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हुकूमत के हाथ में डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट बंदर के हाथ में मशाल जैसी, संशोधन आवश्यक

संदर्भ: A Judgment of Supreme Court and continued detention of persons under the Defence of India Act, 1962 19 सितम्बर 1963 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उपाध्यक्ष महोदय, इस विषय पर बोलने में पहले मुझे थोड़ा संकोच था, क्योंकि विधान और नियम की जानकारी मुझे कम है। कानून का न तो मैं पंडित हूं और न इसका कोई विद्यार्थी रहा हूं, लेकिन खासतौर पर कानून मंत्री महोदय का भाषण सुनने के बाद मेरी झेंप कुछ कम हो गयी। मुझे अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि हमारे विधि विधाओं ने, कानून के जानने वाले लोगों ने, इस सवाल को केवल एक पहलू से सोचा है।

पालयामेंट में और सुप्रीम कोर्ट में थोड़ा फर्क होना चाहिए। दोनों के सोचने के तरीके में और दोनों जगहों पर विवाद करने के तरीके में भी फर्क होता है। मैं मानता हूं, जैसा कि हमारे याजी जी ने कहा कि देश की सुरक्षा के लिए ऐसे कानून की ज़रूरत है। मैं यह भी मानता हूं कि देश के पर जब बाहरी हमला होता है तो उस हालत में देश के सामने कुछ ऐसे प्रश्न आते हैं, कि मौलिक अधिकारों को भी दूर करके देश की सुरक्षा को प्रतिष्ठित करना ज्यादा आवश्यक होता है। लेकिन साथ ही प्रश्न यह उठता है कि जब हम ऐसे नियम बनाने लगें तो हमें अपनी मौलिक मान्यताओं को कभी नहीं भूलना चाहिए। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि चाहे जिस वजह से हुआ हो, गृह विभाग ने या लॉ मिनिस्ट्री ने यह विधान बनाने के समय, ये नियम बनाने के समय यह नहीं सोचा कि भारत आज़ाद है और आज़ाद होने के साथ ही साथ हमने प्रजातांत्रिक मान्यताएं मानी हैं। साथ ही हमने यह माना है कि कानून सर्वोपरि होता है। हमने यह भी माना कि हर एक नागरिक की सुरक्षा पर तब तक आंच नहीं आनी चाहिए, जब तक कि उसकी वजह से देश की सुरक्षा के पर कोई खतरा नहीं होता।

हमारे माननीय वक्ताओं ने कहा है कि आज देश के सामने ऐसी हालत है कि यह कानून जो पारित हुआ है, संविधान के मुताबिक हुआ है। लेकिन क्या यह सोचने की बात है कि संविधान में कानून बनाने का जो हक दिया था, उसकी ज़रूरत आज थी कि नहीं। आज जो डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स बने हैं, उनमें और 1942-43 में अंग्रेज़ों के ज़माने में जो कानून बना उसमें कोई फर्क नहीं, सीधे उसी को उठाकर रख दिया। नागरिक अधिकारों का ख्याल नहीं रखा गया और महोदया, मैं कहना चाहूंगा कि उस ज़माने में भी, 1942-43 में भी, ‘‘इम्परर वर्सेज़ शिवनाथ बनर्जी’’ का एक केस हुआ कलकत्ता हाईकोर्ट में और हमारे माननीय मित्र बसु जी जानते हैं कि उस समय वहां हाईकोर्ट ने होल्ड किया कि जो धारा 26 थी, डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट की उसे ठीक से लागू नहीं किया गया।

1942-43 में अंग्रेज़ों के ज़माने में भी लोगों को यह अधिकार था कि वे उस कानून के अंतर्गत कोर्ट में जा सकते थे। लेकिन ऐसा कानून बना हुआ है कि कोर्ट के अंदर कोई अपनी गरज को लेकर नहीं जा सकता, अपने दुःख-दर्द को लेकर नहीं जा सकता। यह सवाल हमको सोचना ज़रूरी है कि इसकी आवश्यकता थी या नहीं? सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया कि इस पालयामेंट ने जो कानून बनाया, वह एक चुनौती की हालत में बनाया। उसने समझा कि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है, नागरिक अधिकारों को बरकरार रखने के लिए। थोड़े दिनों तक कानून की निगाह में उनको अदालत में जाने का मौका नहीं मिलना चाहिए।

