीं समझाई गई, दुनिया के सामने इन सवालों को क्यों नहीं रखा गया? जनरल साहब के स्वागत में हम इतने प्रफुल्लित थे, समझते थे कि हमारे पास तो कहने के लिए कुछ भी नहीं है, जो कुछ है वह सिर्फ मुशरफ साहब के पास कहने को है।

सभापति महोदय, बड़ी चर्चा होती है श्रीमती सुषमा स्वराज की और कहा जाता है कि ये कैसे बिना बुलाये चली गयी, बिना निमंत्रण कैसे उन्होंने अपना बयान दिया, मैं आज नहीं कह रहा हूँ जब समाचार पत्रों के लोगों ने मुझसे पूछा कि सुषमा स्वराज बिना बुलाये गये थी या निमंत्रण मिलने पर गयी थी, मैंने से कहा यह मुझे मालूम नहीं, लेकिन सुषमा स्वराज इस देश की एक प्रवक्ता थी वे मुशर्रफ साहब की प्रवक्ता नहीं थी, उन्होंने जो बयान दिया। उसमें सच्चाई कितनी है, मैं नहीं जानता, लेकिन उन्होंने इस देश की गरिमा को, इस देश के गौरव को, इस देश के सम्मान को बचाने का काम किया। मैंने उस समय अखबारों में बयान दिया था। उनका मजाक बनायें यह ठीक नहीं है। अगर कोई जनरल सल्यूट नहीं करता, तो हमारे लोगों को अनुशासन की कमी की बात दिखाई पड़ती है, लेकिन यह वह दिन भूल जाते हैं जब हमारे प्रधानमंत्री के लाहौर जाने पर वहाँ के तीनों जनरल नहीं आते हैं। और यही मुशर्रफ वहाँ पर आना मंजूर नहीं करते हैं।

सभापति महोदय, मैं समझता हूँ कि समझौते हों। मैं चाहता हूँ, कि आपसी बातचीत हो, लेकिन बातचीत के समय हमेशा हमें याद रखना चाहिये कि अपने को नीचे झुकाकर, अपनी गरिमा को घटाकर, हम कोई बातचीत नहीं कर सकते। बातचीत जब दो देशों के बीच में होती है, तो हमें हमेशा ख्याल रखना चाहिये कि उधर लोग क्या सोच रहे हैं।

महोदय, हमने एटम बम बनाया अणु बम बनाया, बड़ी खुशियाँ मनाई गई। हमारे जो बड़े प्रबल मंत्री हैं, जो हमेशा सरकार की कमजोरी देखकर, आपको बल देने का काम करते हैं, उन्होंने तो इतना तक कहा था कि हम प्रो-ऐक्टिव पोलिटिक्स करेंगे। कश्मीर में हम लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं। पाँच सात दिन के बाद मैंने अकेले इस संसद में कहा था कि बड़ा अपराध हो रहा है। हमारे देश की जनता के साथ, इस क्षेत्र की जनता के साथ, पाकिस्तान की जनता के साथ। हमने कहा कि अणु बम सुरक्षा का हथियार नहीं, यह आक्रमण का हथियार है। यह अपने देश में इस्तेमाल नहीं हो सकता है। यह दूसरे देश में इस्तेमाल होगा लेकिन कभी आपने सोचा है कि आप लाहौर पर बम गिरायेंगे तो अमृतसर का क्या होगा?

