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हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई के नाम पर इस देश में किसी विश्वविद्यालय का नाम नहीं रहना चाहिए

संदर्भ: Banaras Hindu University (Amendment) Bill, 1964 10 नवम्बर 1965 करे राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उपाध्यक्ष महोदया, मैं दुख के साथ इस विवाद में पड़ने के लिए विवश हुआ हूं। इससे पहले कि जिस विश्वविद्यालय का यह विधेयक है, उसके और हिस्सों की ओर जां, मैं सबसे पहले उस ओर आपका ध्यान आœष्ट करना चाहूंगा जिसका ज़िक्र माननीय प्रो. वाडिया ने अभी किया है। मैं प्रो. वाडिया साहब से बहुत नम्र शब्दों में निवेदन करना चाहूंगा कि उत्तर प्रदेश के सदस्यों को सार्वदेशिक भावना अंगीकार करने की सलाह देने से पहले उनको और उनके जैसे अन्य मित्रों को अपने दामन को खुद देखना चाहिए। मैं यह गर्व के साथ कहता हूं और मुझे इस बात का फश् है कि इस सारे देश में मैं नहीं कहता कि दूसरे प्रदेश पिछड़े हुए हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश ने कभी भी किसी संकीर्ण भावना से न तो प्रदेशों की राजनीति को देखा, न तो विश्वविद्यालयों की राजनीति को देखा और न केंद्रीय राजनीति में कोई दिलचस्पी उस तरह से ली।

महोदय, उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से पूज्य मदन मोहन मालवीय ने उस विश्वविद्यालय की स्थापना की थी, और उसका उद्देश्य ही यह था कि देश में एक सार्वदेशिक भावना व्याप्त हो। साथ ही मैं प्रो. वाडिया साहब से कहना चाहूंगा कि यह सही है कि दूसरे लोगों के लिए उस विश्वविद्यालय के, उस विद्या मंदिर के द्वार खुले रहने चाहिए, लेकिन यह भी सही नहीं होगा कि चूंकि कोई बनारस के नज़दीक का रहने वाला है, इस लिए उसका प्रवेश उस विश्वविद्यालय में वजत कर दिया जाये। आज सारी न्यायिक बुह्,ि आज सारी मानवीय भावनाएं बड़े-बड़े महारथियों की जाग्रत हो रही हैं, लेकिन उस दिन ये भावनाएं कहा थी जब डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे आदमी को उस विश्वविद्यालय से हटा दिया गया था। माननीय दर साहब के खिलाफ मैं नहीं कहना चाहता। मेरे पास भी प्रमाण हैं कि उन्होंने इस विश्वविद्यालय में क्या-क्या किया।

महोदय, यह आप निश्चित करें कि एक विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार के प्रशस्ति गान में आधे घण्टे का भाषण इस सदन में हो, तो फिर आपको यह भी अधिकार दूसरे सदस्यों को देना पड़ेगा कि उस रजिस्ट्रार के खिलाफ जो-जो दूसरी बातें हैं, वे भी कहीं जाये, लेकिन उस परम्परा को मैं कायम करना नहीं चाहता। कुछ तो दैवी आत्माएं इस भूतल पर आ गयी हैं जिनका इस धूंल धूसरित जगत से कोई सम्बन्ध नहीं है। चाहे वे बड़े प्रोफेसर लोग हों, चाहें न्यायमूतयां हों, वे सारी संसदीय परम्परा के विरुह् कोई बात कहें, कोई उसको रोकने वाला नहीं है। अभी कहा गया कि यह कोई ग़लत काम नहीं हुआ। मैं आप से कहना चाहूंगा कि यह सिलेक्ट कमेटी की रिपोर्ट है। जहां तक मुझे थोड़ा ज्ञान है संसदीय परम्परा का, सिलेक्ट कमेटी या जो भी कोई समिति बनती है और उसकी जो कार्यवाही होती है, उसकी कहीं पब्लिक में सार्वजनिक रूप में व्याख्या नहीं की जाती। अभी विवाद उठा और माननीय प्रोफेसर वाडिया ने कहा कि डा. बी.एन. प्रसाद ने जो बातें कहीं हैं, वे सही नहीं है। महोदय, किसी भी अध्यक्ष के लिए, जो एक संसदीय समिति का अध्यक्ष हो, क्या यह मुनासिब है कि अपने नोट ऑफ़ डिस्सेंट में यह कहे कि संसदीय समिति का निर्णय स्पर आफ मोमेन्ट में लिया गया? क्या यह समिति के कार्य की अप्रस्तुति नहीं हैं? मैं तो समझता हूं कि यह संसदीय परम्परा के बिल्कुल विपरीत है। उनकी चेतना बड़ी हो सकती है, उनकी भावनाएं ऊँची हो सकती हैं, लेकिन हमे दुख है और हमारी यह मान्यता है कि चाहे वाडिया साहब हो, चाहे हिन्दुस्तान का बड़े-से-बड़ा आदमी हो, उसकी जागृत भावना के लिए, उसकी चेतना के लिए, उसकी मनः स्फूत के लिए संसदीय परम्पराएं नहीं बदली जा सकती। वैधानिक अधिकार जो कुछ हों, वह हो सकते हैं, लेकिन वैधानिक अधिकारों के साथ-साथ, संसदीय जनतंत्र परम्पराओं के पर चलता है। जहां तक मैं जानता हूं, शायद किसी संसदीय समिति के अध्यक्ष ने विमति-टिप्पणी (नोट ऑफ़डिस्सेंट) नहीं लिखी है।

