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अनियंत्रित बाज़ार की नीति लागू करना सबसे बड़ी भूल,नियमों-उपनियमों से कुछ नहीं होने वाला

संदर्भ: Essential Commodities (Amendment) Ordinance, 1964 & Essential Commodities (Amendment) Bill, 1964 15 दिसम्बर 1964 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उपाध्यक्ष महोदय, मैं प्रारम्भ में ही यह प्रकट कर देना चाहता हूं कि मैं उन सब कदमों के साथ हूं जो कि जखीराबाजों और मुनाफाखोरी करने वालों के खिलाफ उठाए जाए लेकिन जिस प्रकार से यह अध्यादेश लाया गया और इसके पहले भी जिस तरह से नियमों का पालन किया गया जो कि सरकार ने खुद बनाये है, उससे संदेह होता है कि इन नियमों का पालन भी कहां तक होगा? इसी दृष्टिकोण से मैं माननीय अटल बिहारी वाजपेयी को बधाई देना चाहता हूं कि जनसंघ ऐसी पार्टी से ताल्लुक रखते हुए भी, उसके नेता होते हुए भी, कभी-कभी वे अच्छी बातें कहते हैं।

मैं यह बात इसलिए कह रहा था कि मैं भी श्री वाजपेयी जी की तरह नहीं समझ सका कि यह अध्यादेश 5 नवम्बर को लाने का विशेष कारण क्या था? अभी हमारे पूर्व वक्ता महोदय ने बताने की कोशिश की और माननीय अकबर अली ख़ान साहब ने जिनकी हम लोग बड़ी इज़्ज़त करते हैं, उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि उससे पहले शायद ज़रूरत नहीं थी और 5 नवम्बर को ज़रूरत महसूस हुई। महोदय, पिछली बार जब पालयामेंट में हम लोग मिल रहे थे, मैंने आपको बताया था। इस सदन को भी मालूम है कि दो खबरें एक साथ छपीं। एक खबर यह छपी कि उत्तर प्रदेश के उक्राराखंड के इलाके में फौज के लोग अपने राशन से कटौती करके वहां के भूखे लोगों को अनाज दे रहे हैं। अपने राशन का एक हिस्सा उन्होंने वहां के भूखे लोगों को बांटा, इसलिए कि उनको खाना मिल सके और दूसरी खबर यह भी छपी कि उक्राराखंड के रास्ते से नेपाल और तिब्बत को हमारे देश का चावल चोरी से जाता है। उस समय पालयामेंट चल रही थी, उस समय सरकार के सामने यह दृश्य साफ था लेकिन आवश्यक नहीं समझा गया कि इस तरह का कोई अध्यादेश लाया जाये। पालयामेंट के पिछले अधिवेशन में खाद्य मंत्री ने कहा, प्रधानमंत्री ने कहा कि हम परिस्थिति के पर काबू पा रहे हैं, स्थिति पहले से सुधर रही है। चाहे इस अध्यादेश से कोई बात प्रकट होती हो या न होती हो, इतनी बात अवश्य प्रकट होती है कि पिछले अधिवेशन से और 5 नवम्बर तक खाद्य स्थिति और अधिक बिगड़ी है। जखीराबाजों और मुनाफाखोरी करने वालों की प्रवृत्ति और अधिक बिगड़ी है और सरकार को इस बात के लिए मजबूर होना पड़ा है कि इस प्रकार का अध्यादेश लाएं।

