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भ्रषचार में आकंठ डूबा है निदेशालय, जांच को गठित हो आयोग तथा हो शुगर पाॅलसी का पुनर्गठन

संदर्भ: Food situation in the country 20 दिसम्बर 1963 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


महोदय, मेरा यह उद्देश्य कदापि नहीं है कि मैं इस गम्भीर विषय को विवाद और कटु आलोचना का विषय बनां, लेकिन यह जरूर कहना चाहूंगा कि खाद्य राज्य मंत्री ने वास्तविकता एवं भयावह स्थिति की परवाह न करते हुए कल सदन में जो कहा उसमें समझदारी का संकेत नहीं है। जब वह अपनी बात सदन में कह रहे थे तब इस देश की जनता के समक्ष यह छाप छोड़ रहे थे कि देश में सभी कुछ ठीक तरह से चल रहा है। उनके द्वारा देश को यह दिखाने का प्रयास किया गया क्योंकि विगत चार वर्षों में इस सदन में खाद्यान्न के विषय में कोई चर्चा नहीं की गई, खाद्यान्न के मोर्चे पर यह घटित होना आसाधारण बात है। मैं खेद के साथ कहता हूं कि मंत्री जी ने अपने विभाग द्वारा प्रकाशित रिपोट्र्स को पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। मैं इस समस्या का अध्ययन एक और संदर्भ में करना चाहता हूं। जैसा पूर्व में वादा किया गया था कि जब हम खाद्य समस्या से लड़ने युह् स्तर पर जा रहे हैं। इस बाबत The Intensive Agricultural District Programme Report, 1959 फोर्ड फांउडेशन द्वारा खाद्य उत्पादन के संदर्भ में एक कमेटी का गठन किया गया था। मैं उस कमेटी की रिपोर्ट के कुछ वाक्यों को पढ़ना चाहूंगा। कमेटी कहती है, ‘‘खाद्य उत्पादन का प्रमुख उद्देश्य नई खाद्य नीति को अपने सिद्धांत की रक्षा के लिए युह् स्तर पर संघर्ष करना होगा।’’

"This crusade involves more than a plan. It requires allocation of the necessary resources and hard work, zeal, enthusiasm and sacrifice on the part of all those 200 who are engaged in it. Making a plan that is made. The peasants as usual will not achieve the food production targets, the steps necessary to mobilize the nation for action must be clearly outlined."

यह रिपोर्ट उस कमेटी द्वारा दी गई थी। मंत्री जी द्वारा दिए गए भाषण को कमेटी के सभी माननीय लोगों ने सुना। उनको आश्चर्य हुआ, उनकी इस अत्यंत महत्वपूर्ण विषय की समझदारी को लेकर। यह सिर्फ मेरी ही शिकायत नहीं है, बल्कि पूरे सदन की शिकायत है। मंत्री जी के भाषण में इस अत्यंत महत्वपूर्ण विषय की समझदारी का कोई भी संकेत नहीं मिलता है।

श्रीमान उप-सभापति महोदय, माननीय खाद्य मंत्री महोदय ऐसा मानते हैं कि सभी कुछ सुधर जाएगा क्योंकि हम वर्ष-प्रति-वर्ष प्रगति कर रहे हैं। इसकी वजह से काफी सुध् ाार एक निर्धारित समय के अंतराल में आ जाएगा। उनके द्वारा यह बताने का प्रयास किया गया कि प्राœतिक परिस्थितियों के कारण प्रत्येक तीन-चार वर्षों में हमें खाद्य एवं शर्करा में नुकसान उठाना पड़ा। अब एक नई आशा की किरण दिखाई पड़ती है। तब इन योजनाओं का क्या अर्थ है? क्या इन योजनाओं का तात्पर्य यह है कि हम लोग सदन में आकर यह कहें कि सूखे के कारण या बाढ़ के कारण या फसलों में किसी बीमारी के कारण हमारी उत्पादन क्षमता में गिरावट आई है?

