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निर्यात-आयात नीति पर विचार के लिए संसदो और विशेषज्ञों की समिति आवश्यक

संदर्भ: Consitution of a Committee of M.Ps. and experts to examine Export-Import policy of Government 26 अगस्त 1966 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उपाध्यक्ष महोदय, मैं आपकी अनुमति से निम्नलिखित संकल्प सदन के समक्ष उपस्थित करता हूं। इस सभा की यह सम्मति है कि सरकार की निर्यात-आयात नीति पर विचार करके उस पर एक प्रतिवेदन देने के लिए संसद सदस्यों तथा विशेषज्ञों की समिति का गठन किया जाना चाहिए।’’

"The house is of opinion that a Committee consisting of Members of Parliament and experts should be constituted to examine the export-import policy of the Government and to submit a report thereon."

महोदय, आज देश के सामने जो आथक संकट है और जिसका ज़िक्र इस सदन में और सदन के बाहर बार-बार हुआ है। उसको देखते हुए मैंने यह आवश्यक समझा कि इस विषय पर विचार करने के लिए सदन को प्रेरित करूं। इस बात की प्रेरणा कि इस प्रस्ताव को मैं आपके समक्ष और सदन के समक्ष रखूं, मुझको इस विभाग के एक अत्यंत उत्तरदायी व्यक्ति के उस भाषण या लेख से मिली जिसमें उन्होंने हमारे व्यापार की स्थिति का ज़िक्र किया है। उन्होंने कहा है कि पहली पंचवर्षीय योजना से लेकर तीसरी पंचवर्षीय योजना तक हमारे आयात-निर्यात में व्यापार की क्या गतिविधि रही है। अगर उसके शब्दों को मैं दोहरां तो मुझे अंग्रेज़ी भाषा में वह कहना पडे़गा:

"During the First Five Year Plan, the average annual exports amounted to Rs. 606 cores against imports valued at Rs. 723 cores per annum while during the second Plan, the respective figures stood at Rs. 609 Cores and Rs. 976 Cores. During the first four years of the Third Plan, the average annual exports improved to Rs. 751 Cores but imports have gone up still higher to Rs. 1,177 Cores. During the First Plan period, the average annual adverse trade amounted to Rs. 117.5 Cores, Increasing to Rs. 367.2 Cores during the Second Plan period, and moving up further to Rs. 430.75 Cores during the current Plan period."

यह हमारे व्यापार में आयात-निर्यात की स्थिति है। ये शब्द हैं माननीय वाणिज्य मंत्री श्री मनुभाई शाह के। ऐसा होना कुछ स्वाभाविक भी है क्योंकि किसी भी विकासोन्मुख देश में जहां पर हम उद्योगों में अधिक धन लगाते हैं, उद्योगों के लिए मशीनें बाहर से मंगाते हैं, उनके लिए कच्चे माल की ज़रूरत पड़ती है, उसमें आयात करना आवश्यक हो जाता है और कुछ हद तक आयात को रोकना देश की प्रगति को रोकने के समान होता है। लेकिन आज प्रश्न यह है कि क्या ऐसी कोई सम्भावना है कि आयात-निर्यात का समन्वय किया जा सके और क्या ऐसी सम्भावना है कि जहां हम अपने निर्यात के व्यापार को बढ़ा सकें वहां आयात के व्यापार को कम कर सकें।

महोदय, अवमूल्यन के बाद तुरन्त जब राष्ट्र की नीति इस दिशा में घोषित की गई तो प्रधानमंत्री ने कहा कि हम चाहते हैं कि आथक क्षेत्र में अपना देश स्वावलम्बन की ओर जाए। यह भी कहा गया कि स्वदेशी के विचार को फिर से इस देश में प्रस्थापित करना पड़ेगा और जहां तक सम्भव हो स्वावलम्बन के आधार पर हमको इस देश को आगे बढ़ाना होगा। अगर आज की स्थिति आप देखें तो हमारा जो आयात है वह 1350 करोड़ रुपये के करीब प्रति वर्ष है और जो निर्यात है वह करीब 800 करोड़ रुपये का है। 550 करोड़ रुपये की हर साल हम को कमी पड़ती है अपने कामकाज को चलाने के लिए। इस 550 करोड़ रुपये की कमी के साथ-साथ हमारे पर जो विदेशी ऋण है उनका भुगतान जब हमको करना पड़ेगा तो उसमें और भी वृह् होगी। यह 550 करोड़ रुपये की विषमता को रोक पाना, इसको पूरा कर पाना आज की स्थिति में बहुत कठिन है।

