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यंग इण्डिया के संपादक के रूप में बलिया प्रेसक्लब में अभिनन्दन


कभी ये नहीं सोचता था कि बात किसके पक्ष में पड़ेगी, किसके विपक्ष में


image1 मैंने ज़िंदगी की कई मंज़िलों को पार किया, उतार-चढ़ाव के बहुत सारे दिन देखे, लेकिन अभिनंदन मेरा आज पहली बार ;बलिया में ‘यंग इण्डिया’ के सम्पादक के रूप में बलिया प्रेस क्लब द्वाराद्ध हो रहा है। मैं नहीं जानता इस अभिनंदन के पीछे कोई साजिश है या नहीं। लेकिन ऐसा आत्मीय अभिनंदन बहुत कम लोगों को मिलता होगा। इसके कारण कितने घरों में ÿंदन होगा, नहीं जानता। मैं आपसे निवेदन करूं, बहुत सी बातों में मेरी अपनी राय है।

एक समय था, जिन दिनों मैंने ‘यंग इंडिया’ शुरू किया था, सब बात बेहिचक कहता था। कभी ये सोचता नहीं था कि बात किसके पक्ष में पड़ेगी या किसके विरोध में पड़ेगी। चाहे कभी जयप्रकाश जी के विरुह् लिखना पड़ा हो, चाहे इंदिरा जी के विरुह् लिखना पड़ा हो। निःसंकोच भाव से मैं अपनी बात कहता था। नगालैंड के सवाल पर जयप्रकाश जी से विवाद किया, अनेक सवालो पर इंदिरा जी से बहस छेड़ी, लेकिन पिछले कुछ दिनों मंे शायद मेरा अपराध बोध हो - चार छह महीने सरकार में रहा, इस कारण बहुत सी बातों पर चुप रहना ही श्रेयस्कर समझता हूं।

इसलिए नहीं कि आज के लोगों से कोई डर है। डर इस बात का लगता है कि मेरी बातों का नाजायज फायदा कोई बाहर के लोग न उठाएं। मेरे इस संकोच को आप निराशा मत समझिएगा। ये हमारा आत्मनियंत्रण का भाव है और इसको उम्र के साथ अनुभव के सहारे आदमी सीखता है। मैं जानता हूं, जब मैं विद्यार्थी था, इसी बलिया में ÿान्तिकारिता का सबक हमारे मित्रों ने हमें सिखाया। मैं कम्युनिस्ट मित्रों के संसर्ग में आया। मैंने समझा था कि भगवान नहीं है, तो इस मान्यता को स्वीकार करने के लिए या कराने के लिए कोई दूसरा उपाय न देखकर अपने गांव जाकर डीह बाबा की हांडी को तोड़ दिया और कहा कि यदि भगवान है, जो कुछ समाज शास्त्र सिखाता है, आज जो सही है वह कल गलत हो जाता है। नए सिह्ांत बन जाते हैं। कुछ लोग ज़्यादा आत्मज्ञानी निकले। उन्होंने कहा कि अनंत की खोज क्यों न की जाए। जो शाश्वत सत्य है, उसकी खोज क्यों न की जाए? विद्यालयों के अंदर नहीं, प्रयोगशालाओं के अंदर नहीं, परीक्षण केनर््ीों के अंदर नहीं, उन्होंने हिमालय के उपत्यकाओं में और जंगलों में अनंत की खोज की। रहस्यवाद के ज़रिये उन्होंने सृष्टि को जानने का प्रयास किया और बहुत कुछ पाया।

अपमान का सामना करना पड़ेगा। मैं किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं कहता, यह शाश्वत सत्य है। अनेक लोग इन परिस्थितियों से घिरे हुए हैं और इन परिस्थितियों से हम घिरे होने कारण अगर इसको नहीं समझ पाते कि आज जो समझौता कर रहे हैं, उसका क्या दुष्परिणाम होने वाला है, तो उससे जो अपमान होने वाला है, उसके लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए। लेकिन हम अगर अपने चारों ओर एक ऐसा घरौंदा बनाए हुए हैं जिसमें हमारी सभी भूलों, आत्म प्रवंचना को सफलता मान लिया जाता है और क्षमा कीजिएगा एक पत्रकार का नाम लेकर, आप नहीं आप के साथी पत्रकार यदि उसे भारी उपलब्धि की संज्ञा दे देते हैं, तो राजनीतिकों के लिए भूल करना सामान्य बात हो जाती है। आज उसी व्यूह में भारत की राजनीति पड़ी हुई है और उस व्यूह के हम सभी कमोबेश शिकार हैं।

मैं मानता हूं कि बड़ा से बड़ा राजनीतिज्ञ, इस दुनिया में ऐसे दस फीसदी राजनीतिज्ञ हैं। नब्बे फीसदी तो वह साधारण मानव हैं। वही ममत्व, वही आपसी संबंध, वही भाई-चारा, वही एक दूसरे की पीड़ा में सहभागी होना हमारा अपना कर्तव्य होता है, ऐसा मैं मानता हूं। इस बात को कमोबेश निभाने की मैंने कोशिश की है। इसके परिणाम भी मैंने भुगते हैं। चाहे किसी से जेल में मिलकर भुगतना पड़ा हो या कहीं नरसंहार होते देख अपनी आवाज उठाकर भुगतना पड़ा हो, लेकिन इसकी चिंता मुझे कभी नहीं हुई, क्योंकि मैं समझता हूं किसी अभिलाषा से, कुछ पाने की इच्छा से यह नहीं किया था। मैं किसी के यहां दावत खाने चला जा≈ं, तो इसका मुझ पर कोई असर नहीं होता। इसलिए असर नहीं होता कि यह समझकर दावत खाता हूं कि एक सामाजिक व्यवहार है, इसका निर्वाह होना चाहिए। इससे हमारे विचारों में कोई अंतर नहीं आता उसके विचारों में भी मैं कोई अंतर नहीं ले आना चाहता, लेकिन अपनी बात स्पष्ट रूप से कहता हूं इसीलिए कि जिसके यहां दावत खाता हूं या जाता हूं उसके मन में कोई भ्रम नहीं होता। अखबार वालों के मन में बहुत से भ्रम हो जाते हैं और उस भ्रम का निवारण करना मैं ज़रूरी भी नहीं समझता। इसिलए मैं आपसे कहूं, आज भारत की यह दुर्दशा हो रही है।