महोदय, यह नवीन परम्परा माननीय वाडिया साहब ने स्थापित की है। अगर इसके लिए उन्हें गर्व है कि संसदीय परम्पराओं से अलग जाकर एक नयी संसदीय परम्परा स्थापित कर रहे हैं, जैसे उनके लिए यह बड़े गर्व की बात है, मेरी दृष्टि में मेरे लिए इससे अधिक हेय बात संसदीय जनतंत्र में दूसरी नहीं हो सकती। मैं यह मानता हूं कि इस रिपोर्ट के पर, जहां उन्हें असहमति हो, उन्हें बोलने का अधिकार है। मैं यह भी मानता हूं कि वे अपनी राय दे सकते हैं, लेकिन किसी भी समिति का चलना असम्भव हो जायेगा। अगर समिति के अध्यक्ष इस तरह की विमति-टिप्पणी दिया करें। उन्होंने कहा कि समिति में जो निर्णय लिए गए, वे अचानक ले लिए गए, बिना सोचे-समझे ले लिए गये। मैंने उसी भावना से कहा कि किसी समिति का अध्यक्ष यह महसूस करे, वह यह अनुभव करने लगे कि उसे नोट ऑफ़ डिस्सेट देना हैं, तो वह एक मिनट के लिए, एक क्षण के लिए भी, उस समिति के अध्यक्ष पर पर न रहें।

अभी माननीय वाडिया साहब ने एक लम्बी तकरीर दी और उसमें कहा गया कि रजिस्ट्रार और वाइस चांसलर दोनों को हटाना न्याय- बुद्धि के खिलाफ होगा, यह सबसे बड़ी हानि होगी। इस देश में इससे बड़ी हानि न कोई हुई थी और न होने वाली है। माननीय गोपाल स्वरूप पाठक जी नहीं हैं। उन्होंने भाषण दिया। उन्होंने गांधी जी का उह्रण दिया और कहा कि सारे विश्व में अहिंसा की हमारी नीति के लिए हमारी प्रशंसा होती है, उसका क्या होगा? मैं प्रोफेसर वाडिया साहब से कहूंगा कि जो यह रिपोर्ट उन्होंने दी है, उसमें कहा गया है कि वाइस चांसलर चूंकि समिति के सामने आ गए, इसलिए उन पर निर्णय लेने का अधिकार ठीक है, लेकिन रजिस्ट्रार का केस दूसरा है। अगर उसी न्याय-बुद्धि प्रोफेसर वाडिया साहब प्रेरित हैं तो वाइस चांसलर को हटाने के खिलाफ उन्होंने विमति-टिप्पणी क्यों दी थी?

