ब्रिटिश रवैया भारत विरोधी, राष्ट्रमंडल सदस्य बने रहना देश के लिए अपमानजनक
संदर्भ: भारत के राष्ट्रमंडल से अलग होने सम्बन्धी संकल्प 13 दिसम्बर 1965 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर
मैं श्री मोहन धारिया का आभारी हूं कि उन्होंने यह संकल्प प्रस्तुत करके हमें इस विषय पर विचार करने का अवसर प्रदान किया। मैं इस संकल्प का पूर्णतया समर्थन करता हूं। मुझे याद है कि जब राष्ट्रमंडल में शामिल होने का प्रश्न उठा था, तब लोगों ने इसका विरोध किया था, परन्तु उस समय महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत का विभाजन एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है और यदि हम भारत और पाकिस्तान के बीच निकट का सम्बंध बनाये रखना चाहते हैं तो इसके लिए कोई माध्यम होना चाहिए। महात्मा जी का विचार था कि ब्रिटेन की कूटनीति हमारी सहायता करेगी और हम उसके माध्यम से पाकिस्तान के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये रख सकेंगे। श्री जवाहरलाल नेहरू ने भी, जो कि उदार तथा सज्जन व्यक्ति थे, इन विचारों को स्वीकार किया, इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर नेताओं तथा जनता को विश्वास दिलाया था कि राष्ट्रमंडल रचनात्मक कार्य करेगा। उन्होंने साम्राज्यवादियों की बात पर विश्वास किया। उन्होंने ऐसा करके उदारता दिखायी परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि 18 वर्ष के अनुभव के बावजूद आज भी ऐसे व्यक्ति हैं जो यह कहते हैं कि हमें राष्ट्रमंडल का सदस्य बना रहना चाहिए, ब्रिटेन के लोग इतने बुरे नहीं हैं जितना हम सोचते हैं।
यदि आप ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नीतियों को समझना चाहते हैं तो आपको स्काटलैण्ड जाना चाहिए। जून में जब मैं स्काटलैण्ड गया तो वहां मैं युह् स्मारक भी देखने गया। वहां स्काटलैण्ड के एक सूचना अधिकारी ने मुझे उस स्मारक पर थूकने को कहा, मैंने पूछा क्यों? वह बोला कि यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद की भत्र्सना है। उन्होंने हमारे देश पर हमला किया और उस पर अधिकार किया। यह है स्काटलैण्ड के लोगों के दिलों में ब्रिटेन के प्रति भावना।
श्री गोविन्द रेड्डी ने लेबर पार्टी तथा समाजवाद की बात कही है। पिछले महीने जब मैं इंग्लैण्ड में था तो मैंने वहां के कई संसद सदस्यों तथा दूसरे व्यक्तियों से बातचीत कीऋ परन्तु मुझे उनकी बातों से यह पता चला कि वहां एक भी व्यक्ति भारत के पक्ष में नहीं है। सभी सरकारी तथा गैरसरकारी समारोहों में तथा प्रेस सम्मेलनों में भारतीय संसद में दिये गए भाषणों में से केवल दो का उल्लेख किया जाता है, एक डाराममनोहर लोहिया का, जिसमें श्री नेहरू को ‘लकी डा.ग’ कहा था और दूसरा श्रीमति पण्डित का, जिन्होंने कहा था कि हम अनिर्णय के गुलाम हैं। परन्तु कहीं भी श्री जवाहरलाल नेहरू तथा लाल बहादुर शास्त्री द्वारा इन भाषणों के दिये गए उक्रारों का उल्लेख नहीं किया जाता है।
