व्यक्तिगत जीवन में हिन्दू-मुसलमान होना गलत नहीं सार्वजानिक जीवन में उसे लाना साम्प्रदायिकता
संदर्भ: Banaras Hindu University (Amendment) Bill, 1965 29 नवम्बर 1966 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर
उपाध्यक्ष महोदय, मैं इस संशोधन का विरोध करता हूं। विरोध इस कारण से नहीं करता कि कोई राज्य सभा के अधिकारों की रक्षा की भावना है, केवल एक भावना से इसका विरोध करता हूं कि सिद्धांत का हनन नहीं होना चाहिए। पिछली बार जब यह विधेयक सामने आया तो उस समय हमने यह कहा था कि सिद्धांतों के अनुसार हिन्दू शब्द इस नाम में नहीं रहना चाहिए। इस पर विवाद उठता था। मुझे आश्चर्य होता है कि बहुत से विचारक लोग यह कहते हैं कि यदि जन मत तैयार न हो तो ऐसे संशोधन और ऐसे सुधार लाना कोई समझ की बात नहीं होती है। इस सिलसिले में उन्होंने महात्मा गांधी का भी नाम लिया। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि महात्मा गांधी ने जिस समय हरिजन उह्ार का काम शुरू किया था उस समय उनको भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। मैं दूसरी बात जानना चाहता हूं कि अंसारी साहब ने कहा था कि हिन्दू नाम हम बहुत सुनते आए हैं। महात्मा गांधी ने भी कहा हम हिन्दू हैं। महोदय, व्यक्तिगत जीवन में हिन्दू या मुसलमान होना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन सामाजिक जीवन में हिन्दू और मुसलमान की भावना को लाना, यह साम्प्रदायिकता है और यह धर्मनिरपेक्ष भावानाओं के विपरीत है। महात्मा गांधी ने कोई ऐसी संस्था नहीं बनायी जिसमें उन्होंने हिन्दू नाम का समावेश किया हो। मैं कांग्रेस के दोस्तों से और अन्य मित्रों से कहना चाहता हूं कि जिसके जीवन की कल्पना थी, धर्म निरपेक्ष समाज के स्थापना की, उस पं.जवाहरलाल नेहरू ने दो अवसरों पर दो बात कही। एक बार वे नेपाल यात्रा में गए तो उनसे कहा गया पशुपतिनाथ के मंदिर में दर्शन के लिए जाइये। क्या कहा पं. जवाहरलाल नेहरू ने? मैं मंदिर नहीं जांगा क्योंकि हर मानव मेरे लिए एक मंदिर है। दूसरी बात, 1957 के चुनाव के दौरान लखनऊ में एक मीटिंग में भाषण करते समय उनसे एक सवाल पूछा गया कि गो रक्षा के बारे में आपके क्या विचार हैं? चुनाव की मीटिंग में भाषण करते समय पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा अगर वह मानव की बहबूदी के लिए नहीं हैं तो हमारे लिए गाय और किसी दूसरे जानवर में कोई फर्क नहीं है। नये समाज के जो रचयिता होते हैं, नये समाज के जो बनाने वाले होते हैं, वे समाज की धाराओं के विपरीत भी जाना सीखते हैं और जाने का साहस करते हैं।
मैं अपने मित्र नीरेन घोष से सहमत हूं कि प्रतिक्रियावादी नीतियों के दबाव में आकर हम ऐसा संशोधन लाते हैं और कोई भी जनतंत्र, कोई भी संसदीय प्रणाली, चल नहीं सकती सफल नहीं हो सकती, जहां चार लोग कहें लूटपाट कर दें, आगज़नी कर दें, उनके बाद संसद को इस बात के लिए विवश किया जाये अपने संशोधनों को वापस ले लो या अपने संशोधनों में, कानूनों में, परिवर्तन कर लो। महोदय, मैं आपसे कहूंगा कि अगर जनतंत्रीय प्रणाली को रखना है, अगर लोगों में यह भावना विद्यमान रखनी है कि जनतंत्र के ज़रिये और संसदीय प्रणाली के ज़रिये भी देश में सामाजिक शक्तियों को बदला जा सकता है तो उसके लिए आवश्यक है कि जो प्रगतिवादी कदम उठाये जायें, उनसे कभी नहीं हटना चाहिए। हमारे कुछ मित्र कहते हैं हिन्दू-मुस्लिम नामों से, इन बातों से, कोई फर्क नहीं पड़ता। इस सिलसिले में मैं एक बात कहकर अपना भाषण समाप्त करूंगा।