मेरे मित्र शीलभद्र याजी जी ने कहा है कि देश की सुरक्षा के विरुह् विरोधी दल के लोग कानून का विरोध कर रहे हैं। मैं बड़े अदब के साथ कहता हूं कि एक्ज़ीक्यूटिव को कितने ही अधिकार आप दे दीजिए, सारे अधिकार दे दीजिए, लेकिन अगर सरकार भ्रष्ट है, अगर सरकार में कार्य करने की क्षमता नहीं है तो कानून के ज़रिये देश की सुरक्षा नहीं हो सकती और अगर हो सकती है तो आप इसका जवाब दीजिए। आज से पनर््ीह दिन पहले प्राइम मिनिस्टर ने कहा था कि हिन्दुस्तान में चाइना लाबी चल रही है। डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल उन पर लागू हो सका है क्या? नहीं हो सका। इसलिए नहीं हो सका कि कार्यकारिणी में जो हुकूमत है, उसमें कार्य करने की क्षमता नहीं है। दूसरी तरफ मैं आपको बताऊँ इसमें बड़ा खतरा होता है कि एक बार रूल आफ लॉ को तोड़ दीजिए, जैसा कि माइनारिटी जजमेंट में कहा गया है, तो उसकी कोई रोक नहीं होती। एक बार कानून के ज़रिये शासन नहीं चलता तो शासन दोनों तरफ अपने को पेंडुलम की तरह ले चलता है। माननीय भूपेश गुप्त जी माफ करेंगे, एक तरफ हमारे बहुत से लोग डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स के अंतर्गत ऐसे पकडे गए होंगे, जिनको पकड़ना जरूरी था, लेकिन कया यह सही नहीं है कि बहुत से लोग ऐसे पकड़े गए, जिनके पीछे कोई ग्राउण्ड नहीं है। केरल में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक एमएल.ए. पकड़े गये। क्यों? क्योंकि मज़दूरों की हड़ताल हो रही है। बिहार में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता बसावन सिंह पकड़े गयेऋ क्योंकि यहां एक्स्प्लोसिव फैक्टरी में हड़ताल हो रही थी। सरकार मालिकों का पक्ष लेना चाहती थी। मजदूरों के हकों पर कुठाराघात करके मालिकों के पक्ष में डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स को अख्तियार करके हमसे कहा जाये कि मुल्क के पर खतरा है, इसलिए तुम कचहरी में नहीं जा सकते। मैं बड़े अदब से कहंूगा जो दोस्त उन मान्यताओं का समर्थन करते हैं, इसके पहले कि ये अध् ाकार दिये जायें, सरकार को इस बात के लिए ज़िम्मेवारी के साथ देश के सामने, दुनिया के सामने कहना पड़ेगा, समाज के सामने कहना पड़ेगा कि जो ज़रूरतें है, केवल उसी के मुताबिक काम किया जायेगा। चुनौती जिस समय थी उस समय ऐसा कानून पास करना ठीक था। लेकिन क्या चुनौती की हालत आज ज्यों कि त्यों सरकार की नज़र में बरकरार है? क्या आज हुकूमत इस तरह से चुनौती को लेने को तैयार है? सुरक्षा कानून के अंदर लोगों की गिर∂तारी हो चुकी है। इमरजेंसी बनी रहे, लेकिन मैं नहीं समझता हूं कि कचहरी में जाने का अधिकार लोगों को क्यों नहीं होना चाहिए।

मैं आपसे यह भी कहूंगा कि आप इतना घबराए क्यों हैं? आखिर जुडीशियरी बैरोमीटर होती है समाज का, समाज के हर स्पन्दन का असर जुडीशियरी पर होता है। जिस समय विश्व युह् के ज़माने में अमेरिका पर हमला हो रहा था, जापानी लोग हज़ारों की तादाद मे पकड़ कर जेल में बंद कर दिये गए, उस समय फेडरल कोर्ट ने उनका मामला नहीं सुना क्योंकि उस समय एक परेशानी की हालत थी, हंगामे की हालत थी, लेकिन उसके बाद उनके मामले की सुनवाई जुडीशियरी के सामने हुई। जुडीशियरी जहां विधान से संचालित होती है, वहां पर राष्ट्रीय भावना और युग की पुकार से संचालित होती है।

मैं नही समझता कि कोई भी जुडीशियरी विधान के नुक्ते नज़रिये को देखकर, देश की सुरक्षा का ख्याल नहीं करती। लेकिन अफ़सोस है कि इस सरकार को अपनी जुडीशियरी पर यकीन नहीं। सरकार को अगर सबसे ज़्यादा यकीन है, तो एक्जीक्यूटिव पावर के पर है और इस एक्ज़ीक्यूटिव पावर का किस तरह दुरुपयोग किया जा रहा है, मैंने संक्षेप में आपसे कहा।