्रधानमंत्री जी, पता नहीं जसवंत सिंह जी ने आपको सलाह दी या पता नहीं किसने सलाह दी कि आप बस लेकर लाहौर चले गये और अखबारों में छपा कि आपने जवाहरलाल जी को भी पीछे छोड़ दिया। शायद आपको मालूम नहीं होगा, शायद आपने कभी सोचा नहीं होगा और आप लाहौर चले गये, मैंने कहा यह खतरनाक खेल है। इसी संसद में मैंने कहा है। यह मैं आज नहीं कह रहा हूँ, मैंने उस समय भी कहा कि लाहौर जाकर आपने खतरा मोल ले लिया है। और हमे कहीं और खतरनाक स्थिति का सामना न करना पड़े। मैं नहीं जानता था कि तीन महीने के अन्दर कारगिल हो जायेगा और कारगिल में आप याद रखिये, हमने लोगों को बड़ा उत्साह दिया, शहीदों की सहादत पर बड़ा गर्व किया, अभिमान किया, उनकी चिताओं पर फूल चढ़ाये लेकिन सभापति जी क्या नतीजा निकला, एक देश का राष्ट्रपति इसी संसद के केन्द्रीय कक्ष में कह गया कि कारगिल से पाकिस्तानी आपकी वजह से वापस नहीं गये, उस फौज को वहाँ से वापस करने में हमारी जरूरत पड़ी थी। उस समय क्षमा कीजिए उनका स्वागत करना सरकार की मजबूरी थी, लेकिन विरोधी पक्ष को उस दावत में जाने की होड़ लगाने की क्या जरूरत थी, मेरी समझ में नहीं आता?

सभापति महोदय, अभी सोमनाथ दादा जो कह रहे थे, मैं उनसे सहमत हूँ कि विदेश नीति केवल एक पार्टी का सवाल नहीं है, राष्ट्र की मर्यादा का सवाल होता है कि हम अपनी विदेश नीति किस प्रकार चला रहे हैं। अचानक एक दिन खबर मिली कि हमारे विरोधी पक्ष के लोग वहाँ के उच्चायुक्त की चाय पर नहीं जायेंगे, क्योंकि उन्होंने हुर्रियत को निमंत्रण दे रखा है, अब चाय पर कौन किसको बुलाये या नहीं बुलाये, मेरी समझ में नहीं आता, लेकिन आपने एक इश्यू बना दिया और विरोधी पार्टी के लोगों ने कहा कि हम नहीं जायेंगे। शिवराज जी, आपकी पार्टी ने कहा कि अगर उनका एक प्रतिनिधि जायेगा, तो हमारा भी एक प्रतिनिधि जायेगा। जब यह बात समझ में आयी, तो हमारे एनडीए के मित्रों ने सोचा शायद दुनिया की नजर में हम पीछे न रह जायें, एनडीए ने कहा कि हम बिल्कुल नहीं जायेंगे।

जब उन्होंने कहा हम नहीं जायेंगे तो विरोधी पार्टियों ने कहा अब हम जरूर जाएंगे। क्या यही एकता है? क्या यही विदेश नीति में एक तरह से सोचने की बात है। जिस समय हुर्रियत के लोगों से जनरल मुशर्रफ मिल रह थे, उस समय हमारे विरोधी दल के प्रमुख नेता कौरीडोर में बैठ कर इंतजार कर रहे थे कि उनको भी एक बार मिलने का मौका मिल जाए। यह टी.वी. पर दिखाया गया। क्या भारत की एकता, सम्मान, मर्यादा के लिए उस समय हमारे दिल में एहसास हुआ या नहीं? मैं आपसे निवेदन करूँगा प्रधानमंत्री जी, हम इन बातों को इसलिए कह रहे हैं कि हम सब एक ही तरह के हैं, एक ही परिवार के लोग हैं। जब हमने बम बनाया तब वे भी हमारे ही परिवार के लोग हैं, उन्होंने भी पाँच की जगह छह बम फोड़ दिए। आपके सहयोगी मित्र आज लड़ाई की बात नहीं करते। आज लड़ाई की बात दूसरी जगहों पर होती है। मैं उसमें ज्यादा नहीं जाना चाहता, मैं उस बारे में कुछ कहना नहीं चाहता लेकिन फिर आपको गलत सलाह दी जा रही है।