मैं फिर दूसरा उह्रण माननीय मनुभाई शाह के उस भाषण से नहीं देना चाहूंगा जो उन्होंने 1962 में इसी सदन में दिया था और कहा था कि जहां पर आथक शक्तियां काम करती हैं, जहां पर आथक उद्देश्य हमारे उद्योगों को बहुत हद तक प्रभावित करते हैं, वहां पर देशभक्ति की भावना भी हम को बहुत दूर तक आगे ले जाती है। इसी सदन में उन्होंने कहा था कि जो हमारे व्यापारी हैं, जो आयात-निर्यात के व्यापार में काम करते हैं उनको कम मुनाफा लेकर, कम लाभ लेकर देश के हित के लिए इस काम को करना पडे़गा। लेकिन पिछले वर्षों में क्या हुआ? हमको और आपको यह देखना पड़ेगा कि क्या माननीय वाणिज्य मंत्री जी ने जो सुविधाएं दी इस देश के निर्यात को बढ़ाने के लिए, इस देश के एक्सपोर्ट को बढ़ाने के लिए उनका सदुपयोग क्या किया गया, क्या जो आकांक्षा उन्होंने 1962 में जिन व्यापारियों से की थी, उन व्यापारियों ने उनकी आकांक्षा को पूरा किया? इस पूरे सत्र में, सदन में इस्पात के निर्यात को लेकर जो बड़ा हंगामा मचा उसको मैं यहां पर नहीं उठांगा। उसमें कितने करोड़ रुपये की बर्बादी हुई, यह वाणिज्य मंत्री जी जानते हैं। जो हिसाब अभी तक जनता के सामने आया है उसमें करीब 8 से 10 करोड़ रुपये तक बर्बादी हुई है और मैं समझता हूं कि वह 10 फीसदी भी पूरी हमारे सामने नहीं आई है। कितने रुपये की बर्बादी हुई, यह हम नहीं जानते। इसी तरह दूसरे क्षेत्रों को आप ले लीजिए। क्या हम जो आज आयात करते हैं उनके बिना हमारा काम नहीं चल सकता। अगर खाद्याींा को ही ले लीजिए तो 120 करोड़ रुपये का फॅारेन एक्सचेंज, विदेशी र्मुीा हमें खाद्याींा के आयात पर खर्च करना पड़ता है। यह हम समझते हैं कि अवमूल्यन के पहले के आंकडे़ हैं। अवमूल्यन के बाद स्थिति क्या हो गई है वह वाणिज्य मंत्री ही हिसाब लगा करके बताएंगे क्योंकि मेरे लिए वह शायद सम्भव नहीं है। आप याद रखिए कि 1964-65 में हमारे देश की क्या हालत थी। 88.9 मिलियन टन अनाज पैदा हुआ था जो करीब 89 करीब 89 मिलियन टन हुआ 17 मिलियन टन हमने बाहर से मंगाया था। कुल मिलाकर 96 मिलियन टन में हमने इस देश की खुराक का काम चलाया था। आज क्या स्थिति है? आज हमारी कुल पैदावार, जो सरकार कहती है, 73 या 74 मिलियन टन के करीब है जो कि सूखे की स्थिति में है और हम 12 या 14 मिलियन टन और मंगाते हैं। कुल 86 मिलियन टन में हम इस साल इस विपत्ति की स्थिति में भी काम चलाने की बात सोचते हैं। यह कैसे सम्भव होता है? यह इसलिए सम्भव होता है कि हम देश के सामने इस संकट को सही मानों में रखते हैं और देश से कहते हैं कि इतने में हम को काम चलाना है। आखिर भारत इससे पहले 89 मिलियन टन पैदा कर चुका है। हमारे खाद्य मंत्री जी बड़े साहस के साथ दुनिया के सामने जो यह कहते हैं कि चाहे जो कुछ भी हो, हम अींा का आयात करेंगे चाहे इसके लिए मेरी कितनी आलोचना हो, तो मैं नहीं समझता कि वह आत्मविश्वास की भावना का प्रतीक है या अपने में से आत्मविश्वास खो देने का एक अनुभव है, यह तो आप और सदन तय करे।

महोदय, मैं यह कहना चाहूंगा कि इस देश को सही माने में यह समझना होगा कि अगर देश में आयात की मात्रा को कम नहीं किया गया तो देश आथक दृष्टि से दूसरों का गुलाम हाने वाला है चाहे इसको हम चाहें, चाहे न चाहें, चाहे हमारे वाणिज्य मंत्री जी अवमूल्यन के पक्ष में रहे हों, चाहे विरोध में रहे हों। अवमूल्यन तो हुआ ही, चाहे उसको हम चाहें या न चाहें। लेकिन मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि इस समय इस तरफ सरकार की दृष्टि क्यों नहीं जाती। हमारे सामने इंडस्ट्री एंड टेन्न्ड का जो एस्टीमेट आया है उसके अनुसार 5 करोड़ रुपये का डेरी का सामान हम हर साल मंगाते है। इसकी क्या ज़रूरत है? क्या इसके बिना इस देश का काम नहीं चल सकता? मैं यह जानना चाहूंगा कि अगर नहीं चल सकता तो डेरी प्रोडक्ट्स को बढ़ाने के लिए, दूध के उत्पादन को बढ़ाने के लिए इस देश में क्या किया गया है?