आज कहा जाता है कि बड़े-बड़े लोगों को और बुह्मिान लोगों को विश्वविद्यालय को सुचारू रूप से चलाने के लिए हम रखते हैं, लेकिन एक ही बात मैं कहूंगा, कि दर्शन विभाग में दर साहब रीडर किसके मुकाबले में नियुक्त हुए थे डा. टी.वी.आरमूत के मुकाबले। प्रोफेसर वाडिया साहब को फश् हो सकता है, दर साहब के समर्थकों को फश् हो सकता है, लेकिन उस जमाने के इतिहास को जब मैं देखता हूं तो सोचता हूं कि किस तरह से बरसों तक एक व्यक्ति सारे समाज को गलत दिशा में ले जा सकता है। यही नहीं, डा. टी.वी.आर. मूत के मुकाबले इन सज्जन ने अपनी नियुक्ति कराई। संसदीय समिति की रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों से मिटाने का प्रयास क्यों हो रहा है? केवल एक व्यक्ति को बचाने के लिए। अभी मैंने पाठक जी से कहा था, जब वह बोल रहे थे, अगर यह न्याय-बुद्धि है और यह समझते हैं कि बिना अवसर दिये कोई आदमी नहीं हटाया जाना चाहिए

महोदय, आपको याद होगा, रेलवे की हड़ताल के ज़माने में और आज भी वह कानून लागू है। सैकड़ों रेलवे के छोटे-छोटे मज़दूरों को प्रेजीडेंशियल आर्डर से, राष्ट्रपति के आदेश से हटा दिया जाता है, कोई कचहरी में नहीं जा सकता, मुकदमा नहीं कर सकते, कोई उनके लिए सुनवाई नहीं। कहा जाता है कि समाज के हित में, देश के हित में यह आवश्यक है कि उनकी सवस समाप्त कर दी जाये। जिस समय इस विश्वविद्यालय के बारे में यह अध्यादेश 1958 में लागू किया गया था, उस समय कहा गया था कि सारे कुकर्मों को नष्ट करने के लिए अगर ज़रूरत है कोई बड़ा कदम उठाने की, तो उठाया जाना चाहिए। पिछली बार जब इस विधेयक पर बहस हो रही थी, मैंने इस सदन में कहा था कि जो उपकुलपति हैं, वाइस चांसलर साहब हैं, उनका रवैया अच्छा नहीं है। उस समय रजिस्ट्रार साहब और वाइस चांसलर में ज्यादा मनमुटाव नहीं था। उस समय प्रोफेसर वाडिया साहब को, उस समय माननीय गोपाल स्वरूप पाठक जी को कोई दर्द नहीं हुआ था, आज दर्द अचानक ज्यादा हो गया है। माननीय रजिस्ट्रार साहब के पर भी कुठारा चलाने की न मालूम कैसे संसद की समिति को सद्बुह् िआई। मैं आपसे कहूंगा कि इस तरह सारी जनतांत्रिक परम्परा को एक व्यक्ति के हक में बदलने की कोशिश करना इतनी बड़ी नापाक साज़िश है। इतना अपवित्र षड्यंत्र है जिसकी जितनी भी भत्र्सना की जाये थोड़ी है। मैं इस बारे में केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि अगर विश्वविद्यालय को ठीक ढंग से चलाने के लिए वहां के अध्यापकों को हटाया जा सकता है, अगर विद्याथयों को बिना मतलब वर्षों के लिए शिक्षा से वंचित किया जा सकता है, तो माननीय दर और माननीय वाइस चांसलर, भगवती साहब को भी अगर थोड़ी कुर्बानी देनी पड़े तो देनी चाहिए। यह पूछा जाता है कि संसद को क्यों इसमें हस्तक्षेप करना पड़ता है? माननीय शिक्षा मंत्री जी क्षमा करेंगे, उनके पर इतना बड़ा दबाव पड़ेगा कि इस रजिस्ट्रार और वाइस चांसलर को नहीं हटा सकते। अगर उनके पीछे संसद की ताकत न हो, क्योंकि यह रजिस्ट्रार, यह वाइस चांसलर, चीजों को इस तरह अपने पक्ष में मोड़ सकते हैं कि माननीय शिक्षा मंत्री जी और उनका सारा विभाग असफल हो जायेगा, इन व्यक्तियों को हटाने में।

मैं इसलिए कहता हूं कि माननीय अकबर अली साहब ने निवेदन किया था कि निवेदन से ये लोग चले जायें। मैं समझता हूं कि कोई जनतंत्र की हत्या नहीं हो रही है, कोई इतना बड़ा अपराध नहीं हो रहा। उस विश्वविद्यालय को बचाने के लिए यह कदम विवश होकर संसद को उठाना पड़ा तो उठाना चाहिए और मैं बधाई देता हूं संसदीय समिति को कि उसने यह सिफारिश हमारे सामने की है। इस सम्बंध में मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगा।

