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बिस्कुट निर्माण में विदेशी सहयोग मांगना लज्जा की बात, सरकार दे स्वदेशी पर बल

संदर्भ: बिस्कुट बनाने वाली र्मीास की कम्पनी और अमेरिकी कम्पनी के बीच विदेशी सहयोग सम्बंधी चर्चा 7 दिसम्बर 1966 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उप सभापति महोदय, मुझे इस बात पर बहुत दुख है कि सरकार ऐसे-ऐसे सहयोग करारों की अनुमति देती है। यह केवल आथक प्रश्न या विदेशी सहयोग का प्रश्न नहीं है। यह तो मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। हमें स्वदेशी पर बल देना चाहिए। बिस्कुट के निर्माण में सहयोग प्राप्त करने में क्या तुक है? आम आदमी जो बिस्कुट खाता है वह तो आज भी जगह-जगह पर स्थानीय तौर पर बना लिया जाता है। फिर यह कहा गया है कि यह विदेशी निर्यात के लिए है। परन्तु क्या हम खाद्य सामग्री का निर्यात करने की स्थिति में हैं भी। हमारे नेता बार-बार यह कह रहे हैं कि खाने की आदतें बदली जाएं। तो क्या उसमें बिस्कुट खाना शुरू करने की बात भी शामिल है? हमें बाहर से सहयोग मांगने में लज्जा आनी चाहिए। हमें तो यहां के विदेशी प्रतिष्ठानों का राष्ट्रीयकरण कर देना चाहिए। हमें अपने पर निर्भर रहने की ही आदत डालनी चाहिए। परमात्मा न करे कि कल कुछ हो जाए, तो कौन जानता है कि इन सहयोगकर्ताओं का रवैया क्या होगा? हमें भूलना नहीं चाहिए कि अभी पिछले सितम्बर में हम अपने राष्ट्र के बचाव के लिए माल प्राप्त करने हेतु एक-एक का दरवाज़ा खटखटाते फिर रहे थे। अतः हमें इसमें सावधानी बरतनी होगी। सहयोग केवल वहीं जाए जहां यह एक दम अनिवार्य हो।

इन शब्दों के साथ मैं सरकार से अनुरोध करूंगा कि वह इस बारे में नीति निर्धारित कर दे कि हमारे आथक जीवन के फालतू के क्षेत्रों में सहयोग की अनुमति किसी भी स्थिति में नहीं दी जाएगी।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।