अब मैं वाणिज्य मंत्री जी का ध्यान दूसरी तरफ ले जाना चाहता हूं। कपास या काटन को ले लीजिए। पिछले वर्षों में अवमूल्यन के पहले 60 करोड़ रुपये से 90 करोड़ रुपये की रुई हर साल हम विदेशों से मंगाते रहे है, उसमें से कुछ अीका के देशों से, कुछ अमेरिका के देशों से। मान्यवर, मैं अभी पिछले दिनों बम्बई में महाराष्ट्र के सहकारिता विभाग के एक अधिकारी से योजना के सम्बन्ध में बातचीत कर रहा था। मैं आश्चर्य चकित रह गया जब उन्होंने कहा कि इस प्रदेश में मीडियम स्टेपल काटन हम पैदा कर रहे थे। उसकी खपत काफी बढ़ रही थी, लेकिन हमको कोई प्रोत्साहन केंद्रीय सरकार की ओर से नहीं दिया गया। हमारा माल खरीदने के लिए पूंजीपति भी नहीं तैयार थे। जो प्राइस कण्ट्रोल के अंदर मिलें चल रही थी, वह भी उसके लिए तैयार नहीं थीं। यह क्या स्थिति है? अब जो माननीय मंत्री जी ने काटन के बारे में, रुई के सम्बंध में, नई नीति बताई है, उसके अनुसार 150 करोड़ रुपये की रुई हम हर साल मंगाएंगे। मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या भारत सरकार ने यहां के œषकों को 150 करोड़ रुपये पैदा करने के लिए कभी दिए। यह कहा जाएगा कि आयात-निर्यात के व्यापार में और देशों से सामान मंगाना भी जरूरी होता है।

यह मैं भी मानता हूं, लेकिन अमेरिका से पी.एल. 480 के अंदर जो हम इतनी ज्यादा रुई मंगाते है, क्या इसको कम नहीं किया जा सकता? दूसरे कहा जाता है कि हमारे यहां बड़े रेशे की कपास पैदा नहीं होती, लांग स्टेपल काटन पैदा नहीं होती और हमारे देश में कुछ ऐसी मिलें हैं जो केवल लांग स्टेपल काटन ही इस्तेमाल कर सकती हैं। मैं बडे़ विनय के साथ वाणिज्य मंत्री जी का ध्यान इस ओर आकषत करना चाहूंगा कि पिछले 10-15 वर्षों में ये सारी मशीनें लगाई गई हैं जिनको बड़े स्टेपल, बड़े रेशे की कपास की जरूरत है। उनको मशीन खरीदने के लिए आपने विदेशी र्मुीा दी और उनकी खपत के लिए बड़े रेशे की कपास मंगाने के लिए और अधिक र्मुीा दे रहे हैं। आखिरकार यह कौन सी नीति है मेरी समझ में नहीं आता। अगर इस बड़े रेशे की रुई से ऐसा कपड़ा बनता जो निर्यात के कामों में जाता तो समझ में यह बात आ सकती थी, लेकिन वाणिज्य मंत्रालय जो कहता है उसके अनुसार केवल 3 या 4 फीसदी कपड़ा बड़े रेशे की रुई से बना हुआ विदेशों को भेजा जाता है। विदेशों में जो हमारा बाजार है कपड़े का वह मीडियम और कोर्स कपड़े का है। उसके लिए हिन्दुस्तान में पैदा हुई रुई काफी हद तक उपयोगी होती है। फिर यह क्यों किया जाता है? मैंने खुद वाणिज्य मंत्रालय के उच्चाधिकारियों से पूछा है कि रुई क्यों कम पैदा होती है। उन्होंने कहा, रुई क्यों कम पैदा होती है इसका जवाब आप खाद्य मंत्रालय से पूछिए क्योंकि कपास अधिक पैदा करने का काम वाणिज्य मंत्रालय का नहीं है, खाद्य मंत्रालय का है। देश के सामने जब इतना बड़ा आथक संकट है, देश के सामने जब जीवन-मरण का प्रश्न है तो इसको ऊंचा उठाने के लिए एक-एक आदमी को कुर्बानी करनी पड़ेगी। मेरी समझ में नहीं आता कि ये वाणिज्य मंत्रालय और कृषि मंत्रालय दोनों एक साथ बैठकर ऐसी योजनाओं को क्यों नहीं बनाते।

इसी सिलसिले में मैं आटफिशियल सिल्क के सवाल को भी लेना चाहूंगा जो इस सदन में पहले भी उठ चुका है। हमारे वाणिज्य मंत्री जी ने कहा कि कुछ चीजें जरूरी होती हैं, मशीनें है, उनमें मज़दूर लगे हुए है। कितने मजदूर लगे हैं, उसके पर हम कितना रुपया खर्च कर रहे है। पिछले 6 सालों में अगर आप देखें तो 14 करोड़ का एडवर्स बैलेंस आफ ट्रेड हमने केवल आर्टीफिशियल सिल्क में किया। आर्टीफिशियल सिल्क का जितना यार्न मंगाया और जितना निर्यात किया है दोनों में 6 वर्षों में 14 करोड़ का नुकसान हुआ है। यही नहीं इसके लिए जो हमने इन्सेन्टिव दिए हैं वे इन्सेन्टिव अलग से। इसकी बात आप छोड़ दीजिए। हमने व्यापारियों को प्रोत्साहन दिया, धन दिया और उन व्यापारियों ने किस तरह उसका दुरुपयोग किया। यह एक बहुत दुखद बात है इससे बड़ी दुख और अपमान की बात इस देश के रहने वालों के लिए दूसरी नहीं हो सकती। जिन लोगों को धन दिया कि इस देश का निर्यात अधिक हो, उन लोगों ने उसका दुरुपयोग किया। उन लोगों ने निर्यात में साढे़ पांच करोड़ रुपये का नुकसान करवाया। यही नहीं, उन्होंने डेढ़ करोड़ रुपया जो जमा कर रखा था बैंकों में गारंटी के तौर पर वाणिज्य मंत्रालय ने वह डेढ़ करोड़ रुपया माफ कर दिया, उनका वह रुपया भी जब्त नहीं किया गया।