इस अध्यादेश की ज़रूरत क्यों पड़ी? क्या इसके पहले सरकार के तरकश में जो हथियार थे, उनका इस्तेमाल किया गया? माननीय खाद्य मंत्री ने कहा और वह ठीक कहा कि हथियार हर दम चलाना पड़े, यह ज़रूरी नहीं है। किसी समय चलाने की ज़रूरत पड़ सकती है, इसके लिए भी हथियार रखना ज़रूरी होता है। महोदय, हथियार का प्रदर्शन हर दम कोई ज़रूरी नहीं होता। हथियार अपने पास रखे जाते हैं और उनको ज़रूरत पड़ने पर इस्तेमाल करने के लिए निकाले जाते हैं, किन्तु अगर हथियार हर-दम बिना ज़रूरत चमकाए जायें तो इसके अर्थ ये होते है कि हथियार चलाने का कोई इरादा नहीं है। मेरा यही आरोप है इस हुकूमत के पर कि जो कानून बनाये जाते हैं, एक बार नहीं अनेक बार जो वक्तव्य यहां पर दिये जाते हैं वे लागू करने के लिए नहीं बनाए जाते, नहीं दिये जाते। बढ़ते हुए अंसतोष की धारा को मोड़ने के लिए, उस अंसतोष को कुंठित करने के लिए समय-समय पर इस तरह की घोषणाएं की जाती है।

महोदय, मैं इस सिलसिले में माननीय खाद्य मंत्री जी को तुलसीदास जी की एक चैपाई की याद दिलाना चाहूंगा:

‘‘सूर समर करनी करहिं,

कहि न जनावहिं आप।

विद्यमान रण पाइ के,

कायर करहिं प्रलाप।।’’

"In the battlefield the brave is known by his chivalry. But faced with the same situation the coward only talks too high."

तुलसीदास जी ने जो कहा है, आज हमारी हुकूमत के बारे में वह सही हो रहा है। खाद्य मंत्री के सारे वक्तव्यों को ले लीजिए, प्रधानमंत्री के सारे वक्तव्यों को ले लीजिए और उनका सारांश निकालिए तो ऐसा लगता है कि इस पालयामेंट के फोरम से, समाचार पत्रों के ज़रिये हम बातें करना चाहते हैं लेकिन कुछ करने का इरादा नहीं है और अगर इरादा है तो इसको करने की हममें सामथ्र्य नहीं है। जिस हुकूमत में किसी भी नियम और कानून को लागू करने की सामथ्र्य नहीं है, उस हुकूमत को संसद को बहुत सोच समझकर अधिकार देना चाहिए। जैसे जिस आदमी को अणु बम चलाने का ज्ञान नहीं है, उसके हाथों में अणु बम को देना खुद का संहार करना है।

इसी तरह जो हुकमूत अपने द्वारा बनाये गए कानूनों को लागू नहीं कर सकती उसे और अधिक अधिकार देना इस बात को द्योतक है कि हुकूमत ऐसी परिस्थिति में सदन को पहुंचा देना चाहती है, इस देश को इस हालत में पहुंचा देना चाहती है कि देश का जन मानस यह समझने लगे कि इन वक्तव्यों से कुछ नहीं हो सकता, संसद के नियमों से कुछ नहीं हो सकता और जो कानून बनते हैं, उनके ज़रिये कुछ नहीं हो सकता। माननीय अकबर अली खान यहां नहीं हैं, मैं उनको बताना चाहता था कि 5 नवम्बर को जब अध् यादेश जारी हुआ था। मैंने बड़े भरोसे के साथ माननीय लाल बहादुर शास्त्री जी के वक्तव्य को पढ़ा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि अब जितने अधिकार देने चाहिए सारे अधिकार अधिकारियों को दिये गए हैं और उसके बाद भी अगर हालत नहीं सुधरी तो इसके लिए वही दोषी साबित होंगे लेकिन 5 नवम्बर के बाद क्या खाद्य मंत्री यह कहेंगे कि जमाखोरी में कुछ कमी हुई है, जखीरेबाजी में कमी हुई है, मुनाफाखोरी में कमी हुई है? क्या व्यापारियों का सहयोग मिला है? जहां तक व्यापारियों का सवाल है, हमार एक माननीय सदस्य ने अभी कहा कि हमें पुरानी परम्पराओं पर भरोसा रखना चाहिए और उस पर अगर भरोसा रखें तो हमें इस बात का विश्वास हो जायेगा, कि उन अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया जायेगा।

