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संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मंत्रियों ने जम्हूरियत के अखलाक को तोड़ने की कोशिश की, सदन भत्र्सना करे

संदर्भ: Alleged use of force against U.P. Ministry 19 दिसम्बर 1967 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


माननीय उपसभाध्यक्ष महोदय, माननीय भूपेश गुप्ता ने यह सच ही कहा है कि यह सवाल कानून का उतना नहीं है जितना राजनीति का प्रश्न है। मैं भी इसको राजनैतिक दृष्टि से ही लेना चाहूंगा। मैं आपके द्वारा माननीय भूपेश गुप्त से कहना चाहता हूं कि संसदीय जनतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा तब पैदा होता है जब जम्हूरियत का इस्तेमाल करके, उसमें बड़े ओहदे पर बैठे हुए लोग जम्हूरियत को खत्म करने की बात करते हैं।

महोदय, माननीय त्रिलोकी सिंह ने अपने भाषण के प्रारम्भ में कहा कि मंत्रियों ने जो ऐलान करके कानून तोड़ने की बात की उससे वह सहमत नहीं हैं। लेकिन प्रश्न केवल असहमति का नहीं है। प्रश्न यह है, कि यह किस तरफ संकेत करता है, यह इशारा किस तरफ है। संसदीय जनतंत्र में जिनको सबसे ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं, वही लोग अगर कानून को तोड़ने का इरादा करके कानून तोड़ें और सारे देश के सामने, राष्ट्र के सामने, एक उदाहरण रखें कि कानून तोड़ना कोई मर्यादा और बहादुरी की बात है और हमारे माननीय मित्र भूपेश गुप्त को बहुत बड़ी परेशानी मालूम होती है कि संसदीय जनतंत्र खतरे में आ जाएगा, अगर पुलिस कानून तोड़ती है, अगर पुलिस के लोग राजनैतिक कार्यकर्ताओं के पर और जनता के प्रतिनिधियों के पर हाथ उठाएं। लेकिन जिस समय जनता के प्रतिनिधि स्वयं कानून तोड़ने लगें और पुलिस के सामने यह जाकर कहें कि कानून तोड़ना उनका फर्ज़ है, कर्तव्य है तो माननीय त्रिलोकी सिंह जी और माननीय भूपेश गुप्त से मैं पूछना चाहता हूं कि भविष्य के लिए आप कौन-सा उदाहरण रखते हैं? आप यह कहते हैं पुलिस हूलिगेनिज़्म करे तो संसदीय जनतंत्र ही उसे रोक सकता है क्योंकि पुलिस पर हमारा कब्ज़ा है, पुलिस को हम सही रास्ते पर ले जा सकते हैं। लेकिन अगर संसदीय जनतंत्र के अधिकार के द्वारा हूलिगेनिज़्म और कानून तोड़ने में कोई शिरकत करे तो उसको रोकने के लिए, मैं इस सदन से जानना चाहूंगा कि रास्ता क्या है? उसका रास्ता तो वही है कि पुलिस की ताकत का इस्तेमाल किया जाये क्योंकि पुलिस की ताकत का इस्तेमाल नहीं होता क्योंकि इस संसद ने अधिकार दिया है पुलिस को उस पुलिस ने अपने कुछ कर्तव्यों का पालन किया।

महोदय, मैं आपके ज़रिये माननीया सरला भदौरिया से कहूंगा कि उस पहलू पर भी मैं अपने विचार रखूंगा। शुरू में मैं कहना चाहता हूं कि आखिरकार क्या तरीका है। माननीय त्रिलोकी सिंह ने जो सवाल उठाया है, वह एक मौलिक सवाल है, बुनियादी सवाल है। उससे मैं सहमत हूं कि पुलिस सरकार के हाथ में नहीं होती है वह लोकल अथाॅरिटी के हाथ में होती है, स्थानीय अधिकारियों के हाथ में होती है। इतनी तो मौलिक बात उन्होंने कही। लेकिन एक बात जो उन्होंने कही कि अगर शायद महानगर पालिका के हाथों में पुलिस होती तो यह घटना नहीं होती। मैं नहीं समझता कि इसका कारण क्या है क्योंकि माननीय प्रभुनारायण सिंह और रामस्वरूप वर्मा जी जिस सरकार के मंत्री हैं उसी सरकार की पुलिस ने गिर∂तारी की। यानी यहां की गिर∂तारी के तीन दिन बाद, आज से दो दिन पहले, मेरठ में तीन संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के विधायकों को पकड़ा, वहां भी यही किया गया और पुलिस ने उनको धक्का दिया।

