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बीस वर्ष बाद भी अकाल विभाग का बना रहना प्रदेश व देश की सरकार के लिए शर्मनाक

संदर्भ: Drought situation in the country 3 दिसम्बर 1968 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उपाध्यक्ष महोदय, प्रœति का प्रकोप और मानव की पीड़ा का किसी को दर्शन करना हो तो वह राजस्थान के उन पश्चिमी इलाकों में जाये जिनका ज़िक्र हमारे मित्र मिर्धा साहब और सुन्दर सिंह भंडारी जी ने किया है। यूं सारे देश में और सभी प्रदेशों में दूसरे क्षेत्र सूखे से पीड़ित है, लेकिन जो अवस्था आज राजस्थान की है, वैसी शायद अन्य प्रदेशों के किसी हिस्से में नहीं होगी। मुझे भी पिछले 10-15 वर्षों में प्राœतिक विपदाओं में जहां लोग पीड़ित हैं, वहां जाने का मौका मिला है। पिछले दिनों में जो अनुभव मैंने राजस्थान में किया, मेरे जीवन में वैसा अनुभव कभी नहीं हुआ था।

मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि बीस वर्षों के बाद लोग पीने के पानी को तरसते होंगे। मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि एक प्रादेशिक सरकार ऐसी होगी जिसमें एक स्थायी विभाग अकाल विभाग का बना हुआ हो और बीस वर्षों से वह अकाल निवारण विभाग अपना कार्य कर रहा है। फिर मेरे जैसे व्यक्ति की राय में ऐसा विभाग प्रदेशीय सरकार के लिए और केंद्रीय सरकार के लिए लज्जा का विषय है। बीस वर्षों के बाद भी अगर हम यह मान करके चलें कि अकाल अवश्यंभावी है, वह तो पड़कर ही रहेगा तो इससे बड़ा निष्क्रियता का शब्द हमारे लिए और कोई नहीं हो सकता। मैं मानता हूं कि प्रœति और पुरुष का संघर्ष चिरन्तन काल से चलता रहा है। लेकिन विज्ञान के इस युग में प्रœति के पर विजय पाने के लिए मनुष्य ने जितने अन्वेषण किये हैं, अगर उनका इस्तेमाल किया जाये, प्रयोग में लाया जाये तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य की जो विपदाएं हैं, वे कम न हो सकें।

उपाध्यक्ष महोदय, मैं सारे देश के सूखा पीड़ित क्षेत्रों की ओर केवल संकेत मात्र करना चाहूंगा। आप जानते हैं कि यह केवल एक जगह का मामला नहीं। आन्ध्र में, तेलंगाना में, रायलसीमा में, बिहार में पलामू, पटना, गया, शाहाबाद, हजारीबाग, सारन के जिलों में गुजरात के कच्छ और बनासकांठा के इलाकों में, हरियाणा के हिसार, गुड़गांव, महेंद्रगढ़ के इलाके में, मैसूर के बंगलौर, तुमकूर, मैसूर, कोलार, मन्डिया और चित्रदुर्ग के इलाके में, उड़ीसा के सम्भलपुर, बोलनगिरी, कालाहांडी और सुन्दरगढ़ में तथा उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद, बनारस, मिर्जापुर, जौनपुर, गाजीपुर, आज़मगढ़ तथा बलिया के इलाकों में अनाज की कमी की स्थिति पैदा हुई है सूखे के कारण। अन्य प्राœतिक आपदाओं की बात मैं नहीं करता, लेकिन ये सब कमी के क्षेत्र ऐसे हैं, जहां पर फसल बर्बाद हुई, जहां पर जो पैदावार होनी चाहिए थी, उसमें कहीं 80 फीसदी या 50 फीसदी नुकसान हुआ लेकिन राजस्थान की जो कहानी है, वह अनोखी है। चार दिनों में हम और हमारे कुछ साथियों ने 800 मील की यात्रा की। 800 मील में हम जहां गए, वहां एक ही आवाज सुनने को मिली ‘हमको पीने के लिए पानी चाहिए’। हमारे साथ वहां की प्रादेशिक सरकार के मंत्री महोदय थे। उन्होंने स्वीकार किया कि ऐसे स्थान हैं, जहां प्रतिदिन 35 मील से पीने के लिए पानी भेजा जाता है। यह पानी टन्न्कों से भेजा जाता है या फिर रेल के ज़रिये। इस साल उस पूरे इलाके में एक दिन भी पानी नहीं बरसा और कहा गया कि कुछ ऐसे इलाके भी हैं, जहां 5-6 बरस के लड़के यह नहीं जानते कि बरसात क्या होती है, पानी किस तरह से बरसता है। 5-6 वर्षों से वहां पर निरन्तर सूखा पड़ रहा है और खास तौर से जैसलमेर, बाड़मेर और जोधपुर का इलाका तो बहुत बुरी हालत में है। महोदय, मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि जब हजारों वर्ग मील में पीने के लिए पानी न हो, जहां घास का एक पौधा दिखायी न पड़ता हो, रेगिस्तान के जो पौधे हों, वे भी सूख गए हों, जिन इलाकों में जनता के बताये हुए अनुमान से करीब 2 लाख मवेशी विशेष तौर से गाएं पानी और घास के बिना मर गई हों, जहां पर खुद हमसे लोगों ने कहा पौष्टिक आहार न मिलने के कारण बच्चो को एक्यूट डाइरिया होता है और उसके बाद वह बीमार पड़कर दो-तीन दिन में मर जाता है तो क्या ऐसी स्थिति सहन की जा सकती है? यह विवाद उठाना व्यर्थ है कि भुखमरी से मरे या बीमारी से मरे, क्योंकि चाहे सरकारी अध् ाकारी हों, चाहे सामाजिक कार्यकर्ता हों, कोई इस बात को विवादास्पद नहीं मानता कि पौष्टिक आहार न मिलने के कारण, जैसा माननीय सुंदर सिंह भंडारी ने कहा, लाखों लोगों को रतौंधी की बीमारी हुई।

