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...ताकि सनद रहे

image1एक ईस्ट इंडिया आई | धीरे- धीरे हमारा सब कुछ उसके कब्ज़े में चला गया| हम गुलाम हो गए| इस सच से हम भली भांति अवगत हैं फिर भी हम धीरे-धीरे अपना सब कुछ विदेशी कंपनियों और विदेशी पूंजीपतियों को देते जा रहे हैं| केवल दे नहीं रहे हैं, हर तरफ हर क्षेत्र में देने की होड़ लगी है | बड़े कारखानों से शुरू हुआ यह रोग खाने-पीने के क्षेत्र तक पहुँच गया है | जिन लोगों के हाथ में इस देश की व्यवस्था है, वह इसे लेकर लुभावने सपने दिखा रहे हैं| बता रहे हैं की विदेशी पूंजीपति या विदेशी पूँजी भारत के विकास के लिए आ रही है |

इसे लेकर आजाद भारत के प्रारंभिक दौर में जाने की जरूरत है। नए भारत के निर्माण के लिए प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू अमेरिका गये थे, भारत में स्टील प्लांट की स्थापना में मदद मांगने के लिए। अमेरिका ने उन्हें प्रस्ताव दिया कि आप हमसे सस्ती दर पर स्टील प्राप्त कर सकते हैं। क्या जरूरत है स्टील प्लांट लगाने की? उस समय पण्डित नेहरू ने कहा था कि भारत जैसा संसाधन सम्पन्न देश अपनी मूलभूत सामग्री के लिए विदेशी स्रोतों पर निर्भर नहीं रह सकता है। भारत सरकार ने इस दिशा में व्यापक कदम उठाए और अपने देश में स्थापित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम गौरवशाली इतिहास रचने की राह पर चल निकले। इन्हें भारत की आंख के सपने की संज्ञा मिली। इसमें से कुछ देश के नवरत्न कहे जाने लगे।

देश का दुर्भाग्य कहिए कि सार्वजनिक क्षेत्र के इन उपक्रमों को कुव्यवस्था की नज़र लग गयी और नेहरू को आदर्श मानने वाली सरकारों ने ही इनका इलाज करने की जगह, इन्हें आमदनी की दाव पर लगा दिया। तब से लेकर कई सरकारें आईं और गईं, नज़रिया नहीं बदला। अपवाद के रूप में राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर जी के कार्यकाल को छोड़ दया जाय तो सर्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और संस्थानों को लाभ के नाम पर विदेशी और देशी निजी हाथों में देने की प्रक्रिया ही येन केन प्रकारेण चलती रही। वे घरेलू उद्योग जिनके बल पर दुनिया में हमारी अलग पहचान थी, सरकारों की प्राथमिकताओं से बाहर हो गए और लाभ की होड़ में मर गए।

वर्तमान में यह रोग राष्ट्रीय त्रासदी का रूप ले चुका है। हमारे संसाधनों की ही पैकेजिंग कर विदेशी कम्पनियां और उनकी नकल कर कुछ देशी कम्पनियां हमसे आपसे जानलेवा लाभ का दोहन कर रही हें। इसी देश का पानी मुफ्त ले रही हैं और इसी देश में उसे मनमाने दाम पर बेंच रही हैं हम तमाशबीन की तरह उन्हें देख रहे हैं और सरकारे ंइन विदेशी या देशी कम्पनियों की वकील के रूप में काम कर रही हैं।

वामपंथी, अतिवामपंथी और समाजवादी सोच वाले लोगों या दलों को छोड़ दिया जाय तो देश की सियासी गतिविधियांे पर भी विदेशी पूँजी और देशी पूँजी का व्यापक असर है। देश की सत्ता किसके हाथ में रहेगी, यह भी तय करने में इन दोनों पूंजियों की प्रभावी भूमिका रहती है। इस वजह से बहुत से लोग जानकर भी इस सच को नजरअंदाज कर रहे हैं। विदेशी कंपनियों और विदेशी पूंजी के हाथ में देश का आर्थिक निज़ाम देने और सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण के कार्य में मौके दर मौके पक्ष विपक्ष के अधिसंख्य लोग शामिल रहे हैं। इसलिए जो विपक्ष में रहता है, वह भी इसका विरोध केवल प्रतीक के तौर पर करता है और जो सत्ता में रहते हैं, वह इसे लेकर देश को लुभावने सपने दिखाते रहने को ही अपना दायित्व मान लेते हैं।

