1962 के काफी पहले से रहा है चीन का भारत विरोधी रुख, सरकार ने ध्यान नहीं दिया, तिब्बत पर हमले के समय ही हो जाना चाहिए था सावधान
सन्दर्भ: Motion of thanks on President’s Address 20 फरवरी 1963 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर
उपसभापति महोदया, राष्ट्रपति जी ने जो सम्बोधन इस संसद के समक्ष रखा है, उसमें मैं उनका अभिनन्दन इस बात के लिए करता हूं कि प्रारम्भ में ही उन्होंने संविधान की उन धाराओं की ओर ध्यान दिलाया है जिनके प्रति हम सबने शपथ ली थी। हम ने यह शपथ ली थी कि इस देश के सामाजिक जीवन को और इस देश के राजनीतिक जीवन को उन्नत बनाने के लिए हम सतत प्रयत्नशील रहेंगे। मैं इससे भी एक कदम पीछे जाना चाहूंगा। जब सबसे पहले राज्यसभा की कल्पना मानव के मस्तिष्क में आई तो उस समय क्या हुआ? मनुष्य ने अपने अधिकारों का हनन करके, अपने अधिकारों को छोड़ करके एक संगठन बनाया जिसको हम राज्य के नाम से जानते हैं। 19वी सदी में राज्य की जो कल्पना थी वह पुलिस स्टेट की कल्पना थी। हरबर्ठ स्पेंसर और दूसरे लोगों ने उस समय जो राज्य का कर्तव्य बताया था, उसमें कहा था कि आंतरिक गड़बड़ी और वाऽ हमलों से हिफ़ाज़त करने का काम राज्य का होता है, सरकार का होता है। पुराने ज़माने में जब राज्य की कल्पना हुई थी, उसी समय से दो कल्पनाएं, दो कर्तव्य राज्य के प्रमुख माने गए थे, एक तो अंदर कोई गड़बड़ी न होने दो और दूसरे बाहर से कोई हमला न होने दो। 20वीं सदी में जब वेलफेयर स्टेट की बात चली, जब इस देश में कल्याणकारी राज्य की बात चली तो ये जो दो मौलिक मान्यताएं थीं, ये मौलिक मान्यताएं अपनी जगह पर रहीं और इनके अलावा राज्य के और काम बढ़ा दिये गये।
मुझे यह कहते हुए अफ़सोस होता है कि इस सदन में मैं कई बार यह सुन चुका हूं कि हम चीन से इसलिए लड़ाई की तैयारी नहीं कर सके क्योंकि हम निर्माण के कामों में फंसे हुए थे। हम चीन से नहीं लड़ सके क्योंकि हम इस देश को अशिक्षा से, गरीबी से, भुखमरी से ऊंचा उठाना चाहते थे। यह नया दर्शन, यह नया सिद्धांत, यह नयी फिलासिफी राज्य के कर्तव्यों के बारे में देने का गौरव हासिल है हमारे वज़ीरे-आज़म पण्डित जवाहरलाल जी नेहरू को। बड़े फ़श् के साथ यह बात दुनिया में कही जाती है कि हम शांति के देश हैं, हम महात्मा गांधी के देश के हैं, We are a gentle nation. मैं आपको बताना चाहता हूं कि राज्य का और सरकार का अगर कोई पहला कर्तव्य है तो वह यह है कि वह देश की सुरक्षा करे। जो सरकार देश की सुरक्षा नहीं कर सकती, वह सरकार सारी दुनिया में सभ्यता और शांति नहीं फैला सकती। सभ्यता और शांति फैलाने के लिए सुरक्षा का काम सबसे पहले होता है। हमें इसी संदर्भ में चीन की चुनौती को लेना है। मुझे आश्चर्य होता है जब राष्ट्रपति के संबोधन में भी कहा जाता है कि जिससे हमने दोस्ती की, उसी ने हमारे साथ दगा की और अचानक हमारे पर हमला हो गया। आखिर यह आरण्य रोदन हम कितने दिनों तक करते रहेंगे? यह हमला अचानक नहीं हुआ। वर्षों पहले इस देश को मालूम था कि चीन के लोग हमला कर रहे हैं। मैं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का अदना सिपाही हूं। मैंने सन् 1957 के नवम्बर-दिसम्बर में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री सम्पूर्णांनंद को खत लिखा था कि ताकला कोट में चीनियों का जमघट हो रहा है, चीन के लोग आ करके उत्तर प्रदेश की सीमा के अंदर लोगों को बरगला रहे हैं, सचेष्ट होइये, अपने लोगों को तैनात कीजिए।
मेरे उस खत का जवाब नहीं दिया गया। फिर वहां के चीफ सक्रेटरी को मैंने खत लिखा कि श्री सम्पूर्णानंद समझते होंगे कि मैं कोई राजनैतिक दांव चल रहा हूं, आप सरकार के वरिष्ठ अधिकारी हैं, आप इस पर कदम उठाइये। चीफ सक्रेटरी का खत आज भी मेरे पास पड़ा होगा। उन्होंने लिखा कि आप के कहने की जांच खुफिया पुलिस से करायी जा रही है। उसके बाद सन् 1959 आया। मैं आप से कहता हूं कि कम-से-कम तब इस देश के सामने स्पष्ट हो जाना चाहिए था, जब सन् 1959 में ‘‘पीपुल्स डेली’’ ने अपने एक लेख में लिखा था: Revolution in Tibet and Nehru's Philosophy. मैं उसका उह्रण नहीं देना चाहूंगा क्योंकि समय नहीं है। क्या उसन कहा? सीधे तौर पर कहा गया कि पंडित जवाहरलाल नेहरू इम्पीरियलिस्ट के एजेंट है। माननीय भूपेशजी गुप्त यहां पर नहीं हैं। आज बड़ी हमदर्दी भूपेशजी गुप्त को पंडित जवाहरलाल नेहरू जी से है। 6 मई, सन् 1959 को ‘‘पीपुल्स डेली’’ लेख लिखता है और श्री भूपेश गुप्त 8 सितम्बर, 1962 तक चुप रहते है। कांग्रेस के दोस्त जो कहते हैं कि हम अचानक खतरे में आ गये। मान लीजिये हमें पंडित जवाहरलाल नेहरू जी से उतना दर्द नहीं है, जितना आपको है, तो 6 मई सन् 1959 को आपका दिमाग खुल जाना चाहिए था। उसके बाद जिस समय हम बराबर भाई-भाई का नारा लगा रहे थे, जिस समय हम सहअस्तित्व का नारा लगा रहे थे, हमारे कम्युनिस्ट मित्र याद करते होंगे कि मास्को में एक कांफ्रेंस हुई थी, वारसा पावर्स की और उसमें रूस और चीन का झगड़ा हुआ था इस सह अस्तित्व के सवाल पर और चीन ने रूस पर हमला किया था। अप्रैल 1960 में ‘रेड ∂लैग’ जो चीन का एक कम्युनिस्ट अखबार है उसने अपने एडिटोरियल में यह लिखा था :
"We believe in absolute correctness of Leninist thinking. War is inevitable."