महोदय, मैं आपसे जानना चाहूंगा। स्थानीय निकायों में भी जनता के ही प्रतिनिधि होते हैं और यहां भी स्थानीय निकाय जनप्रतिनिधियों के हाथ में है। लेकिन सवाल यह है कि पुलिस की शान्ति और व्यवस्था रखने की ज़िम्मेदारी रहेगी या नहीं? चाहे वे स्थानीय निकायों के अधिकार में हों या फिर वे राज्य सरकारों के हाथ में हों। अगर पुलिस के ज़िम्मे यह काम रहेगा कि वह शान्ति और व्यवस्था को कायम रखे, तो इसे कायम रखने के लिए पुलिस अपनी ज़िम्मेदारी निभायेगी और उस ज़िम्मेदारी को निभाने में कभी-कभी शक्ति का भी प्रयोग करना पड़ सकता है। यह दुःख की बात है कि एक जनतंत्र में इस तरह की बात नहीं होनी चाहिए।

महोदय, मैं आपके ज़रिये इस सदन से कहना चाहूंगा कि उस दिन जब यह सवाल उठाया गया था, मैं उस बात को यहां पर फिर दोहराना नहीं चाहता हूं कि ढाई घंटे और तीन घंटे तक किसी मिनिस्टर को पुलिस लॉकअप में इंतज़ार करना पड़ा और यह बुरी बात है। इस बात की भत्र्सना होनी चाहिए और निंदा होनी चाहिए। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि किसी मंत्री को इससे यह अधिकार मिल जाता है कि वह कचहरी के अंदर जाये और मजिस्ट्रेट के अधिकारों को न माने। महोदय, मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आज तो मैजिस्टेन्न्ट के सामने की बात है, अगर कल कोई सुप्रीम कोर्ट के सामने जाकर इस तरह की बात करेगा, तो क्या इस तरह से संसदीय जनतंत्र चलने वाला है, अगर हम न्यायपालिका की रक्षा नहीं कर सकते? जब मजिस्ट्रेट न्याय देने को बैठता है, तो उसकी वहां पर इज़्ज़त होनी चाहिए।

एक बड़ा सवाल उठाया गया है जो अपनी जगह पर बड़ी अहमियत रखता है। मैं यह बात मानता हूं कि अगर मजिस्ट्रेट एक दिन के लिए मुकदमा बढ़ा देता तो उससे कोई तूफान बरपा नहीं हो सकता था। 5 बज गए थे और नित्य के कर्म में लोगों को जाना था। श्री त्रिलोकी सिंह जी कायदे कानून के बारे में मुझसे अधिक जानकार हैं। लेकिन मैं यह जानता हूं कि जेल अगर छह बजे बंद होता है तो उसी जेल के नियम के अंदर मजिस्ट्रेट अपने आदेश जारी करके 12 बजे रात को भी जेल खुलवा सकता है। मजिस्ट्रेट अगर कहता है कि अदालत में रहिये। बीच में हस्तक्षेप कर श्री राजनारायण ने कहा, You do not know anything about law. You have to learn it. जवाब में श्री चंद्रशेखर ने कहा, हमारे माननीय सदस्य लॉ की व्यवस्था में काफी अनुभवी है। महोदय, मैं आपसे निवेदन करता हूं और राजनारायण जी से कहना चाहता हूं कि मजिस्ट्रेट 12 बजे तक बैठा सकता है। मैंने तो एक बात कही थी कि जेल बंद होने का जो समय है, वह कोई नियम के अंदर नहीं आता।

मैं जानता हूं कि माननीय त्रिलोकी सिंह जी अपनी बातों को अच्छी तरह से कह सकते हैं। मैं उनसे सहमत हूं कि लॉकअप और अनलॉकअप का सवाल नहीं है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर मजिस्ट्रेट के आर्डर से जेल 12 बजे भी खुल सकता है और उसमें बंदी भेजे जा सकते हैं। मजिस्ट्रेट इमरजेंसी में किसी भी समय जेल को खुलवा सकता है।

मैं दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि अगर उनका हिन्दी के लिए इतना प्रेम था क्योंकि मैं श्री राजनारायण जी और श्री रामस्वरूप जी को 15-20 वर्षों से जानता हूं और वे मेरे व्यक्तिगत मित्र भी रहे हैं। अगर उन्हें कानून तोड़ना ही था तो दिल्ली आने की क्या ज़रूरत थी। चेतना और जागृति की बात तब मानी जाती जब मेरठ में दफ़ा 144 को तोड़ते। उत्तर प्रदेश के 11 जगहों पर उनकी हुकूमत ने धारा 144 लगा रखी थी और इन 11 जगहों पर उन्होंने कानून तोड़ना ज़रूरी नहीं समझा। वे कानून तोड़ने के लिए दिल्ली आये।

मैं माननीय भूपेश गुप्त जी से एक बात कहना चाहता हूं और मैं उनकी बात से सहमत हूं कि एक खतरा दिखाई पड़ता है। मैंने गृहमंत्री और जो राज्यमंत्री हैं उनसे भी कहा था कि जो ये संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मंत्री है, वे यहां पर कोई हिन्दी के पक्ष में वातावरण बनाने के लिए नहीं आए हैं। यह उनका राजनैतिक अभिनय करने का एक राजनैतिक ढंग है।