सबसे दुखद बात यह है जो वाणिज्य मंत्री महोदय को मालूम है कि तीन वर्ष तक उसके पर कोई जांच नहीं हुई, फाइल वाणिज्य मंत्रालय से गायब हो गई। जिसके पर आडिट का ऐतराज हो, जिसके पर लोक सेवा समिति विचार कर रही हो, डेढ़ करोड़ रुपये के इस व्यापार के लेनदेन की बात की फाइल वाणिज्य मंत्रालय से गायब हो गई और उससे भी दुख की बात यह है कि उसकी सूचना न वाणिज्य मंत्री महोदय को दी गई, न उसकी सूचना पुलिस के अधिकारियों को दी गई, न उसकी सूचना किसी और को दी गई। पहले पहल वह मामला तब आया जब लोक लेखा समिति ने वाणिज्य मंत्रालय से उस फाइल की मांग की। मैं वाणिज्य मंत्री महोदय को मुबारकबाद देता हूं कि उन्होंने इस पर अब जांच शुरू कराई है। मैं बड़े अदब के साथ वाणिज्य मंत्री जी से कहना चाहूंगा कि आखिरकार वाणिज्य में जहा आयात-निर्यात का व्यापार होता है, अधिकारी लोग किस तरह हमारे प्रशासन को चलाते हैं। भ्रष्टाचार का किस तरह व्यापक प्रभाव होता है यह देखकर कभी-कभी ॉदय दुख से भर जाता है।

मैं उसकी तफ़सील में नहीं जांगा। जब ऐसा सवाल सदन में कभी-कभी उठाया जाता है, अगर किसी भ्रष्ट अधिकारी के विरुह् सदन में कोई मामला उठाया जाए, तो मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि किस तरह से इस सदन में और सदन के बाहर चलना और बात करना मुश्किल हो जाता है। मैं वाणिज्य मंत्री महोदय से यह कहूंगा कि आपने अच्छा काम किया है, लेकिन आप इसकी जांच कराइए कि कौन लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने साढे़ पांच करोड़ रुपये के निर्यात के होने में असुविधा डाली, वे कौन लोग हैं जिनके पर डेढ़ करोड़ रुपये का जो जुर्माना लगना चाहिए उन व्यापारियों के पर वह नहीं लगा और फाइल गायब हो गई। मुझे विश्वास है कि शीघ्र ही वाणिज्य मंत्री जी इस सिलसिले में कुछ सदन के सामने और देश के सामने रखेंगे कि आखिरकार वे कौन लोग हैं जिन्होंने इस काम को किया है।

पेट्रोलियम को ले लीजिए। 90 करोड़ रुपये का पेट्रोलियम हम हर साल आयात करते हैं क्योंकि पेट्रोलियम जरूरी है, अधिक विकास के लिए जरूरी है। यह भी ज़रूरी है कि कुछ फैक्ट्रियां जो बहुत अच्छे किस्म की मशीनों से चलती हैं उन्हें पेट्रोलियम की जरूरत है। लेकिन क्या यह सम्भव नहीं कि जब हमारे देश में पेट्रोलियम की कमी है और दूसरी तरफ कोयले की अधिकता है तो हमारे देश में ऐसी फैक्ट्रियां बनाई जाएं जो कोयले से चले। सोवियत रूस में यह हो सकता है, चीन में यह हो सकता है तो हिन्दुस्तान में क्यों नही? क्यों हमको होड़ है ऐसे देशों से जिनके पास पेट्रोलियम का अथाह सागर भरा पड़ा है, जिनके साधन असीमित हैं और उनको कोई कठिनाई नहीं है। अगर हम कोशिश करते मेरा ऐसा विश्वास है, मैं इसका विशेषज्ञ नहीं हूं तो 90 करोड़ रुपये को आयात के कम करके 45 या 50 करोड़ रुपये कर सकते थे। हर आइटम जो इसमें दिया हुआ है उसे मैं नहीं लेना चाहूंगा। कासमेटिक्स के पर 45-50 लाख रुपये खर्च कर रहे हैं। ये क्यों किए जाते हैं? हम कह सकते हैं कि इस गरीब देश में मर्सराइज्ड क्लाथ की ज़रूरत नहीं, सब जोग मोटा कपड़ा पहनें। जब मनुभाई शाह जैसे आदमी मंत्री हैं तो हम ज्यादा उम्मीद करते है। सारी ज़िंदगी उन्होंने गांधी जी के चरखे और खादी के काम में बिताई है। और उसके बड़े भारी प्रतिपादक हैं। फिर ऐसा क्यों नहीं होता?