मान्यवर, मैं आपके ज़रिये इस सदन को बताना चाहता हूं कि भारत सुरक्षा कानून का उपयोग किस पर हुआ? सस्ते ग़ल्ले के दुकान करने वाले, 1,000 की पूंजी लगाने वाले सैकड़ों व्यापारी हर राज्य में जेलों में भेजे गए या उन पर मुकदमा चलाया गया। मैं नहीं जानता किसी राशनिंग इन्सपेक्टर या क्लर्क के पर भी मुकदमा चला या नहीं लेकिन एक भी बड़ा आदमी, एक भी जखीरेबाज, एक भी ऐसा आदमी जो सारे हिन्दुस्तान की अर्थव्यवस्था को प्रतिक्रयावादी धारा की ओर मोड़ना चाहता है, उसके पर कोई कानून नहीं लगता। दिल्ली के अंदर जखीरों को पकड़ा गया, यहां के कमिश्नर ने बयान दिया, खाद्य मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने कहा उन्होंने बड़ा करिश्मा किया है। तीन दिनों बाद पता चला, यह तो केवल वेरीफिकेशन ऑफ़ स्टाक था। फिर यह संदेह होता है कि कानून का उपयोग कैसे होगा।

डिफेन्स ऑफ़ इंडिया का एक तो उनके पर उपयोग हुआ और दूसरा उपयोग संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के लोगों पर हुआ। मैं इस मामले को पहले भी उठा चुका हूं। उन्होंने इस बात के लिए मुजाहिरा किया, प्रदर्शन किया कि खुराक की हालत बिहार में खतरनाक है। इस पर वहां के एक विधायक श्री रामानंद तिवारी के पर लाठियां और डंडे चले, उनको सरे बाजार मारा गया, उनको एक कानून के अंतर्गत आरा या बक्सर की जेल में रखा गया। सारे नियम उठाकर अब उनको डी.आई.आर. में बंद कर दिया। जिस मजिस्ट्रेट ने मारा उन मजिस्ट्रेट के बारे में वजीरे आला कहूं, मुख्यमंत्री कहूं उन्होंने जवाब दिया कि वह आदमी वहां पर मौजूद ही नहीं था, उनकी जांच से यह साबित हो गया।

महोदय, उस मजिस्टेन्न्ट को मैं जानता हूं, इसलिए कि एक दिन फस्र्ट क्लास के स्टीमर के सैलून पर बैठकर माननीय बलिराम भगत, माननीय राम सुभग सिंह, माननीय जगजीवन राम, वहां की माननीय सुमित्रा सिन्हा और दसों मिनिस्टरों को उसने कहा कि ये सब बेईमान हैं, घूसखोर हैं, पालयामेंट व एसेम्बली के द्वारा सिवाय घूस लेने के और बेईमानी करने के कोई काम नहीं करते।

मैंने माननीय कृष्ण बल्लभ सहाय को मार्च में एक खत लिखा। मुझसे कहा गया आप पटना में आकर बयान दीजिए कि इस मामले के बारे में क्या कहना चाहते हैं। मैं गया बयान देने के लिए। मेरे दोस्तों ने कहा मत जाओ। मैंने कहा, जरूर जांगा। जब मजिस्ट्रेट बयान लेने लगे तो मैंने कहा महोदय, आप बता सकते हैं मेरा इन मजिस्ट्रेट से क्या ताल्लुक हो सकता है, बिहार से मेरा कोई ऐसा ताल्लुक नहीं रहा, इस आदमी को मैं नहीं जानता। जो जो घटनाएं मिनिस्टरों के साथ गुजरी हैं, उसका एक अंश भी मुझे मालूम नहीं। लेकिन यही आदमी जब रामानंद तिवारी, एक सार्वजनिक कार्यकर्ता, एक एम.एल.ए. को मारता है। चीफ मिनिस्टर कहते है ठीक काम किया क्योंकि रामानंद तिवारी यह कह रहे थे कि बिहार में खुराक की हालत ख़राब है। मैं समझता हूं कि यह व्यक्तिगत केस नहीं है। माननीय पी.एन. सप्रू जी के लिए व्यक्तिगत हो सकता है, लेकिन एक पोलिटिकल पार्टी, का नेता अगर डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स में गिर∂तार होता है, उसके साथ ज्यादती की जाती है, तो हमारे लिए यह उतना ही सार्वजनिक प्रश्न है जितना कि सरकार को बचाने के लिए, उसके साथ हमदर्दी दिखाने के लिए। माननीय सप्रू जी के लिए एक सार्वजनिक प्रश्न हो सकता है, क्योंकि जिस तरह से सरकार की प्रशंसा करना वे अपना गौरव समझते हैं, उसी तरह से एक स्टेट के नागरिक की सुरक्षा करना और उसके अधिकारों का हनन न हो, इस बात को देखना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं।