दूसरी बात मैं कहना चाहूंगा कि रूल ऑफ़ लॉ को तोड़ने का नतीजा क्या होगा? केवल यहीं नहीं होगा कि माननीय भूपेश गुप्ता जी कल गिर∂तार कर लिये जायें भूपेश गुप्ता जी उसके हकदार भी हैं, उससे लाभ भी उठाए हैं मैंने एक बार ज़िक्र किया था और बड़ी ज़िम्मेवारी के साथ कहता हूं । कम्युनिस्ट पार्टी में एक ग्रुप को बढ़ाने के लिए हिन्दुस्तान के सबसे ज़िम्मेवार आदमी वजीरे आज़म पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यू.पीगवर्नमेंट को यह राय दी कि तेजा सिंह ‘स्वतंत्र’ के पर कत्ल का मुकदमा है पंजाब का, वह वापस ले लिया जाये।

हमारे मित्र याजी जी ने कहा, सोवियत लाबी को मज़बूत करने के लिए आंदोलन के लिए, मुज़ाहिरा करने के लिए हक दिया गया था। वे रूसी पंथी है और इसी रूसी पंथी के नाम पर पंडित जवाहरलाल नेहरू, वज़ीरे आज़म ने, माफ करेंगे भूपेश गुप्ता जी, इनके लीडरों के कहने पर तेजा सिंह के पर से मुकदमा उठाने के लिए यू.पी. गवर्नमेंट के पर दबाव डाला गया। एक बार यू.पी. गवर्नमेंट ने इन्कार किया। दूसरा खत लिखा गया। मैं यह कहूं, कोई भी हुकूमत, कोई भी एक्जीक्यूटिव जो दूसरी राजनीतिक पार्टियों की आपसी गुटबंदी को बरकरार रखकर, उनको तेज करके हुकूमत चलाना चाहती है, वह सरकार कभी देश की सुरक्षा नहीं कर सकती, वह सरकार कभी रूल ऑफ़ लॉ लागू नहीं कर सकती।

हमें सबसे खतरा इसलिए है कि आज की इस हुकूमत के हाथों में ये सारे अधिकार दे दिये जायेंगे जो इस डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल में दिये हुए हैं और ऐक्ट में दिये हुए हैं तो फिर शायद किसी की भी सुरक्षा नहीं हो सकेगी। मैं दूसरी बात आपसे अर्ज करना चाहूंगा। हमारे विधि मंत्री ने बड़ी काबिलियत के साथ यह कहा कि 358 में और 359 में फर्क है थोड़ा फर्क, हम लोग समझते हैं। बहुत कानून का पंडित नहीं हूं, लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि क्या केवल 358 के प्राविज़न्स से काम नहीं चल सकता था। अगर हुकूमत काम करने की ज़िम्मेदारी समझती, अगर हुकूमत को काम करने की गर्ज़ होती। लेकिन अगर यह नहीं है, तो काम नहीं होना है।

मैंने एक बात अर्ज़ की थी बीच में, जब मिनिस्टर साहब बोल रहे थे। आखिरकार समाज में जो विचार उठते हैं, उसका कुछ ज्ञान होना चाहिए। अटार्नी जनरल साहब जब बहस कर रहे थे तो उन्होंने कहा कि कोर्ट में न जाने का जो प्राविज़न है वह डिफेक्टिव है। यह बात अटार्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट के सामने कही। महोदय, मैं अगर गलती नहीं करता हूं तो ‘स्टेट्समेन’ का यह एडीटोरियल है, इसे मैं पढ़ना चाहूंगा:

"The Attorney-General conceded before the Supreme Court that lack of provision in the D.I.R. for communication of grounds of detention and for an opportunity for the defense to make a representation was defect. The State need not be seriously handicapped if it has to apply the normal law of detention. Its provisions for review had paralyzed during the last war when even known enemy agents were offered secret trial and opportunity for review of sentences on them. Under a special ordinance in the light of the Supreme Court's verdict therefore the Government would do well to revoke the ban under article 359 if not the emergency as well."

