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. कश्मीर राष्ट्रीय संकट, आरोप प्रत्यारोप की जगह इस विषय पर एक सुर में बोलने की जरुरत

तीन महीने तक फौज का इस्तेमाल नहीं होने पर 15 मई, 1995 को लोकसभा में चन्द्रशेखर

अध्यक्ष महोदय, तोड़-मरोड़ की भी कुछ सीमा होनी चाहिए। मैं माननीय सदस्य को रोकना नहीं चाहता हूँ। मैंने कभी भी किसी स्थिति में हिन्सा का प्रयोग करने के लिए नहीं कहा था। माननीय सदस्य का विचार है कि एक स्थिति में बल प्रयोग किया जा सकता है तो दूसरी परिस्थिति में भी वही तरीका अपनाया जा सकता है। मुझे नहीं मालूम कि प्रधानमंत्री जी के पास इस प्रकार के परामर्शदाता हैं। अध्यक्ष महोदय, कुछेक परिस्थितियों में हास-परिहास की अनुमति है। हम कुछ अधिक गम्भीर राष्ट्रीय संकट के बारे में चर्चा कर रहे हैं। जब हम मेल मिलाप के लिए प्रयास कर रहे हैं और चाहते हैं कि संपूर्ण राष्ट्र एक हो जाये, तो पिछले पांच वर्षों में जो कुछ हुआ था उसका उल्लेख करना क्या आवश्यक है?

अध्यक्ष जी, कश्मीर का सवाल वर्षों से ऐसा सवाल था, लेकिन पिछले 5-7 दनों में ऐसा बन गया था कि मैं ऐसा समझता था कि इस सवाल के ऊपर शायद हम लोग आपस में बैठकर कुछ गम्भीर चिन्तन करेंगे, सोचेंगे कि इस संकट से देश को कैसे निकालें। लेकिन जिस तरह से बहस चल रही है, उससे लगता है कि संकट की जानकारी हमें नहीं है या उसका अहसास नहीं है कि किस संकट से आज गुजर रहे हैं। सवाल यह नहीं है कि गलती किससे हुई या गलती किससे नहीं हुई। जिससे भी यह गलती हुई हो आज यह राष्ट्रीय संकट बन गया है। इसलिए तो अपनी बुद्धि के मुताबिक हमने यह सोचा कि जो संकट आ सकता है, उसके प्रति सरकार को आगाह करना चाहिये। कभी मैंने कहा होगा कि सरकार को दमन की ताकतों को इस्तेमाल करना चाहिये लेकिन हमने कभी ऐसा नहीं कहा कि जब जरूरत न हो तो भी हथियार उठा लो और गोली चला दो। लेकिन क्या हम सरकार से नहीं पूछ सकते हैं कि अगर गोली नहीं चलानी थी, अगर फौज का इस्तेमाल नहीं करना था तो 3 महीने तक फौज को वहाँ क्यों बिठाये रखा, फौज को वहाँ ले जाने की क्या जरूरत थी?

जब अटल जी यहाँ बात कह रहे थे तो हमारे कई भाई सेना के बारे में बता रहे थे कि सेना की क्या परिधि होती है, क्या सीमाएं होती हैं और उस जगह की क्या कठिनाइयाँ हैं लेकिन यह भी तो समझना चाहिये कि डेढ़ किलोमीटर दूर से सेना कुछ नहीं कर सकती। अगर सेना कुछ नहीं कर सकती थी तो सेना के जवानों को वहाँ क्यों भेजा गया, उन्हें वहाँ रखने की क्या जरूरत थी? अगर आपने सेना के जवानों को वहाँ रखा था तो उन्हें क्या निर्देश दिये थे, यह सवाल आपसे देश ही नहीं पूरी दुनिया जानना चाहेगी क्योंकि इससे हमारी असफलता सिद्ध हुई है। इससे सेना की क्षमता के बारे में भी प्रश्नवाचक चिन्ह उठेगा, भले ही आज कोई उठाये या न उठाये। सेना के मन में भी दुविधा उठेगी! मैंने पहले भी कई बार कहा है कि सेना के लोगों को बिला जरूरत कहीं पर बुलाना नहीं चाहिये और अगर बुलाया गया तो सोच-समझकर उनका इस्तेमाल किया जाना चाहिये था या नहीं? क्या मैं सरकार से जान सकता हूँ कि दो महीने पहले से जब आपको यह जानकारी थी कि वहाँ गड़बड़ होने वाली है, उस मजार को कुछ लोग जलाने वाले हैं, फिर आपने वहाँ से सेना को हटाकर, दुनिया के सारे लोगों को वहाँ जाने की अनुमति क्यों दी? आप फौरेन मीडिया को कश्मीर भेज रहे हैं। आप कहते हैं कि कश्मीर सारी दुनिया के लिये खुला रखेंगे लेकिन इस्लामिक देशों के लोगों को क्यों नहीं कहा गया कि कुछ लोग ऐसी नीयत से बैठे हैं और वे इस मजार को तोड़ देना चाहते हैं। क्यों दो महीने तक आप चुपचाप बैठे रहे?