दूसरी बात, महोदय, मैं यह कहना चाहता हूं कि आखिरकार उन घोषणाओं को क्रियान्वित करने के लिए कोई कदम सरकार क्यों नहीं उठाती। जैसा माननीय वाजपेयी जी ने कहा एक केस भी अभी तक ऐसा नहीं पकड़ा गया जो इस कानून के अंतर्गत आता है। क्या इसका मतलब यह है कि 5 नवम्बर के बाद हम समझ लें कि इस देश में जखीरेबाजी बंद हो गयी? क्या इस अध्यादेश के बाद हम समझ लें कि जो व्यापारी थे, उन्होंने सरकार के साथ सहयोग करना शुरू कर दिया? ऐसा तो नहीं हुआ कि 5 नवम्बर के बाद यह नहीं हुआ। इसलिए नहीं हुआ क्योंकि हुकूमत की जो मशीनरी है, जिसके द्वारा दस दिन पहले माननीय खाद्य मंत्री जी ने अध्यादेश लागू किया, वह आज दो महीने के बाद भी तैयार नहीं है और जो हालत 5 नवम्बर को थी, वही हालत आज 15 दिसम्बर को है, दोनों में कोई फर्क नहीं हुआ है और माननीय खाद्य मंत्री जी को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वे जो नियम बनाते हैं, जो कनून बनाते हैं, उनको लागू करने वाली मशीनरी कैसी है? यह वह मशीनरी है जिसको मैं भ्रष्ट तो नहीं कहूंगा लेकिन निकम्मी जरूर हो गयी है।

अभी एक माननीय सदस्य ने कहा, अगर किसी आदमी को नाजायज़ तौर पर इस एक्ट के तहत पकड़ा जाता है तो संविधान की धारा 226 के अंतर्गत रिट आ सकता है। मैं कानून नहीं जानता, मैं वकील नहीं हूं। लेकिन संविधान की धारा 226 शायद ऐसे मामलों में लागू नहीं हो सकती, क्योंकि कोई भी उच्च न्यायालय कोई भी हाईकोर्ट, जब तक कि एक्ट का वायलेशन न हो या जब तक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न हो, धारा 226 के अंतर्गत कोई रिट् मंज़ूर नहीं करेगा।