इतना ही नहीं। अभी हाल ही में कच्छ रक्षा के रण के सम्बंध में भी उन्होंने ठीक स्थिति का वर्णन नहीं किया। राष्ट्रमंडल के प्रधान मंत्रियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाते हुए हमारे प्रधानमंत्री ने यह कामना की थी कि भारत पाकिस्तान के साथ सह-अस्तित्व तथा मित्रतापूर्ण वातावरण बनाना चाहता हैऋ परन्तु ब्रिटेन के समाचार पत्रों ने प्रधानमंत्री के इस भाषण को कोई महत्व नहीं दिया और पाकिस्तान की छोटी-छोटी बात को भी वे प्रथम पृष्ठ पर मोटे-मोटे अक्षरों में छापते रहे। महोदय, ब्रिटेन के संसद सदस्य यह तर्क देते थे कि भारत में मुसलमान नहीं हैं परन्तु मैंने उन्हें बताया कि भारत में 5 करोड़ मुसलमान हैं। क्या हम यह समझ सकते हैं कि ब्रिटेन के लोग इतिहास के इस साधारण से तथ्य से परिचित नहीं हैं? परन्तु ऐसी बात नहीं है। वे सब कुछ जानते हुए भी तथ्यों को मोड़-तोड़ कर रखते हैं। इसकी पराकाष्ठा का प्रमाण हाल के संघर्ष में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री द्वारा दिये गए वक्तव्य से मिलता है। इसमें उन्होंने पाकिस्तान को नहीं अपितु भारत को आक्रमणकारी ठहराया है। ब्रिटेन के इस रवैये को देखकर हमें राष्ट्रमंडल में नहीं रहना चाहिए।
1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया तब ब्रिटेन व अमेरिका दोनों ने भारत की मदद करने की बात कही थी, परन्तु इस बार अमेरिका ने कहा कि स्थिति गम्भीर है और हम भारत की मदद करेंगे। परन्तु ब्रिटेन का रुख यह था कि हम स्थिति को देख रहे हैं।
जहां तक आर्थिक प्रश्नों का सम्बंध है, भारत में लगी ब्रिटेन की पूंजी से ब्रिटेन को 9.4 प्रतिशत आय होती है। जबकि पाकिस्तान में लगी उसकी पूंजी से 3 से केवल 3. 2 प्रतिशत की आय होती है, विदेशी सहायता के सम्बंध में भी तथ्य इस प्रकार है: हमें 50 प्रतिशत से अधिक सहायता अमेरिका से मिलती हैऋ ब्रिटेन से केवल 11 प्रतिशत सहायता मिलती है इसमें विश्व बैंक तथा राष्ट्र संघ की निधि के माध्यम से मिलने वाली सहायता भी शामिल है। जहां तक विदेश व्यापार का सम्बंध है उससे भी हमें कोई विशेष लाभ नहीं है। हमारे निर्यात का केवल 31 प्रतिशत भाग ब्रिटेन को निर्यात होता है और आयात का 18 प्रतिशत भाग ब्रिटेन से आयात होता है। यदि प्रत्येक व्यापारिक करार की ओर ध्यान दिया जाये तो हम इस परिणाम पर पहुंचेंगे कि हमें लाभ की अपेक्षा हानि ही होती है। 1949 में भारत सरकार ने ब्रिटेन की एक केबल कम्पनी के साथ करार किया था। उस करार के अनुसार कम्पनी हमें भारत में केबल कम्पनी स्थापित करने के लिए सहायता देगी और यदि फैक्ट्री 20 साल में अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त उत्पादन न कर सकी तो कमी का 25 प्रतिशत इस कम्पनी से आयात किया जायेगा। इसी करार के ही कारण हमें केवल आयात करने के लिए इस कम्पनी को बाज़ार से दुगुना मूल्य देना पड़ रहा है। हिन्द महासागर में फौजी अड्डे बनाने के बारे में भी जिसमें हमारे हित अन्तर्निहित थे, ब्रिटेन ने भारत सरकार से परामर्श करने की आवश्यकता नहीं समझी। इन परिस्थितियों में राष्ट्रमंडल का सदस्य बना रहना भारत के लिए अपमानजनक है। इन्हीं शब्दों के साथ मैं इस संकल्प का समर्थन करता हूं।