मैंने खुद एक मां को बच्चे को गोद में लिए हुए देखा जो शायद कुछ घंटों का मेहमान था। हमारे साथ माननीय डा. मंगलादेवी तलवार थीं, वे डा.क्टर हैं। उन्होंने खुद देखा। मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि क्या किसी मां की ममता का, उसकी पीड़ा का अंदाज़ा केवल सरकारी आंकड़ों से लगाया जा सकता है? उसको देखकर, सुनकर और समझकर उसका अनुभव मात्र किया जा सकता है। यह क्यों होता है? इसलिए होता हैऋ क्योंकि हमारी सरकार, हमारा प्रशासन यह कहता है कि हमारे पास साधन नहीं हैं, वित्तीय साधन नहीं हैं, फाइनेंशियल रिसोर्सेज़ नहीं है।

महोदय, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पीने के पानी के लिए जो योजना राजस्थान सरकार ने प्रस्तुत की है उस पर 5 करोड़ रुपये व्यय का अनुमान है, वे कहते हैं कि 5 करोड़ रुपया अगर उनको तुरन्त दे दिया जाये तो उस इलाके में किसी तरह पीने के पानी का इंतज़ाम होगा और 5-7 मील की दूरी से पानी ला सकेंगे, लेकिन 5 करोड़ रुपया हमारे वित्त मंत्री जी केंद्रीय से उनको नहीं दे सकतेऋ क्योंकि साधनों की कमी है। लेकिन महोदया, क्या आपको यह जानकारी है कि दिल्ली नगर में जहां हम और आप रहते हैं जनता के प्रतिनिधि की हैसियत से, उसको सुन्दरतर बनाने के लिए 12 करोड़ रुपया हमारी सरकार के पास है? जब इन बातों की ओर मैं संकेत करता हूं तो हमारे कुछ भाई, कुछ साथी यह समझते हैं कि ये भावुकता की बातें हैं या मैं किसी को गलत रूप से जनता के सामने रखना चाहता हूं।