जहां तक विश्वविद्यालय के नाम का सवाल है, मैं इस पक्ष में हूं कि इस विश्वविद्यालय का नाम काशी विश्वविद्यालय होना चाहिए। आज से नहीं बहुत बार जब ये विवाद उठे हैं, मैंने इस बात का समर्थन किया है और यह बात कही है कि हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, के नाम पर इस देश में कोई विश्वविद्यालय नहीं रहना चाहिए और खासतौर से वह विश्वविद्यालय, जो केंद्रीय सरकार की सहायता से चलते हैं, जिसको चलाने का जिम्मा सरकार ने अपन हाथों में लिया है। इसके पक्ष में, विपक्ष में दोनों बातें कही जा सकती हैं। मैं उस विवाद में न जाकर केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि इस विश्वविद्यालय का नाम बदलकर काशी विश्वविद्यालय कर दिया जाना चाहिए। एक दूसरे पहलू की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूं। वह है विद्यार्थी संघों की सदस्यता के बारे में। हमारे डा. प्रसाद ने कहा था कि संसदीय समितियों ने बड़ा अच्छा काम किया है। मैं आपसे भी पूछना चाहता हूं कि आखिरकार ये विद्यार्थी संघ क्या है? ये जो स्टूडेंट्स यूनियन हैं, वे शिक्षा का एक अंग है। एक विद्यार्थी से आप कहते हैं कि एन.सी.सी. की ट्रेनिंग ली, उसके लिए अनिवार्य है। उसके लिए यह जरूरी होगा। सारे सदस्य इस बात से सहमत हैं कि अगर फौजी शिक्षा लेनी है तो प्रत्येक विद्यार्थी के लिए यह ज़रूरी है कि वह फौजी शिक्षा ले। मैं आपसे पूछना चाहूंगा कि इसी तरह क्या हर विद्यार्थी के लिए ज़रूरी नहीं की नागरिक जीवन की, संसदीय प्रणाली की, जिसके अनुसार यह देश चल रहा है, उसकी शिक्षा ग्रहण करने के लिए उसको अवसर दिया जाये।

इसके पक्ष, विपक्ष में विवाद उठ चुके हैं, आंदोलन हो चुका है और एक बार उत्तर प्रदेश में आंदोलन होने के बाद 1947 में यह निर्णय हुआ था कि विद्यार्थी संघों की सदस्यता डा. साहब ने कहा था, प्रयाग विश्वविद्यालय में आंदोलन हुआ था हर विद्यार्थी के लिए ज़रूरी होनी चाहिए। मैं आपसे कहूंगा कि अगर विद्यार्थी को आप कहते हैं कि सैनिक शिक्षा लेना ज़रूरी है तो उसी तरह संसदीय जनतंत्र को और जनतांत्रिक भावनाओं को विद्याथयों में पैदा करने के लिए यह आवश्यक है कि उनको आप प्रारम्भ से यह शिक्षा दें कि किस तरह संघ जीवन में उन्हें आचरण करना है। मैं यह नहीं समझता कि अनुशासन केवल विद्यार्थी संघों को मिटाकर आप कायम रख सकते हैं। बड़े-बड़े उपकुलपतियों का नाम लिया गया और यह कहा गया कि उन्होंने बड़े अच्छे-अच्छे काम किये लेकिन जिस समय वे महान पुरुष उस विश्वविद्यालय में थे, उस समय यूनियनें काम करती थीं, छात्र संघ काम करते थे और उन छात्र-संघो के ज़रिये देश का हित होता था। माननीय सदस्य श्री मुराहरि ने कहा था कि 1942 में विश्वविद्यालय के छात्र संघ ने जो काम किया वह भारतीय इतिहास का एक स्वणम पृष्ठ है।

मैं समझता हूं कि बहुत से ऐसे सदस्य इस सदन में हैं जिनको 1942 के उस पींो से कोई मतलब नहीं है, उनकी भावना में वह बैठता नहीं, लेकिन जिन लोगों की भावना में, जिन लोगों के दिलो-दिमाग में 1942 का इतिहास है और उस इतिहास में काशी विश्वविद्यालय का जो हिस्सा है, उसे याद रखते हैं वे कभी यह नहीं कह सकते कि विश्वविद्यालय संघ की सदस्यता से केवल अनिवार्य रूप से अनुशासनहीनता आती है। उससे जिम्मेदारी से बड़ा काम करने की भी बात आती है।

