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प्रिवीपर्स और विशेषाधिकार की समाप्ति के लिए संविधान में संशोधन उचित

संदर्भ: Constitution (Amdt.) Bill, 1964 2 अगस्त 1964 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उपसभाध्यक्ष जी, मैं अपने मित्र माननीय भूपेश जी को इस बात के लिए बधाई देता हूं कि उन्होंने यह विधेयक हमारे सामने प्रस्तुत किया और इस सदन का और देश का ध्यान इस समस्या की ओर आœष्ट किया कि संविधान में यह संशोधन आवश्यक है कि पुराने राजाओं को जो प्रिवीपर्स और विशेषाधिकार मिले हुए हैं उनको समाप्त किया जाये। इस प्रश्न पर पिछले कई सालों से विवाद हो रहा है और गत एक साल के अंदर यह विवाद बहुत तेजी पर रहा है। बाहर भी और सदन के भीतर भी कई बार यह प्रश्न उठाया गया। मैं इसके वैधानिक पहलू पर नहीं जाना चाहता क्योंकि इस बारे में बहुत से लोगों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। हमारे विधि मंत्री महोदय यहां पर हैं, उन्होंने भी अपने विचार व्यक्त किये हैं। और दूसरे विधिवक्ताओं ने भी इस पर अपनी राय जाहिर की है। जो विधि-वक्ता इसके समर्थन में नहीं हैं, वे केवल इतना ही कह सकते हैं कि संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता है। मुझे आश्चर्य होता है और यह बात कुछ हास्यास्पद भी मालूम होती है जब हमारे कुछ मित्र यह कहते हैं, यह धारणा फैलाते हैं कि अगर संविधान में संशोधन हो गया तो कोई बड़ी भारी भारतीय परम्परा टूट जायेगी। यह बताने की कोशिश की जाती है कि शायद सारे भारत का जो अतीत है वह धूमिल हो जायेगा इसलिए कि हम अपने वादों को पूरा नहीं करते जिन लोगों ने यह संविधान बनाया था शायद उन्होंने यह कभी नहीं सोचा होगा कि संविधान की कोई ऐसी धारा है जिसका संशोधन कभी नहीं किया जा सकता। जिन्होंने संविधान बनाया उन्होंने इस संसद को और इस देश की जनता को यह भी अधिकार दिया कि संविधान की विभिींा धाराओं में संशोधन भी हो सकता है। कई बार संशोधन भी हुआ, कई बार धाराएं बदली गयीं, लेकिन कभी यह सवाल नहीं उठाया गया कि देश की जनता के विश्वासों को ठेस लग जायेगी, कभी यह सवाल नहीं उठाया गया कि भारतीय परम्परा टूट जायेगी। यह पहली बार है। जिस समय हमारे देवी सिंह बोल रहे थे तो ऐसा लगा जैसे सारे भारत की गरिमा इसी एक संविधान की धारा में छिपी हुई है। दूसरी तरफ कहा जाता है कि संविधान की पवित्रता टूट जायेगी। महोदय, इस सदन में एक बार नहीं, अनेक बार हमने दुःखद घटनाएं सुनी हैं। छूआछूत को लेकर देश में जघन्य अपराध हो रहे हैं। इसी संविधान की एक धारा है जिसमें लिखा हुआ है कि छूआछूत का रोग इस देश से मिटाया जाये। उसके पर कभी मैंने जज़्बातों को उभरते हुए नहीं देखा, इस पर कभी मैंने अपने मित्रों की भावनाओं को इतने जोर से प्रगट होते हुए नहीं देखा। इसी संविधान के अंदर है कि गरीबी, अमीरी का भेद इतना नहीं बढ़ जाएगा जिससे गरीब तिलमिलाकर ज़िंदगी को बेहाल समझे। उन धाराओं के अंदर जो हमारी राजनीति के उदार सिद्धांत हैं उनकी ओर ध्यान हमारे मित्र देवी सिंह जी का नहीं गया। उसकी ओर हमारे उन मित्रों का ध्यान नहीं गया जो आज बड़े ज़ोरों से इस बात की दुहाई देते हैं कि संविधान की पवित्रता और संविधान की मंशा और संविधान की मर्यादा टूट जायेगी।