यह बहुत लम्बा है, इसको मैं नहीं पढूंगा। ‘रेड ∂लैग’ के इस एडिटोरियल लिखने के बाद भी कांग्रेस के लोगों ने हुकूमत की आंखें नहीं खोलीं। इसके बाद भी यह कहने का मौका रहा कि हम पर अचानक हमला हुआ। इसके साथ मैं आपको यह बताऊँ कि जिस समय दलाई लामा के लिए आटोनामी की बात हो रही थी, जिस समय दलाई लामा को आटोनामी की सुविधाएं देने की बात की जा रही थी, तो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तिब्बत के लोगों को विश्वास दिलाया था कि तुम्हारी आटोनामी कायम रहेगी, लेकिन वह नहीं रही। पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने कम से कम सात बार इस पार्लियामेंट में कहा कि तिब्बत के लोगों के साथ हमारा दिल है, हमारा दिमाग़ है। जिस समय तिब्बत के समझौते पर हस्ताक्षर कर रहे थे उस समय न सीमाओं का ध्यान आया न तिब्बत की आटोनामी का ध्यान आया। जब तिब्बत के लोग संगीनों के नीचे कुचले जा रहे थे उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू जी यहां सहानुभूति के आंसू बहा रहे थे।
महोदय, आज मैं आपसे जानना चाहता हूं, आपके ज़रिये इस सदन से जानना चाहता हूं, क्या इन बातों को फिर से दोहराने की ज़रूरत पड़ेगी? ये सब बाते क्यों की जाती हैं? आज हमारे एक मित्र ने कहा, किसी ने कहा, हां, माननीय भूपेश गुप्त ने कहा, कि ये लड़ाई की बात करते हैं, वारमांगर्स है। मुझे बड़ी प्रसन्नता है, मैं बधाई देता हूं लॉ मिनिस्टर को कि कम से कम उन्होंने सदन में खुलकर कहा कि चाइना का मामला मिलट्री का मामला है और मिलट्री के ज़रिये हल किया जा सकता है। लॉ मिनिस्टर ने वह बयान देकर कम-से-कम कुछ दृढ़ निश्चय का परिचय दिया लेकिन उस संदर्भ में जब मैं प्राइम मिनिस्टर की बात सोचता हूं तो मुझे हैरत होती है। कोलम्बो पावर्स के प्रस्ताव पर बहस करते हुए भी हर समय हमको यहां पर सबक दिया जाता है कि बात नहीं करोगे तो असभ्य माने जाओगे, दुनिया में, सभ्य देशों में बातचीत से कभी इंकार नहीं किया जाता।
मैं इतिहास का बड़ा ज्ञाता नहीं लेकिन जहां तक मुझे याद है अगर मैं गलत हूं तो आप उसको सही कर दीजियेगा कि डि वैलेरा ने इंग्लैण्ड के प्राइम मिनिस्टर से इसलिए हाथ मिलाने से इंकार कर दिया था कि वह कहते थे कि तुम्हारे हाथों में हमारे शहीदों का खून लगा हुआ है, तुम से हाथ नहीं मिलायेंगे। क्या यह सही नहीं है, क्या यह गलत है? जब हम विद्यार्थी थे तब बड़े ज़ोरों से हिन्दुस्तान में प्रचार हुआ, प्राइम मिनिस्टर नेहरू ने उस समय नेहरू प्राइम मिनिस्टर नहीं थे, देश के नेता थे राष्ट्रनायक नेहरू ने कहा था: ‘‘मुसोलिनी से बात नहीं करेंगे क्योंकि निरपराध लोगों का खून उसके हाथों के पर लगा हुआ है।’’ मैं नही जानता कि उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू कोई इंफ्रेटाइल नानसेंस कर रहे थे, मैं नहीं जानता कि उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू कोई बचकानी हरकत कर रहे थे? मैं समझता हूं कि उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू एक सिद्धांत का प्रतिपादन कर रहे थे। आज हुकूमत में आने के बाद उन सिद्धांतों का प्रतिपादन न किया जाय तो इसकी ओर सदन का ध्यान और इस देश का ध्यान जाना चाहिए।
मैं इस संदर्भ में एक बात और कहना चाहूंगा कि दुनिया में कभी-कभी मौके आते हैं और हर आदमी की ज़िन्दगी में आते हैं, हर राष्ट्र की ज़िन्दगी में आते है, जब चुनौती को स्वीकार करना ज़रूरी होता है। आप सबको याद होगा उपसभापति जी, आपको यह स्मरण होगा कि जब इंग्लैण्ड के पर विपत्ति आई तो वहां के पोयट लारियट को, वहां के राष्टन्न्कवि को, रुडयार्ड किपलिंग को एक बार सारी दुनिया के सामने कहना पड़ा:
"Once more we hear the word that sickness the earth of old. No law except the sword. Unsheathed and uncontrolled."