अभी सोमनाथ दादा बोल रहे थे। मैं उनकी बात सुनते हुए अवाक् रह गया। उन्होंने कहा, जरूर जाइए, रिश्ते को कायम रखिए। हमारे मित्र जसवन्त जी बड़े आशावादी हैं। आशावादिता में वे फिर इस्लामाबाद जाने के लिए तैयार हो रहे होंगे। हम भी मानते हैं कि बातचीत के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। लेकिन बातचीत जब तक जसवन्त सिंह जी करें, मुझे कोई ऐतराज नहीं है, जब एक विदेश सचिव करें, कोई ऐतराज नहीं है लेकिन देश के प्रधानमंत्री को इस्लामाबाद ले जाने से पहले सौ बार सोच कर जाइए, कहीं आगरा से बुरी बात न हो जाए। यह बात हम इसलिए कह रहे हैं, हमारा कोई विरोध नहीं है, हम समझते हैं कि बातचीत के लिए देश को हमेशा तैयार रहना चाहिए लेकिन देश के प्रधानमंत्री को, इसलिए कि हमने कह दिया है और प्रधानमंत्री जी, आपने बड़ी उदारतावश न्यौता स्वीकार भी कर लिया है। उदारता वाली बात उदार लोगों के साथ चलती है। शठे शाठयम् समाचरेत्’, शठ के साथ उदारता नहीं चलती।

हम नहीं कहते कि लड़ाई कीजिए, हम नहीं कहते कि झगड़ा कीजिए लेकिन कहीं ऐसा न हो कि दुनिया के लोग समझें कि हम इस बात के लिए उतावले हैं कि किसी तरह से समझौता हो जाए। समझौता किस बात पर हो? पाकिस्तान के जनरल साहब, पहले के नेता शायद पाकिस्तान की बात इस कड़ाई से नहीं कहते थे कि कश्मीर अकेला मुद्दा है जिस मुद्दे पर हम बात करेंगे और सारे मुद्दे तो गौण हैं। आगरा में बैठ कर अपने भाषण में सम्पादकों के बीच उन्होंने जो कुछ कहा, हमने भी उसे सुना था। उसके बाद भी आपको आशा लगी हुई थी कि किसी समझौते पर राह निकल जाएगी।

मैं पूछना चाहता हूँ विदेश मंत्री जी, इनके भाषण को आपने कैसे सीधे प्रसारण होने की अनुमति दी? कहाँ गए थे आपके खुफिया विभाग, कहाँ गए थे इन्फार्मेशन, सुषमा जी, आपका विभाग क्या कर रहा था? आपको पता भी नहीं चला और सारा भाषण सीधा सारी दुनिया को ब्राॅडकास्ट हो रहा था। हम चुपचाप, जैसे सोमनाथ दादा ने कहा, अगर एक पत्रकार महोदय, कोशिश नहीं करते तो शायद आपके दूरदर्शन को उसकी काॅपी भी नहीं मिलती। यह हालत कैसे पहुँच गई? सभापति महोदय, मैं आपसे निवेदन करूँगा कि यह हालत है जिस हालत में हम एक ऐसे पड़ोसी से सम्पर्क करना चाहते हैं जिस पड़ोसी के इरादे साफ नहीं हैं।

प्रधानमंत्री जी, आपने बड़ी उदारता से उनको न्यौता दिया। न्यौता देने के बाद उन्होंने तुरन्त क्या काम किया? आपने पहले कहा था कि जो चुने हुए प्रतिनिधि नहीं हैं, उनसे बात नहीं करेंगे। आतंकवाद को छोड़ दीजिए। वह उनके रोके न रुकेगा न चलाए चलेगा, हम लोग ही रोकेंगे और हम इतने असमर्थ नहीं हैं कि उसे रोक नहीं सकते। उसके लिए हम उनसे निवेदन करना इस देश के सम्मान के खिलाफ समझते हैं। मैं नहीं मानता कि पाकिस्तान चाहे और हम रोकना चाहें तो इस देश का आतंकवाद नहीं रुकेगा। यह हमारी कमजोरी की निशानी है, इसके अलावा और कुछ नहीं है। मैं ऐसा समझता हूँ कि कठिनाइयां जरूर होंगी, कठोर निर्णय लेने होंगे, अप्रिय बातें करनी होंगी। लेकिन क्या यह देश इतना असमर्थ है कि पाकिस्तान या दुनिया का कोई दूसरा देश हमारे देश में आकर हिंसा का माहौल बनाए और हम सहन करते रहें? लेकिन अजीब हालत है। हम कहाँ चले गए थे जब यह बात हुई, ज्यों ही न्यौता गया, उसके चार-छः दिन के अंदर उन्होंने अपने को प्रैसीडेंट डिक्लेयर कर दिया। हमें दुःख और लज्जा के साथ कहना पड़ता है कि आज अकेला हिन्दुस्तान है जो उनको प्रेसीडेंट मानता है। वहाँ का चीफ जस्टिस, वहाँ की न्यायपालिका उन्हें प्रेसीडेंट नहीं मानती।

