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फिर से बनाया जा रहा है उत्तेजना का माहौल विनाश का कारण बन सकती प्रधानमंत्री की चुप्पी

अयोध्या विवाद पर 15 और 29 जुलाई, 1992 को लोकसभा में चन्द्रशेखर

अध्यक्ष महोदय, प्रसन्नता है कि शांति है। इससे बड़ी प्रसन्नता इस बात से है कि प्रधानमंत्री जी ने बार-बार कहा है कि चार महीनों में कोई आशा की किरण, उम्मीद की रोशनी दिखाई पड़ेगी। मैं इस पर उनसे कोई सफाई नहीं चाहूँगा। जैसा हमारे मित्र इन्द्रजीत जी गुप्त ने कहा है। कुछ बातें दो-चार मिनट में आशंका के रूप में उनके सामने रखना चाहता हूँ। वह आशंका आज की नहीं, बहुत पुरानी है। हमारे मित्र अंतुले जी ने बहुत भावुकता भरा भाषण दिया है। यह सही है कि लोग मरते हैं। हम लोग नहीं मरते हैं, लेकिन उतना ही सही है कि संसद में बैठकर हम इस बात के जिम्मेदार हैं कि जो राजसत्ता, जो हुकूमत चल रही है, जो कानून-व्यवस्था है उसको लागू किया जाए। वह कानून होते हुए अगर इतने लोग मरते हैं तो यदि कानून को देखने वाले नहीं होंगे तो कितने लोग मरेंगे, यह बात हमारे मित्र अंतुले जी भूल गये। इसलिए बार-बार कहा जाता है कि कानून की बात सबको माननी चाहिए। कोई यह नहीं कहता कि प्रधानमंत्री जी कल ही कानून मनवाने के लिए सख्त से सख्त कदम उठायें। उन्होंने बार-बार कहा कि बातचीत से समस्या का हल होना चाहिए, लेकिन अभी यह भी पता नहीं चला देश को, संसद को कि समझौता क्या हुआ है या बातचीत का रास्ता क्या होगा?

जैसा हमारे मित्र इन्द्रजीत गुप्त ने कहा कि दोनों तरफ से वक्तव्य दिये जाते हैं। प्रधानमंत्री जी ने कहा है न्यायालय का निर्णय सबको मानना पड़ेगा, जिसको शायद अंतुले जी नहीं मानते, क्योंकि उनको आशंका है कि लोग मरेंगे, लेकिन दूसरी तरफ आडवाणी जी ने कहा है कि मामला अदालत से हल नहीं होगा। संत लोगों ने कहा है कि तीन महीने के बाद हम चुप नहीं रहेंगे। यह भी कहा है कि हमारे विश्वास और आस्था का सवाल है। इसमें अदालत कुछ नहीं कर सकती है, फिर बातचीत का रास्ता कैसे बने? माहौल जहाँ ऐसा हो कि शुरुआत में ही अविश्वास हो, एक-दूसरे के खिलाफ वक्तव्य देने का हो तो फिर मामला और उलझेगा। मुझे दुःख नहीं होता अगर संतों का भाषण होता, मुझे दुःख नहीं होता अगर किसी महन्त ने कहा होता लेकिन जब आडवाणी जी कहते हैं तो शंका जरूर उठती है। इसीलिए इस सदन में दिये गए वक्तव्य का दूसरा अर्थ हो जाता है। क्या मैं प्रधानमंत्री जी से एक निवेदन करूँ कि क्या इस सदन को और देश को आप यह विश्वास दिला सकते हैं कि जब तक आपके आपसी विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू न हो, कोई एक-दूसरे के खिलाफ या एक-दूसरे की बातों के खिलाफ वक्तव्य नहीं देंगे। अगर इतना भी नहीं होता है तो समझौता कैसे होगा? समझौते की बात कोई नयी बात नहीं है।

अध्यक्ष महोदय, भारतीय संस्कृति की बात कही जा रही है। भारतीय संस्कृति ने हमें बहुत सारे उदाहरण दिये हैं। महाभारत भी हमारे देश में हुआ था। भीष्म थे, कृष्ण भी थे और दोनों चाहते थे कि महाभारत न हो, दोनों ही चाहते थे कि कोई मरे नहीं। सारा महाभारत इस बात की कहानी है कि भीष्म का उपदेश रखा रह गया, कृष्ण का अनुनय-विनय धरा रह गया। महाभारत क्यों हो गया, आडवाणी जी को इस पर विचार करना चाहिये। एक धृतराष्ट्र राजसत्ता में बैठे थे। वे निर्णय नहीं कर पाये कि इधर की बात कहें या उधर की बात। इसलिए आप यह भी याद रखिए कि भारतीय संस्कृति में अनेक उदाहरण हैं। इसलिए कभी-कभी जो लोग निर्णय लेने की जगह पर बैठे हैं, निर्णय नहीं ले पाते हैं तो जो खून-खराबा रोका जा सकता था, वह खून-खराबा नहीं रुका और वे नहीं रोक पाये। कहीं हम महाभारत की पुनरावृत्ति तो नहीं कर रहे हैं? क्या फिर तो हम उन कामों को नहीं करने जा रहे हैं? विकास उस समय भी हुआ था। इन्द्रप्रस्थ, खाण्डवप्रस्थ, सोने के महल-सब जलकर राख हो गये। कृष्ण और भीष्म पितामह बैठे रहे। देश जल गया, मर गया, भाई-भाई का खून बहाने के लिए विवश हो गया। मुझे वही आशंका दिखाई पड़ती है। इसलिए अगर बातचीत हो तो सफाई से हो और सबको मिला-जुलाकर हो। बातचीत में ऐसा न हो कि आदमी उस बातचीत का एक अर्थ समझे, दूसरा आदमी दूसरा अर्थ समझे तो देश फिर विनाश की ओर जायेगा।

अध्यक्ष महोदय, मैं बहुत दुःख के साथ कहता हूँ कि पिछले तीन दिनों में जो शांति दिखाई दी है, उसका बड़ा अभिमान है और जिस शांति पर हमारे मित्र तालियां बजा रहे थे, उस शांति और अमन के पीछे वही अविश्वास, दुविधा है। एक-दूसरे के मनोभावों को नहीं परखने में आपस में शंका है। इसको मिटाने के लिए अगर आप कुछ कर सकें- अपने पद से, अगर प्रधानमंत्री जी, कुछ कर सकें कि तीन महीने की मोहलत इस काम के लिए मिली है कि शुरुआत बातचीत से होगी तो शायद देश को कुछ राहत की सांस हो सकती है।

डरा हुआ आदमी अगर राहत की सांस लेता है तो कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। लोग समझते हैं कि हम कत्ल होंगे। छह महीने या तीन महीने के लिए उनके कत्ल की मियाद और बढ़ जाती है तो हर आदमी हर फांसी की सजा पाया हुआ आदमी इस स्थगन को अविश्वास से देखता है कि शायद कोई बचा ले। अगर भगवान ही बचाने वाला है तो फिर इस संसद की आवश्यकता नहीं है। इस सरकार की आपको आवश्यकता नहीं है। भगवान बचाये या न बचाये, खुदा किसी की मदद करने के लिए आये या नहीं आये, नेता सदन और नेता विरोधी पक्ष आप मत करो। तीन महीने में यह उत्तेजना का माहौल फिर न बनाया जाये। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि जिस दिन से शांति हुई है, उसी दिन से फिर से उत्तेजना का माहौल बनाया जा रहा है और प्रधानमंत्री चुप हैं जो विनाश का कारण हो सकती है।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।