दूसरी बात लीजिए जिसके पर बड़ा सवाल उठा, बड़ा हंगामा हुआ सारे देश में। उर्वरक पैदा करने के लिए, फटलाइज़र पैदा करने के लिए 40 करोड़ रुपये हर साल विदेश के लोग हमको फटलाइज़र इम्पोर्ट करने के लिए देते हैं, मंगाने के लिए देते हैं। 40 करोड़ रुपये में कितनी फैक्ट्रियां बन सकती हैं लेकिन फैक्ट्री बनाने के लिए नहीं देते। हो सकता है कि कोई बड़ी गूढ़ आथक नीति हो और जिसका प्रतिपादन करते समय हमारे योजना मंत्री और खाद्य मंत्री साहब को कभी थकान न लगती हो, लेकिन मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि क्यों हम इतना बड़ा बोझ अपने सिर पर ले रहे हैं। कितनी बड़ी रायल्टी इसकी बिना पर वे इस देश से ले जाएंगे इसका क्या कोई अंदाज किया गया है?

यह कहने के लिए आप मुझे क्षमा करेंगे कि भारतीय सरकार की जो नीतियां खेती के बारे में बनी हैं वे कृषि भवन के वातानुकूलित वातावरण में बनी है। उनको समझ में नहीं आता कि हिन्दुस्तान के किसान की क्या जरूरतें हैं। अगर हिन्दुस्तान की सारी कृषि को देखें तो पता चलेगा कि आज हिन्दुस्तान का 80 फीसदी किसान पानी चाहता है। पानी के लिए रुपया नहीं मिल सकता, छोटे-छोटे सिंचाई के साधनों के लिए रुपया नहीं, लेकिन करोड़ों रुपये का बोझ लादा जा रहा है हमारे देश के पर उर्वरक का कारखाना खोलने के लिए। चूंकि इसके पर बहुत ज़िक्र हो चुका है इसलिए इस सिलसिले में मैं बहुत दूर तक नहीं जांगा। मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि इस तरह के कारखानों को रोकना चाहूंगा, जहां तक हो सके किफायत से काम करना चाहिए।

वाणिज्य मंत्री जी का ध्यान इस बात की ओर दिलाना चाहूंगा। हम फिनिश्ड चीजें, बनी बनाई चीजें इस देश के अंदर मंगाते हैं। क्या यह सम्भव नहीं है कि हम कच्चा माल मंगाएं, कारखाने यहां पर लगाएं और बड़े पैमाने पर इस देश के अंदर ऐसा वातावरण पैदा करें कि हम अधिक-से-अधिक स्वावलम्बी बन सकें। आज ऐसा नहीं हो पा रहा है। आज होड़ लगी हुई है देश में बाहर से चीजें मंगाने की।

एक बात इसी सिलसिले में और कहना चाहूंगा। बार-बार यह कहा जाता है कि कुछ जरूरत की चीजें ऐसी हैं जिनको नहीं मंगाया जाएगा तो देश में तहलका मच जाएगा और प्रजातंत्र नहीं रहेगा। मैं कभी-कभी जब सुनता हूं तो आश्चर्य होता है, दुख होता है, जब हमारे मंत्री लोग यहां आ कर कहते हैं कि अगर प्रजातांत्रिक ढांचे को बनाए रखना है तो बाहर से मदद लेना जरूरी है, बाहर से सामान मंगाना जरूरी है। मैं वाणिज्य मंत्री से कहूंगा कि याद कीजिए 1942 के पहले के ज़माने को, इतनी गरीबी थी, हमारे पास कुछ भी सरोसामान नहीं था लेकिन इसी देश के लोगों ने, एक-दो नहीं लाखों की तादाद में खड़े होकर विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी, एक-दो नहीं लाखों करोड़ों लोगों ने घर को बर्बाद कर के कहा कि हिन्दुस्तान को आज़ाद करने के लिए हम बड़ी-से-बड़ी कुर्बानी करने को तैयार हैं। अगर देश के लोग स्वतंत्रता की हिफाजत के लिए अपने सारे सुख को तिलांजलि दे सकते हैं, अगर देश के लोग स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए बड़ी-से-बड़ी कुर्बानी कर सकते हैं तो मेरा विश्वास है कि इस देश की जनता आज भी वह आत्मविश्वास रखती है कि इस प्रजातांत्रिक प्रणाली को बनाए रखने के लिए, अपनी आज़ादी को बनाए रखने के लिए वह बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने का तैयार है लेकिन उसके लिए सही दिशा चाहिए, सही वातावरण चाहिए और वह सही वातावरण देने का काम वाणिज्य मंत्री जी का या इस भारत सरकार का है।

