सहकारी समितियों के माध्यम से सरकार चलाये देश की चीनी मिलें, वर्तमान में शक्कर नीति ही दोषपूर्ण
संदर्भ: Shortage of sugar in the country 26 अगस्त 1963 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर
उपाध्यक्ष महोदय, इस प्रश्न पर विचार करते समय हमें शुगर मिलों के इतिहास पर थोड़ा ध्यान देना होगा और पिछले वर्षों में हमारी सरकार ने जो नीति अपनाई है, उस पर भी दृष्टिपात करना होगा।
हमारे कई मित्रों ने यह प्रश्न उठाया कि उत्तर प्रदेश और बिहार की जो मिलें हैं, वे आथक ढंग से ठीक नहीं चल रही हैं। यह प्रश्न केवल उन्हीं मित्रों के सामने नहीं है बल्कि सारे देश के सामने यह प्रश्न है कि उत्तर प्रदेश और बिहार की जो मिलें हैं, वे आथक ढंग से ठीक चल रही हैं या नहीं।
सन् 1960 के आसपास जब पहले पहल शुगर उद्योग हमारे देश में प्रारम्भ हुआ था तब उत्तर प्रदेश और बिहार में ही मिलें लगी थीं। उस समय जिन लोगों ने उन मिलों को लगाया था, उस समय उसका आथक ढांचा अच्छा रहा होगा और तबसे लेकर आज तक, दस वर्ष पहले तक, ये मिलें बड़ी अच्छी तरह से काम करती रहीं और उसके बाद फिर दक्षिण भारत में भी मिलें लगीं मैसूर में लगीं, महाराष्ट्र में लगीं और दूसरी जगहों पर लगीं।
एक दूसरा भी भ्रम है इस देश में जिसको मिटाना आवश्यक है। लोग ऐसा समझते हैं कि दक्षिण भारत के गन्ने में रिकवरी ज्यादा होती है और उत्तर भारत के गन्ने में रिकवरी कम होती है लेकिन अगर स्टेटिस्टिक्स को देखा जाये, अगर अंकों का समन्वय किया जाये, तो यह देखने को मिलेगा कि एक महाराष्ट्र स्टेट को छोड़कर सारे हिन्दुस्तान में जो रिकवरी है, वह करीब-करीब बराबर है। मैं आपके सामने फिगर्स रखना चाहूंगा कि उत्तर प्रदेश का जो पश्चिमी भाग है, वहां 1952-53 में रिकवरी 9. 27 थी, 1953-54 में 10.31 थी, 1954-55 में 9.56 थी, 1955-56 में 9.62 थी, 1956-57 में 9.94 भी और 1957-58 में 9.94 प्रतिशत थी। यह उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों की हालत थी। पूर्वी जिलों में भी 1952-53 में 9.7 थी और 1958-59 में 9.78 प्रतिशत थी। महाराष्ट्र स्टेट में जो कि तब बम्बई स्टेट था, वहां की रिकवरी फिगर्स ज़रूर ज्यादा थी 1952-53 में 11.51 और 1958-59 में 11.46 प्रतिशत। सारे हिन्दुस्तान की रिकवरी फिगर्स इस प्रकार रही हैं: जो रिकवरी 1952-53 में 9. 97 थी वह 1958-59 में 9.85 हो गयी। अगर सारे देश की रिकवरी को लिया जाए तो एक महाराष्ट्र स्टेट अपवाद स्वरूप है। उसके अलावा कोई दूसरा प्रदेश यह नहीं कह सकता कि वहां के गन्ने में रिकवरी कोई बहुत ज्यादा होती है।