एक और बात बड़े जोरों से कही गयी। खाद्य मंत्री जी ने कहा कि ये जो अधिकार दिये जा रहे हैं, वे जुडीशियरी को दिये जा रहे हैं। इस सवाल को छोड़ दीजिए जिसकी ओर माननीय सदस्य ने इंगित किया कि जुडीशियरी के किस स्तर के लोगों को दिया जायेगा। लेकिन जब सरसरी तौर पर सुनवाई होती है मुकदमों की, उस समय जुडीशियरी के लिए कोई खास मौका नहीं होता, अपनी राय प्रकट करने का एक आदमी पकड़ा गया, एक राशनिंग इन्सपेक्टर की या दो अफ़सरों की गवाही हुई, इधर-उधर की बात हुई और सजा कर दी। जुडीशियरी के सामने पूरी तफ़सील नहीं दी जाती है और न दोनों तरफ के गवाह ही पेश होते हैं। समरी टन्न्ायल्स में सफाई पेश करने का मौका नहीं होता। इसका मतलब भी ऐसा ही है। इस बारे में मैं यह कहूंगा कि संसद सरकार को जो अधिकार देती है, उसका इस देश में दुरुपयोग किया जाता है। इससे भी बड़ा खतरा जो मुझको दिखाई देता है वह यह है कि इन अधिकारों को लेने के बाद हुकूमत कुछ नहीं करेगी। वह नाकामयाब हो जाएगी तो भी हमारे खाद्य मंत्री जी बजट सेशन जो फरवरी में आ रहा है, उसमें कुछ कहेंगे और जैसा कि हमसे पिछले सेशन में कहा गया था कि हमने खुराक की हालत पर काबू पा लिया है। लेकिन 5 नवम्बर को एक अध्यादेश लागू कर दिया गया, जिसको आज संसद के सामने पेश किया गया है। अब इस संबंध में यह कहा जा रहा है कि हम इस कानून के द्वारा खाद्य के मामले में सख्त-से-सख्त कदम उठाने जा रहे हैं। माननीय श्री अकबर अली जी ने कहा कि इस तरह की भावना देश में जानी चाहिए कि यह संसद भ्रष्टाचार के मामले में, जखीरेबाज़ी को रोकने और किसी तरह की मिलावट को रोकने के बारे में एकमत है। मैं माननीय मंत्री जी से बड़े अदब से यह कहना चाहूंगा कि देश के अंदर इस तरह की भावना पैदा होनी चाहिए कि संसद के अंदर जो विचार होते हैं, जो निर्णय होते हैं, उनका कोई असर होता है। सरकार इन नियमों को कार्यान्वित करने के लिए तत्पर रहती है। किन्तु यदि संसद में किये गए फैसलों को कार्यान्वित नहीं किया जाता है, तो इसका नतीजा क्या होता है, लोगों में एक तरह की निराशा फैलती है, मायूसी फैलती है और उस निराशा तथा मायूसी का एक ही नतीजा होता है कि जिस चीज को रोकने के लिए हम कानून बनाते हैं, वही ज़हनियत और प्रवृत्ति इस मुल्क में और बढ़ती है।

मेरा इस अध्यादेश को लागू किये जाने पर जो सबसे बड़ा विरोध है, वह यह है कि इतने बड़े हथियार को जारी करने के बाद, निकालने के बाद अगर हुकूमत इसका इस्तेमाल नहीं करती है तो फिर याद रखिये इस मुल्क में जो पीड़ित जनता है, उसकी राहत के लिए, उसके भरोसे के लिए कोई चीज़ नहीं रह जाएगी। मैं एक और बात खाद्य मंत्री जी से निवेदन कर देना चाहता हूं कि क्या आप समझते हैं कि यह ज़खीरेबाज़ी की समस्या, यह होडंग की प्राबलम और मुनाफेखोरी की समस्या केवल इस बिल के द्वारा कुछ लोगों को कुछ महीने की सजा देकर या जुर्माना करके हल हो जायेगी?

जैसा कि अभी माननीय श्री वाजपेयी जी ने एक कार्टून का ज़िक्र किया था। मैं भी यह कहना चाहता हूं कि जहां तक खुराक का मामला है, सरकार सुदृढ़ नीति क्यों नहीं बनाती है, कोई फैसला क्यों नहीं करती है? वह इस तरह के च्युनिटिव मेजर्स को लागू करके, छोटे-मोटे कायदे कानूनों को बनाकर क्या इतनी बड़ी समस्या को हल करना चाहती है? अगर सरकार इस समस्या को हल करना चाहती है, तो एक बार इस संसद के सामने आकर कहे कि सबसे बड़ी भूल भारत सरकार ने 1953 में की जिस समय उसने यह कहा कि हम कण्ट्रोल को हटाकर, नियंत्रण को हटाकर धीरे-धीरे अनियत्रिंत बाजार की नीति लागू करना चाहते हैं।