महोदय, मैं आपसे जानना चाहूंगा कि किसी भी प्रजातांत्रिक देश में जहां एक-एक बालिग आदमी देश को बनाने के लिए और राष्ट्र के निर्माण के लिए ज़िम्मेदार हो, तो क्या यह सहन किया जा सकता है कि एक नगरी जहां चन्द नौकरशाह और चन्द अपने को जनता का प्रतिनिधि कहने वाले लोग रहते हैं, वहां फूल-बगीचे लगाने के लिए 12 करोड़ रुपये खर्च किये जायें और दूसरी तरफ लाखों मनुष्यों और लाखों पशुओं को पीने के लिए पानी देने के लिए 5 करोड़ रुपये न दिये जा सकें। मैं नहीं जानता, हमारे माननीय शिन्दे साहब के पास इसका क्या उत्तर है? मैं नहीं जानता माननीय मोरारजी देसाई के पास इसके लिए क्या उत्तर है? गोवा के सम्मेलन में हमने कहा कि 20 बरसों में हम पीने का पानी नहीं दे सके लेकिन गांधीजी के शताब्दी साल में हम सबको पीने का पानी देंगे। अगर यह बात सही है, अगर हमारे भाई सही हैं, अगर हम गांधीजी का समादर इस देश में रखना चाहते हैं तो क्या कठिनाई है, भारत सरकार के लिए यह कहने में कि राजस्थान सरकार जितने रुपये चाहेगी पीने के पानी का इंतज़ाम करने के लिए वे रुपये दिए जाएंगे, चाहे किसी भी कीमत पर वे रुपये देने पड़े।

महोदय, जब यह सवाल उठाया जाता है तो राजस्थान सरकार के पास यहां से अफ़सरों का दल जाता है दो-चार जगह बड़े-बड़े बंगलों में घूम-घूमकर, राजस्थान में, जयपुर में अफ़सरों से बात करके आता है, एक रिपोर्ट दी जाती है, योजना आयोग से लेकर वित्त मंत्रालय तक महीनों वे फाइलें दौड़ती रहती हैं और इस तरह हम लाखों पशुओं और सैकड़ों मनुष्यों के जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं। मैं नहीं जानता कि संसदीय जनतंत्र में ऐसा कौन सा रास्ता है, कौन सा ऐसा पथ है जिससे हम आपके ज़रिये इस सरकार को यह सुना सके कि केवल यह ज़रूरी नहीं कि हम उचित दिशा में जायें, उचित दिशा के साथ-साथ गति की भी आवश्यकता होती है? अगर दिशा सही हो उसके बावजूद भी गति बहुत धीमी हो तो काल की जो गाड़ी है, वह हमारे पांव के नीचे से खिसक जायेगी। मुझे अफसोस है, मुझे दुःख है कि भारत सरकार के जो आज नेता हैं, वे गति की आवश्यकता को समझ नहीं पाते क्योंकि गति के साथ और समाज की प्रगति के साथ चलने का इन्होंने ढंग नहीं सीखा।

मैं यह बात कोई गुस्से में नहीं कह रहा हूं, मैं यह बात कोई भावनाओं को भड़काने के लिए नहीं कह रहा हूं, मैं केवल इसलिए कहता हूं कि संसद में जो इस देश की सर्वोच संस्था है, वहां मैं उन लाखों भूखे-प्यासे लोगों की पीड़ा का प्रतिनिधित्व करना चाहता हूं जिन्होंने हजारो की संख्या में इकट्ठे होकर हमसे केवल एक बात की मांग की। उन्होंने कहा कि हम कुछ नहीं चाहते, हमको पीने का पानी दो, हमारी मेहनत का उपयोग करने के लिए काम दो। क्या ये दो बातें पूरी करना सम्भव नहीं है? यह इलाका जोधपुर से लेकर गडरा रोड तक और फिर वापस हमारे मित्र माननीय अमृत नाहटा का क्षेत्र है। यह करीब 42-45 हजार वर्ग मील का क्षेत्र है जिसका प्रतिनिधित्व अमृत नाहटा साहब करते हैं। हर जगह मैंने देखा कि जिस समय सारे लोग घेर लेते थे, स्त्री बच्चे, सब एक ही बात पूछते थे कि अमृत नाहटा साहब कब पीने का पानी दिला रहे हो। माननीय मंगलादेवी तलवार यहां पर है, उनसे पूछ लीजिए स्त्री और बच्चों की जो दुर्दशा हमने देखी। चाहे सरकारी रिपोर्ट में कुछ लिखा हो, एक-एक सड़क पर 12-15 हजार लोग काम करने के लिए आते हैं स्त्री और बच्चे, खुले आकाश में जहा कोई झाड़ी नहीं, जहां कोई पेड़ नहीं है, वे रात बिताते हैं। जिस समय हम वहां गए, उनके लिए पर से कोई साया नहीं था। हमने पूछा तो कहा गया इंतज़ाम किया जा रहा है। शायद राजस्थान सरकार कुछ इंतज़ाम कर रही है।

