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धारा 36 एडी में दिए गए उपबंध का कोई औचित्य नहीं, बड़े औद्योगिक घरानों के बैंक केवल शहरों तक

संदर्भ: बैकिंग विधियां (संशोधन) विधेयक 1968 4 दिसम्बर 1968 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उपसभापति महोदय, यह आश्चर्य की बात है कि मामला जब प्रवर समिति के पास गया तब प्रवर समिति ने विधेयक के किसी खंड अथवा उसकी किसी धारा में संशोधन करना उचित नहीं समझा। मेरे मित्र ने अभी इस विधेयक की धारा 36 एडी का ज़िक्र किया है जो अत्यंत विवादास्पद धारा है। इस उपबंध को सारा बैकिंग उद्योग चिन्तित है। महोदय, इस विधेयक में 36एडी का उपबंध करना न केवल अनावश्यक प्रतीत होता है वरन् पूर्णतया अन्यायपूर्ण है क्योंकि विधेयक के उद्देश्य से यह सिह् होता है कि यह एक सामाजिक नियन्त्रण विधेयक है।

ऐसा प्रतीत होता है कि यह बैकिंग संस्थाओं पर सामाजिक नियन्त्रण नहीं चाहता किन्तु यह कर्मचारियों को नियन्त्रित करना चाहता है। बैंक के कर्मचारियों के साथ भेदभाव क्यों बरता जाये? यह तो इस देश के बैंकों के एकाधिकारियों के लिए एक रियायत है। यह वास्तव में आश्चर्य की बात है कि कोई भी सरकार जो समाजवादी होने का दावा करती है, बैंकों के समृह् स्वामियों को प्रसींा करने के लिए इस प्रकार का उपबंध लाये। मुट्ठी भर लोगों के द्वारा सरकार पर दबाव डाला जा रहा है और यही धनवान लोग अनन्तः हमारी विचारधारा की प्रवृक्रिा पर और इस सम्मानित सभा में हमारे विधानों पर नियन्त्रण किये हुए हैं। यदि ऐसी बात नहीं है तो बैकिंग को एकाधिकार विधेयक से बाहर रखने में क्या तुक थी?

यह विधेयक केवल दिखावा मात्र है वरन् यह एक कपटपूर्ण विधान है जो इस समस्त देश के लोगों की आखों में धूल झोंकने के लिए अपनाया गया है? यह कहना एक कपटपूर्ण बात है कि सरकार ने कुछ बड़े-बड़े व्यापारियों की गलत गतिविधियों को नियन्त्रित करने के लिए जोकि हमारे आथक विकास की जड़ को ही काट रहे हैं कतिपय विधान पारित किये हैं।

उप-प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि बैकिंग उद्योग में यदि धनी लोग श्रमिक नेताओं को झूठे मामलों में फंसाने का प्रयत्न करने लगें और मजदूर संघ की सारी कार्यवाहियों को कुचलने का प्रयत्न करने लगें तो उनकी सुरक्षा के लिए क्या व्यवस्था है। मजदूर संघ के प्रायः सभी नेता इस बात पर एकमत हैं कि धारा 36एडी में दिए गए उपबन्ध का कोई औचित्य नहीं है और उसका इस विधेयक में कोई स्थान नहीं होना चाहिए था।

महोदय, सरकार को श्रमिकों में एक भावना उत्पन्न करनी चाहिए कि वे राष्ट्रीय विकास की सारी गतिविधियों में साझेदार हैं तथा समान रूप से भागीदार हैं। इस प्रकार की भावना उत्पन्न करने के स्थान पर यदि सरकार उनसे सख्ती का व्यवहार करना चाहती है तो अगामी वर्षों में इस प्रकार के विधान द्वारा मजदूर संघ की कार्यवाहियों को दबाने का उसका इरादा पूर्ण रूप से गलत साबित हो जायेगा। क्या पिछले 20 वर्षों के दौरान गैर-सरकारी बैकिंग संस्थाएं संसाधनों को जुटाने और हमारी योजना की प्राथमिकताएं निर्धारित करने में सरकार के लिए सहायक रही हैं। इसकी जांच की जानी चाहिए। केवल स्टेट बैंक ही ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में पहुंचा है। यह सब बड़े-बड़े उद्योगपति जिनके नियंत्रण में बड़े गैर-सरकारी बैंक हैं, अपनी शाखाएं केवल बड़े शहरों में ही खोलकर संतुष्ट हैं।

यह विधेयक आथक संकेंद्रीयण की समस्या को तनिक भी हल नहीं करता है। यदि यह ऐसा नहीं करता है तो फिर सरकार के लिए यह कहना कहां तक न्यायोचित है कि बैंकिंग संस्थाओं को एकाधिकार विधेयक से बाहर रखना चाहिए।

महोदय, रिज़र्व बैंक जानबूझकर एकाधिकारों का समर्थन कर रहा है तथा उन्हें प्रोत्साहन देता है। यदि रिजर्व बैंक के पास सारे अधिकार हों और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि कोई एक बैंकिंग इकाई अनियमित कार्रवाइयां करती है तो भी वह मौन चेतावनियां देने से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता। यदि वह गै़र-सरकारी बैंकिंग संस्थाओं के विरुह् कार्रवाई करना चाहे तो भी ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि जैसे ही सरकार किसी बैंकिंग संस्था को खुली धमकी देगी तो बैंक में लोग धन निकालने के लिए इकट्ठे हो जायेंगे और अन्त में नतीजा यह होगा कि न केवल वह इकाई बेकार हो जायेगी वरन् देश के पूरे आथक मार्केट के लिए कठिनाइयां पैदा हो जायेंगी। इस सीमाओं को ध्यान में रखकर रिज़र्व बैंक इस बैंकिंग संस्थाओं पर नियन्त्रण रखता है और यही कारण है कि इन सारी शक्तियों के बाद रिज़र्व बैंक इन बैंकिंग संस्थाओं पर नियंत्रण नहीं रख सका है।

महोदय, रिज़र्व बैंक आफ इंडिया ने यह कहा था कि राज्यों में अवस्थापना पैदा करना तथा सारी सुविधाएं देना राज्यों का अपना-अपना काम है और उसके बाद ही गै़र-सरकारी बैंकिंग संस्थाएं उन क्षेत्रों का विकास करने के लिए ऋण देंगी। रिज़र्व बैंक की इस मनोवृत्ति को देखते हुए हम नहीं जानते कि क्षेत्रीय असंतुलन को हटाने के लिए क्या किया जा सकता है। यदि भारतीय रिज़र्व बैंक और योजना आयोग के बीच समन्वय नहीं रहेगा तो किन्हीं योजना संम्बंधी प्राथमिकताओं का रखना सम्भव नहीं हो सकेगा। हमने किसी प्रतिशोध की भावना से बैंको के राष्ट्रीयकरण की मांग नहीं की थी वरन् इसलिए की थी कि अन्यथा इस देश के आथक बाजार को नियंत्रित करना सम्भव नहीं होगा।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।