देश का प्रचारतंत्र कमोवेश पूरी तरह से देशी विदेशी पूँजी के कब्जे में है। अपने बचाव के लिए यह प्रचारतंत्र भी विदेशी देशी पूँजी के खिलाफ उठ रही आवाजों को चतुराई से विकास विरोधी आवाज बता देता है। इसलिए देश की सम्प्रभुता और स्वाभिमान के लिए घातक यह राष्ट्रीय त्रासदी वाम, अतिवाम, समाजवादी सोच वालों के प्रयास के बाद भी कभी राष्ट्रीय एजेंडा नहीं बन पायी। बनना आसान भी नहीं है।

फिर भी राष्ट्रपुरुष श्री चन्द्रशेखर इस त्रासदी के खिलाफ आजन्म आवाज उठाते रहे। उनको मानने वाले लोकतंत्र सेनानियों ने वर्ष 2016 में चीन के कसते पंजे को टारगेट कर प्रतीक के तौर पर लोगों से अपील की कि वे दीपावली के अवसर पर चीन के उत्पादों का बहिष्कार करें। 60 वर्ष से ऊपर आयु वालों की इस अपील को व्यापक जनसमर्थन मिला। उसी समय लगा कि विदेशी पूंजीपतियों और विदेशी पूंजी के सामने सत्ता की राजनीति करने वाली सियासत भले घुटने टेक चुकी हो, आम आदमी अब भी इसके खिलाफ है। वह अंधाधुंध निजीकरण के भी खिलाफ है।

फिर याद याद आई राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर के सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण पर लोकसभा में दिए उस वक्तव्य की जिसमें उन्होंने कहा है, ‘‘मैं इसके परिणाम जानता हूँ। इससे केवल आर्थिक गुलामी नहीं आएगी, बल्कि इस देश में भी गुलामी आ जायेगी। मैंने पहले भी चेताया था, यदि आप आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप स्वीकार करते हैं तो आपको राजनीतिक मामलों में भी हस्तक्षेप स्वीकार करना पड़ेगा और यह इबारत आज दीवारों पर लिखी हुई है’’।

आज राष्टपुरुष चन्द्रशेखर हमारे बीच सशरीर नहीं हैं, लेकिन उनके वे विचार हैं जो इस लड़ाई को आगे बढ़ा सकते हैं। राष्टपुरुष चन्द्रशेखर के दो संसद में दो टूक-उनके विचारों को सजोने का एक प्रयास है। इस प्रयास के आधार हैं, समय-समय पर लोकसभा और राज्यसभा में दिए गए राष्टपुरुष चन्द्रशेखर के वे वक्तव्य जो इस राष्ट्रीय त्रासदी पर प्रकाश डालते हैं,जो आज भी प्रासंगिक हैं।

उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत हैं, राज्यसभा और लोकसभा में दिए गए उनके चार वक्तव्यों के कुछ अंश। इसमें प्रथम दो हैं 1963 के। सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति की स्थापना के बारे में राज्यसभा में हुए वादविवाद में राष्टपुरुष चन्द्रशेखर ने कहा है, ‘‘एक राजनीतिक दल जिसे दोनों सदनों में भारी बहुमत प्राप्त है। लगातार दस वर्षों से संसदीय समिति गठित करने में सक्षम नहीं है’’। इसी वादविवाद में उन्होंने श्री पाल एच0ए0 पल्वी, जिन्हें भारत की प्रशासनिक प्रणाली का पुनर्परीक्षण करने के लिए कहा गया था, का जिक्र किया है जिसमें कहा गया है, ‘‘भारत, वास्तव में इससमय ऐसे आपातकाल की स्थिति में है जैसे युद्ध के दौर से गुजर रहा हो। यह आपातकाली शीघ्र निर्णय लेने तुरन्त कार्यवाही किए जाने पर निर्भर करता है। यह मौजूदा आपातकाल उस मोर्चे पर अधिक तीव्र है, जहां नये उद्यमों का विकास हो रहा है’’।