इस जाड़े की रात में स्त्री और बच्चे घर से 10-12 मील की दूरी पर पड़े हों और उसके बाद यह कहा जाता हो कि इंतज़ाम किया जायेगा। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, कि अगर इस देश की सीमा पर, गदरा रोड या जैसलमेर के इलाके में कोई बाहरी दुश्मन का हमला हो तो हम क्या करेंगे? हम क्या यह कहेंगे कि इंतज़ाम किया जा रहा है। सारे भारत की यह ज़िम्मेदारी हो जायेगी कि दौड़कर सीमा के क्षेत्र में जाये और देश की सुरक्षा करें। क्या आज वहीं स्थिति नहीं है? क्या वित्त मंत्रालय के अधिकारियों और नेतागणों की, श्री मोरारजी भाई देसाई की, श्री जगजीवन राम जी की यह ज़िम्मेदारी नहीं है, माननीय सरदार स्वर्ण सिंह जी कि यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि उस इलाके में जायें और देखें? कौन सा काम इस दिल्ली में होता है कि अगर चार दिन यह लोग नहीं रहेंगे तो दिल्ली का काम रुक जायेगा? हजारों-लाखों लोगों की पीड़ा के सामने दिल्ली में फाइलों का काम, नौकरशाही के लिखे हुए नोटों पर दस्तख़त करने का काम ज़्यादा ज़रूरी नहीं है। मैं चाहूंगा कि जब ऐसी विपत्तियां आयें, जहां पर सारी मानवता संकट में हो, जहां पर सारी मान्यताएं संकट में हों, तब भारत सरकार का यह कर्तव्य होता है, राजस्थान सरकार का यह कर्तव्य होता है, उत्तरदायित्व होता है कि वह संकट के स्थान पर जाये और वहां जाकर उन लोगों की पीड़ा को देखे।

महोदय, मैं आपसे कहना चाहूंगा कि यह सब काम कितनी ढिलाई से हो रहा है इसका अंदाजा आप इससे लगा सकती हैं कि केंद्रीय नलकूप खोदने वाले विभाग ने आज से चार-पांच वर्ष पहले कुछ ट्यूबवेल्स खोदे लेकिन उन ट्यूबवेल्स को कमिशन नहीं किया जा सका, उसमें पम्प नहीं लगाया जा सका। कहा जाता है कि साधन नहीं हैं, कठिनाइयां हैं, ऐसी जगहों पर ट्यूबवेल्स हैं जहां पहुंचने में काफी दिक्कत होती है। क्या आप ऐसे सही हैं? क्या दो-चार सौ ट्यूबवेल्स लगाने में कठिनाई होगी? क्या भारत सरकार के पास चाहे वह खाद्य मंत्रालय हो, चाहे वह सुरक्षा मंत्रालय हो, चाहे वित्त मंत्रालय हो, यह साधन नहीं है कि पचास-सौ रिग्स ले जाकर के एक महीने के अंदर पांच करोड़ रुपया खर्च करके राजस्थान में ट्यूबवेलों को लगा दें। मैं नही मानता कि भारत सरकार इतनी पराक्रमहीन हो गयी है कि इस छोटी सी समस्या का समाधान वह नहीं कर सकती। लेकिन इसके लिए इच्छा शक्ति चाहिए, जिस बात की आज कमी है। पैसों की कमी नहीं है, साधनों की कमी नहीं है, इच्छा शक्ति की कमी है और उस इच्छा शक्ति को पैदा करने के लिए प्रायः हम कहते हैं कि मौलिक सिद्धांतों पर हमें जाना होगा।

महोदय, एक गांव रामसर है और एक बयातू है या कुछ गांव हैं, वहां के लोगों ने कहा कि 35 मील से उनको पीने के लिए पानी लाना पड़ता है। एक ओर यह पीड़ा है। दूसरी ओर राजस्थान के उन लोगों का अभिनन्दन करना चाहता हूं क्योंकि हर जगह जहां-जहां मैं गया एक जगह भी कोई यह कहने वाला नहीं मिला कि मुझे मु∂त में खाना दो, मेरे लिए ी लंगर खोलो, हर जगह लोग कहते थे कि हमको काम दो, पानी दो, रोज़ी दो, हम मेहनत करेंगे, काम करेंगे। दूसरी मांग उनकी क्या थी? उनकी दूसरी मांग यह थी कि हमको सस्ता अनाज दो, मोटा अनाज दो।