माक्र्स ने जब अपनी किताब ‘दास‘कैपिटल’’ लिखी तो उसकी भूमिका में उसने एक बहुत अच्छी बात लिखी है। शायद वह जर्मन एडिशन की भूमिका में लिखी थी कि सिद्धांतों पर सब लोग समान हो जाते हैं। उसने एक उदाहरण दिया कि इंग्लैण्ड के चर्च के पोप के साथ 38 जो उसके काडनल मेम्बर्स हैं उनके 37 के विरोध में भाषण करो तो वह कहता रहेगा ईसा मसीह ने सिखाया है। सब लोग एक ही प्रभु की संतान है और सिद्धांत में वो कहेगा कि क्रोध नहीं करना चाहिए, रोष नहीं करना चाहिए, लड़ना नहीं चाहिए, लेकिन अगर उससे ज़मीन का एक हिस्सा लेने की कोशिश करो, तो ईसा मसीह के सारे सिद्धांत भूल जाते हैं और वह ‘‘क्रास’’ लेकर आपके पर हमला करेगा। यह हिन्दू नाम लेने वाले, या मुस्लिम नाम लेने वाले हमारे मित्र सिद्धांतों में प्रेम की भावना बड़ी जाहिर करते हैं लेकिन जहां पर उनके स्थिर स्वार्थों का ज़रा सा खंडन हो तो वहां विरोध में बात करने लगते हैं।
मैं भी पं. तारकेश्वर पांडे से और आपसे इस बात के लिए सहमत हूं कि हमारा इतिहास गौरवपूर्ण है। इस दृष् िसे वेदों में, पुराणों में, मुझे गौरव की अनुभूति होती है। मैं कहता हूं कि अतीत पर गौरव होना एक बात है, संस्कृति की मर्यादा को रखना एक बात है, लेकिन अतीत के अनुरूप स्वस्थ भविष्य की कल्पना करना और उसके आधार पर भविष्य को संजोना, यह तो बुह्मिानी की बात है, लेकिन अतीत के पीछे हमेशा दौड़ना, यह प्रतिक्रियावादी बात है। अतीत को ग्लोरिफाई करना, उसमें सारी अच्छाई ही अच्छाइयों को देखना, यह प्रतिक्रियावादी बात है। हमारे माननीय पांडे जी ने एक श्लोक कहा। श्लोक अच्छा है उस ज़माने के लिए। धर्म खास परिस्थितियों में पैदा होते हैं। जिन परिस्थितियों में केवल धर्म के पर, समाज के पर, आथक सम्बंधों के पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है, बदलती हुई दुनिया में जिस तरह से आथक सम्बंध बदलते हैं, जिस तरह से समाज के विभिींा वर्गों के आपसी सम्बंध बदलते रहते हैं उसी के अनुरूप धर्म की भावना को, धर्म के प्रचार की भावना को भी बदलना होगा। धर्म में एक तरफ बहुत अच्छी बातें लिखी हुई हैं। तो क्या हिन्दू धर्म में यह भी नहीं लिखा है कि सारी दुनिया को आर्य बनाओ। अगर इस प्रकार प्रचार करने में हमारे मित्र वर्माजी को गर्व है तो मुझे उसमें शर्म आती है। धर्म वह है जो समाज को धारण करे। समाज को धारण वही कर सकता है जो समाज के विकास के लिए, प्रगतिशील कदम उठाने के लिए, हर समय तत्पर हो क्योंकि जो कोई समाज स्थिर रहना चाहता है, वह समाज बर्बादी की ओर जायेगा, वह समाज ढलान की ओर जायेगा, वह समाज नीचे की ओर जायेगा। समाज या तो प्रगति करता है या अधोगति को प्राप्त होता है। समाज स्थिर नहीं रह सकता है क्योंकि समाज गतिशील है। भारतीय समाज को अगर आप गतिशील बनाना चाहते हैं, अगर इसको ठीक करके गंगा को गंगा रखना चाहते हैं तो याद रखिये, ये पुराने श्लोकों को उह्ृत करना छोड़ दीजिए। उनको याद रखिये, उनसे प्ररेणा लीजिए।
दूसरी बात हिन्दू धर्म में यह लिखी है कि जो राजा गो और ब्रा२ण की रक्षा करता है, वही आदर्श राज्य है और उसकी मैं कामना करता हूं। मैं उसकी कामना नहीं करता क्योंकि ब्रा२णों ने शोषण किया है, उस शोषण का बदला उन्हें भुगतना पड़ेगा। आप चाहें न चाहें लेकिन समाज को बदलिए, नहीं तो समाज के इतिहास के रथ के चक्कर में आपका सिर नीचे आ रहा है, दुनिया की कोई ताकत उस रथ को हमारे सिर के पर से जाने से नहीं रोक सकती। इसलिए मैं मंत्री महोदय से अनुरोध करूंगा कि जो एक प्रगतिशील कदम उठाया था राज्यसभा ने, उसी का वे अनुमोदन करें और लोकसभा के माननीय सदस्यों से कहें कि प्रगति के पथ पर अवरोध न बनें। अन्यथा इतिहास का रथ रुकने वाला नहीं है, वह हमारे और दूसरों के सिर से चला जाने वाला है, यदि हम उसके मार्ग में अवरोध बनेंगे।