राष्टपुरुष चन्द्रशेखर ने कहा है, ‘‘यह चेतावनी भारत सरकार द्वारा 1956 में नियुक्त किए गए व्यक्ति द्वारा दी गयी थी, लेकिन श्री जवाहर लाल नेहरू की इस लापरवाह सरकार ने इस सम्बन्ध में कोई कार्यवाही नहीं की’’। यानी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के समक्ष समस्याएं प्रारम्भ से थी।

इसी वर्ष राज्यसभा में बैंकों के राष्ट्रीयकरण को लेकर हुए वादविवाद में राष्टपुरुष चन्द्रशेखर ने कहा है कि हमारे देश की पूरी अर्थव्यवस्था अथवा अर्थव्यवस्था के बड़े भाग को केवल 20 महत्वपूर्ण बैंक नियंत्रित कर रहे हैं। इन अग्रणीय बैंकों के 180 निदेशक हैं जो विभिन्न उद्योगों में 1640 निदेशक के पदों पर आसीन हैं। क्या यह सच नहीं है कि राष्ट्रीयकृत होने के बाद बैंक इस निजी स्वामित्व के चंगुल से बाहर हैं और तुल्नात्मक रूप से अधिक जनोमुखी है। इसी दौरान सियासी गलियारों की कृपा और हमारी लचर व्यवस्था में सेंध लगाकर कभी कोई हर्षद मेहता, कभी कोई विजय माल्या तो कभी कोई और इन बैंकों को खोखला कर देता है तो दोषी को सजा देने की जगह हमारा निजाम नियोजित तरीके से बैंको के राष्ट्रीयकरण की उपयोगिता पर ही सवाल दर सवाल उठवाने लगता है।

तीसरा उदाहरण 2001 का है। लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान राष्टपुरुष चन्द्रशेखर ने कहा, ‘‘हमारे देश में जो भी सपने देखे गऐ थे, वे सब के सब केवल सपने बन कर रह गए हैं। हमारे देश के छोटे उद्योग समाप्त हो गए और जो घरेलू उद्योग थे, उन्होंने हमेशा के लिए अन्तिम सांस ले ली। हमारे गांव में कहा जाता है जो लड़का अपने बाप की जागीर बेचता है, उससे नालायक कोई नहीं होता है। यह नये लापयक पैदा हुए हैं जो देश की जागीर को एक एक करके बेच रहे हैं।

चौथा उदाहरण 2003 का। लोकसभा में पेश अविश्वास प्रस्ताव पर राष्टपुरुष चन्द्रशेखर ने कहा, ‘‘देश की सम्पत्ति जो पिछले 50 वर्षों में बनी है वह किसी प्राइम मिनिस्टर या संसद सदस्यों के पैसे से नहीं बनी है जो कौड़ी के दामों पर बेची जा रही हैं। ऐसे बेची जा रही हैं जैसे कोई बहुत बड़ी उपलब्धि की बात हो’’। हालात आज पहले से भी अधिक गम्भीर हैं। अब तो हम रेलवे को भी निजी हाथ में सौंपने की प्रक्रिया शुरू कर दिए हैं। समृद्ध देशों के लिए हमारी सरकारों ने भारत का बाजार के रूप में उपयोग करने का दरवाजा खुला छोड़ दिया है और हम सभी लोग यह जानकर भी कि यह गरल है, इसे खा रहे हैं, इसे पी रहे हैं, इसे ओढ़ रहे हैं, इसे बिछा रहे हैं फिर लगता है कि राष्टपुरुष चन्द्रशेखर के विचारों की प्रासंगिकता और बढ़ी है।