केवल एक ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने नहीं लिखा, ‘स्टेट्समेन’ ने, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने, ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने कोई भी डेली ऐसा नहीं जिसने यह कहा हो। गवर्नमेंट को संशोधन करना है इसके पर? नहीं करना है संशोधन। क्यों? जरूरत नहीं समझती। मैं बड़े अदब के साथ माननीय गृहमंत्री जी से कहूंगा, एक बार सिविल लिबर्टीज़ के पर जानबूझकर जो हमला बोलता है, शायद उसके कान्सीक्वन्सेज, उसके परिणाम नही जानता। मुझे एक वक्त की याद आती है माफ करेंगे हमारे मित्र जिस समय टन्न्ाटस्की ने दबाया था रूस में हड़ताल करने वालों को और कहा था मौलिक अधिकारों की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन जिस दिन स्टालिन का हथौड़ा टन्न्ाटस्की के पर पड़ा, आप याद रखिये, टन्न्ाटस्की सबसे बड़ा सिविल लिबर्टीज़ का और मानव अधिकारों का मानने वाला बन गया।

मैं दूसरी बात कहता हूं। अभी मैं एक किताब पढ़ रहा था Conversation with Stalin by Milovan Djilas. मेरे पास इस समय इसके बारे में बताने के लिए समय नहीं है। सेकन्ड वल्र्ड वाॅर के ज़माने में क्या हुआ, किस तरह से स्टालिन ने उन लोगों को दबाया? मैं अपने मित्रों से जो दूसरी साइड में बैठे हैं, कहूंगा कि कम्युनिस्ट पार्टी को दबाने के नाम पर कहीं उस ज़हनियत के शिकार न हो जाइये, जिस ज़हनियत का शिकार होकर कम्युनिस्ट पार्टी ने मानव मर्यादाओं को हमेशा के लिए ठुकरा दिया। मैं आपसे यह अर्ज करना चाहूंगा कि इस नुक्ते नज़र से आपको इस सारे पहलू पर विचार करना पडे़गा। अगर हम उस पहलू पर थोड़ा गौर करें, तो हम ऐसा समझते हैं कि ज़रूरत इस बात कि है कि आप सुरक्षा का ध्यान रखें, लेकिन उनको यह हक दें कि कचहरी के सामने, जुडीशियरी के सामने जाकर अपनी फरियाद रख सकें। अगर ऐसा नहीं होता है तो रूल ऑफ़ लॉ नहीं रहेगा, देश की मर्यादाएं और मान्यताएं नहीं रहेंगी और प्रजातंत्र की वे मान्यताएं, जिसके पर हम आज इस सदन में बैठे हैं वह नहीं रहेंगी।

मुझे डर है महोदय कि इस हुकूमत के हाथ में यह ऐक्ट वैसे ही है जैसे एक बंदर के हाथ में मशाल हो, चाहे तो उस मशाल से अंधेरे में उजाला करे, चाहे उस मशाल से खुद अपने ही घर को फूंक दे जिस घर से उसने मशाल पाई थी। इसलिए आज जो हुकूमत है उसके हाथ में डिफेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट वैसे ही है जैसे बंदर के हाथ में एक मशाल देना। मुझे उम्मीद है कि यह पालयामेंट, यह सदन, इस खतरे को कभी सहन नहीं करेगा, इस खतरे को कभी लेने के लिए तैयार नहीं होगा। हमारा यह अनुरोध है कि आप सुरक्षा की कार्यवाहियों को तेज करें लेकिन लोगों को जुडीशियरी में जाने का हक़ दें। यह देश की मौलिक मान्यताओं का प्रश्न है, इसलिए मैं विधि मंत्री तथा गृह मंत्री जी से अनुरोध करूंगा कि सुप्रीम कोर्ट की भावना को देखते हुए, देश के जनमत को देखते हुए, इसमें संशोधन लाएं।

मुझे अफसोस है कि लॉ डिपार्टमेंट ठीक वैसा ही काम करता है जैसा डिफेन्स डिपार्टमेंट काम करता है। जिस तरह से नेफा में डिफेन्स के लोग भागे, पता नहीं चला कहां वे गए, वैसे ही मालूम होता है कि दिल्ली में कोई खतरा आ रहा है जिसकी वजह से जल्दी-जल्दी में सारे कानून बनते हैं, जल्दी-जल्दी में पता नहीं लॉ-मिनिस्टर क्या करते हैं। ऐसे लॉ मिनिस्टर को रहने को कोई हक नहीं है जिसके के ज़माने में अटार्नी जनरल कहता है कि यह दोषपूर्ण कानून बना हुआ है और उस दोष को हमने नज़र अंदाज़ कर दिया। इसलिए यह हुकूमत सोचेगी, खासतौर पर वज़ीर आज़म साहब साचेंगे कि जो दूसरों को सुरक्षा का पाठ पढ़ाते हैं, दूसरों को जम्हूरियत का पाठ पढ़ाते हैं, वे रूल ऑफ़ लॉ के रास्ते में हायल न बनें, उस रास्ते में प्रतिरोध न लगायें। अगर वे इस तरह की कोई कठिनाई लगाते हैं तो हो सकता है हम उसका फैसला नहीं कर सकें, लेकिन आने वाला कल, आने वाला इतिहास उसका फैसला करेगा।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।