मुझे दुख है कि इस सिलसिले में बहुत कम काम किए गए हैं, न केवल उद्योगों और व्यापार के सिलसिले में बल्कि दूसरे सिलसिले में भी इस ओर मैं आपका ध्यान आœष्ट करना चाहूंगा थोड़ी देर बाद, लेकिन एक बात कहना चाहूंगा कि यह जो अवमूल्यन हुआ रुपये का और उसके बाद वाणिज्य मंत्री जी मुझे क्षमा करेंगे मैंने उनसे पूछा था कि इससे कहां तक देश का निर्यात बढे़गा। मैंने उस पर सोचने समझने की कोशिश की तो यह कहा गया था कि लम्बी अवधि में बढ़ेगा, लम्बी अवधि का क्या मतलब होता है, मैंने वाणिज्य मंत्री जी से इस बारे मे प्रश्न पूछा तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, आज भी मेरे पास उसका कोई उत्तर नहीं। अवमूल्यन के बाद आज जो देश की स्थिति है उसमें आने वाले भविष्य में, छह महीने, साल में, दो साल में, निर्यात के पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है, जो लोग यह समझते हैं कि निर्यात कोई बढ़ने वाला है वह आज मृग-मरीचिका में हैं, वाणिज्य मंत्री महोदय जानते हैं कि अवमूल्यन के बाद पिछले तीन महीनों में निर्यात व्यापार और नीचे गिरा है, एक्पोर्ट नीचे गिरा है, कम हुआ है। यही नहीं, जो डा.लर एरिया है, जो रूबल एरिया है, जो रुपये का क्षेत्र है वाणिज्य मंत्री ने बहुत मेहनत से पूर्वी यूरोप के देशों से और रूस से जाकर समझौता कर लिया लेकिन उस समझौते के करने के बावजूद वहां की सरकारें, वहां के व्यापारी आज उन समझौतों के मुताबिक पूरा काम करने के लिए तैयार नहीं है। आज हमारे बंदरगाहों में माल पड़ा है। इसलिए अवमूल्यन के कारण जो तमाम कठिनाइयां पैदा हुईं उनका हल कोई निकट भविष्य में दिखाई नहीं पड़ता। कहा गया था अवमूल्यन के समय पर कि जो कैश इन्सेंटिव दिया जाता है, यह जो निर्यात के प्रोत्साहन के लिए रुपये की मदद दी जाती है, इससे पता चला कि हमारे रुपये की कीमत अंतर्राष्टन्न्ीय बाजार में वह नहीं है जो होनी चाहिए और कहा गया था कि अब कैश इन्सेंटिव की कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी लेकिन अभी पिछले दिनों ही अगर मैं गलत हों तो वाणिज्य मंत्री जी मुझे ठीक कर देंगे इन्होंने जो प्रोत्साहन देने की नीति का ऐलान किया है उससे कम-से-कम 30 करोड़ रुपये का बोझा हमारे बजट के पर पड़ने वाला है। आखिरकार, उस बोझे से कितना फायदा होगा आने वाले दिनों में। अधिक-से-अधिक यह फायदा होगा कि 800 करोड़ का जो निर्यात था वह बना रहे लेकिन मेरा ऐसा विश्वास है, मैं ऐसा समझता हूं, मेरी ऐसी आशंका है कि शायद निर्यात 700 या 750 करोड़ रुपये का ही रह जाएगा और हम अधिक कठिनाइयों मे पड़ने वाले हैं। तो मैं क्या समझूं। उनको जिन महोदया ने कहा था कि जो रुपए की सहायता दी जाती है उससे अवमूल्यन की सच्चाई में, हकीकत में उसकी आवश्यकता पर, बल मिलता है। तो यह जो दूसरा प्रोत्साहन दिया जा रहा है क्या वह दूसरे अवमूल्यन की पृष्ठ भूमि है। यह बड़ी दुखद स्थिति है। मैं अवमूल्यन की बारीकियों में नहीं जांगा, उस पर अलग से विवाद हो गया है, लेकिन मैं वाणिज्य मंत्री महोदय से कहूंगा कि अवमूल्यन की जो अच्छाई और बुराई थी वह हो गई, अगर आज इस आथक नीति में कोई संयम और कोई अनुशासन नहीं आया तो ठीक नहीं। पिछले दिनों तो हम अनुशासन हीनता के साथ चल पाते थे लेकिन आज उस अनुशासनहीनता के साथ इस देश में हमारे लिए चलना सम्भव नहीं, मुमकिन नहीं।

पिछले ज़माने में भारत सरकार थोड़ा बहुत अलग जा सकती थी, निर्यात करने का वादा करके उसको न कर पाए यह हम बर्दाश्त कर सकते थे, लेकिन आज हम उस कगार पर आ पहुंचे हैं कि अगर थोड़ी सी ढील हुई तो हमारा सारा देश रसातल की ओर जाने वाला है और वह सबसे गहरा अंधकारमय भविष्य हमारे और आपके लिए होगा, आने वाली संतानों के लिए होगा, और हो सकता है कि हम ही लोग उसके पाप को कभी सहन नहीं कर सकें।

मैं आपसे एक बात और कहना चाहूंगा और वह यह है कि पिछले दिनों में जो कुछ भी हमने एक्सपोर्ट के लिए कहा और हमने क्या कहा था यह कहा था कि 83 फीसदी के करीब ऐसा माल हमारा है जिसको टेन्न्डिशनल कहते हैं, जिसको परम्परागत माल कहते हैं और उस पर कोई प्रोत्साहन देने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, 83 फीसदी माल ऐसा है जिसमें हम फारेन मार्केट में, विदेशी बाजारों दूसरे देशों के साथ मुकाबला भी, प्रतिद्वंदिता भी कर सकते हैं और मैं आपको यह कहूंगा कि न केवल हमारे वाणिज्य मंत्री जी ने जिनका उह्रण मैं कहीं रखे हुए हैं कहा कि वह कम्पीट कर सकते हैं और देशों से बल्कि इंडियन चैम्बर और कामर्स ने भी अवमूल्यन के बाद 26 जून को जो पेपर सरकुलेट किया उसमें इस बारे में उन्होंने यह कहा:

"It is however not correct to say that the prices of all our exports are such as to make them uncompetitive in the world market. Only 17 percent of our export requires direct assistance from the Government but the remaining 83 percent. Of exports successfully compete in the world market without any subsidy from the Government."