क्या आप समझती हैं कि रुडयार्ड किपलिंग कोई असभ्य आदमी था? क्या आप समझतीं है कि रुडयार्ड किपलिंग को साधारण मानव के प्रति कोई कम प्रेम था? लेकिन परिस्थितियों ने उसको विवश किया, उस कवि को विवश किया कि वह यह कहे। अभी इस देश के महाभारत का ज़िक्र हमारे किसी कांग्रेस के मित्र ने किया, आखिरकार गीता में भी एक समय आया जब कृष्ण को कहना पड़ा:
‘‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुक्रिाष्ठ कौन्तेय युह्ाय œतनिश्चयः।।’’
हे अर्जुन, एक बार तय करो युह् करने के लिए, अगर मरोगे तो स्वर्ग में जाओगे, अगर ज़िन्दा रहोगे तो सही मानों में प्रतिष्ठा के साथ इस दुनिया में रह सकोगे। 14 नवम्बर, 1962 को इस संसद ने एक बार रुडयार्ड किपलिंग की उसी भावना को, गीता के उसी संदेश को, दोहराया था लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने, प्रधानमंत्री ने, इस हुकूमत ने मैं इसको चार्ज करता हूं उसने उस भावना को फिर से तिरोहित करने की कोशिश की। कहा कि कोलम्बो प्रस्तावों को नही मानेंगे तो ये छह राष्ट्र हमसे नाराज़ हो जायेंगे। मैं आपको याद दिलांगा यहां पर बुज़ुर्ग लोग बैठे हुए हैं कि 1942 में अगस्त में कांग्रेस की आल इण्डिया वकंग कमेटी में ‘‘क्विट इण्डिया’’ रेजोल्यूशन आया, ‘‘करो और मरो’’ का नारा देने का सवाल आया, तब यह सवाल उस समय भी उठाया गया था। जो लोग आज शान्ति के पैगम्बर हैं, लम्बरदार हैं, उस समय उन्होंने कहा था अमेरिका हमारी स्वतंत्रता का हामी है, चीन हमारी स्वतंत्रता का हामी है, इस लड़ाई के ज़माने में अगर हम अंग्रेज़ों से लड़ाई मोल लेंगे तो चीन क्या कहेगा, अमेरिका क्या कहेगा, ये लोग क्या कहेंगे? क्या जवाब दिया था महात्मा गांधी ने? महात्मा गांधी ने जवाब दिया था मुझे यह फिर नहीं की अमेरिका क्या कहेगा, मुझे यह फिर नहीं की चीन क्या कहेगा, मुझे एक बात की फिर है कि इतिहास क्या कहेगा, और उस इतिहास के बनाने की ज़िम्मेदारी मैंने अपने कंधो पर ली है।
मुझे याद है, हमारी पार्टी के जनरल सक्रेटरी नारायण गणेश गोरे ने जब महात्मा गाँधी को आगा खां महल में एक खत भिजवाया कि अनशन तोड़ दीजिए, आपकी जान बचानी है, वह बड़ी कीमती है इस राष्ट्र के लिए, तो उपसभापति महोदया जी क्या जवाब दिया था, उस महात्मा ने उसने कहा था कि अगर तुम्हारे दिलों में क्रांति का ज़ज़्बा है तो मुझे सीख न दो, कुछ नहीं कर सकते हो तो आग़ा खां के महल के सामने आकर इस देश की आज़ादी के लिए हाराकिरी करो। अब मैंने कहा कि करो या मरो का नारा है तो उसका मतलब होता है करो या मरो का नारा। राष्ट्र के नियामक जो होते हैं वे इस तरह के होते हैं, उनका दृढ़ निश्चय इस प्रकार का होता है, हर दूसरे दिन आवाजें नहीं बदला करतीं, हर दूसरे दिन निश्चयों में परिवर्तन नहीं हुआ करते और जो हुकूमत मुझे यह कहने के लिए माफ करियेगा रोज़-रोज अपना निश्चय बदलती है वह और कुछ कर सकती है लेकिन किसी देश में लड़ाई का नेतृत्व नहीं कर सकती। यह बात मैं आपसे इसलिए कह रहा हूं कि आज ये सारे सवाल हमारे सामने आते हैं। जब यह लड़ाई का सवाल चला तब बड़े जोरों से एक नारा चला मेरी समझ में नहीं आता, मैं भी राजनीति का थोड़ा विद्यार्थी रहा हूं आज सारी लड़ाई की बात अलग, हर एक प्रवक्ता यह बोलते हैं: Non-alignment has stood the test of time. क्या मतलब है? नानएलाइनमेंट का सवाल कहां है? इस देश में दो, चार, दस लोगों को छोड़ दीजिए सब लोगों ने कहा कि नानएलाइनमंट की पालिसी सही है लेकिन क्या नानएलाइनमेंट के मतलब यह होते हैं कि चीन के मामले में भी हम नानएलाइन्ड हैं? जहां तक रूस का, अमेरिका का, सवाल है, जहां तक पावर ब्लाक्स का सवाल है, उसमें हमारी नीति तटस्थता की नीति है, उन दो में सघर्ष होगा तो उस समय परिस्थिति के पर विचार करके औचित्य के पर हम फैसला करेंगे लेकिन क्या इसी तरह की भूमिका, इसी तरह की मनोवृत्ति हमारी चीन के साथ भी रहने वाली है। यह सारा घपला क्यों होता है? यह सारी गफ़लत क्यों होती है? इसलिए की चीन केवल हमारा दुश्मन नहीं है चीन रूस का एलाई है और रूस का सहयोगी होने के नाते अगर हम चीन के खिलाफ कुछ सख्त कदम की बात कहेंगे तो हम यह समझते हैं जो कि माननीय भूपेश गुप्त जी कह रहे थे कि रूस नाराज़ हो जायेगा। अगर रूस से हमारी मित्रता ऐसी है तो मैं नहीं जानता कि यह मित्रता कितने दिनों तक चलने वाली है। एक और बात ज़ोरों से उठाई जाती है मैं नहीं जानता कि कश्मीर के सवाल के पर कुछ बाहरी देश दबाव डाल रहे