मानवीय चेतना कभी बंदी नहीं बनायी जा सकती, उसे दबाने की कोशिश करने वाला शासन मिट जाएगा
संदर्भ: Reinstatement of Central Govt. Employees who participated in strike 27 अप्रैल 1962 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर
उपसभापति महोदय, मैं इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए खड़ा हुआ हूं, जिसको माननीय श्री वाजपेयी जी ने इस सदन के समक्ष रखा है। मुझे इस बात से आश्चर्य हुआ है कि जब इस प्रस्ताव पर सदन में भाषण किये जा रहे थे तो शासन की ओर से, उन पुरानी बातों को दोहराया जा रहा था जिन्हें बार-बार इस सदन में और देश के सामने रखा जा चुका है। यह बात फिर कही गयी है कि यह जो हड़ताल हुई है वह एक राजनीतिक हड़ताल थी। हमारे एक माननीय सदस्य ने तो यहां तक कहा कि इस हड़ताल को कराने का श्रेय, इस हड़ताल को कराने की ज़िम्मेदारी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के पर थी।
मैं आपके द्वारा उन माननीय सदस्य से यह कहना चाहूंगा कि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के कुछ सम्मानित सदस्य टेन्न्ड यूनियन मूवमेंट में काम करते हैं और उन्होंने हड़ताल के सिलसिले में जो कुछ किया, उस पर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी अपने को गौरवान्वित मानती है। लेकिन प्रजा सोशलिस्ट पार्टी यह नहीं मानती है कि किसी राजनीतिक मोटिव से या किन्हीं राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर उसने यह काम किया। आज बड़े जोरों से शासन की ओर से कहा जाता है कि जो गैर-कानूनी हड़ताल हुई, उसे दबा दिया गया है और इसके साथ यह भी कहा जाता है कि जो लोग गैर-कानूनी काम करेंगे, उन्हें भी दबा दिया जायेगा। हमारे एक माननीय सदस्य ने यहां तक कहा कि हम में वह शक्ति है कि अगले आने वाले दिनों में जो लोग इस तरह की आवाज़ उठायेंगे उन्हें हमेशा के लिए दबा दिया जायेगा। मैं आपके ज़रिये उन माननीय सदस्य को बताना चाहता हूं कि मानवीय चेतना कभी भी बन्दी नहीं बनायी जा सकती, मानवीय परिन्दा कभी पिंजड़े में बन्द नहीं किया जा सकता। बड़ी से बड़ी शक्तियां दुनिया में आईं, लेकिन वे मनुष्य की चेतना को कभी दबा नहीं पाईं। जो मुनष्य की चेतना आज बढ़ रही है, जो मानव की संवेदना आज जाग रही है, उसको दबाने की कोशिश अगर कोई भी शासन करेगा और खास तौर से जमहूरियत के अंदर तो वह शासन मिट जायेगा। दुनिया की कोई ताकत उसको नहीं रोक सकती। माननीय रेलवे मंत्री जी, जो यहां बैठे हुए हैं, मैं उनसे कहूंगा कि मज़दूरों ने ग़लत किया या सही किया, मैं इस विवाद में नही पड़ना चाहता, लेकिन यह सवाल पूछना चाहता हूं कि ग़रीब मज़दूरों के लिए जो आपका जोश, शक्ति और हिम्मत है, क्या वही आप अपने शासन के उच्चाधिकारियों के लिए भी रखते हैं। यह रेलवे आॅडिट रिपोर्ट है। कोई भी माननीय सदस्य इसके पीछे को उलट करके देखें, तो उनको हर पींो पर दस-दस, बीस-बीस और पच्चीस-पच्चीस लाख रुपये का ग़बन और गैर-ज़िम्मेदारी से खर्च करने की बात दिखाई देगी।