महोदय, उस समय के खाद्य मंत्री जी अब इस संसार में नहीं रहे और मैं उनके बारे में कुछ नहीं कहूंगा। अब आप 1953 से 1955 तक की खुराक नीति को ही ले लीजिए। उस समय श्रीमान् क्या हुआ? उस समय हमारे पास जो स्टाक था, उस समय हमारे पास जो अनाज का भण्डार था, उस समय हमारे पास जो विदेशी पूंजी थी, उसको हमने खर्च कर दिया और सारे देश में इस तरह की ज़हनियत पैदा हो गयी है कि अगर नियंत्रणों का हटा लिया जायेगा, तो देश में खुशहाली आ जायेगी और कोई परेशानी नहीं रहेगी। श्रीमान्, मैं आपके सामने 1953 से 1955 तक की बात बताना चाहता हूं इस बीच एक मौका ऐसा आया जब फसल बर्बाद हुई। लेकिन फसल बर्बाद होने के बावजूद खुराक की चीजों की कीमत नहीं बढ़ी। क्यों नहीं बढ़ी? इसलिए नहीं बढ़ी कि उस समय आंशिक नियंत्रण था, और व्यापारी यहां पर हर तरह का मेन्यूपिलेशन करते थे कि नियंत्रण से बिल्कुल हटा दिया जाए। ज्यों-ज्यों नियंत्रण पूरी तरह से हटता गया, त्यों-त्यों कीमतें भी बढ़ती ही चली गयी। 1955 के अंत में या 1956 में मुझे अच्छी तरह से मालूम नहीं है, मैं याददाश्त से कह रहा हूं, कोई निश्चित तिथि नहीं बता सकता हूं, कीमतंे बढ़नी शुरू हो गयीं थी। दुर्भाग्य से उस समय जो खुराक के वजीर साहब थे, वे भी उसके बाद इस दुनिया में नहीं रहे। वे दो वर्ष इस देश में ऐसे समझे जाते हैं जबकि खुराक के मामले में इस देश में सबसे अच्छी नीति बनायी गयी थी। लेकिन मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि यही सही नहीं है। इसके बाद सारे देश की ज़हनियत को एक दूसरी दिशा में मेरी दृष्टि में गलत दिशा में मोड़ने की कोशिश की गयी। कोई भी अर्ध विकसित देश, कोई भी पिछडा देश, कोई भी देश जहां सैकड़ों में 40 या 50 प्रतिशत लोग भूखे या अधभूखे हों, उस देश में अनाज की खपत आथक विकास के साथ अधिक बढ़ेगी और अनाज के पर लोगों का पैसा भी अधिक खर्च होगा तथा देश में अनाज की कमी भी होगी। ऐसे मौके पर किसी नियोजित अर्थव्यवस्था में खाद्यान्नों पर से नियंत्रण हटाना एक भयंकर भूल होगी और उस समय इस तरह की भूल की गयी, जिसको आज भी रह-रहकर दोहराया जा रहा है कि 1956 से 1955 तक ऐसी नीति अपनाई गयी थी, जिससे खुराक की समस्या ठीक हो गई थी।

श्रीमान्, मैं अदब से यह कहना चाहता हूं कि इस समस्या को हल करने की कोशिश नहीं की जा रही है, बल्कि इस समस्या से जनता का मुंह मोड़ा जा रहा है। कुछ लोगों की ओर से यह प्रचार किया जाता है कि 1953 से 1955 तक भारत सरकार ने भी खाद्य नीति अपनायी थी, वह अब नहीं अपनायी जा रही है, जिसका नतीजा हम भुगत रहे हैं। इस प्रचार नीति का नतीजा यह हो रहा है कि देश की हानि हो रही है, केवल भौतिक रूप से नहीं अध्यात्मिक रूप से भी। आज सारे देश का मानस बदला जा रहा है और यह सरकार जो अपने को समाजवादी कहती है, जो नियोजित अर्थव्यवस्था में विश्वास करती है, कभी-कभी यह सोचने लगती है कि यह सारी कठिनाई कहीं नियंत्रणों की वजह से तो नहीं हो रही है? इसी वजह से पूरा नियंत्रण का हुक्म नहीं देती है।