है। एक महिला हैं, मैं नाम नहीं लेना चाहूंगा, बड़े ओहदे पर हैं, सारे राष्ट्र में उनकी इज़्ज़त है, लखनऊ यूनिवर्सिटी में उन्होंने भाषण देते हुए कहा लद्दाख के लिए हम कश्मीर को दान देने के लिए तैयार नहीं है। मैं नहीं जानता इस देश का एक ज़िम्मेदार आदमी, एक ज़िम्मेदार पुरुष या महिला इस तरह का बयान दे तो जो लोग आज आपकी मदद कर रहे हैं क्या सोचेंगे मैं यह नहीं कहता कि उनकी गोद में जाकर आप बैठ जाइये, मगर हमारे यहां शास्त्रों में कहा गया है कि जो अपने मित्र को मित्र नहीं मानता और जो अपने दुश्मन को दुश्मन नहीं मानता वह मूढ़ है, वह नीच है। मैं नहीं जानता ये लोग मूढ़ हैं या नीच हैं लेकिन दोनों में ज़रूर कुछ है। या तो समझते नहीं है या जानबूझ करके वह शब्द आ रहा है लेकिन नहीं कहूंगा जानबूझ करके वास्तविकता से दूर रहते हैं।
इस सिलसिले में मैं एक बात आपसे और कहना चाहूंगा। कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जैसा माननीय पटेल जी ने कहा उसे प्लैकेट करने की कोशिश की जा रही है और बड़े जोरों से बात कही जा रही है कि सोवियत यूनियन जो है उसने तो हमारे साथ बड़ी दोस्ती की है, उसके साथ हमारा रिश्ता बड़ा अच्छा है और उससे हमें बड़ी उम्मीदे हैं। मैं ज़रूर चाहता हूं कि सोवियत यूनियन के साथ हमारा रिश्ता रहे लेकिन कम्युनिस्ट दर्शन को समझने में भूल नहीं होनी चाहिए। माननीय लाल बहादुर शास्त्री जी ने इसी सदन में कहा था कि जनसंघ के लोग कहां थे आज़ादी में, कम्युनिस्ट तो सौ फीसदी राष्ट्रभक्त हैं। उन्होंने कहा था कि यह करिश्मा हमारी सरकार को हासिल है कि कम्युनिस्टों से इस प्रस्ताव का समर्थन करा लिया। मैं लाल बहादुर शास्त्री जी की बड़ी इज़्ज़त करता हूं लेकिन मैं बहुत अदब से कहूंगा कि उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास नहीं पढ़ा हैं या पढ़ करके उसे समझने की कोशिश नहीं की है। कम्युनिस्ट पार्टी जो रूस की है उसकी बाइसवीं कांग्रेस का जो सबसे नया मसौदा है उसका एक उदाहरण मैं ज़रूर पढ़ना चाहूंगा। कम्युनिस्ट पार्टी आज सोवियत यूनियन क्या हैः
"The success of the struggle which the working class wages for the victory of the revolution will depend on how well the working class and its party master the use of all forms of struggle-peaceful and non-peaceful, parliamentary and extra parliamentary-and how well they are prepared to replace one form of struggle by another as quickly and unexpectedly as possible."
तो कम्युनिस्ट पार्टी को निर्देश है सोवियत यूनियन का कि दोनों फार्म में विश्वास करो। यह सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी के 22वें कांग्रेस की जो पालिसी स्टेटमेंट है। उसका उह्रण है कि दोनों फार्म में हम इसको स्वीकार करते हैं और कितनी जल्दी हम उसको बदल देंगे यह हमारी क्रांतिकारिता के पर मुनहसिर करता है।
उपसभापति महोदया, इस दृष्टि से सारी कम्युनिस्ट पार्टी के रवैये को हमको और आपको और सारे देश को सोचना चाहिए। हम जब कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध करते हैं तो केवल इसलिए नहीं कि कोई व्यक्तिगत द्वेष है, कोई इसलिए नहीं कि राजनीति में कोई ऐसी होड़ लगी है कि कल राजगद्दी पर उनके और हमारे आने में झगड़ा है। लेकिन मौलिक बातों पर हमारा ध्यान जाना चाहिए। जहां तक कम्युनिस्ट पार्टी के स्टेटमेंट का सवाल है, लीडरों का सवाल है, कम्युनिस्ट पार्टी के 104 सदस्य आल इण्डिया जनरल काउन्सिल में है, 42 लोग जेल के अंदर हैं, 62 लोग प्रस्ताव पास करते हैं तब भी यूनेनिमिटी नहीं हो पाती है। आप इससे समझिये कि कम्युनिस्ट पार्टी का क्या रवैया है। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माननीय भूपेश गुप्त जी एक बार मुझसे नाराज़ हो गए जब मैंने कहा था कि ये लोग विश्वास नहीं करते इन सब बातों में। लेकिन मैं कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में और किसी का उदाहरण नहीं देना चाहूंगा। एक किताब पीसी. जोशी की लिखी हुई है जो आज उनके एक सम्मानित नेता हैं। पी.सी. जोशी ने 11 फरवरी 1950 को अपनी सेन्टन्न्ल कमेटी को एक खत लिखा, उस समय कम्युनिस्ट पार्टी के लीडरों से उनका झगड़ा चल रहा था। उन लीडरों के बारे में उन्होंने लिखाः
"They are liars, cold-blooded liars. They make false statements without a blush. They suppress true evidence without a prick of conscience."