मैं आपको बताना चाहता हूं कि यह राजनैतिक अभिनय सारे संसार के इतिहास में एक बार हिटलर ने किया था। हिटलर ने कहा था कि अगर राष्ट्रीयता को बचाना है तो उस तरह के आदमी हिटलर की नाजी पार्टी में ही हैं। अगर आज हिन्दी को बचाने की किसी में ताकत है तो इन लोगों में है जो राष्ट्रीयता के रंगमंच पर राजनीति का एक नए तरह का अभिनय कर सकते हैं। इन लोगों से निपटने के लिए एक ही तरीका है और वह यह है कि इनकी बातों को नोटिस में मत लाइए।

महोदय, पुलिस ने जो कुछ किया, उसके लिए शासन की ज़िम्मेदारी है, यह मैं नहीं जानता हूं। लेकिन मैं आज इस सदन के ज़रिये भारत सरकार को चेतावनी देना चाहता हूं कि इस तरह के राजनैतिक अभिनेताओं से आप बचिये क्योंकि न उनको हिन्दी से प्रेम है, न जनतंत्र से प्रेम है। उनका तो एक ही मकसद है कि यह संसदीय जनतंत्र किसी तरह से टूटे। मैं श्री भूपेश गुप्ता जी से कहूंगा कि हमको कोई खतरा नहीं दिखाई देता है। माननीय भूपेश गुप्ता जी जानते हैं कि जब पश्चिमी बंगाल में गड़बड़ हुई थी और वहां के लोग तथा मंत्री, प्रधानमंत्री जी के दरवाज़े पर धरना देने के लिए आये थे, तो उस समय श्री भूपेश गुप्ता जी ने और कम्युनिस्ट पार्टी के दूसरे नेताओं ने स्वयं कहा कि इस तरह की बात मत करो। यह एक मखौल होगा और उन्होंने एक रास्ता निकालने की कोशिश की।

मैं यह कहना चाहता हूं कि चाहे कम्युनिस्ट पार्टी हो, चाहे जनसंघ हो, चाहे प्रजा समाजवादी पार्टी हो, लेकिन जिस तरह से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने भारत की राजनीति में इस तरह का अभिनय अपनाया है, वैसा किसी पार्टी ने नहीं अपनाया है, वह ठीक नहीं है। इसलिए मैं आपसे कहना चाहूंगा कि केंद्रीय सरकार का यह कर्तव्य है कि वह सदन में इन लोगों को अपने प्रचार करने का मौका न दे।

महोदय, अंत में मैं यह कहना चाहूंगा कि यह मोशन आ गया है, यह प्रस्ताव आ गया है। लेकिन पुलिस ने जो ज्यादती की है उसकी जांच होनी चाहये। अगर पुलिस ने अपना कर्तव्य पालन किया तो मैं श्री भूपेश गुप्ता जी और श्री त्रिलोकी सिंह जी से कहूंगा कि वे इन लोगों की भत्र्सना करें। अगर वह चाहते हैं कि केवल पुलिस के व्यवहार की भत्र्सना की जाये तो मैं इस बात से सहमत नहीं हूं।

मेरे मित्र श्री शुक्ल जी ने एक संशोधन रखा है। वह दरअसल इस तरह से होना चाहिए कि यह सदन इन मंत्रियों के कार्य की भत्र्सना करता है कि उन्होंने इतने ंचे पद पर रहकर, इतने गरिमा के पद पर होकर, इस तरह से व्यवहार किया। उन्होंने जनतांत्रिक परम्पराओं का, जम्हूरियत का अखलाक जो है, उसको मिटाने की कोशिश की। जो लोग सियासत में जम्हूरियत के अखलाक को तोड़ते हैं उन्हें जम्हूरियत में मिले हुए हकों को इस्तेमाल करने का कोई हक नहीं हो सकता। इसलिए मैं सदन से अनुरोध करूंगा कि वह इन दो मंत्रियों के व्यवहार की तीव्र स्वर से भत्र्सना करे।

मैं सरकार से भी निवेदन करूंगा कि अगर पुलिस ने ज्यादती की है, जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, तो उसकी जांच की जाये और जो दोषी पाया जाये उसको सज़ा मिलनी चाहिए। लेकिन मजिस्ट्रेट के कोर्ट में जो कुछ हुआ, वह भत्र्सना का विषय है और सदन को यह बताना चाहिए कि न्यायपालिका के अधिकारों की रक्षा करने के लिए वह œतसंकल्प है। मजिस्ट्रेट जो आर्डर देता है, उसको मंत्रियांे को मानना चाहिए था और मजिस्ट्रेट पुलिस को जो आर्डर देता है कि वह मंत्रियों को कोर्ट में ले आये, तो इसमें पुलिस का कोई दोष नहीं है।

मैं इन शब्दों के साथ आपके ज़रिये सदन से अनुरोध करता हूं कि मंत्रियों के कार्य की निन्दा होनी चाहिए।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।