मैं यह कहना चाहता था कि ये सवाल गलत तरीके से उठाये जाते हैं। अभी कुछ मित्रों ने सवाल उठाया कि उत्तर भारत में चीनी मिलें रहनी चाहिए और कुछ लोग कहते हैं कि दक्षिण भारत में बननी चाहिए क्योंकि उत्तर प्रदेश की मिलें अनाथक हैं और उनको समाप्त हो जाना चाहिए। यह विवाद किस वजह से उठता है? इस वजह से उठता है कि सरकार की शक्कर नीति किसी सिद्धांत के पर आधारित नहीं है। सरकार की नीति दोषपूर्ण रही है और यह जिस समय जैसा दबाव पड़ा, उस समय वैसा बदल गयी। किसी भी देश में शक्कर का उत्पादन या किसी अन्य वस्तु का उत्पादन बढ़ाने या घटाने में केवल एक ही दृष्टिकोण उसमें होता है। एक ही मानदण्ड होता है कि उस देश की खपत के लिए कितनी शक्कर चाहिए और बाहर के देशों को भेजने के लिए उस देश के पास कितना बाजार है।
भारतवर्ष को देखा जाये तो मैं समझता हूं स्मरण के आधार पर मैं कह रहा हूं और कृषि मंत्री जी मैं अगर गलत हूं तो सही कर देंगे। अगर चीन को छोड़ दिया जाये तो शायद हिन्दुस्तान में प्रति व्यक्ति, पर कैपिटा, शुगर की जो खपत है, वह दुनिया के देशों से बहुत पीछे है। 1961-62 में चीनी का उत्पादन ज्यादा बढ़ गया तो क्या कहा कृषि मंत्री ने उत्पादन कम कर दो। 1961 में श्रीमन् इसी सदन में एक बिल आया शुगर रेगुलेशन ऑफ़ प्रोडक्शन बिल। मिल मालिकों को कहा गया कि दस फीसदी चीनी कम पैदा करो नहीं तो तुम्हारे पर पीनल ड्यूटी लगेगी। जब इस हुकूमत ने यह कहा था तो मैं बहुत अदब के साथ इस हुकूमत से पूछना चाहता हूं कि क्या इस देश की खपत के लिए जितनी चीनी की ज़रूरत थी, वह पूरी हो गयी थी? अगर नहीं पूरी हुई थी तो इस आदेश का क्या कारण था? उस समय खाद्य मंत्री महोदय इस समय नहीं है, उनका वह भाषण मैं अभी पढ़ रहा था उन्होंने कहा था कि अगर हम इस तरह से शक्कर के उत्पादन को अनियंत्रित ढंग से छोड़ दें तो अगले कुछ दिनों में करीब दस मिलियन टन, यानी 100 लाख टन, एक करोड़ टन, शक्कर पैदा होने लगेगी और हमारे लिए एक समस्या उत्पन्न हो जायेगी। यह एक समाजवादी समाज बनाने वाली सरकार है। एक नियोजित अर्थ व्यवस्था में विश्वास रखने वाली सरकार है, जहां एक दिन में ऐसा लगता है कि शक्कर बढ़ रही है, दूसरे दिन ऐसा मालूम होता है कि शक्कर खत्म हो रही है।
महोदय, मैं आपसे कह रहा था कि उत्पादन के दो तीन तरीके होते हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। एक तो यह देखना पड़ेगा कि आज जो शक्कर की मिलें हैं उनकी डेली क्रशिंग कैपेसिटी क्या है, गन्ना खपत की उनकी ताकत क्या है। दूसरे यह कि मौसम यानी सीजन कितनी देर तक चलता है और तीसरे यह देखना पड़ेगा कि परसेंटेज ऑफ़ रिकवरी क्या है? आप इस नज़रिये से सोचिये। उत्तर प्रदेश में जितनी मिलें हैं, अधिकतर 1933-1934 में लगी हैं। उस ज़माने से आज तक पूंजीपतियों ने उस मशीनरी को मार्डनाइज नहीं किया, नये जो टेक्निक निकले, उनको अपनाया नहीं। मुनाफा कमाते रहे, आज भी मुनाफा कमाते जा रहे हैं। माफ कीजिये, अपने मित्र जयपुरिया जी से मैं कहूंगा। यह सही बात है कि इन मिलों की कैपेसिटी नहीं है। ऐसा माना गया है कि किसी भी शुगर फैक्टरी की 15 सौ टन प्रति दिन की कैपेसिटी होनी चाहिए गन्ने की खपत की। उत्तर प्रदेश की बहुत सी मिलें 1200 टन से नीचे की खपत करती हैं। क्यों ऐसा होता है, हम इसको क्यों बर्दाश्त करते हैं? आज शोर मचता है कि ये अनइकनामिक इंडस्ट्रीज हैं, नहीं चलेंगी। पूंजीपतियों ने कहा, जैसा कि दूसरे मित्र आज मांग कर रहे हैं कि इन मिलों को उठाकर दक्षिण भारत ले जाइये।