डायरी की यहां बहुत चर्चा हुई। डायरी मैं बहुत पहले लिखता था। यूनिव£सटी छोड़ने के बाद जब समाजवादी पार्टी में काम करने लगा, तब भी डायरी लिखता था। तब मैं नहीं समझता था कि ये डायरी कभी छपेगी। वो कहां गायब हो गई, पता ही नहीं चला। कुछ लोगों ने गायब भी कर दी। लेकिन मुझे याद है। 1953-54 की बात है। मैं लखन≈ में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के आॅफिस में रहता था। होली का दिन था। सब लोग अपने घर चले गए। कहा गया कि इस आॅफिस की रखवाली कौन करेगा? चपरासी भी चला गया। मैंने कहा कि कोई नहीं रहता है, तो मैं ही रह जाता हूं। होली

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आचार्य नर्रेंी देव चले गए, लेकिन देश तो अब भी है। हम क्या परम्परा छोड़कर जाना चाहते हैं? हम क्या विश्वास लोगों को देकर जाना चाहते हैं। हम लोगों के दिलों में कौन सा हौसला पैदा करना चाहते हैं? बेबस-निरीह लोगों को, इस देश को गांधी ने हौसला दिया था, आत्मविश्वास दिया था, इच्छाशक्ति दी थी। सबसे बड़ा राजनीतिक अपराध ये हो रहा है कि हम उस इच्छाशक्ति को तोड़ रहे हैं। दूसरा अपराध यह हो रहा है कि राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक-दूसरे से छुआछूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक-दूसरे से घृणा और नफरत करने लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े, जिसके सहयोग की जरूरत न पड़े। किसी से नफ़रत क्यों? किसी से दुराव क्यों करना? विचारों में अंतर एक बात है, लेकिन एक-दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रÿिया राजनीति में चल रही है, वह एक बड़ी भयंकर बात है।

बलिया में जहां एक ओर बलिदान की भावना है, क्षमा करें बलिया के लोगों, हम ईष्र्या, द्वेष, आपसी घृणा के शिकार हो रहे हैं। यह बलिया की परम्परा के अनुरूप नहीं है। जब लोग बलिदान के लिए गए, तो एक स्वर से इंकलाब जिंदाबाद का नारा बोले थे। जो लोग बैरिया में शहीद हुए, जो सुखपुरा में शहीद हुए थे, उनके मन में कोई दुराव नहीं था। वे अपने लिए नहीं गये थे, वे हमारे और आपके लिए गए थे। वे हमको नया विश्वास दिलाने के लिए गए थे। लेकिन क्या हो गया है इस राजनीति को, जहां विचारों का ज़रा भी अंतर हो जाए तो हम एक-दूसरे से नफ़रत करने लगें। यही हमारे बारे में चर्चा बराबर होती है। कहा जाता है कि संसद में तो बहुत खिलाफ बोलतें हैं बाद में बहुत घुलमिलकर बातें करते हैं। मैं क्या करूं। संसद में बोलता हूं तो समझता हूं कि देश के लिए जरूरी है। बाहर मिलता हूं तो एक साथी से, एक सहयोगी से एक देशवासी से मिलकर बात करता हूं। क्या इस देश में कोई संकट आ जाएगा, तो हम लोग एक-दूसरे से बात नहीं करेंगे? मैंने एक बार नहीं अनेक बार, आज नहीं कह रहा हूं, संसद में भी कहता रहा-बहुत विवाद हमारे में हैं, पर क्या एक साल के लिए हम नहीं सोचेंगे कि जो पीड़ा है, दुख है, भूख है, दर्द है, अशिक्षा है, बेकारी है, इस पर तो एकमत हैं। हम लोग इस पर एकमत होकर क्यों नहीं काम कर पाते? एक साल के लिए व्रत लो कि हम मतभेदों को भुलाकर, कोई भी सरकार हो, कोई भी व्यक्ति होगा, उसके साथ कदम से कदम मिलाकर इन सवालों पर देश को एकजुट करने की कोशिश करेंगे। जब बात ये करते हैं तो अखबार में कोई लिख देता है-मालूम होता है, सरकार पक्ष से चनर््ीशेखर जी का कोई समझौता हो गया है। कभी नरसिंह राव से, कभी देवेगौड़ा से, कभी गुजराल से समझौता हो जाता था। एक दिन चाय पीने चला

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अगर हौसला नहीं होगा, तो एक भी फैसला नहीं होगा। अगर सब अपने भले की सोचेंगे, तो किसी का भला नहीं होगा।। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मुझमें जितनी भी ताकत है, मैं अपनी आवाज उठाता रहूंगा।

लाल बहादुर सिंह
कोषाध्यक्ष
श्री चंद्रशेखर स्मारक ट्रस्ट
आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश )


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दारुल सफा 36/37 बी-ब्लाक,
विधानसभा मार्ग,
लखनऊ,
उत्तर प्रदेश

फोटो गैलरी

चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।