83 फीसदी हमारा माल ऐसा था जोकि बिना सब्सिडी के विदेशों में दूसरे देशों के माल के साथ प्रतिद्वंद्विता कर सकता था, उसके बावजूद अवमूल्यन किया गया। खैर, कुछ आथक बातें थीं, कौन सी बातें थी, यह वाणिज्य मंत्री और उनकी सरकार जाने, मुझे कम-से-कम यह बात समझ में नहीं आती। उपसभाध्यक्ष महोदया, मैं दूसरी बात यह कहना चाहूंगा कि आज हालात बहुत खराब है और उस खराब हालत में एक बात की ओर हमें भी ध्यान देना पड़ेगा, जहां आयात-निर्यात व्यापार की ओर संक्षेप में मैंने संकेत किया वहां यह भी कहना चाहूंगा कि विदेशी र्मुीा का उपयोग कैसा होगा, यह एक दूसरा पहलू है जिसकी तरफ मैं नहीं जांगा, लेकिन केवल एक ज़िक्र वाणिज्य मंत्री से करना चाहूंगा मेटल स्क्रैप ट्रेड कारपोरेशन के बारे में। यह कारपोरेशन आपने किस काम के लिए बनाया है।

जहां तक मेरी जानकारी है स्क्रैप के 12 व्यापारी हैं, एक्सपोर्टर है उनमें से 6 को आपने इस कारपोरेशन का मेम्बर बना दिया, 3 आपके डाइरेक्टर्स हैं, और इस कारपोरेशन के अध्यक्ष महोदय जो हैं, जो मैनेजिंग डाइरेक्टर हैं मैं क्षमा चाहूंगा यह कहने के लिए कि वह वही व्यक्ति हैं जो कि एक ज़माने में हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड में हमारे व्यापार के डाइरेक्टर थे और उनके बारे में पब्लिक अंडरटेकिंग कमेटी ने कहा है कि पाइप के लेन-देन में इनका हिसाब-किताब कुछ ठीक नहीं था। हिन्दुस्तान स्टील छोड़ने के बाद आज आपके इस मेटल स्क्रेप टेन्न्ड कारपोरेशन के वह अध्यक्ष हो गए और इस कारपोरेशन को आपने अधिकार दे दिया है कि जितना स्क्रैप होगा वह इसके ज़रिये एक्सपोर्ट होगा। अगर आप सरकारी अधिकार में, नियंत्रण में, इसको रखते तो बात मेरी समझ में आती लेकिन 6 एक्सपोर्टर को सारा अधिकार दे दें और बाकी लोगों को वंचित कर दें यह मेरी समझ में नहीं आता कि इसके पीछे कौन सी नीति है, कौन सा लाभ सरकार ने सोचा है। यह मैं आपसे अनुरोध करूंगा।

मैं समझता हूं कि आपके स्मरण के लिए आपको बता दूं कि आपका यह नोटिफिकेशन है: No. B&D/9/PD-66/67 (Scrap), dt.28-4-66 इसका मैं ज़िक्र कर रहा हूं और मैं समझता हूं कि इसके पर आप पुनवचार करें। और मैं ऐसा समझता हूं कि वैधानिक दृष्टि से भी यह उचित नहीं है और इसलिए उचित नहीं है कि जहां सरकार एक व्यापार को अपने नियंत्रण में, अपने हाथ में, ले वहां मैं इसको उचित मान सकता हूं लेकिन व्यापारियों के नियंत्रण में व्यापार रहे और सरकार कुछ लोगों के हाथों में उसे सीमित कर दे यह कुछ उचित नहीं। इसी सिलसिले में मैं यह भी ज़िक्र कर दूं कि वह कपास मंगाने में जो उसके हर इस्तेमाल करने वाले से कुछ रुपया लेते हैं और उस इक्वेलाइजे़शन फंड को जो व्यापारियों के हाथ में दे दिए हैं यह भी उचित नहीं है। उसी तरह आइरन और स्टील में भी यह काम होता है। उसकी तफ़सील में मैं नही जांगा।

महोदय, इस बारे में मेरा निवेदन है कि मंत्री महोदय शायद यह कहें कि यह भी मेरे चार्ज में नहीं है, अभी वित्त मंत्री महोदय यहां पर मौजूद थे। आखिरकार विदेशी र्मुीा किस तरह से इस्तेमाल हो रही है। एक तथ्य की ओर मैं आपका और सदन का ध्यान ले जाना चाहूंगा और आप यह सोच सकती हैं कि इस देश में हमारे अनजाने में कितने बड़े-बड़े काम हो जाते हैं।