कृषि मंत्री जी फिर मुझे ठीक करेंगे, अगर मैं गलती कर रहा हूं कि पिछले सालों में अथाराइज्ड कन्टन्न्ोल के अंदर दो मिलें उत्तर प्रदेश की चलीं। उनकी बिगड़ी हुई हालत ठीक हो गयी और मुनाफा भी होने लगा। मैं बड़े अदब से कृषि मंत्री महोदय से कहूंगा कि अगर शुगर मिल के मालिक उत्तर प्रदेश में मिल नहीं चलाना चाहते हैं, अगर उनको इसमें घाटा होता है, तो उन बेचारों को कष्ट आप क्यों देते है? क्यों नहीं सरकार उनको अपने कब्ज़े में ले लेती है, क्यों नहीं सरकार उनको कोऑपरेटिव फैक्टरियों में कन्वर्ट कर देती है? सरकार करना नहीं चाहती है। मैं आपसे कहूं कि प्रति एकड़ गन्ने की पैदावार के बारे में अभी हमारे मित्र रेड्डी साहब ने जो कहा है, वह सही बात है। उन्होंने यह भी कहा कि उत्तर प्रदेश में सिंचाई की व्यवस्था नहीं है और खाद वगैरह ठीक से नहीं दी जाती। उनकी बात सही है। अभी मैं जून का इंडियन शुगर मैगज़ीन पढ़ रहा था, उसमें किसी एक साहब का लेख निकला है नाम मुझे उनका इस वक्त याद नहीं आ रहा है जिसमें उन्होंने कहा है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में जो यह शुगरकेन और शुगर इन्डस्टन्न्ी की दुर्गति है, उसका एक मात्र कारण वहां की सरकारें हैं। मैं सोचता था, कोई साहब नाराज़ होंगे। लेकिन अभी मैं यह इंडियन शुगरकेन कमेटी की 1961-62 की रिपोर्ट देख रहा था। श्रीमन्, आश्चर्य होगा रेड्डी साहब को कि जितनी गन्ना विकास योजनाएं उत्तर प्रदेश में लागू हुईं, सबकी सब पूरी हो गयीं। ये स्टेटिस्टिक्स हैं महाराष्ट्र में नहीं पूरी हुई, मैसूर में लक्ष्य पूरा नहीं हुआ, उत्तर प्रदेश और बिहार में जितना लक्ष्य रखा गया, उस लक्ष्य से अधिक काम उन सरकारों ने कर दिया। यानी उत्तर प्रदेश और बिहार की जो हुकूमतें हैं, वे स्टेटिस्टिक्स बनाने में एक खास काबिलियत रखती हैं और उस काबिलियत के बल पर हमारे कृषि मंत्री जी उनको छूट दिये हुए हैं, उनकी अभ्यर्थना करते हैं।
यह एक बड़ा सवाल हमारे सामने है और आप यह याद रखिये कि उत्तर प्रदेश और बिहार की स्थिति नहीं सुधरेगी तो आज इस दुर्दशा की अवस्था में भी करीब-करीब, मैं समझता हूं 65 फीसदी जो चीनी का उत्पादन केवल बिहार और उत्तर प्रदेश में होता है, उसको आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। दूसरी बात मैं आपसे यह अर्ज़ करूंगा कि गन्ना उत्पादकों के साथ यह सरकार क्या तरीका अख्तियार करती है? 1952-53 में माननीय स्वर्गीय रफी अहमद किदवई साहब खुराक मंत्री थे। उन्होंने कहा कि किसानों को चीनी उत्पादन के लाभ में से कुछ हिस्सा मिलना चाहिए। हर मिल मालिक ने उनकी बात को माना। सरकार ने उसे माना, पूंजीपतियों ने उसको माना, किसानों ने माना। माननीय रफी साहब ने सब लोगों को सामने बैठाया और कहा, तुमको लाभ में से इतना देना होगा और पूंजीपतियों ने उनकी बात को मान लिया।