महोदय, मैं आपसे कहना चाहूंगा कि संविधान के पीछे कौन सी मंशा है, संविधान की आत्मा क्या है। संविधान की आत्मा यह है कि इस देश का एक-एक प्राणी यहां इस देश का सहभागी है, इस देश में आज़ादी आयी तो उसका हिस्सेदार एक गरीब भी होगा और एक अमीर भी होगा, इस देश में दुख दार्रिीय और दैन्य है तो उसका भागीदार एक गरीब भी होगा और एक अमीर भी होगा। मैं मानता हूं कि अगर देश गरीब है तो उस गरीबी मे सबको सहकारी, सहयोगी और समभागी होना चाहिए लेकिन, महोदय, मैं आपसे जानना चाहता हूं, आप भारतीय संस्कृति के पुजारी हैं, कि यह कौन सी संस्कृति की गरिमा है, महानता है कि लक्ष्मी के वरद् पुत्रों को सारी उपभोग्य की वस्तुएं उपलब्ध हों और दूसरी ओर गरीब तिलमिला-तिलमिलाकर रहें और इस संसद में जब-जब गरीबों का जिक्र हो, उसका जो ज़िक्र करे उसको कहा जाये कि ये देश के साथ दुश्मनी करने वाले लोग हैं। अगर हम भी कभी यह बात करें तो तुरंत कहा जाये कि यह किसी कम्युनिस्ट के, किसी साम्यवाद के प्रभाव में पड़ गया है। श्री दह्याभाई बुज़ुर्ग हो चुके हैं, वह कोई नयी बात नहीं सीख सकते हैं उन पर तरस आता है, उन पर कभी गुस्सा नहीं आता।

मैं यह कहना चाहता हूं कि यह स्थिति हैं। मैं यह कह रहा था कि इस संविधान में यह भी कहा गया है कि गरीबों की आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कुछ काम किया जाना चाहिए और इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यह ध्यान क्यों नहीं दिया जाता? इसके पीछे एक ही मान्यता है कि जिस समाज में हम और आप रहते हैं उस सामाज की कुछ पुरानी मान्यतांए हैं और उन मान्यताओं को तोड़ने के लिए जब भी कोई कदम उठाया जायेगा तब उस कदम का विरोध होगा और मैं अपने मित्र श्री बालकृष्ण गुप्त जी से यह कहूंगा कि वह विरोध कांग्रेस की ओर से ही नहीं, जनसंघ की ओर से ही नहीं, स्वतंत्र पार्टी की ओर से नहीं, बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जैसी समाजवादी पार्टियों में भी ऐसे तत्व हैं जो व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार को पवित्र मानते हैं, जो ऐसा समझते हैं कि संपत्ति लेकर मनुष्य भगवान के दरबार में पैदा हुआ है, जिनके दिलों में भगवान बसा हुआ है, जिनके दिलों में इंसान की कोई मर्यादा नहीं है वह हर परम्परा को तोड़ने के हर प्रयास का विरोध करते हैं और चाहे कांग्रेस पार्टी के अंदर लोग हों, चाहे स्वतंत्र पार्टी या दूसरी पार्टियों के अंदर लोग हों, जो लोग ऐसे हैं वह समाज के सड़े हुए ढांचे को बनाये रखना चाहते हैं। जिसको बनाये रखने कि कितनी ही कोशिश की जाये वह बना रहने वाला नहीं है, क्योंकि महोदय, मैं कई बार इस सदन के सामने कह चुका हूं कि इतिहास का रथ जो है वह किसी के भरोसे नहीं चल सकता। हमारे और आपके लिए केवल एक ही बात निश्चय करने की होती है कि इस इतिहास के रथ के हम सारथी हों और इतिहास को एक नयी दिशा दें या इतिहास के रथ के शिकार हों और इतिहास का रथ हमारे सिर के पर से गुजर जाये, और दूसरा कोई चारा नहीं है।

आज हमारे मित्र जो पुराने राजे थे, आज जो उसके कुछ अधिकारों का उपयोग कर रहे हैं, वे समझ सकते हैं कि हो सकता है कि यह संसद या यह संविधान उनको कुछ दिन की और फुर्सत दे दे लेकिन यह बहुत दिन नहीं चलेगा क्योंकि इतिहास रुकने वाला नहीं है।

महोदय, अब मैं एक दूसरी बात की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं। संविधान की मर्यादा की बात करने वालों की यह बात है। दूसरी बात परम्परा की बात है। महोदय, क्या भारत की परम्परा रही है। श्रीमान, आप जानते हैं इस देश में पुराने ज़माने से, वेदों के ज़माने से, राजा का एक काम माना गया है कि जहां पर सम्पदा एकत्रित हो वहां से लेकर सम्पदा को वहां पहुंचाया जाये जहां भुखमरी हो, गरीबी हो। हमारे यहां राजा कौन माना गया है। हमारे यहां वेदों में राजा इन्द्र को माना गया है। इन्द्र का काम यह है कि वह सागर से जहां पानी का कोष भरा पड़ा है, वहां से सूर्य के ज़रिये उस पानी को सुखाकर, वरुण के ज़रिये और पवन की सहायता से उसे मरुस्थल में बरसाये जहां कि पानी के बिना लोग तरस रहे हैं। लेकिन आज तो उलटी गंगा बह रही है, हमारे भाई दह्याभाई पटेल राजाओं का दूसरा कर्तव्य बताते हैं कि उनके पास सम्पदा सदियों से रही है और वह रहनी है और जो गरीब हैं वह कुछ दिन तक भूखे ही मरेंगे। हम समझते हैं कि हमारे शास्त्रों में, हमारी परम्परा में, कभी यह नहीं रहा है। हमारे यहां यह रहा है कि जहां पर सम्पदा है वहां से सम्पदा लेकर गरीब की कुटिया तक पहुंचाना राजा का कर्तव्य है।