यदि आप दुनिया के लोगों को, हिन्दुस्तान के पत्रकारों को, दुनिया के राजदूतों को वहाँ पर भेजते और कहते कि जाकर देखो कि कुछ विदेशी लोग आकर हमारी सीमा के अन्दर, हमारे देश के अन्दर उत्पात करना चाहते हैं तो आज दुनिया के सामने हमारा कोई दूसरा चित्र ही होता। क्या कभी सरकार के दिमाग में यह नहीं आया, गृह मन्त्रालय, विदेश मन्त्रालय और प्रधानमंत्री के कार्यालय में बैठे उनके अधिकारियों और सलाहकारों ने कभी ऐसा नहीं सोचा कि अगर सेना का इस्तेमाल करना असम्भव है तो क्या इस तरह की संवेदनशीलता का व्यवहार करना उचित नहीं था? दुनिया को और इस्लामिक देशों को बुलाकर अगर हमने वहाँ भेजा होता तो क्या इस्लामिक देशों का सम्मेलन हमारे खिलाफ होने की बात चलती?

हमारे मित्र खुर्शीद साहब ने अभी यहाँ तकरीर की और कहा कि हम यू एन ओ में नेतृत्व करेंगे। यदि हम ऐसा माहौल बनाये कि यू एन ओ में नेतृत्व करें तो किसे अच्छा नहीं लगेगा लेकिन दूसरी तरफ जब हम सुनते हैं कि सार्क में माले और नेपाल भी हमारे साथ नहीं हैं तो यहाँ आपकी बुलन्द आवाज हमारे ऊपर कोई बहुत असर करने वाली नहीं है। आप इस बात को सोचें कि हम क्या करना चाहते हैं, कहाँ हम जा रहे हैं और किस जगह देश को ले जा रहे हैं।

अध्यक्ष महोदय, अच्छा यह होता कि कश्मीर के सवाल पर कामरोको प्रस्ताव की जगह हम किसी और तरीके से बहस करते। इस बहस से ऐसा लगता है कि एक-दूसरे पर आरोप लगाना हमारे लिए जरूरी है। मुझसे पूर्व वक्ता ने यहाँ जो कुछ बोला, मैं उसका जवाब नहीं दूँगा कि पिछले 11-12 या 17 महीनों में कुछ गलतियाँ हुईं जिससे सारा देश टूट गया जैसे उससे पहले यहाँ घी-दूध की नदियाँ बहती थीं, चारों ओर शान्ति थी, अमन-चैन था लेकिन 17 महीनों में सब कुछ गड़बड़ हो गया और उस गड़बड़ी को हम कुछ दिनों के लिये भूल जायें। लेकिन कब तक उसका बहाना लेकर हम अपने काम करने के तरीके के बारे में सफाई देते रहेंगे।

अध्यक्ष महोदय, आज सवाल यह है कि कश्मीर में आप क्या कर रहे हैं। आप वहाँ चुनाव कराना चाहते हैं और हम भी चुनावों के खिलाफ नहीं हैं लेकिन हम कहते हैं कि चुनावों में कौन हिस्सा लेगा, क्या आपने इसके बारे में कभी सोचा है। अभी एक वक्ता महोदय ने कहा कि अगर हम कश्मीर को खो भी देते हैं तो क्या होगा, हम एक जनतांत्रिक प्रयोग करना चाहते हैं। अध्यक्ष महोदय, अगर कांग्रेस पार्टी उसे खो देगी तो वहीं पर ऐसा भाषण भी होता है। भारतीय जनता पार्टी वहाँ पर है नहीं। दूसरी कोई पार्टी भी नहीं है। तो क्या आप कश्मीर को उनके हाथों में देना चाहते हैं जो उसे भारत से अलग ले जाना चाहते हैं। यह सवाल जब हम उठाते हैं और जब आप बोलते हैं एक मंत्री की हैसियत से, तो आपकी आगे की दृष्टि साफ होनी चाहिए। आप किनके हाथों में कश्मीर को देना चाहते हैं? मैं इन सवालों को बहस का मुदा नहीं बनाना चाहता हूँ, लेकिन संसद में बैठ कर के, मंत्री के पद पर बैठ कर जो बोलते हैं, तो दुनिया आपसे सवाल पूछेगी कि किसके हाथों में कश्मीर को सौंपना चाहते हैं। उनके हाथों में जो भारत के साथ नहीं रहना चाहते हैं?