श्रीमन्, मैं आपके ज़रिये कहना चाहूंगा कि केवल एक साल में, 1953-54 में, यूपी. की मिलों ने 50 लाख रुपये गन्ना उत्पादकों को दिये। बिहार जहां से कृषि मंत्री जी आते हैं, वहां की मिलों ने बड़ी उदारता के साथ 14,000 रुपये 1953-54 में गन्नाा उत्पादकों को दिया। उसके बाद कभी भी गन्नाा उत्पादकों को लाभ में हिस्सा नहीं दिया गया। दूसरी तरफ दक्षिण भारत में क्या हुआ? वहां जितनी मिलें थी उन्होंने 1952-53 में 1 करोड़ रुपया गन्नाा उत्पादकों को दिया यह ैप्ैड। थ्वतउनसं का मैं ज़िक्र कर रहा हूं। उन्होंने श्रीमन्, 1953-54 में 92 लाख रुपया दिया, 1954-55 में 40 लाख रुपये दिया, 1955-56 में 24 लाख रुपया दिया और 1957-58 में भी कुछ रुपया दिया। यह कुल रुपया करीब 1,07,37,000 रुपये था। ये फिगर्स मेरी नहीं हैं। खाद्य मंत्री साहब के भाषण से मैंने ये उह्रण निकाले हैं।
दक्षिण भारत के मिल मालिक मुनाफा कमायें वे दें और उत्तर भारत के न दें? जब यह सवाल संसद में उठाया गया कि क्यों नहीं दिया जाता तो माननीय मंत्री जी जो आज मौजूद नहीं हैं, मेरा मतलब माननीय श्री पाटिल जी से है, कहते हैं कि यह हमारी आपस की अंडरस्टैडिंग थी, कोई स्टैटुटरी राइट नहीं था। अच्छा साहब नहीं था। 1958 में इसेंसियल कमोडटीज एक्ट के अंदर आपने तय किया कि उनके लाभ में से हिस्सा दिलायेंगे। आपने डिफर्ड प्राइस पालिसी अख्तियार की और 1951 से 1962 तक का पैसा अभी तक नहीं मिला और 1962 में आप फिर कहते हैं हम इसको लागू नहीं कर सके। यही नहीं श्रीमन्, केवल लागू नहीं कर सके बल्कि आज तक हिसाब नहीं बना सके कि उत्तर प्रदेश के मिलों के पर गन्ना उत्पादकों का 1958-62 तक कितना बकाया है। यही नहीं कि उनको हिस्सा नहीं मिलता, उनकी पैदावार के लिए क्या यह सरकार ज़िम्मेदार नहीं है? 1961-62 में इस हुकूमत के सामने जब कहा गया कि जितना गन्ना पैदा हुआ है उसकी खपत का इंतज़ाम सरकार को करना चाहिए। इस पर सरकार ने कहा कि हम इस बात की कोशिश करेंगे लेकिन यह हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है कि सारे गन्ने की खपत हो जाये। मैं माननीय कृषि मंत्री जी से अदब के साथ कहूंगा कि मैं उत्तर प्रदेश के एक ज़िले की बात जानता हूं। देवरिया ज़िले में किसानों ने अपने खेतों पर खड़ा गन्ना जला दिया। यह बात मैं अकेले ही नहीं कह रहा हूं। आज भी उत्तर प्रदेश सरकार के सामने मुआवज़ा देने का मामला विचाराधीन है।
वहां के किसानों ने इस तरह से अपने खेत का गन्ना जलाया क्योंकि जून और जुलाई के महीने में मिलें बंद हो गयीं और गन्ने की खपत नहीं हो सकी। यही नहीं, 1950-51 में भी यह बात हुई, 1940-41 में भी हुई थी। करीब-करीब हर 10 साल के बाद एक क्रम आता है, गन्नो का उत्पादन अधिक हो जाता है और उसकी खपत का कोई इंतज़ाम नहीं हो पाता है। उस समय हुकूमत ने कहा क्रेशर लगाओ, कोल्हू लगाओ और गन्ने का उत्पादन करो, उत्पादन करके गुड़ और खांडसारी पैदा करो। जब किसानों ने अपने यहां कोल्हू और थ्रेशर लगा लिये तो सरकार 1963-64 में यह नहीं चाहती है और कहती है गुड़ तथा खंडसारी का उत्पादन नियंत्रित होगा।