महोदय, शायद आपको जानकारी नहीं होगी कि भारत सरकार का कानून ी लंगर चलाने के लिए पैसे दे सकता है, भीखमंगनी की आदत डालने के लिए इसके पास पैसा है लेकिन अगर हम यह कहते हैं कि इस इलाके में 25 फीसदी कम दाम पर अनाज दो तो इसका कानून उस रास्ते में आ जाता है। ऐसे कानून को जो सरकार और जो प्रशासन उल्लंघन नहीं कर सकता उस प्रशासन के लिए क्या शब्द कहूं, कठोर शब्द इस्तेमाल करना चाहता हूं लेकिन इतना ही कहूंगा कि वह प्रशासन कभी अपने को गतिशील प्रशासन कहने का अधिकारी नहीं रहता।

महोदय, मैं एक और सवाल आपके सामने रखना चाहूंगा। जैसा कि अभी हमारे मित्र बांके बिहारी दास ने कहा कि सरकार की ओर से यह कहा जाता है कि सड़कें मत बनाओ कोई और काम करो। कौन सा काम करें वहां पर? राजस्थान में सड़कें बनाने के अलावा उस इलाके में दूसरा कोई काम नहीं है। यहां से एक्सपर्ट लोगों की एक टीम जाती है, एक्सपर्ट साहब लोग कोठियों में रहते हैं, मनुष्य की आवश्यकता और किसी प्रदेश के अंचल-विशेष की आवश्यकताओं से उनको कोई मतलब नहीं है। लेकिन उनको एक निर्देश देने का अधिकार है और वह देते हैं लेकिन वह यह नहीं समझते कि अगर वहां सड़कें बनाने का काम नहीं है तो दूसरा काम क्या है? तालाब खोदने का काम होगा। उस इलाके में दस-र्पंीह-बीस इलाकें होगें जहां कि सक्रार हज़ार लोग रोज काम करते हों और मेहनत करते हों, लोग काम का बहाना नहीं करते। असल में जाकर वहां काम करते हैं तो चार-पांच या दस दिन में उन सारे कामों को पूरा कर देंगे।

अभी जैसा कि श्री सुंदर सिंह भंडारी और मिर्धा साहब ने कहा कि जैसलमेर के इलाके में चार सड़कें पूरी हो गयीं और अब नया काम उनको मिलता नहीं है तो फिर क्या किया जाये? हमारे सुरक्षा विभाग ने सड़कों की योजनाएं बना रखी हैं लेकिन वह कह रहा हैं, यहां जो केंद्रीय में बैठे हुए सुरक्षा विभाग के अधिकारी हैं वह कहते हैं कि ये योजनाएं दो साल के बाद लीं जायेंगी और इस साल पहले करोड़ों रुपये दूसरी सड़कों पर खर्च किया जायेगा। यह हमारी सरकार का कोआडनेशन है। क्या कठिनाई है अगर डिफेंस डिपार्टमेंट, सुरक्षा विभाग और खाद्य विभाग, खाद्य मंत्रालय दोनों मिलकर कहें कि भाई इस सड़क को ले लो, यह हमारी योजना के अंदर है और इससे उनको रोज़ी भी मिलेगी लेकिन यह समन्वय दोनों विभागों का नहीं हो सकता क्योंकि वहां के सक्रेटरी साहब जो बैठे हुए हैं उनका अलग साम्राज्य है और खाद्य विभाग के जो सक्रेटरी हैं, जो सचिव हैं, उनका अलग साम्राज्य है।

मैं पूछना चाहूंगा मंत्री महोदय से कि क्या इतने दिनों के बीच में कभी भी डिफेंस मिनिस्ट्री और खाद्य मिनिस्ट्री और फाइनेंस मिनिस्ट्री के मंत्रियों की या सचिवों की इस विषय पर कोई बैठक हुई है, कोई समिति बैठी है, क्या कभी इस पर विचार किया गया है? कम-से-कम मेरी जानकारी में ऐसा विचार कभी नहीं किया गया। क्योंकि बड़े लोग हैं, इनको फुर्सत नहीं है बड़ी-बड़ी जगहों पर जा करके उद्घाटन करने से और फार्मल स्पीचेज़ करने से। महोदया, मैं कहूंगा कि इस स्थिति को बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