यह कम्युनिस्ट पार्टी के लीडरों के बारे में कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर का सटफिकेट है। इसमें और बहुत सी बाते है जिसको मैं नहीं पढूंगा। मेरे पास समय नहीं है। मैं आपसे कहूंगा कि कम से कम हमारी आवाज होम मिनिस्टर साहब तक पहुंचा दें कि कम्युनिस्ट पार्टी इतिहास को और कम से कम हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास को अगर सारी दुनिया का नहीं, फिर से नये सिरे से पढ़ें। लेकिन एक बात इस सिलसिले में मैं और कहूंगा कि यह जो लड़ाई है केवल हथियारों की लड़ाई नहीं है केवल एक डिप्लोमेसी की लड़ाई नहीं है। एक दूसरे पराये पर भी लड़ाई लड़ी जा रही है जिस का बराबर इस्तेमाल हमारे भूपेश गुप्त जी करते हैं इस देश के करोड़ों लोग जो भूखे हैं जो पीड़ित हैं जिन की आह है जिन के आज अरमान हैं आज़ादी के बाद उभरे हुए उन अरमानों को आज पूरा करने की ज़रूरत है। इस स्तर पर भी हमें कम्यूनिस्ट पार्टी को जवाब देना पडेगा। अगर हम गरीब की इच्छाओं, आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सके तो हम नहीं जानते यह लड़ाई हम कितनी दूर तक लड़ सकेंगे। मैं आप से अर्ज करना चाहूंगा कि इसी राय में देश की आन्तरिक बातों को भी हमें लाना पड़ेगा। जहां हमे वाऽ सुरक्षा की जरूरत है वहां अतिरिक्त परिस्थितियों को भी संभालने की ज़रूरत है। मुझे यह कहते हुए अफसोस है कि उस दिशा में भी हमारी सरकार कुछ करने में नाकामयाब रही है और इसकी वजह यह नहीं है कि कोई इनकी नीयत नहीं है। उनको गंतव्य स्पष्ट नहीं है मंजिल उनकी आंखों के सामने साफ नहीं है। समाजवाद की तो बात करते है लेकिन समाजवाद की बात करते समय भी पंडित जवाहर लाल जी नेहरू जो हमारे देश के वज़ीरे आज़म हैं वे जहां अन्तर्राष्टन्न्ीय मामलों में कन्∂यूज़्ड हैं वहीं आंतरिक मामलों में भी उनकी दृष्टि स्पष्ट नहीं है। मैं पंडित जवाहरलाल जी की बड़ी इज़्ज़त करता हूं। एक ऐसे आदमी की किताब से कोट कर रहा हूं जिस पर किसी को ऐतराज नहीं होगा। ये हैं टिवर मेन्डे साहब ‘चाइना एण्ड हर शैडो’ के बड़े मशहूर लेखक। उन्होंने पंडित जवाहर लाल जी नेहरू के पर जो किताब लिखी, चैदह भाषाओं में उस किताब का तर्जुमा शाया किया गया और बड़ी शोहरत हुई और बड़ी प्रशंसा उन्होंने नेहरू जी के बारे में की है। हिन्दुस्तान की सारी समस्याओं का चीन के संदर्भ में जिक्र करते हुए इस किताब में उन्होंने कहा कि गरीबों के सवाल को हल करने में हिन्दुस्तान में जो सुस्ती दिखायी जा रही है उसके भयावह परिणाम होंगे। वे हमारे साथ सहानुभूति रखने वाले है। लेकिन उसके बाद उन्होंने कहा हैः
"Mr. Nehru, Indian by birth but his formation deeply marked by British liberal ideas, has tended to act as it were as the first Indian Viceroy of independent India. He has been more concerned to stabilize than to prepare internal forces for fast enough change. His task would not have been easy. Yet in of the existing coalition of the forces of conservation, nobody else commands in the foreseeable future any comparable degree of authority or the trust of the masses. Whatever external prestige his statesmanship could gain for India, it does not compensate for unsolved basic problems at home."
आप यह देख रहे हैं कि टिवर मेन्डे साहब ने नेहरू जी की तारीफ की है लेकिन इसके साथ उनकी जो सीमाएं हैं जो उनका कालिमिटेशन है उसका ज़िक्र करते है तो हमारे मित्र भूपेश गुप्ता जी कहते है:
'Reactionary forces are gaining ground. You must be careful.'
होता क्या है? यह पंडित जवाहर लाल नेहरू का कांग्रेस का, और इस देश का अभाग्य है कि सारे काम सौंप दिये हैं एक आदमी के हाथों में या तो देश बनेगा जवाहर लाल जी के जरिये अगर देश नहीं बनेगा तो जवाहरलाल जी के जरिये।
अभी पिछले दिनों बार-बार यह बात कही गई है। इस देश में इमरजेन्सी पावर का इस्तेमाल होगा दो कामों के लिए। एक तो इस्तेमाल हुआ नेहरू जी की आलोचनाओं को बन्द करने के लिए, एक इस्तेमाल हुआ नेहरू जी की तारीफ करने के लिए। नेहरू जी की आलोचना बन्द करने के लिए दिल्ली के तीन नागरिक गिर∂तार किये गए जो राष्टन्न्वादी थे, जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया था, सिवाय इसके कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की उन्होंने आलोचना की है। लेकिन उसकी दूसरी तरफ, आप याद रखिए, भूपेश गुप्ता जी को बड़ी नाराज़गी है कि बहुत से कम्युनिस्ट गिर∂तार किये गये। लेकिन उसका ज़िक्र उन्होंने नहीं किया कि पंजाब में तेजा सिंह स्वतंत्र पंडित जवाहरलाल नेहरू के इन्टरवेन्शन पर छोड़ दिये गए है। मैं अपनी और से नहीं कर रहा हूं। 2 फरवरी के ‘टिन्न्ब्यून’ में और हिन्दुस्तान के सारे अखबारों में तेजा सिहं स्वतंत्र का बयान छपा है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इन्टरवेन्शन किया कि पंजाब और उत्तर प्रदेश की सरकारें उनके खिलाफ से वारन्ट वापस लें। मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं महोदया, कि यू.