वहाँ की विरोधी पार्टियां नहीं मानती। दुनिया के देश उनको प्रेसीडेंट नहीं मानते और यही नहीं, प्रधानमंत्री जी, भूल करने के लिए आप भी मजबूर थे। पिछले 2-3 वर्षों से मुझे अवधि मालूम नहीं है, कभी हुर्रियत से बात, कभी हिजबुल मुजाहिद्दीन से बात, कश्मीर के मुख्यमंत्री से बिना सलाह किये हुए, बिना बात किये हुए आप इन लोगों को न्यौता देते हैं। नकाबपोश लोगों के साथ हमारे गृह सचिव फोटो खिंचवाते हैं। क्या यह हमारी कमजोरी का द्योतक नहीं था? इन सारी कमजोरियों के बावजूद आप समझते हैं कि वह जनरल, जो कारगिल के लिए जिम्मेदार है, वह आपसे समझौता कर लेगा? आज फिर अगर आपके मन में मोह हो तो उस मोह को जसवन्त सिंह जी के साथ ट्रांसफर कर दीजिए, अपने पास मत रखिये। जरूरत पड़े तो सुषमा जी को भेज दीजिए, आप मत जाइये। वे लोग जिस भाषा को समझते हैं, वह भाषा दूसरी है। वह भाषा छल कपट की है, छल कपट मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि कूटनीति की भाषा जो लोग जानते हैं, सुषमा जी कूटनीति की दक्ष तो नहीं है, लेकिन उन्होंने एक तीर जरूर ऐसा चलाया कि जनरल साहब उससे व्यथित हो गये, मुझे इससे प्रसन्नता है।

मैं आपसे निवेदन करूँगा, दादा, आप बहुत नेक सलाह देते हैं। मैं आपके नेतृत्व को मानता हूँ। कृपा करके इस सरकार को और गलत रास्ते पर चलने के लिए आप मत कहिए। इनको यह मत कहिये कि चले जाइये, बड़ा अच्छा काम है।

हम नहीं सोचते हैं कि प्रधानमंत्री जी वहाँ जाएंगे। पहले भी मुझे स्वीकार नहीं था, लेकिन एक दिन मैं उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछने गया, तब उन्होंने हमको जो कहा था, वह मैं यहाँ पर नहीं कहूँगा। उस दिन हमें बड़ी आशा बंधी थी कि प्रधानमंत्री जी ठीक राह पर हैं, मगर पता नहीं, किसका असर आगरा में पड़ा कि वहाँ जाकर बिल्कुल बदल गये, आगरा में जाकर ऐसा लगा कि सब कुछ ठीक हो रहा है। आप इस जनरल के चक्कर में मत पड़िये। मैं और बातें नहीं कहना चाहूँगा। मैं इस बात पर कोई भेद पैदा नहीं करना चाहता, मैं कोई विवाद खड़ा नहीं करना चाहता, लेकिन आप शुरू से भूल कर रहे हैं, चाहे आतंकवादियों से किसी तरह बात करने की कोशिश हो और किसी तरह मुशर्रफ साहब को बुलाकर शान्तिदूत बनाने की कोशिश हो, ये दोनों नाकामयाब होने वाली हैं, ये दोनों देशों को विनाश की ओर ले जाएंगी। मुझे विश्वास है कि प्रधानमंत्री जी और हमारे विदेशमंत्री जी आगरा से सबक लेंगे और उसी भूल को फिर से नहीं दोहराएंगे।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।