इस रिपोर्ट के 15वें पेज पर लिखा हुआ है कि एक मामले में आठ महीने तक कोई आॅर्डर ने देने की वजह से और रेलवे बोर्ड की कमज़ोरी की वजह से रेलवे प्रशासन का छह लाख रुपया बर्बाद हो गया। एक माननीय सदस्य ने कहा कि हड़ताल के कारण रेलवे का बड़ा भारी नुकसान हुआ। यह छह लाख रुपये की ज़िम्मेदारी जिस रेलवे बोर्ड के पर है, मैं रेलवे मंत्री जी से जानना चाहूंगा कि क्या उस रेलवे बोर्ड के सदस्यों को मुअत्तल किया जायेगा या उस समय जो माननीय रेलवे मंत्री थे, क्या उनको प्रशासन के लोग मुअत्तल करने के लिए तैयार हैं। नहीं तैयार है। वे यह कहेंगे कि यह नया देश है, नया प्रजातंत्र है, जमहूरियत में हम नयी बाते सीख रहे हैं, इसलिए ग़लतियां होती हैं। हम थोड़े समय में सीख लेंगे। उच्चाधिकारियों के लिए यह बात कही जाती है। मंत्रियों के लिए यह बात कही जाती है। लेकिन यह बात तब नहीं कही जाती है जब मामला छोटे कर्मचारियों का हो। उन कर्मचारियों के लिए जो इस राष्ट्र को बनाने के ज़िम्मेदार हैं, जो इस देश के भावी निर्माता हैं।
हमारे एक माननीय सदस्य ने, जो उस समय शायद श्रम विभाग के उपमंत्री थे, बड़ी बधाई दी। आई.एन.टी.यू.सी. का निर्माण स्वतंत्रता हासिल करने के बाद नहीं हुआ था, बल्कि चम्पारन के मैदान में हुआ था। इस प्रकार गांधी जी का नाम लिया गया और चम्पारन की याद दिलायी गयी। महात्मा गांधी जी और चम्पारन की याद करते समय मैं प्रशासन के लोगों से एक बात जानना चाहता हूं कि आज़ादी की लड़ाई किस बुनियाद पर हुई थी? गांधी जी ने कहा था कि बडे़ से बड़ा आदमी इस देश को नहीं बना सकता। इस देश को बनाने की ज़िम्मेदारी इस देश के उन करोड़ों लोगों पर है, जो भूखे हैं, तबाह हैं, परेशान हैं। उनके मनोबल को उठाकर इस देश को तरक्की की मंजिल पर पहंुचाया जा सकता है।
मैं आपसे जानना चाहता हूं कि क्या इन कर्मचारियों को निकाल करके आज प्रशासन इस बात का दोषी नहीं है कि गरीबों के मनोबल को दबाया जा रहा है? मैंने प्रारम्भ में कहा था कि यह चेतना जो बढ़ रही है, वह कोई व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं है, कोई राजनैतिक स्वार्थ के लिए नहीं है। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के लोग राजनैतिक स्वार्थ रख सकते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के लोग राजनैतिक स्वार्थ रख सकते हैं लेकिन जो गरीब मज़दूर अपनी रोटी के लिए मोहताज है, जो गरीब मजबूर अपने खाने के लिए मोहताज है, उसके सामने एक ही सवाल है कि उसको खाना मिले और वह इसी के लिए लड़ता है। क्या यह बात सही नहीं है, जैसा कि आप बार-बार कहते हैं कि दो पंचवर्षीय योजनाओं के बीच राष्ट्रीय आय में 42 प्रतिशत की वृह् िहुई है? क्या यह बात भी सही नहीं है कि कास्ट ऑफ़ लिविंग बढ़ने की वजह से जो मजदूरों का जीवन स्तर था वह सन्, 1947 से लेकर 1960 के बीच में गिरा है? अगर ये बात हुई तो इसकी जिम्मेदारी किस के पर है।
हमारे एक माननीय सदस्य ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों की किसी प्राइवेट कंसर्न के कर्मचारियों से तुलना कर लीजिये। उन्होंने यह भी कहा कि सरकारी कर्मचारियों को संतोष करना चाहिए।
मैं बड़े अदब के साथ आप के ज़रिये उन माननीय सदस्य से यह अनुरोध करूंगा कि अगर आप तुलना करते हैं, एक सरकारी कर्मचारी से किसी दूसरे प्राइवेट फर्म के एक कर्मचारी की तो फिर इस देश में एक माननीय मंत्री के खर्चे से एक गरीब के खर्चे की भी तुलना होनी चाहिए। अगर आप यह कहते हैं कि बिड़ला की किसी कंसर्न में कम पैसा मिलता है, तो क्या लीवर ब्रदर की कंसर्न में जो पैसा मिलता है, वह आप अपने सरकारी कर्मचारियों को देने के लिए तैयार हैं? इस तरह से कोई काम नहीं चलेगा। सीधा सवाल तो यह है कि जिस चम्पारन की याद दिलाई गयी, जिन भावनाओं से देश को आगे बढ़ाने की कोशिश की गयी थी, क्या हमें उन भावनाओं को बल देना है या उन भावनाओं को दबाना है?