महोदय, केवल दो मिनट। इन्द्र का कर्तव्य यही कहा गया है कि सागर से पानी को लेकर मरुस्थल में पहुंचाये और जो राजा इस काम को पूरा नहीं करता वह राजा होने का अधिकारी नहीं रहता। अगर भारतीय संसद अपने इस कर्तव्य को पूरा नहीं करती, अगर भारत सरकार इस काम को पूरा नहीं करती तो मैं यह कहना चाहूंगा नम्रता के साथ, कि यह सारी भारतीय परम्परा और संस्कृति के विरुह् एक कदम होगा। महोदय, दूसरी बात मैं यह कहना चाहूँगा कि बड़ा ज़िक्र होता है कि राजाओं ने बड़ा भारी त्याग किया, बड़ी तपस्या की। मुझे कोई ऐतराज नहीं है कि उनके त्याग, उनकी तपस्या, उनकी कुर्बानी का ज़िक्र वह लोग करें जो लोग भारत के इतिहास को नहीं जानते या वह लोग करें जो आज़ादी की लड़ाई के ज़माने में दूसरी तरफ रहते थे लेकिन जब दह्याभाई पटेल ऐसे आदमी चाहे आज वह भले ही गुमराह हों लेकिन भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई में उनका एक हिस्सा है जिस समय कहते हैं कि ये भारतीय राजा महाराजा हैं, इनके देश-प्रेम की एक कहानी है, इन्होंने मर्जर किया, उस समय शायद उसे भूल जाते हैं कि देशी रियासतों में किन लोगों ने अपनी कुर्बानी दी, उन्हें भूल जाते हैं जिन्होंने अपनी शहादत पेश की। आज वह उनकी स्मृति का अनादर करते हैं। मैंने एक किताब मंगाई है, इस समय मेरे पास समय नहीं है, यह श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की पुस्तक है जो कि उन्होंने हैदराबाद के बारे में लिखी है। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि सैकड़ों राजा और नवाब जो आज इस देश के अंदर बसे हुए हैं, बने हुए हैं, उनमें केवल 18 लोग ऐसे थे जो कि अंग्रेज़ी राज्य आने के पहले इस देश में रूलिंग डायनेस्टीज़ में थे, शासन करने वाले परिवार में थे, बाकी सारे लोग अंग्रेज़ी ज़माने के बीच शासक और राजा बन गये। क्यों बन गए?

श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की पुस्तक है। उनसे अधिक आप जानते होंगे, आपके ही नेता की पुस्तक है कि ये 18 लोग ही पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों को मिलाकर यहां ऐसे थे। अंग्रेज़ों से आने के पहले सब लोगों ने दासता स्वीकार कर ली थी और अंग्रेज़ों ने वहां इसलिए इनको राजा बनाया कि अंग्रेज़ी प्रभुसत्ता बनाये रखने में उन्होंने देश के साथ गद्दारी की। मैं इस बात को इसलिए कह रहा हूं कि अगर यही देश-प्रेम है तो जिन्होंने देशी राजाओं के ज़ुल्मों को सहन किया, जिन्होंने मुक्त कराने की कोशिश की उनकी याददाश्त के साथ, उनकी स्मृति के साथ हम अन्याय करेंगे। श्री देवी सिंह जी ने आज एक प्रश्न पूछा कि अगर ये राजा भी बग़ावत कर देते तो क्या होताऋ वही होता जो हर ऐसे लोगों के साथ होता है जो इतिहास के रुख को नहीं पहचानते। वही होता। जिस प्रकार कइयों के राज-मुकुट, केवल हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में, एक-एक करके भूलुंठित हो रहे हैं, वही होता। रोज़ सुना जाता है कि एक या दूसरा शाह हवाई जहाज पकड़कर दूसरे देशों को भागने के लिए मजबूर होता है। तो देश की जनता इसके लिए मजबूर करती। मुझे विश्वास है कि राजाओं ने बुह्मिानी का काम उस समय किया और मुझे आशा है कि ये राजा फिर बुह्मिानी का परिचय देंगे और वे इस बात के लिए विवश नहीं करेंगे कि जनता और देश का इतिहास उनको इस बात के लिए मजबूर करे कि उनको इसकी तिलांजलि देनी है।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।