इसलिए मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि यह पब्लिक अकाउन्ट्स कमेटी 1965 की तैंतालीसवीं रिपोर्ट है पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ़ के बारे में। इसमें एक समझौते का ज़िक्र किया गया है और आपको और इस सदन को जानकर हैरानी होगी कि हमने इंग्लैड की एक कम्पनी से, जिसका नाम स्टैडर्ड टेलीफोन एंड केबल्स लिमिटेड है, एक समझौता किया 1949 में। समझौता 20 वर्ष के लिए हुआ और उस समझौते में हमने यह कहा कि एक कम्पनी हमको बंगाल में एक कम्पनी बैठाने में विशेषज्ञों की मदद करेगी ओर उस मदद के बदले हमने यह तय किया कि छह फीसदी राॅयल्टी उसको देंगे, जितना हम उत्पादन करेंगे। दूसरे यह कहा गया कि 20 वर्षों तक, 1969 तक, उसके अलावा जितने माल की हमको जरूरत होगी टेलीफोन केबल्स के लिए उसका पच्चीस फीसदी इस कम्पनी से खरीदने के लिए हम मजबूर होंगे और वह कम्पनी जो मूल्य कहेगी उसे ब्रिटिश पोस्ट आॅफिसेज़ में जमाकर दिया जाएगा।

पिछले 17 वर्षों में, 1949 से 1966 तक, और आगे 1969 तक जिस कीमत पर हम इस फैक्ट्री से केबल खरीद रहे हैं वह इन्टरनेशनल प्राइस का ठीक दोगना है। हम कुछ नहीं कह सकते क्योंकि इस बारे में जो हमने समझौता किया उसमें उन्होंने कही यह नहीं कहा कि 20 वर्षों के अंदर कभी इस समझौते को हम फिर से रिवाइज करेंगे। यही नहीं, उस समझौते का एक क्लाज यह भी है कि कोई दूसरी ऐसी फैक्ट्री हम इस देश में तब तक नहीं बना पाएंगे जब तक वह केबल फैक्ट्री हमको इजाजत नहीं देगी। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले हिन्दुस्तान में अपने को बहुत बड़ा समाजवादी कहने वाले एक नेता हैं जिनका नाम मैं नहीं लेना चाहता, जो उस ज़माने में इंग्लैंड में हाई कमिश्नर थे, उनके हस्ताक्षर से यह समझौता हुआ है 35 लाख से अधिक रुपया केवल हम रायलटी में दे चुके हैं, कितने करोड़ रुपये हमने अधिक फाॅरेन एक्सचेंज पर दे दिया है। यह हिसाब न पोस्ट ओफिसेज़ के पास है और, माफ कीजियेगा, न आपके स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन के पास है और न आपका जो दूतावास इंग्लैंड में है, उसके पास है।

फिजूलखर्ची क्यों: महोदय, अब मैं एक दूसरी बात पर आपका ध्यान आœष्ट करना चाहता हूं। वह यह है कि इसका ज़िक्र हुआ है कि कोई एक माननीय गंजू साहब हैं जो वाशिंगटन में हमारे विदेश मंत्रालय में थे, वहां से वे हटाए गए और हटाने के बाद वित्त मंत्रालय ने उनको वहां नौकर रख लिया उन्हें रखने के बाद उनके खर्च के हिसाब से साठ हजार रुपए तनख्वाह दी जाती रही। अगले साल के लिए एक लाख डालर की मांग वित्त मंत्रालय में की गयी। इसकी जांच होनी चाहिए। आखिरकार ये कौन हस्ती हैं जिनके बिना इस देश का काम नहीं चलता है? जिसकी मासिक तनख्वाह 62,500 रुपये के करीब होती है और इसके अलावा उनके विदेश में रहने का खर्च भी हमारा वित्त मंत्रालय दे रहा है। एक ओर विदेशी र्मुीा के लिए रुपया भीख मांगना दूसरी तरफ इतने रुपये की बर्बादी करना, यह सरकार के लिए शोभा नहीं देता और मैं निहायत अदब के साथ वाणिज्य मंत्री महोदय से अनुरोध करूंगा कि आप सरकार का ध्यान इन दो तथ्यों की ओर ले जाएं। एक दो नहीं, दसियों समझौते पिछले पनर््ीह वर्षों में आपने किए हैं जिसमें करोड़ों रुपये की विदेशी र्मुीा हमारे सरकार की विदेशों में बर्बाद हो रही है। मुझे विश्वास है कि अवमूल्यन के बाद की भयंकर स्थिति को देखते हुए जो मैंने यह प्रस्ताव रखा है कि विशेषज्ञों और पालयामेंट के मेम्बरों की ऐसी समिति बनायी जाए जो इन सारी बातों में जाए और वाणिज्य मंत्रालय से यह अनुरोध कर सके कि इस देश की बिगड़ी हुई हालत ठीक करने के लिए, देश की बिगड़ी हुई दशा को सुधारने के लिए कौनसा कदम उठाया जाए।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।