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प्रयोगशालाओं में भी वैसी ही पीड़ाजनक दुर्गन्ध है जो भारत सरकार के किसी भी विभाग में देखने को मिल जाती है

वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद के कार्य की समीक्षा करने तथा एक समिति नियुक्त करने सम्बन्धी संकल्प 25 फरवरी 1966 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उपाध्यक्ष महोदय, मेरे विचार से आज जैसा खेदजनक अवसर कभी भी उपस्थित नहीं हो सकता। यह बड़े खेद की बात है कि एक ऐसी संस्था की, जिस पर देश का भविष्य निर्भर है, इतनी तीव्र आलोचना की जा रही है। फिर भी मेरे कुछ माननीय मित्र उसकी जांच कराने का विरोध कर रहे हैं। मैं अपने पूर्व वक्ता का अपने बड़े भाई के समान आदर करता हूं। मुझे उन प्रयोगशालाओं में से, जिनकी उन्होंने चर्चा की है, कम-से-कम 8-10 प्रयोगशालाओं में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैंने विदेशों की भी कुछ प्रयोगशालाएं देखी हैं

इस बात का कोई महत्व नहीं है कि 1947 के पश्चात् इन प्रयोगशालाओं की संख्या में कितनी वृह् िहुई है। देखने की बात यह है कि इन प्रयोगशालाओं का वातावरण कैसा है। जब मुझे भारत सरकार के वरिष्ठतम अधिकारियों के साथ किसी सम्मेलन में बैठना पड़ता है तो उस वातावरण में मेरा दम घुटने लगता है और मैं बड़ी वेदना का अनुभव करता हूं। इन प्रयोगशालाओं में भी मुझे ठीक वैसा ही वातावरण देखने को मिला। मुझे परिषद के निदेशकों से बातचीत करते हुए ऐसा अनुभव हुआ जैसे मैं भारत सरकार के किसी सचिव से बातचीत कर रहा था। क्या आप इसी वातावरण में वैज्ञानिकों से काम करने की आशा करते हैं?

वैसे यदि मैं दो प्रयोगशालाओं के निदेशकों को अपनी श्रह्ाजंलि अर्पित न करूं तो अपने कर्तव्य से विमुख होंगा। इनमें से एक तो मद्रास की चर्म अनुसंधानशाला है और दूसरी कलकत्ता की मृत्तिकशिल्प शिल्प तथा कांच अनुसंधानशाला है। केवल इन दो अनुसंधानशालाओं में ही ज्ञानपीठोचित वातावरण है और वहां युवक वैज्ञानिकों को कुछ न कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। शेष सब प्रयोगशालाओं में वैसे ही पीड़ाजनक वातावरण की दुर्गंध आती है जैसा भारत सरकार के किसी भी विभाग में देखने को मिल सकता है। उक्त दो प्रयोगशालाओं को छोड़कर अन्य सभी स्थानों पर वैज्ञानिक लोग शिकायत करते दिखाई देते हैं। मैंने विदेशों की प्रयोगशालाएं भी देखी हैं। वहां छोटे-से-छोटा वैज्ञानिक भी निदेशक के साथ मित्रवत आचरण करता है और उसे कोई भी नया काम करने में प्रोत्साहन दिया जाता है। परन्तु हमारे यहां ऐसे-ऐसे गम्भीर आरोप सामने आते हैं। मैं इन आरोपों को दुहराना नहीं चाहता। ये बातें पिछले तीन वर्षों से दुहराई जाती रही हैं। आश्चर्य केवल इस बात का है कि इनकी जांच का विरोध किया जाता है। मैं अपने आदरणीय मित्र श्री सिंह से पूछना चाहता हूं कि क्या कारण है कि डाभटनागर के समय में अनेक वैज्ञानिक विश्वविद्यालयों को छोड़कर यहां आते थे और अब उन्हें यहां काम करने में भी परेशानी का अनुभव होने लगा है।

डा. किचलू एक माने हुए वैज्ञानिक हैं और यदि उन्होंने कोई शिकायत की है तो उसे वैसे ही नहीं उड़ाया जा सकता। मैं उनके पारिवारिक इतिहास के विषय में कुछ नहीं जानता। मैं स्वयं भी एक मामूली घराने का आदमी हूं। परंतु एक वैज्ञानिक के नाते उनकी प्रतिष्ठा डा. जहीर से किसी प्रकार कम नहीं है। अधिक भले ही हो। मैं शिक्षा मंत्री जी से प्रार्थना करूंगा कि जब हम एक सार्वजनिक प्रश्न पर विचार कर रहे हैं तो व्यक्तिगत राग-द्वेष या घराने की बात उसमें बाधक नहीं होनी चाहिए। असल में देखने की बात यह है कि क्या इन प्रयोगशालाओं में ऐसा वातावरण है जिसमें वैज्ञानिक अपना काम कर सकें।