पी. में रामनगर में बैंक डकैती केस हुआ, उसमें दो लोग मारे गए, कई लाख रुपये की डकैती हुई, पन्द्रह लोग आज उसमें टन्न्ान्सपोर्टेशन फार लाइफ का इम्ज़िसनमेंट भुगत रहे हैं। उनको छोड़ने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू वज़ीरे आज़म जो डीसेन्सी और डिकोरम के सिम्बल हैं, उन्होंने उत्तर प्रदेश के चीफ मिनिस्टर को खत लिखा कि उनके खिलाफ से यह केस वापस लिया जाना चाहिए। उन्होंने इंकार किया कि होम मिनिस्ट्री और जुडीशल ब्रान्च इसके लिए तैयार नहीं है। दूसरा खत लिखा गया और उस खत को लिखने के बाद यू.पी. सरकार इस बात के लिए मजबूर की गयी कि डकैती कम मर्डर केस के मुजरिम को छोड़ दें। किसके लिए? इसलिए कि सोवर एलीमंट को कम्युनिस्ट पार्टी में प्रोत्साहन देने के लिए। पंजाब की कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रेटरी सुरजीत सिंह ने अभी चाइना के मसले के पर कम्युनिस्ट पार्टी की सक्रेटरीशिप से इस्तीफा दे दिया था, उनको काउन्टर एक्ट करने के लिए तेजा सिंह स्वतंत्र के पर से कत्ल और काइटी का मुकदमा वापस ले लिया गया। ये इमरजेंसी पावर है। यह कानून की विœति की हालत है, यह अन्याय की हालत है। आखिरकार मैं आप से यह जानना चाहूंगा कि यह जो हमारे राष्ट्रपति महोदय ने प्रारम्भ में ही इसका उद्बोधन करते हुए कहा, तो क्या इसी नज़रिये से, क्या इसी दृष्टिकोण से, क्या इसी मनोभावना से हम इस देश में समता का, स्वतंत्रता का, समाजवाद का राज कायम करना चाहते हैं? क्या यही भावनाएं हमको आगे ले जाने वाली हैं।
महोदया, इस सिलसिले में मैं आपसे यह जिक्र करूं कि ये पंचवर्षीय योजनाएं, जिसका बड़ा ज़िक्र हुआ और बड़ा ढोल पीटा गया कि बड़ी तरक्की हुई, मैं नहीं जानता हूं कहां यह तरक्की हुई। कृषि के क्षेत्र में आप ले लीजिए, बड़े जोरों से आज से नहीं 1930,1932 से कांग्रेस ने यह कहा था कि भूमि सुधार होने चाहिए, जमीन उसके हाथ में होनी चाहिए जो जमीन का मालिक है।
एक बार नहीं, दस बार कांग्रेस कमेटी के प्रस्ताव में ये बात आई। आज क्या हालत है? नेशनल सर्विस सेम्पुल के फिगर्स है कि आज जमीन किनके हाथों में है, जमीन उनके हाथों में है जिनके हाथों में कूबत नहीं है, जमीन पर मेहनत करने की हमारे देश में 75 फीसदी लोग ऐसे कृषक हैं जो या तो बेज़मीन हैं या उनके पास एक एकड़ से कम ज़मीन है। यह सारे हिन्दुस्तान की स्थिति है जो पिछले पन्द्रह वर्षों की लाजवाब सफलता, कामयाबी इस हुकूमत ने हासिल की है। इस देश के एग्रिकलचरिस्ट पापुलेशन, कृषक आबादी के, 45 फीसदी लेाग ऐसे हैं जिनके पास कुल जमीन का एक फीसदी हिस्सा है। 60 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनके पास 15.3 फीसदी जमीन हैं। 12.5 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनके पास 17.34 फीसदी जमीन है। 11.54 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनके पास 46 फीसदी जमीन है और एक फीसदी लोग ऐसे है जिनके पास कुल जमीन का 20 फीसदी है। यह भूमि सुधार की हालत है इस देश की। जहां तक उत्पत्ति का सवाल है मैं उसके आकड़े में नहीं पडूंगा क्योंकि मैंने आपका बहुत समय ले लिया है। मैं यह कहना चाहता हूं कि 1700 करोड़ रुपये की पूरी एग्रीकल्चर आय है, पूरी कृषि आय है हमारे देश की, जिसमें से तीन फीसदी लोगों की आय 462 करोड़ रुपये है यानी 27 फीसदी है। इस देश की एग्रिकल्चर इन्कम, कृषि आय, का इस तरह से बंटवारा है। यह मेरे अपने फिगर्स नहीं है, ये फिगर्स के.एल. राज साहब के है जो दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकानाॅमिक्स के डायरेक्टर हैं। वे हमारी पार्टी के कोई मेम्बर नहीं है, न सरकार के मुखालिफ ही हैं, इतना आपको मालूम होना चाहिए। यही नहीं, भूमिहीनों की आमदनी भी कम हुई है और उनके पर कर्ज का भार बढ़ा है। ये सारी बातें सरकारी रिपोर्ट में कही गयी हैं।
अब इसके बाद कम्युनिटी डवलपमेंट के बारे में कहना चाहता हूं जिसका बड़े ज़ोरों से ज़िक्र किया गया है। कम्युनिटी डवलपमेंट और पंचायती राज के सिलसिले में क्या है। अभी पंजाब में एक सर्वे हुआ था। पंजाब की पंचायत कमेटियों में 600 से ज़्यादा आमदनी वाले लोग जिनकी आबादी पूरे पंजाब की आबादी की 12.2 फीसदी है वे 41.7 फीसदी स्थानों पर कब्ज़ा किये हुए हैं। जिनकी आमदनी 150 रुपये से कम है वे 62.9 फीसदी है। लेकिन वे लोग जो पंचायतों में कब्ज़ा कर पाये वे बेचारे 23.6 फ़ीसदी थे। इस तरह से पंचायतों का हाल है। यही नहीं दूसरी तरफ़ डा. एस.सी. दूबे जो मंसूरी इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हैं, उनका क्या कहना है
"Nearly 70 per cent of its benefits went to the elite group and the more affluent and influential agriculturist."
यह हालत है इस देश का। यही नहीं श्री टिवरमेंड साहब एक दूसरी बात कहते हैं। इस तरह की बात कोट करने पर आप मुझे क्षमा करेंगे। लेकिन आप यह समझिये कि देश का मानस क्या बन रहा है? देश का मानस यह बन रहा है जो कि एक विद्वान आदमी निष्पक्ष रीति से सोचता है। देश के बारे में जो नियम बनते हैं, हमारे जो सुधार के कानून बनते हैं, उनको दृष्टि में रखकर श्री टिवरमेंड साहब का क्या कहना है:
"The major obstacles to India's agricultural progress, however, are human rather than natural. The existing economic and social structure of Indian agriculture rather than to stimulate the cultivator's initiative tends to discourage it. The majority of legislators in India's central parliament or in her provincial assemblies are either land owners or money-lenders themselves, or are spokesmen of their interests."