एक माननीय सदस्य ने, जो हमारे बड़े दोस्त हैं, बड़े जोरों से यह कहा कि श्ुश्चेव के राज्य में क्या होता है। अभी तक हम ऐसा समझते थे कि मंत्रिमण्डल में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें माओ से बड़ी मोहब्बत है। लेकिन अब मुझे यह जानकर आश्चर्य और दुख हुआ कि इस समय उस दल में ऐसे लोग भी हैं जिनको माओ और श्ुश्चेव के आदर्शों और सिद्धांतों से मोहब्बत हो गयी है। मैं उनसे कहना चाहूंगा कि हम माओ के आदर्शो पर चलने के लिए तैयार नहीं हैं। हम श्ुश्चेव के आदर्शो पर चलने के लिए तैयार नहीं है। यह प्राचीन देश है। जिस देश की नस-नस में स्वतंत्रता की भावना विद्यमान है, जिस देश में महात्मा गांधी जैसे आदमी पैदा हुए जिन्होंने यह काम किया कि बड़े साम्राज्यवाद के सामने ग़रीबों को उठाकर खड़ा कर दिया, उस देश में ऐसी बातें कही जायें, यह कुछ अच्छा नहीं लगता। इस वजह से यदि किसी बात का माननीय वाजपेयी जी समर्थन कर रहे हैं, माननीय भूपेश गुप्त जी समर्थन कर रहे हैं, तो उस बात पर विचार करते समय हमें यह बात नहीं कहनी चाहिए कि वे किस राजनीतिक पार्टी से सम्बन्ध रखते हैं। मैं यह समझता हूं कि अगर ऐसी बात है तो उस तरफ भी बहुत से ऐसे लोग हैं जिनका समर्थन हमेशा कम्युनिस्ट पार्टी के साथ रहा है। जैसा कि आबिद अली साहब ने कहा कि कुछ लोग ऐसे है जो साम्प्रदायिक हैं, कुछ लोग ऐसे हैं जो राष्ट्र-विरोधी हैं और हर देश में ऐसे लोग होते हैं, तो क्या मैं यह कहूं कि इस देश की सबसे बड़ी संस्था होने के नाते कांग्रेस पार्टी में ऐसे लोगों की संख्या कुछ कम नहीं है। मैं आप से कहना चाहूंगा कि इन सवालों पर विचार करते समय ऐसी बातें मत सोचिये।
इसके साथ-साथ यह भी कहा गया कि लीनएंसी तो गयी। लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि जिन स्थानों पर कोई हिंसा नहीं हुई, जहां पर कोई उपद्रव नहीं हुए, वहां भी लोगों को बर्खास्त किया गया, वहां भी लोगों को नौकरी से हटाया गया। मैं उत्तर प्रदेश का ज़िक्र करना चाहूंगा, खास तौर से लखनऊ का। वहां पर कोई हिंसा नहीं हुई लेकिन वहां कर्मचारियों को नौकरियों से निकाला गया। नार्थ ईस्टर्न रेलवे में ऐसी घटनाएं मौजूद हैं, जहां पर प्रशासन के लोगों ने यह कहा कि हमारे आदमियों को रख लिया जाये, लेकिन उच्चाधिकारियों कि ओर से उस पर टालमटोल की गयी। क्या ऐसे भी केसेज़ नहीं है जहां उनको नौकरी पर रखा गया लेकिन उस जगह से हटाकर उनको दूसरी जगह रखने की कोशिश की गयी, जहां स्वास्थ्य के आधार पर उनकी मुस्तैदी नहीं हो सकती थी? ये सारे सवाल हैं कि कितनी बड़ी तादाद में लोगों के टन्न्ंासफर किये गए, कितने लोगों के प्रमोशन रोके गए, कितने लोगों को तनज़्ज़्ाुल किया गया। यदि हम इन सवालों पर विचार करें तो हम इसी परिणाम पर पहुंचेगे कि इस हड़ताल को देखते हुए यह बहुत बड़ा दण्ड दिया गया है।
अभी एक माननीय सदस्य ने कहा कि वह तो विद्रोह की अवस्था थी। दूसरे माननीय सदस्य ने कहा कि 20 लाख कर्मचारियों में से केवल पांच लाख ने हड़ताल की नोटिस दी। प्रशासन की ओर से उस ज़माने में कहा गया था कि हड़ताल मुश्किल से 20 फीसदी लोगों ने की। मैं जानना चाहूंगा कि दोनो बातें कैसे कही जाती हैं। एक तरफ तो राष्ट्रपति का अध्यादेश जारी किया जाये और दूसरी तरफ प्रशासन यह कहे कि हड़ताल फ़िज़िल आउट हो गयी। स्थिति अगर नाकामयाब हो गयी, तो मैं यह चाहूंगा कि अगर विद्रोह की स्थिति पैदा करने की कोशिश की गयी तो जिन लोगों ने कोशिश की, उनके खिलाफ आप कोई कार्रवाई करें। लेकिन आप यह मानेंगे कि आप खुद कहते हैं कि यहां का जो कर्मचारी है, वह विद्रोह करना नहीं चाहता, वह आपका बड़ा लॉयल है, आपका बड़ा स्वामिभक्त है, तो फिर उसको दण्ड क्यों दिया जाये?