मैंने एक बात कही थी, अपने उन मित्रों से जो सरकार में हैं, कि चुनाव कराना अच्छी बात है। जब हमने चुनाव का ऐलान किया, तो मुझे एक बात समझ में नहीं आती है कि पहले से ही ऐलान क्यों किया जाता है? अगर चुनाव कराना चाहते हैं, तो तैयारी कर लीजिए। चुनाव आयोग से बात कर लीजिए। उसके बाद आयोग से बात कर के कोई तिथि निश्चित कर लीजिए। ज्यों ही चुनाव आयोग का ऐलान होता है, तो बाहर के देशों के लोग कहते हैं कि चुनाव रेफरंडम का एक दूसरा विकल्प है। हमारे अखबार के कुछ भाई, हमारी सरकार के कुछ लोग कहते हैं कि हमारे नीतियाँ सफल हो रही हैं। दुनिया के कुछ लोग भी चुनाव का समर्थन कर रहे हैं।

अध्यक्ष महोदय, मेरे जैसे साधारण आदमी के मन में, जिसको दुनिया की कोई बात पता नहीं है, यह डर उठता है कि कहीं घाटी में चुनाव के अन्तिम मौके पर कोई वोट देने न आए, या ऐसे लोग चुने जाएँ जो हमारे साथ नहीं रहना चाहते हैं, तो क्या यह रेफ्रेंडम नहीं हो जाएगा? तो उस दिन हम दुनिया के सामने क्या कहेंगे? इसलिए हमारे मन में शंका है कि क्या हम देशद्रोही हैं, हम जनतन्त्र के विरोधी हैं? हम पाकिस्तान का समर्थन कर रहे हैं? अध्यक्ष महोदय, क्या यह बात कहना भी गुनाह है? आप क्या कर रहे हैं कश्मीर में? क्या आप देश की प्रभुसत्ता और एकता को बनाए रखेंगे? क्या हमने कहा था कि लद्दाख में बुद्धिस्ट और इस्लामिक रीजन्स को अलग कर दो। आपने स्वायत्तता के नाम पर उनको अलग कर दिया। आडवाणी जी, मैं आपसे भ पूछना चाहूँगा कि क्या जम्मू में मुक्ति आन्दोलन चलाकर जम्मू के कुछ हिस्सों को स्वायत्त करने का आन्दोलन इस समय चलाना जरूरी है? आज कश्मीर के विभिन्न अंचलों में बिखराव की ताकतों को अलग-अलग बल दिया जा रहा है मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि अध्यक्ष महोदय कि यह सरकार न जाने किन कारणों से उसका समर्थन कर रही है। शायद वह यह समझती है कि चुनाव कराएंगे, तो लोग उसको वोट दे देंगे।

अध्यक्ष महोदय, हमें एक बात याद रखनी चाहिए कि कश्मीर जाएगा, तो एक भूखण्ड नहीं जाएगा, हमारी धर्मनिरपेक्षता चली जाएगी, हमारी एकता चली जाएगी, हमारी वे मान्यताएँ चली जाएँगी, जिन मान्यताओं के आधार पर भारत ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। जिन मान्यताओं के आधार पर महात्मा गाँधी ने कहा था कि हम गरीब हो सकते हैं, लेकिन दुनिया को हम आध्यात्मिक नेतृत्व देने की शक्ति रखते हैं।

आज कठिनाइयाँ हैं, विपत्तियाँ हैं, लेकिन इस आध्यात्मिक नेतृत्व की शक्ति इसलिए खोते जा रहे हैं कि हम छोटे घरोंदों में अपने आपको बाँटते जा रहे हैं। आज धारा 370 या दूसरी जो बातें हैं, उन पर आप मेरी राय जानते हैं। मैं उनके पक्ष में नहीं हूँ। अटल जी, यह आन्दोलन थोड़े समय के लिए बन्द हो सके, तो अच्छा है। मैं यह बात मानता हूँ, लेकिन आज कोई रोकने को तैयार नहीं है। अध्यक्ष महोदय इसलिए मन में पीड़ा होती है।