इस तरह से हमारे बारे में दुनिया की धारणा बन रही है। मैं आपको बताना चाहता हूं कि इसी धारणा से हम नये समाज की रचना करने जा रहे हैं। मैं एक मिनट में एक कोटेशन कह कर ख़त्म कर दूंगा और इसके लिए आप मुझे माफ़ करेंगे। सन् 1921 की कौसिंल आॅफ़ स्टेट की प्रोसीडिंग्स की प्रीफ़ेस लिखते हुए श्री एल. प्राइस इस प्रकार लिखते हैं:
"From all this I deduce that an economic conflict is imminent between the cultivators and the industrialists of India, and that the dice are loaded in favor of the industrialists because the agricultural interests threatened are not awake to the situation, a situation which if prolonged will give everybody in India chances to improve their economic position except the people on the land,-except the great majority.
यह बात 1921 में कही गयी थी, 42 वर्ष पहले यह चेतावनी दी गयी और उस समय क्या राय थी? उस समय स्मिथ साहब थे, उन्होंने क्या कहा था? उस समय उन्होंने कहा था:
"Burn down your cities and leave our farms, and your cities will spring up again like magic. But destroy our farms, and grass will grow over the streets of your cities."
इसमें अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन इसमें कुछ सच्चाई भी है। जब इस संसद में सवाल उठाया जाता है माननीय भूपेश गुप्त ने आज भी ज़िक्र किया कि किसानों का जो रुपया मिल मालिकों के पर बाकी है उसको वसूल करने के लिए सरकार क्या कर रही है? हमारे खाद्य मंत्री कहते हैं कि वसूल करने की कोशिश की जा रही है। अगर एक गरीब कृषक के पर पांच रुपया टैक्स का बाकी रह जाता है तो वह जेल भेज दिया जाता है। पांच करोड़ से अधिक रुपया एग्रिकलचरिस्टों का इंडस्टिन्न्यलिस्ट और शुगर मिल मालिकों के पर है और उनको वसूल करने के लिए सरकार क्या कर रही है? इस बात को छोड़ दीजिये, चार वर्षो से इस देश की हुकूमत यह कहती चली आ रही कि देश में चीनी अधिक पैदा होनी चाहिए। देश में गन्ना अधिक पैदा किया जाना चाहिए। इस पर œषकों ने अधिक गन्ना पैदा किया और दो साल बाद कहा गया कि जो गन्ना अधिक पैदा हो गया है उसको जल जाने दो। उसका हम इन्तज़ाम नहीं कर सकते हैं, क्या गवर्नमेंट की ज़िम्मेदारी नहीं है खपत करने की?
इस पर लोगों ने खांडसारी और गुड़ की इंडस्ट्री कायम की। आज इस साल क्या हुआ। गन्ना कम बोया गया, गन्ने की पैदावार कम हो गयी और कृषक चाहता है कि खांडसारी और गुड़ में उसको कंवर्ट कर दिया जाये तो आज हुकूमत की ओर से दबाव दिया जाता है कि तुम्हें मिल मालिकों के पास गन्ना पहुंचाना पड़ेगा, ज्यादा गन्ना देना पडे़गा। ऐसा क्यों होता है? क्या इसलिए नहीं कि आज मिल मालिक संगठित हैं और वे सरकार के पर हावी हैं। मैं श्री भूपेश गुप्त की इस बात से इत्तफ़ाक़ करता हूं कि आज सरकार की ज़हनियत को कण्ट्रोल करने वाले बिरला साहब हैं। इस सरकार की ज़हनियत को कण्ट्रोल करने वाले पूंजीपति और सरमायादार हैं और जब तक वह इस बंधन में अवरूह् रहेगी तब तक कम्युनिस्ट चीन से लड़ना मुश्किल है। मैं इस बात को इसलिए कहता हूं कि चाहे मेरी आवाज़ में ताकत हो या न हो, लेकिन मैं आपसे यह ज़रूर कहना चाहता हूं कि इतिहास के सामने यह गवाही रहे कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के लोगों ने इस हुकूमत को चीन के बारे में चेताया था लेकिन उसका मखौल उड़ाया गया। हिन्दुस्तान के लोगों के सामने यह गवाही रहे कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के लोगों ने गरीबी, निर्धनता, भूख, अशिक्षा, बेरोज़गारी और बीमारी के खिलाफ़ चेताया था लेकिन इस हुकूमत ने ध्यान नहीं दिया।
जहां तक स्वास्थ्य की बात है, मैं एक मिनट मैं कहकर उसे खत्म कर दूंगा। स्वास्थ्य के मामले में कहा गया है कि मलेरिया का देश से उन्मूलन कर दिया गया है। मलेरिया के उन्मूलन की बहुत सी स्कीमें बनायी गयी लेकिन उपसभापति महोदया, आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि जब यू.पी. विधान परिषद में एक प्रस्ताव डाए.जे. फरीदी द्वारा लाया तो वह गिरा दिया गया। डा. फरीदी हमारी पार्टी के वहां पर नेता हैं और एक मशहूर डाक्टर हैं। वे विधान परिषद में इस तरह का प्रस्ताव लाये थे कि लड़कों को मलेरिया के साथ चेचक और दूसरी बीमारियों के भी टीके लगा दिये जाने चाहिए। इस प्रस्ताव पर बहस हुई लेकिन वह गिर गया। आज क्या हालत है? आज उत्तर प्रदेश में कई हजार आदमी स्माल पाक्स से मर गए हैं। हमारे देश में चेचक उन्मूलन की बात हो रही है लेकिन क्या यही नियोजित व्यवस्था है? जब एक बार वैक्सीनेशन करने के लिए आता है तो मेरी समझ में यह बात नहीं आती है कि यह किस तरह का नियोजन है, कौनसी प्लानिंग है और कौन सा स्वास्थ रक्षा का इंतज़ाम है? वैक्सीनेशन कोई एक्सपर्ट का काम नहीं है। जब कोई आदमी मलेरिया उन्मूलन के लिए डी.डी.टीछिड़कने जाता है और अगर उसके पास स्माल पाक्स की दवा होती तो वह वैक्सीनेशन का भी काम कर सकता है। लेकिन इस तरह की कार्रवाई नहीं की गयी और आज हमारा देश स्माल पाक्स से बर्बाद हो रहा है।