महोदय, मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि एक मोटे तखमीने से अगर दो लाख गाएं इस इलाके में मरी तो दो लाख गायों के दाम राजस्थान के हिसाब से कम-से-कम 5 करोड़ रुपये होते हैं क्योंकि 250 रु. से कम कोई गाय नहीं होती। तो 5 करोड़ रुपये के राष्ट्रीय धन की बर्बादी हुई और 5 करोड़ रुपये की सहायता हम नहीं दे सके। यह कैसा नियोजन है? इस नियोजन को किसने शुरू किया? मुझे दुख हुआ जब श्री सुन्दर सिंह भंडारी ने कहा कि कुछ लोग पाकिस्तान चले गए, मुसलमान लोग चले गये। यह बात सही है, मैंने अपनी आंखों से देखा सारी यात्रा में कि मुसलमान भाई आंखों में आंसू भर करके अपनी गायों के बारे में किस तरह से ज़िक्र करते थे और किस तरह से कैटिल कैम्प्स में बड़ी तादाद में उन्होंने अपने पशु लाकर रखे थे और कितनी बड़ी तादाद में वह गुजरात और मध्य प्रदेश में गए हैं, उससे यह साफ साबित हो जाता है कि उनकी ममता अपने पशु-धन पर बहुत है और वे सबसे अच्छे गोपालक हैं। यह बात सही है कि कुछ लोग पाकिस्तान की सीमा में गये। यह बात हमें भी बताई गयी लेकिन ये वह लोग हैं जो हिन्दू थे और 1965 की लड़ाई के ज़माने में यहां पर चले आये थे और यहां की पीड़ा और परेशानी से तबाह होकर उनको फिर पाकिस्तान जाना पड़ा।