माननीय उपसभाध्यक्ष जी, इसके पहले जब मैं अपना भाषण कर रहा था, तब मैंने कहा था कि सरकार की ओर से यह कहा गया कि केवल 25 लाख लोगों ने हड़ताल करने का नोटिस दिया और उसमें से मुश्किल से ढ़ाई लाख लोगों ने हड़ताल किया। दूसरी तरफ यह भी कहा गया कि एक विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी जिसको दबाने के लिए ज़रूरी था कि अध्यादेश जारी किया जाये। उस तरफ कुछ माननीय सदस्यों ने यह भी कहा कि सरकार की ओर से जो दण्ड दिया गया, वह दण्ड बहुत कम था और सरकार बहुत ढिलाई से कर्मचारियों के साथ पेश आयी। मुझे जानकारी है, मुझे बताया गया कि केवल पोस्ट एण्ड टेलग्राफ डिपार्टमेंट में ही 1,693 लोग ऐसे थे जिनके पद को नीचे गिराया गया और उनकी तनख्वाहों को कम किया गया। तो इतने लोग ऐसे थे जिनके पद को लोवर ग्रेड में किया गया और 4,012 कर्मचारी ऐसे थे जिनकी उींाति को मार्च, 1962 तक के लिए रोक लिया गया। छह हज़ार लोग गिर∂तार किये गए और इसके अलावा छह हज़ार दूसरे लोग मुअत्तल किये गये।
इस छोटी सी हड़ताल में एक डिपार्टमेंट में, एक विभाग में, इतने लोगों को दण्डित किया जाये और उसके बाद भी शासन की ओर से कहा जाये की हमने कोई सख्ती से काम नहीं लिया? मैं नहीं जानता इसमें कहां तक सच्चाई है लेकिन बहुत ज़िम्मेदार लोगों ने, पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ के कर्मचारियों ने मुझे बताया है कि जब माननीय गृह मंत्री जी से वे मिले तो उन्होंने कहा कि अगर पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ के डाइरेक्टन्न्ेट के लोग चाहें तो वह लोग उन कर्मचारियों को वापस से सकते हैं जिनको नौकरी से हटाया गया है। लेकिन जब गृह विभाग की ओर से, गृहमंत्री जी के मंत्रालय की ओर से, खत लिखा गया डाइरेक्टन्न्ेट को तो उसमें उल्टी बातें लिखी गयीं। जो आश्वासन गृह मंत्री जी ने कर्मचारियों को दिया, उसे पूरा नहीं किया गया गृहमंत्री जी के कार्यालय की ओर से। नतीजा क्या है? आज भी पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट के आठ लोग नौकरी से निकाले हुए हैं। रेलवे मजदूरों की हालत भी ज्यों की त्यों है। बहुत से लोग ऐसे हैं जो आज भी मुअत्तल हैं। 12 लोग आज भी मुअत्तल हैं जिनमें ईस्टर्न रेलवे मेंस यूनियन के सक्रेटरी भी हैं। बहुत से कर्मचारी ऐसे है जिनको कोर्ट ने बेकसूर कह करके रिहा कर दिया है लेकिन उनको भी नौकरी में नहीं लिया जाता। मैं नहीं जानता जो प्रशासन अपने को प्रजातांत्रिक कहता है जो प्रशासन यह कहता है कि जुडीशियरी को मान्यता मिलनी चाहिए उस प्रशासन में अगर जुडीशियरी, अगर न्याय विभाग, किसी को निर्दोष समझे तो क्या प्रशासन को यह अधिकार है कि वह उसे दण्डित करे। लेकिन यह सब कुछ इस हुकूमत में होता है और उसके बाद भी यह कहा जाता है कि इनके पर कोई सख्ती नहीं की जा रही है।