मैंने वरिष्ठतम निदेशकों को अपने कनिष्ठ वैज्ञानिकों को हतोत्साहित करते देखा है। इतना ही नहीं बल्कि उनके अनुसंधान कार्य को ध्वस्त करने का भी प्रयत्न किया जाता है। ऐसे वातावरण में किसी भी वैज्ञानिक के लिए कार्य कर पाना असम्भव है। श्रीमन्, लखनऊ की औषधि अनुसंधानशाला में कुछ ही वर्ष पूर्व जो कुछ हुआ उससे आप भी भली-भांति परिचित हैं। अब कहा नहीं जा सकता कि इस स्थिति का दायित्व महानिदेशक पर है या कार्यप्रणाली पर है या भारत सरकार पर है। परन्तु यह बात निश्चित है कि वहां का वातावरण बड़ा ही दूषित हो गया है और इसकी जांच की जानी चाहिए।

मुझे पता है कि विशेषज्ञों की समितियां नियुक्त की गई थीं। परंतु ये समितियां 1963 के पूर्व नियुक्त की गईं थी और उन्होंने केवल अनुसंधान कार्य को ही देखा था। प्रशासनिक पक्ष की उन्होंने जांच नहीं की थी। अपने युवा वैज्ञानिकों पर मुझे भी गर्व है परन्तु यहां प्रशासनिक वातावरण का सवाल है जिसके कारण अनुसंधान के काम में बाधा पड़ रही है। अतः इस बात की जांच होना ज़रूरी है कि इसका उत्तरदायित्व किस पर है। यदि आप इस सीधी-सादी बात को अस्वीकार करेंगे तो इससे यही समझा जायेगा कि परिषद के गद्दीनशीन लोगों का बचाव किया जा रहा है।

जिस समय डा. किचलू वाला मामला सदन के सामने आया था उसी समय सारे मामले की जांच करा ली जाती तो सब कुछ ठीक हो सकता था। परन्तु न जाने क्यों उस समय बात को टाल दिया गया। मैं डा. किचलू या डा. जहीर दोनों में से किसी से भी परिचित नहीं हूं परन्तु माननीय शिक्षा मंत्री जी ने डा. जहीर के पक्ष व समर्थन में जो तर्क दिये थे वे मेरे गले नहीं उतर सके और मैं अब भी अनुभव करता हूं कि डा. किचलू के साथ न्याय नहीं किया गया।

मेरे मित्र श्री सिंह ने प्रकाशन और सूचना निदेशालय या संस्था की चर्चा की है। परन्तु उसमें क्या हुआ। एक व्यक्ति को जिसे कि एक अन्य पद के लिए अयोग्य घोषित किया जा चुका था विज्ञान का इतिहास लिखने को नियुक्त कर दिया गया। जब इसका विरोध हुआ तो उसे एक अन्य काम सौंप दिया गया। यह बड़े मज़े की बात है कि विज्ञान के क्षेत्र में जब कोई आदमी किसी कारणवश किसी एक काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता तो वह रातोंरात किसी अन्य चीज का विशेषज्ञ बन जाता है। इस प्रस्ताव को उपस्थित करने वाले मेरे मित्र काटजू ने यह नहीं कहा है कि वैज्ञानिक लोग काम नहीं करते। उनके सारे आरोप परिषद के प्रशासन के बारे में हैं। वे आरोप इस बारे में हैं कि नियुक्तियां किस तरह की जाती हैं। ऐसी दशा में यदि आप चाहते हैं कि इस देश में विज्ञान को उसका उचित स्थान प्राप्त हो और अनुसंधान कार्य निर्बाध रूप से चले तो आपको समिति नियुक्त करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए। आप चाहें तो उसमें कुछ विशेषज्ञों को भी सम्मिलित कर सकते हैं। परन्तु यदि आपने इस प्रस्ताव को नहीं माना तो न केवल वैज्ञानिकों को अपना कार्य करने में कठिनाई होगी बल्कि प्रशासन की कठिनाइयां भी बढ़ जायेंगी और सरकार को परिषद के दोषों का औचित्य सिह् करना भी कठिन होता चला जाएगा।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।