श्रीमन्, मैं सरकार से यह पूछता हूं कि यह बात किसानों के पर क्यों नहीं छोड़ दी जाती कि वे गन्ने की कीमतों के बारे में मिल मालिकों से बातचीत करें। हमें ‘‘केन को-ऑपरेटिव यूनियन’’ बरकत के रूप में मिली है और बिहार तथा यू.पी. में यह काम कर रही है। जब कोई झगड़ा चलता है मिल मालिक और सरकार की ओर से दलाली करने का काम इस यूनियन का हो जाता है। मैं श्रीमन्, से कहता हूं कि आप इस सिलसिले में गौर करें, इस पर विचार करें और सोचें।
दूसरी बात कहकर अपना भाषण समाप्त कर दूंगा। मैं सरकार से यह कहना चाहता हूं कि जितने ये सारे सवाल हैं उन सवालों पर गौर करते समय यह बात सामने रखें कि आज की स्थिति का क्या समाधान है? चाहे उत्तर की मिलें हो या दक्षिण की, मेरी अर्ज़ यह है कि सरकार इन्हें सहकारी समितियों द्वारा खुद अपने कण्ट्रोल के अंदर चलाये। अगर यह सरकार इस काम को नहीं कर सकती तो उसको कम-से-कम प्राफिट के पर एक सीलिंग लगा देनी चाहिए, लाभ के पर रोक लगा देनी चाहिए और सब फैक्टरियों को बराबर का लाभ मिलना चाहिए। अगर सरकार नियोजित अर्थव्यवस्था की बात चलाती है तो सरकार का दिमाग साफ होना चाहिए। अगले साल कितनी शुगर एक्सपोर्ट करनी है उतनी शुगर के पर जो अधिक पैसा लगे और जितनी शुगर देश के अंदर खपत होने वाली है, उनके व्यय का समन्वय कर दिया जाना चाहिए। सरकार से दूसरा अर्ज़ मैं यह करूंगा कि वह जो 13 रुपया मन एक्साइज ड्यूटी लेती है, वह सरकारी दुर्नीति का दूसरा प्रमाण है। अगर सरकार अपनी एक्साइज ड्यूटी को 13 रुपये से 5 रुपये कर दे तो शक्कर का ज़्यादा उत्पादन होगा और इससे टोटल एक्साइज़ ड्यूटी में कोई फर्क नहीं पडे़गा। लेकिन सरकार उसी ज़हनियत से काम करती है जिस ज़हनियत से इस देश के पूंजीपति और सरमाएदार करते हैं। जितना चाहे मिल्किंग का से दूध निकाल लो, अगर आज नहीं निकालोगे तो कल वह बात होने वाली नहीं है।
अंत में, श्रीमान्, यह कहना चाहूंगा कि सरकार को एक सही नियोजित नीति अपनानी चाहिए और किसानों को दो रुपये मन गन्ने की कीमत देकर प्रेरणा देनी चाहिए। दूसरी बात जो मुझे कहनी है उसके लिए श्री जयपुरिया और श्री वाजपेयी जी माफ करेंगे। अगर कण्ट्रोल में खराबी है, भ्रष्टाचार है, घूसखोरी है, तो इन बुराइयों को मिटाना ही पडे़गा। अगर हम इस चीज़ को नहीं मिटा सकते हैं तो यह देश चन्द लोगांे की मर्ज़ी पर चलने वाला नहीं है। आप सारे देश की अर्थव्यवस्था को कुछ लोगों के हाथ में छोड़ दें, मैं यह बात नहीं मानता हूं। मैं सरकार से यह मांग करता हूं कि सारे शुगर का टेन्न्ड स्टेट टेन्न्डिंग के आधार पर होना चाहिए। उसके उत्पादन पर सरकार का नियंत्रण हो, उसके लाभ पर हो, उसके वितरण पर हो, तब सही समाजवादी व्यवस्था की ओर सही उत्पादन और वितरण की ओर हम अग्रसर हो सकते हैं।