एक और नमूना देख लीजिए, एक गांव है एक हज़ार की आबादी का। राजस्थान के हिसाब से बड़ा गांव है खेतवाई और इस गांव का एक आदमी भी बीड़ी सिगरेट नहीं पीता, कोई नशा नहीं करता। इसमें एक आदमी भी कर्ज़दार नहीं है, हर एक बच्चे की पढ़ाई का इंतज़ाम करना वहां गांव-समाज के ज़िम्मे है। वहां पर एक सहकारी संस्था है जिसमें हर घर का एक-एक आदमी सदस्य है, तो इस खेतवाई गांव की ज़मीन को ले लिया गया। किसलिए? इसलिए कि वहां लांग रेंज फायरिंग की जगह बनायी जाये। मिलिटरी के लिए, लांग रेंज फायरिंग के लिए 250 वर्ग मील की ज़मीन ले ली। इन्होंने कहा कि 50 वर्ग मील ज़मीन इसमें से छोड़ दो तो हमारे सात गावं जोकि इस रेगिस्तान में बसे हुए हैं, उनको नहीं उजड़ना पड़ेगा। पर से नीचे तक बार-बार दौडा, तीन मर्तबा तो मैं माननीय सुरक्षा मंत्री से मिला होंगा। वह कहते हैं कि इसको हम बदल नहीं सकते क्योंकि हमारे अफ़सर नहीं मानते। इसके पहले एक योजना बदल चुकी है। बीकानेर के इलाके में एक एरिया लिया गया था। वहां के महाराजा महोदय ने कहा कि यहां पर मैं तीतर का शिकार करता हूं, इसको ले लोगे तो शिकार कहां करेंगे। तीतर का शिकार नहीं रुकने पाए, इसके लिए सुरक्षा मंत्रालय ने वह स्थान बदल दिया लेकिन सात गांव के हज़ारों लोग बर्बाद हो जायें मगर उस योजना में ज़रा सा भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता? मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि ऐसे सवालों पर भी कोई इस केंद्रीय सरकार में व्यक्ति है, कोई संस्था है, कोई समिति है जो कि विचार करे। मुझे इस दुख के साथ कहना पड़ता है। कि ऐसी हालत में हमको और आपको सोचना पड़ेगा। मैं यह कहना चाहूंगा कि यह सब होता क्यों हैं? इसलिए होता है कि जो पीड़ा है मनुष्य की, जो देश की पीड़ा है, इसको अंगीकार करने का ढंग इस सरकार ने नहीं सीखा। इस सरकार ने केवल सरकारी अधिकारियों की रिपोर्ट को स्वीकार करना सीखा है। हमारे माननीय मित्र शिंदे साहब मुझे यह कहने के लिए क्षमा करेंगे लेकिन राजस्थान में जिस तरह की पीड़ा है अगर उसको अंगीकार करने का थोड़ा भी प्रयास किया गया होता तो मैं समझता हूं बीस वर्षों में यह हालत बदल गयी होती। इस हालत को बदलने में कुछ देर नहीं लगती लेकिन यहां तो सब काम उसी लालफीताशाही के ज़रिये होता है। हमारे मित्र सुन्दर सिंह भंडारी जी ने सवाल उठाया राजस्थान कैनाल का। मैं मानता हूं, वह एक बड़ा भारी क़दम है जिससे इस समस्या का हल निकाला जा सकता है। आखिरकार कैलिफोनया और उज़बेकिस्तान भी रेगिस्तान थे। क्या खार का रेगिस्तानी क्षेत्र ही कोई ऐसा स्थान है जहां फसल नहीं पैदा हो सकती। यह धरती सोना उगल सकती है अगर पानी की व्यवस्था हो जाये और यह न केवल राजस्थान की कमी को पूरा कर देगी बल्कि सारे देश की खाद्य समस्या को हल करने के बाद हम दूसरे देशों को भी अनाज दे सकते हैं। कितनी योजना है सौ या डेढ़ सौ करोड़ रुपये की। वह पैसा कहां से आयेगा। पैसा लाने का सवाल एक बड़ा भारी सवाल है इसमें हमारे मित्र सुंदर सिंह भंडारी के साथ हमारा मतभेद हो जाता है। जब हम यह कहते हैं कि जिन लोगों के पास पांच-पांच सौ करोड़ रुपये की पूंजी है, 381 करोड़ रुपये के पर बैठकर जो मुल्क पर हावी हुए हैं, उनके हाथों से पूंजी अपने हाथों में ले लो और 45 करोड़ रुपया लगाओ और जनता के कामों में लगाओ तो हमारे माननीय मित्र श्री सुन्दर सिंह भंडारी यह समझते हैं यह मौलिक अधिकारों पर हस्तक्षेप है। मैं पूछना चाहता हूं कि यह राजस्थान कैनाल की योजना क्यों नहीं आती। इसके लिए एक योजना केंद्रीय सरकार के पास हमारे मित्र नाहटा साहब ने दी ‘‘डेज़र्ट इरीगेशन अथारिटी’’। उन्होंने कहा है कि जैसे दूसरे देशों में अथाॅरिटीज़ बनी हुई हैं, यहां पर भी एक ऐसी आटोनोमस बाडी बनाओ जिसको इस बात का अधिकार हो कि वह अपने फंड इकट्ठा करे, वह बांड बेचे, वह लोगों से पैसा इकट्ठा करे और इस रेगिस्तान को नखलिस्तान में बदलने की कोशिश करे, लेकिन यह सरकार एक बुनियादी कदम उठाने में असमर्थ है। यह केवल अपनी यथास्थिति की हालत में घिर गई है। माननीय सुन्दर सिंह भंडारी जैसे लोग राजस्थान की पीड़ा पर आंसू बहा रहे हैं। मैं नहीं जानता मगरमच्छ के आंसू हैं या इंसान के आंसू है। दूसरी तरफ जब पंूजीपतियों से पैसा लेने की ज़रूरत होती है तो उसके लिए वह तैयार नहीं।