आज जब इतनी बड़ी घटना हो गई, सरकार के लोग कह रहे हैं कि गोली चलाओ, हमने तो नहीं कहा कि गोली चलाओ। अगर हमसे पूछते हो, तो हम कहते कि सारी फौजें वापस बुला लो। सारी दुनिया के राजदूत वहाँ भेजो, सारे इस्लामिक कंट्रीज को कहो कि यहाँ क्या घटना घटने जा रही है। अगर यह किया होता, तो या तो वे वापस जाते, या दुनिया के सामने भारत का मस्तक ऊँचा होता, लेकिन सारी बुद्धि तो आपके पास है। दूसरे की राय लेना आपके लिए जरूरी नहीं है। और आप समझते हैं कि आप जो सोचते हैं, वही इतिहास का अन्तिम सत्य है। 50 वर्षों से इस अन्तिम सत्य के आधार पर आप इस देश को चला रहे हैं, लेकिन 17-18 महीने में, कुछ गड़बड़ कर दिया। कुछ दिन विश्वनाथ प्रताप सिंह ने गड़बड़ कर दिया, कुछ दिन मैंने गड़बड़ कर दिया। उसके पहले तो सारा राम-राज्य आ रहा था और आप फिर यह राम-राज्य ला रहे हैं।

आप याद रखें कि एक-एक कर के देश का हर हिस्सा क्यों अलग हो रहा है? सईद साहब आपके यहाँ क्या हो रहा है? छोटा सा प्रदेश है। अभी जार्ज फर्नान्डीज साहब ने सवाल उठाया था, वहाँ कुछ लोगों को वोटर लिस्ट में से हटाया जा रहा है। पता नहीं आपकी जानकारी में हटाया जा रहा है कि नहीं, लेकिन हर जगह एक चिन्ता है। हर जगह एक बेचैनी है। हर जगह एक असंतोष फैल रहा है। अध्यक्ष महोदय, मैं निवेदन करूँगा कि चुनाव कराना चाहते हैं, तो यह समझ कर कराइए कि कहीं ऐसा न हो कि चुनाव की अन्तिम संध्या के दिन कोई वोट डालने जाए नहीं। यदि ऐसा हुआ, तो आप दुनिया में मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। पंजाब में क्या हुआ? कितनी सही नीतियां अपनाई गयीं और मैंने कितनी गलतियाँ कीं। उनसे सबक लेकर आज हाथ-पाँव फूल रहे हैं। उस समय भी मनसूबे थे और आज भी मनसूबे हैं। मैं यह कहना चाहता हूँ कि कल फिर हाथ-पाँव फूलेंगे इसलिए आप गलती मत करिये। आप समय रहते चेत जाइये। पिछले 10 सालों से इतिहास में हर समय यह लिखा है कि कांग्रेस ने गलती करने के चार महीने बाद अपनी भूलों को स्वीकार किया लेकिन वे भूलें छोटी थीं। आज की ये भूलें देश की अस्मिता को, देश की एकता को तोड़ देंगी।

अध्यक्ष महोदय, मैं आज भी यह कहना चाहूँगा कि कश्मीर पर अब भी बिना किसी विवाद में पड़े हुए कोई रास्ता निकल सकता है तो वह निकालें जिससे सारा राष्ट्र एक आवाज में बोले कि शायद इस संकट से हम निकल सकते हैं। हम लोग छोटे लोग हैं। हममें वह क्षमता नहीं हैं जो कि कांग्रेस के लोगों में है। विरोधी पक्ष के लोग अपराधी हो सकते हैं लेकिन यही लोग इस संसद में भी हैं।

मैं दो बातें कह रहा हूँ। पहली बात यह हो सकती है कि चुनाव जल्दबाजी में न करायें जायें। चुनाव कराने से पहले यह सोच-समझ लेना चाहिए कि आपके साथ कोई इस चुनाव में हिस्सा लेने को तैयार है? यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि चुनाव में ऐसे लोग न रखें जायें, जो कि हिन्दुस्तान से कश्मीर को बाहर ले जाना चाहते हैं। यह मैं खुले तौर पर कहना चाहता हूँ।

दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि बिना सोचे-समझे अपना पुरुषार्थ दिखाने के लिए सेना को कहीं खड़ा मत करिये। तीसरी बात मैं यह कहता हूँ कि कश्मीर पर आपसी विवाद न उठने पाये, इसके लिए जो कुछ भी करना चाहिए, वह सब आप कीजिये। यह पहल विरोधी पार्टी को न करके कांग्रेस पार्टी की सरकार को करनी पड़ेगी क्योंकि यह जिम्मेदारी उसके ऊपर है। आपने यह काम नहीं किया है, इसीलिए आज हम इस जगह पर पहुँच गये हैं।

अध्यक्ष महोदय, मुझे विश्वास है कि इस पर सरकार ठण्डे दिल से सोचेगी। इतिहास बड़ा कठोर निर्णायक है। कहीं वह 10 दिनों के बाद यह निर्णय न दे दे कि इस देश को तोड़ने में आपकी जिम्मेदारी है। इसलिए मैं केवल विनम्र चेतावनी दे रहा हूँ। मैं यह निवेदन आलोचना की दृष्टि से नहीं, बल्कि सुझाव की दृष्टि से कर रहा हूँ।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।