मुझे आश्चर्य हुआ जब मैंने उत्तर प्रदेश के अधिकारियों से इस बारे में बातचीत की। उन्होंने कहा कि पिछले साल हैजे पर तो कण्ट्रोल कर लिया गया था लेकिन इस साल गस्ट्रो एंटेरितिस से परेशानी बढ़ गई। गस्त्रोएन्तेरितिस और हैजे में क्या फर्क है? मैं कोई एक्सपर्ट नहीं था इसलिए मैंने इस बारे में मेडिकल काॅलेज के प्रिंसिपल से बातचीत की और डा. फरीदी साहब से भी मिला और उनकी समझ में भी कोई बात नहीं आई। यह जो बारीकी स्वास्थ्य विभाग वाले निकालते है कि हैजा तो खत्म हो गया है लेकिन गस्ट्रो एंटेरितिस बाकी है। इसलिए कि एक समय जुनून में जो बात आती है उसमें वह बात कह दी जाती है और उसके बाद उस बात को खत्म कर दिया जाता है। एक बात का ज़िक्र हमारे किसी एक मित्र ने किया कि यह जो दो प्रांतों के बीच की लड़ाई चल रही है, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच में, उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच में, उसमें क्या हो रहा है। ये छोटे-छोटे मसले वर्षों से अटके हुए हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा का जो झगड़ा है उस पर सन् 1946 से बहस चल रही है। स्वर्गीय पंडित गोविन्द वल्लभ पंत के नेतृत्व में एक कमेटी बनी, कुछ उसने फाइंडिग्स दीं और उस पर दोनों सरकारें एक बार सहमत भी हुईं। फिर कुछ अड़चनें आ गयी उसके बाद क्या किया गया? प्रधानमंत्री जी को उसमें पंच मान लिया गया, आकटेन्न्टर मान लिया गया। उन्होंने सी.एल. त्रिवेदी साहब को आकटेन्न्टर नियुक्त कर दिया। महीनों बीत गए, सारी फाइलें पड़ी हुई हैं, कागजात पड़े हुए हैं और उसका अभी तक फैसला नहीं हो सका है।
रिहंद डैम के लिए हमारे भाई खांडेकर साहब और चैरड़िया साहब रोज लड़ाई लड़ते हैं। इनको मालूम नहीं है कि रिहंद डैम की स्थापना इसलिए की गयी थी कि पूर्वी जिले जो गरीब है उनकी कृषि के लिए बिजली दी जाये। लेकिन उस रिहंद डैम का बिजली का बड़ा हिस्सा बड़े सस्ते दाम पर बिड़ला साहब को दिया जा रहा है। आज से नहीं, पहले से कांटन्न्ैक्ट हो चुका है, समझौता हो चुका है। क्या ये सारी नियोजन की बातें है?
अन्त में मैं एक बात और कहूंगा। अभी उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में एक टीम जांच करने के लिए गयी थी। वह कैसे गयी थी, दूसरे सदन में एक माननीय सदस्य ने यह कह दिया कि पूर्वी जिलों की आथक स्थिति बड़ी खराब है, वहां दो आने मजदूरी मिलती है। इससे प्रधानमंत्री जी चैंक पड़े। ऐसा मालूम हुआ कि पूर्वी यू.पी. कोई न्यूफाउंडलैंड हो और जैसे पहली बार उन्होंने देखा हो। सन् 1957 में फूडग्रेन्स इनक्वायरी कमेटी की अशोक मेहता साहब की अध्यक्षता में रिपोर्ट निकली। पंडित जवाहरलाल नेहरू जी की हुकूमत ने उस कमेटी को नियुक्त किया था उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट मे कहा है मैं उसको नहीं पढूंगा कि ये 15 पूर्वी ज़िले जो उत्तर प्रदेश के हैं, इनकी स्पेशल जांच होनी चाहिए। उसके साथ उड़ीसा का ज़िक्र किया, मद्रास के रायलसीमा या किसी इलाके का ज़िक्र किया। पहाड़ी इलाकों का, बुंदेलखण्ड का, मध्य प्रदेश का ज़िक्र किया स्केयरसिटी एरियाज करके इस किताब में एक पूरा चैप्टर है। मुझे नहीं मालूम कि यह कागज़ क्यों बर्बाद किया जाता है और प्राइम मिनिस्टर उसे पढ़ते हैं या नहीं। उनके पास निवेदन किया गया। सारे उत्तर प्रदेश में तीन-चार हज़ार लोग जेल गये। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी ने उस समय जवाब दिया था कि जो कानून तोड़ेगा उसको जेल भेज दिया जायेगा। लेकिन आज प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी यह कह रहे हैं कि क्या ऐसे पूर्वी जिले भी है जहां दो आने मजदूरी है? जो चार लोगों की टीम गयी है जांच करने के लिए। अब गुलजारी लाल नन्दा जी आने वाले हैं। मैं यह कहना चाहूंगा कि यह जो बैकवर्ड एरिया है स्केयरसिटी एरिया है, इसके लिए रीजनल प्लान बनना चाहिए।
एक टीम जाने से काम नहीं चलेगा। एक्सपट्र्स की इनवेस्टिगेशन टीम जानी चाहिए। जो वहां की समस्याओं को समझे और बैकवर्ड इलाकों के लिए, स्केयरसिटी इलाकों के लिए, उन हिस्सों के लिए एक अलग प्लान बनाये।
अन्त में मैं यह निवेदन करूंगा कि राष्ट्रपति ने जो उद्बोधन किया है और उस उद्बोधन का जो आखिरी वाक्य है कि यह देश जाग्रत हो, यह देश तत्पर हो, काश! ये शब्द प्रधानमंत्री श्री नेहरू की समझ में आ जाते, काश यह वाक्य यह सरकार ॉदयंगम कर पाती, तो इस देश का भविष्य संवर जाता और यह देश, यह समाज और यह सरकार अपने कर्तव्यों का पालन करने में ज़्यादा सफल होती।