उसके बाद, यह कहा जाता है कि जो लोग विरोधी दलों में है, जो लोग इस तरफ बैठते हैं उनको राष्ट्रप्रेम नहीं मालूम। मैं नहीं जानता कि ऐसे लोगों से राष्ट्रप्रेम की शिक्षा कौन लेने जा रहा है। मैं आपके ज़रिये इनसे स्पष्ट कहना चाहता हूं कि मैं कर्मचारियों की ओर से कोई भीख मांगने के लिए नहीं खड़ा हुआ हूं, मैं तो उन्हें अपने कर्तव्यों की याद दिलाने के लिए खड़ा हुआ हूं। मैं उनसे बड़े अदब के साथ निवेदन करना चाहता हूं कि जो हुकूमत इस देश में प्रजातंत्र, जमहूरियत कायम करना चाहती है उस हुकूमत को यह ख्याल रखना होगा कि इस देश का छोटे से छोटा कर्मचारी, इस देश का गरीब से गरीब आदमी यह महसूस करे कि उसकी इस देश में उसी तरह की इज़्ज़त है जिस तरह कि किसी पदाध् िाकारी की है। अगर यह भावना इस देश में नहीं बनती है, अगर छोटे से छोटा आदमी इसके लिए नहीं तैयार होता है तो फिर क्या नतीजा होने वाला है?
आप किसी को राष्ट्रद्रोही कह लीजिए, आप कह लीजिए कि अदमतशद्दुद के रास्ते पर वह नहीं चलता लेकिन, श्रीमन्, मैं आपके ज़रिये से उनको बतलाना चाहता हूं कि वह चलते हो या न चलते हों मगर हुकूमत का अगर यही रवैया रहा, यही कार्य करने की प्रणाली रही तो यह हुकूमत अपने कर्मचारियों को, देश के कमज़ोर लोगों को, देश के गरीब लोगों को यह समझने के लिए मजबूर कर देगी की जमहूरियत का रास्ता सही नहीं है, अदमतशद्दुद का रास्ता सही नहीं है। प्रजातंत्र और अहिंसा की भावना को अगर बलवती बनाना है तो यह तो हो सकता है कि धनिक-धनिक रहे, यह तो हो सकता है कि थोड़े दिनों तक गरीब-गरीब रहे और समता का समाज बनने में देर लगे लेकिन अगर व्यवहारों में समता इस देश में नहीं होती तो मैं आपके ज़रिये इस सदन में शासन के लोगों से कहना चाहता हूं कि इस देश का भविष्य अन्धकार में है और उसी दृष्टि से उनके कर्तव्य की याद दिलाने के लिए मैं कहूंगा कि आम राजनैतिक मनोमालिन्य को छोड़ दीजिए, राजनैतिक विभेदों को छोड़ दीजिये।
एक माननीय सदस्य ने कहा कि कम्युनिस्ट पार्टी के लोग अगर कोई जीती हुई लड़ाई होती है तो उसके साथ चलते हैं, नहीं तो नहीं चलते और इस हड़ताल में भी पहले इसके साथ थे लेकिन जब देखा कि लड़ाई जा रही है तो उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को आगे कर दिया और अपने आप पीछे हट गये। मैं जानना चाहता हूं कि क्या शासन भी वही नहीं कर रहा है? मुझे विश्वास है कि शासन के लोग वह नहीं करेंगे जो कि प्रजातंत्र में विश्वास न रखने वाले लोग करते हैं। इन शब्दों के साथ मैं आपके ज़रिये उनसे अनुरोध करूंगा कि वह उन सारे कर्मचारियों को जो कि नौकरी से हटाए गए हैं, बिना किसी दिक्कत के फिर काम पर ले लें।