केवल उदारीकरण या निजीकरण के मामले में नहीं, रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद को लीजिए। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी 20 मार्च को कहा है कि दोनों पक्ष आपस में बातचीत कर मामले को सुलझाएं। इस विवाद में राष्टपुरुष चन्द्रशेखर की प्रारम्भ से राय रही कि बातचीत से ही इस समस्या का समाधान निकल सकता है। अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उन्होंने इस दिशा में सार्थक दिशा में प्रयास भी किया। दोनों पक्षों की बातचीत परिणाम की ओर बढ़ रही थी उनकी सरकार चली गई और अन्य लोगों ने इस मसले को राजनीति के लिए छोड़ दिया जो आज भी जारी है जिसे सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने भी अब बातचीत के माध्यम से मामला सुलझाने को कहा है।

केवल रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद नहीं, आ भी कश्मीर की समस्या देश के सामने मुंह बाए खड़ी है, आज भी हम आतंकवाद से जूझ रहे हैं, आज भ हम दोष सिद्ध होने से पहले लोगों का मीडिया ट्रायल कर रहे हैं, आज भी सत्ता के गलियारों में वैचारिक मतभेद को द्वेष के चश्में से देखा जा रहा है, आज भी विरोधियों को सताने के लिए सत्ता का दुरुपयोग हो रहा है। आज भी कट्टर पंथ हमारे धर्मनिरपेक्ष ढांचे को निगल जाने को प्रयासरत हैं। फिर लगता है कि इन मामलों में राष्टपुरुष चन्द्रशेखर की राय ही समाधान का पथ है। उसे जन जन तक पहुँचाना हमारा आपका सबका दायित्व है। राष्टपुरुष चन्द्रशेखर-संसद में दो टूक-पुस्तक इसी दायित्व बोध की दिशा में एक प्रयास है। लोकसभा में समय-समय पर दिए गए राष्टपुरुष चन्द्रशेखर के वक्तव्य इस पुस्तक के आधार हैं। पुराने सन्दर्भों की याद दिलाने के लिए राज्यसभा में दिए गए पाँच वक्तव्यों का भी उपयोग किया गया है। सहजता के लिए राष्टपुरुष चन्द्रशेखर-संसद में दो टूक-पुस्तक को पाँच खंडों में बांटा गया है।

इस पुस्तक के प्रेरक हैं विधान परिषद सदस्य श्री यशवंत सिंह। प्रकाशक हैं, श्री चन्द्रशेखर स्मारक ट्रस्ट आजमगढ़ के ब्रजेश कान्दू, लालबहादुर सिंह, सुभाषचंद्र सिंह, अशोक पांडेय, रमेश कन्नौजिया, श्रीराम सिंह, अरविन्द सिंह, राम औतार जायसवाल, उदय शंकर चैरसिया और सुनील कुमार सिंह बल्लू। मैं श्री कौशल यादव को धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने पुस्तक को सजाने संवारने में योगदान दिया। लक्ष्य है नई पीढ़ी को राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर के विचारों से अवगत कराना। इस पवित्र कार्य के प्रति हम लोगों की रुचि बढ़ाने में सर्वश्री रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया, राम गोविन्द चैधरी ओम प्रकाश सिंह, अरविन्द सिंह गोप, कुलदीप सिंह सेंगर, उमाशंकर सिंह और मयंकेश्वर शरण सिंह की अविस्मरणीय भूमिका रही है। इस प्रयास को समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय, सपा के वरिष्ठ नेता शिवपाल सिंह यादव और पूर्व मंत्री अहमद हसन का लगातार स्नेह मिलता रहा है। इसके लिए मैं सभी लोगों के प्रति विशेष रूप से आभारी हूँ।

धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव
सम्पादक
राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर-संसद में दो टूक


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।