मैं आपसे कहूं सौ करोड़ डेढ़ सौ करोड़ रुपये के बिना राजस्थान कैनाल योजना रुकी पड़ी है। पालयामेंट को छोड़ दीजिए, शायद यहां दिमाग ठंडा करने की ज़रूरत हो, लेकिन मैं आपसे पूछता हूं, सारे सरकारी भवनों को देख लीजिए, बीस वर्षों में जितने रेज़रेटर्स, एयर कंडिशनर्स लगे हैं, जितने बड़े-बड़े कमरे रखे हैं, एक ऑफिसर जो चंद घंटे उन आफिसेज़ में काम नहीं करता, वहां 10,000 रुपये का फर्नीचर लगा हुआ है। यह किसके नाम पर होता है जनता के नाम पर, जनतंत्र के नाम पर। संसदीय जनतंत्र के नाम पर महोदय, मैं कहता हूं कि भोग-विलास और ऐश्वर्य के लिए जो धन खर्च होता है उस धन को, उसकी बर्बादी को बिना रोके हुए, कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगा कि नर्मदा का पानी हज़ारों वर्षों से सर्मुी में बह रहा है, न उसका फायदा मध्य प्रदेश को है, न उसका, फायदा गुजरात को है, न महाराष्ट्र को है न राजस्थान को है। हमारे माननीय मित्र के.एल. राव साहब यहां बैठे हुए हैं। वह जानते हैं कि इसके लिए वर्षों से झगड़ा चल रहा है, न उसकी पंचायत हो पाती है न उस पर कोई कानून बन सकता है, न केंद्रीय सरकार में क्षमता रह गयी है कि वह दो या तीन प्रदेशों की पार्टियों को बुलाकर कहे कि यह पानी सर्मुी में बहे उससे अच्छा तो यह है कि यह पानी किसी प्रदेश के काम में आये जिससे देश का भला हो सके।

महोदय, अंत में मैं फिर कहना चाहता हूं कि यह सारी समस्याएं हल करने का एक ही तरीका है कि केंद्रीय सरकार में बैठे लोग समझें कि जहां कहीं किसी भी अंचल में मनुष्य की पीड़ा होती है, चाहे वह राजस्थान में हो चाहे महाराष्ट्र में हो, चाहे वह आंध् ा्र प्रदेश में हो वह सारे देश की पीड़ा है। अगर कोई सवाल उठाया जाये तो यह उत्तर हम लोग सुन चुके हैं कि मंत्री महोदय अभी कह देंगे, पैसे की कमी नहीं होगी, राजस्थान सरकार में क्षमता होनी चाहिए वहां ट्यूबवेल खोलने की। अगर वह क्षमता नहीं है तो आपका कर्तव्य है, उत्तरदायित्व है कि वह क्षमता उनमें पैदा करें। आप लाएं कानून इस संसद में, अगर कोई प्रदेश की सरकार विकास कार्यों को करने में असमर्थ है, अगर कोई प्रदेशीय सरकार विकास कार्य में अवरोध डालती है, आप आइये अपना प्रस्ताव लेकर संसद के सामने, संसद आपको अधिकार देगी, संसद आपको पावर देगी उस काम को पूरा कराने के लिए।

मैं तो मानता हूं कि प्रदेश की सरकारें स्वयं इस बात के लिए तैयार होंगी अगर आप उनका साथ देंगे तो वह भी आपका साथ देंगी। लेकिन आपके दिमाग और दिल को बड़े-बड़े महलों से रेगिस्तान के इलाकों में जाना पड़ेगा। जब तक गोयनका साहब को इंडियन आॅयल के शेयर कार्नर करने के लिए रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय दाद देता रहेगा तब तक राजस्थान में लोग भूख और पीड़ा से मरते रहेंगे। महोदय, मैं आपसे निवेदन करूंगा, आप कोई ऐसा उपाय निकालें, हमें कोई ऐसा रास्ता बतायें कि जब शासन बहरा हो जाये तो उसको सुनाने के लिए कोई ऐसी ऊँची आवाज़, शक्तिशाली आवाज़ हो, जिससे शासन सही रास्ते पर आ सके और जनता की पीड़ा को, जनता के क्रंदन और रुदन को सुन सके। मुझे दुःख है कि राजस्थान की जनता की पीड़ा, रुदन और क्रंदन शायद आज तक भारत सरकार के कानों में नहीं पहुंची है। मैं बहुत दुख के साथ कहता हूं कि जयपुर की सरकार भी उस रुदन और क्रंदन को एक सामान्य बात मानती है। इसे सामान्य समस्या न समझकर एक गम्भीर समस्या माना जाये और इसका निराकरण करने के लिए अविलम्ब कदम उठाये जाएं।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।