एक बात मैं और कहूंगा। माननीय डा. ताराचंद्र ने उस सवाल की ओर आपका ध्यान आœष्ट किया था। वह सवाल है कि वाइस चांसलर को चुनने का जो अधिकार होना चाहिए उसमें वहां के प्रोफेसरों और दूसरों को हिस्सा लेना चाहिए। उन्होंने सही कहा कि जिस अध्यापक से आप चाहते हैं कि वह आध्यात्मिक और नैतिक नेता विद्याथयों का हो, उसके पर इतना अविश्वास करके आप आगे कदम नहीं बढ़ा सकते। माननीय डा. सप्रू ने उस समय कहा कि प्रजातंत्र को अगर ज्यादा बढ़ाया जायेगा तो वाइस चांसलर को ये अध्यापक लोग इधर-उधर हिलाने डुलाने लगेंगे, उनका नियंत्रण, उनका कण्ट्रोल करने लगेंगे।

मुझे आश्चर्य होता है कि एक ओर डा. सप्रू साहब कहते हैं कि केरल के ले∂ट कम्युनिस्टों को पूरी आज़ादी होनी चाहिए नहीं तो जनतंत्र को हानि होती है। दूसरी तरफ कहते हैं कि विश्वविद्यालयों के विद्याथयों के लिए, अध्यापकों के लिए नियंत्रित जनतंत्र होना चाहिए। एक अजीब भावना है। मैं कभी-कभी हैरान हो जाता हूं कि हमारे बुज़ुर्ग लोग जो कि न्याय-बुद्धि से यहां पर भाषण करते हैं, ऐसी परस्पर विरोधी बातें करते हैं, मेरे जैसे नये सदस्य के लिए यह नामुमकिन हो जाता है कि उनके किस विचार को सही मानें, एक तरफ तो पूरा जनतंत्र उनके लिए है जो कल के भारत को बनाने वाले और आध्यात्मिक और नैतिक नेता होते जा रहे हैं।

इस सिलसिले में मैं यह कहना चाहता हूं कि मैं इसका घोर विरोध करता हूं कि विश्वविद्यालय के आसपास के काॅलेजों को उससे सम्बह् किया जायेऋ क्योंकि यह जो बात होगी वह पूज्य महामना मदन मोहन मालवीय जी की भावना के विपरीत होगी। यदि आप उस विश्वविद्यालय के मानचित्र को देखें, यदि आप उसकी योजना को देखें तो आप पायेंगे कि मालवीय जी की कल्पना यह थी कि यह विश्वविद्यालय पुराने जमाने की तरह का Ωषिकुल होगा, उस तरह का विद्यामंदिर होगा जहां आवश्यकता की सब वस्तुएं उपलब्ध होंगी और उसमें विद्यार्थी एक नये माहौल में रहकर शिक्षा ग्रहण करेगा। उस दायरे से अलग निकलने की ज़रूरत मैं समझ नहीं सकता। आखिरकार उत्तर प्रदेश में विश्वविद्यालयों की कोई भी कमी नहीं है, सौ मील की दूरी पर गोरखपुर का विश्वविद्यालय है, वह सब विद्यालयों को सम्बह् कर सकता है।

अंत में, महोदय, मैं एक ही बात कहना चाहूंगा कि इन विधेयक पर बहस करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि संसदीय जनतंत्र का नाम लेकर हम किस हद तक संसदीय जनतंत्र से दूर चले जाते हैं और उसका सबूत यह है कि एक संसदीय समिति की सिफारिश को मिटाने के लिए सारे तरह के कारनामे किये जा रहे हैं। इस मनोवृत्ति को इस ज़हनियत को जितनी जल्दी समाप्त किया जाये उतना अच्छा है और मैं चाहूंगा कि आपकी ओर से निर्णय अगर न हो तो कोई सलाह होनी चाहिए कि भविष्य में संसदीय समितियों के अध्यक्ष किस तरह का व्यवहार करेंऋ नहीं तो कल से कुछ भी हो सकता है। संसदीय समिति की जो कार्यवाहियां है वे गुप्त नहीं रह सकतीं। इस तरह के विचार जो हमारे माननीय सदस्य उपस्थित करते हैं उनको याद रखना चाहिए कि दूसरे लोगों की भावनाएं भी कुछ सोचने के लिए मजबूर होती हैं। हम मान लेते हैं कि सारा काम न्याय-बुह् िसे हुआ है यदि यह न्याय-बुद्धि पहले भी होती, लेकिन यह उनमें तभी जाग्रत हुई है जबकि एक व्यक्ति का मामला आ पड़ा है।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।