मैं माननीय मंत्री जी से कहूंगा कि इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि सारे खाद्य व्यापार को सारे इस काम अपने हाथ में लेना होगा। लेकिन इसमें कठिनाइयां हैं, दिक्कतें हैं, मशीनरी में भ्रष्टाचार है, लेकिन इसके अलावा इस मुल्क के लिए कोई रास्ता नहीं है। इस कठिनाई को 6 महीने, 8 महीने और अगर इससे भी ज़्यादा समय लग जाये तो मुसीबत झेलकर हल कर लेना चाहिए। हमारे माननीय मंत्री जी को देश के सामने कहना चाहिए, संसद के सामने कहना चाहिए कि वे 8 महीने में, 10 महीने में पूरी तरह से आने वाली उस कठिनाई पर नियंत्रण करेंगे। अगर सरकार सारे खाद्याींा के व्यापार को अपने हाथ में ले लेती है हो सकता है कि नौकरशाही में भ्रष्टाचार हो, उसमें इस तरह के कार्य करने की क्षमता न हो लेकिन सारे देश को 8 महीनों तक दिक्कतों को बर्दाश्त करना होगा और अपना भविष्य बनाना होगा। लेकिन यह हुकूमत साहस के साथ इस तरह का कदम उठाने के लिए तैयार नहीं है, खाद्य मंत्री जी साहस के साथ इस तरह का कदम उठा नहीं पाते हैं। क्योंकि उनके चारों तरफ जो निहित स्वार्थ के लोग हैं, वे उनके पीछे लगे हुए हैं और उन्हें इस तरह का कदम उठाने से रोकते हैं।

श्रीमान्, माननीय मंत्री जी के चारों तरफ इन निहित स्वार्थी लोगों का दबाव पड़ता है। तब उसकी वजह से वे कभी-कभी फिसल जाते हैं और सही बातें सोचते हैं, सही राय देते हैं, लेकिन जब कदम उठाने के लिए मौका आता है, तो उस समय खाद्यानों के पर सरकार नियंत्रण की घोषणा के बजाय वे सदन के सामने आकर कहते हैं कि यह आडनेंस पास कर दो। हम सस्ते गल्ले की दुकानें खोलेंगे और जो नियमों का पालन नहीं करेगा, उन्हें तीन महीने की सजा देंगे। इस तरह से देश को भुलाया जा रहा है, इस समस्या के प्रति लोगों में भ्रम पैदा किया जा रहा है। लेकिन मैं एक अदना आदमी होते हुए सरकार को यह चेतावनी देना चाहता हूं कि आप दो महीने तक, तीन महीने तक, चार महीने तक, साल भर तक ऐसी बातें कर सकते हैं। टाल-मटोल का रास्ता अपना सकते हैं, लेकिन देश की जनता को लम्बे समय तक धोखे में नहीं रख सकते। इस समस्या का एक मात्र रास्ता वही है जो मैंने कहा है। इस तरह की टाल-मटोल की बातंे करके आप देश के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। सरकार को अपने पर यह ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए कि वह एक-एक आदमी को खाना पहुंचाए।

हमारे माननीय सदस्य श्री अकबर अली खान साहब इस फरमान के साथ आते कि पालयामेंट के एक-एक मेम्बर को इस काम में हाथ बंटाना होगा, तो मैं खुशी के साथ और हमारे दूसरे साथी खुशी के साथ इस काम को अंजाम देते। इस हुकूमत के साथ हाथ बटाकर काम करते। लेकिन आप हमसे कहना चाहते हैं कि जिसको बड़ी भारी बीमारी हुई हो, जिसको कहिए टाइफाइड हुआ हो या जो कैंसर का मरीज़ हो, उससे कहा जाये कि वह कुनेन खा ले, तो कम-से-कम मेरे जैसा मरीज़ जो डा.क्टरी तो नहीं जानता, लेकिन जो थोड़ा ज्ञान रखता है, कुनेन खाने के लिए तैयार नहीं होगा।

इसलिए आपको यह देखना होगा कि किस हद तक मर्ज़ बढ़ गया हैं और उसी के अनुसार दवा देनी होगी। आपको उसको भी संशोधित करना पड़ेगा। इसलिए बड़े अदब के साथ मेरा खाद्य मंत्री महोदय से यह कहना है कि निकट भविष्य में आप इसी एक मात्र उपाय से इस समस्या को हल कर सकते हैं और इस बीमारी का इलाज कर सकते हैं, अन्यथा इस प्रकार के अध्यादेशों, इस प्रकार के नियमों और उपनियमों से कुछ नहीं होने वाला है।


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राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।