भाषण से नहीं, अधिक अनाज उत्पादन से ही दिया जा सकता है देश की बढ़ती आबादी को खाना
संदर्भ: तीसरी पंचवर्षीय योजना के मध्यावधि मूल्यांकन सम्बन्धी प्रतिवेदन के बारे में प्रस्ताव 26 फरवरी 1964 को राज्यसभा में चंद्रशेखर
उपाध्यक्ष महोदय, किसी भी पिछड़े देश में खास तौर से भारत जैसे पिछड़े देश में जहां जनता को राजनैतिक अधिकार मिले हुए हैं आथक विकास के लिए किसी योजना का चलाना बड़ा कठिन काम होता है। आज़ादी आने के बाद स्वाभाविक रूप से देश में रहने वाले लोगों की आकांक्षाएं उभरती हैं। वे समझते हैं कि उनके सुख और समृह् िके लिए सब कुछ किया जाना चाहिए। तीसरी पंचवर्षीय योजना की जो भूमिका लिखी गयी, उसके प्रारम्भ में ही यह कहा गया कि इस योजना का केवल एक मन्तव्य है कि इस देश के लोग क्रमिक रूप से, धीरे-धीरे, समृह् िकी ओर, विकास की ओर अग्रसर हो सकें।
इतने बड़े देश में जहां सैकड़ों वर्षों तक गुलामी के दिनों में देश के विकास के लिए, आथक उत्थान के लिए कुछ न किया गया हो वहां अचानक यह ज़िम्मेदारी आ पड़ी। साथ ही देश में सारे जनसमूह को नागरिक अधिकार, राजनैतिक अधिकार मिले हुए हों तो हमारा हर एक काम बड़े संतुलित ढंग से होना चाहिए। अगर हमारा एक भी कदम गलत होता है तो उसका परिणाम भयावह होता है। आपके ज़रिये मैं यह हुकूमत से निवेदन करना चाहूंगा कि मैं महसूस करता हूं, मैं मानता हूं कि आथक विकास में अनेक कठिनाइयां हो सकती हैं और उन कठिनाइयों का ख्याल सरकारी पार्टी को होना चाहिए और विरोधी दलों को भी होना चाहिए लेकिन दूसरी तरफ यदि सरकार की तरफ से कोई भूलें होती हैं, कोई गलतियां होती हैं, तो उनको सुधारने का काम भी सरकार की ओर से होना चाहिए।
आज दो तरह के तत्व हमारे देश में काम कर रहे है। कुछ लोग आथक नियोजन के बीच में जो कठिनाइयां है उनका फायदा उठाकर सारी योजना को ही निर्मूल बनाने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ लोग इस बात पर बार-बार ज़ोर दे रहे हैं कि नियोजित अर्थ प्रणाली व्यर्थ सिह् हो चुकी है इसलिए आज के समाज में इसका कोई स्थान नहीं। दूसरी तरफ हुकूमत में जो लोग हैं वे आज अपनी भूलों को मानकर उसे सुधारने के लिए तैयार नहीं हैं। चाहे मंशा दो हों लेकिन नतीजा एक ही निकलता है। माननीय बलीराम भगत जी ईमानदारी से चाहते होंगे कि इस देश का विकास हो लेकिन उनकी हुकूमत के ज़रिये जो काम होता है उसका यह नतीजा निकलता है कि योजनाओं के प्रति जनता का विश्वास टूटता जा रहा है। मेरे माननीय मित्र श्री लोकनाथ मिश्र जी के विचार दूसरे हो सकते हैं लेकिन उनके कहने का भी परिणाम यही है कि आथक नियोजन के प्रति देश की जनता की आस्था टूटती है।
अब, अगर देश में समृह् िलानी है तो उसके लिए नियोजित प्रयास करना पड़ेगा? यह सत्य है कि मनुष्य की मौलिक मांग यह होती है कि उसको खाना मिलना चाहिए और इस देश में जब तक अधिक अनाज पैदा नहीं होता तब तक और कोई तरीका नहीं है कि इस देश के लोगों को खाना दिया जा सके। हो सकता है कि हुकूमतें दो, चार, दस, बीस वर्ष तक और बाहर की मदद से देश को खाना देती रहंे लेकिन जब तक यहां की शस्यश्यामला धरती से अधिक अनाज नहीं पैदा होगा तब तक इस देश की बढ़ती हुई आबादी को खाना देना, भोजन देना, सम्भव नहीं हो पायेगा। अगर यहां पर अधिक अनाज पैदा करना है तो क्या करना होगा? उसके लिए, इस पर विचार हो। अनाज पैदा करने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, चाहे पंडित जवाहर लाल नेहरू जी भाषण दें, चाहे हम लोग भाषण दें, इन भाषणों से कोई अनाज पैदा होने वाला नहीं है।