वर्ष 1949 में माननीय प्रधानमंत्री ने अपने देख-रेख में शुगर के सम्बंध में एक नीयत विचार बनाया था कि शक्कर के उत्पादन में हो रहे नुकसान को कैसे ठीक किया जा सकता है इसमें क्या रूकावटें आ रही हैं? क्या यह वास्तविकता नहीं है कि हम लोगों की सामथ्र्य की कमी से शक्कर उत्पादन की स्थिति शीघ्रता से गिरती जा रही है, इस गिरावट पर हम नियंत्रण नहीं कर पा रहे हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण वास्तविकता है, इसके लिए कौन उत्तरदायी है? कौन दोषी है? यह वक्तव्य माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा दिया गया है।

महोदया, मैं शक्कर की स्थिति को सदन के सामने रखना चाहूंगा और उस पर ‘‘भारत की शक्कर नीति’’ पर बहस करना चाहूंगा। वर्ष 1960-61 में 30 लाख टन लक्ष्य था और इसके लिए शक्कर उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाता था। मुझे अन्य प्रदेशों की जानकारी नहीं है, परंतु उत्तर प्रदेश में अकेले मेरी जानकारी के अनुसार 8 करोड़ रुपया उद्योगपतियों को शक्कर के अधिक उत्पादन के लिए दिया गया। उसका परिणाम यह हुआ कि देश भर में लगभग सभी जगह उस वर्ष में 30 लाख टन शक्कर का अधिक उत्पादन हुआ। अगले वर्ष खाद्य मंत्रालय इस नारे के साथ आया कि देश के पास अतिरिक्त चीनी भण्डार है। बाजार में शक्कर का उपभोग नहीं किया जा सकता है। तब उद्योगपतियों एवं भारत सरकार में सहमति बनी कि चीनी उत्पादन को बंद कर दिया जाए। वर्ष 1961 में गन्ने की बोआई के समय पर भारत सरकार की तरफ से गन्ना किसानों को सभी तरह की सहायता-अनुदान, बीज इत्यादि दिए गए। किसानों द्वारा गन्ने की फसल बड़े पैमाने पर कई-कई एकड़ में उगाई गई। परन्तु अचानक ही अगस्त 1961 में सरकार ने अध्यादेश लाकर चीनी उत्पादन को 10 प्रतिशत कम कर दिया। मिलों को अध्यादेश का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। कहा गया कि ऐसा नहीं करने पर उन्हें पैनाल्टी देनी होगी, यह खाद्य मंत्रालय का शासनादेश था। उन्हें क्यों यह कहना पड़ा कि उनके पास चीनी का अतिरिक्त भण्डार है? क्यों खाद्य मंत्रालय को आकर कहना पड़ा कि उनके पास निर्यात का कोई बाज़ार नहीं है? मैं इस बात से सहमत हूं कि निर्यात भी होना चाहिए, परंतु देश में उपभोग (खपत) की क्या स्थिति है?

महोदया, आपकी अनुमति से, मैं सदन के सामने चीनी के उपभोग (खपत) की स्थिति रखना चाहूंगा। कुछ वर्षों पहले भारत चीनी उत्पादन करने वाला क्यूबा के पश्चात दूसरा देश था। मुझे जानकारी नहीं है, हो सकता है यदि क्यूबा ने अपने चीनी उत्पादन को घटाया हो तो भारत पहले नम्बर पर हो सकता है। लेकिन मुझे विश्व भर में चीनी की खपत के आंकड़े देखने होंगे। मैं यहां 1961 के आंकडे, प्रति व्यक्ति चीनी की खपत की स्थिति को प्रस्तुत कर रहा हूं जो भारतीय शुगर टेक्नोलॉजिस्ट एसोसिएशन कल्याणपुर, कानपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘‘इण्डियन शुगर मैन्युअल’’ के पेज संख्या 7 एवं सारणी 5 में दिया गया है। सम्पूर्ण विश्व में चीनी के उपभोग (खपत) के प्रति व्यक्ति आंकड़े दिए गए हैं। जो निम्नलिखित हैं

बेल्जियम 35.3, चेक्स्लोवाकिया 42.9, फ्रांस 31.4, फिनलैंड 44.5, जर्मनी (पश्चिमी) 31.9, इटली 24, नीदरलैंड 58.6, पोलैंड 33.5, स्वीज़रलैंड 54.4, स्वीडन 43.7, यूनाइटेड किंगडम 56, टर्की 12.7, यू.एस.एस.आर. 30.3 किलो, और भारत की चीनी उपभोग प्रति व्यक्ति संख्या क्या है? भारत की प्रति व्यक्ति चीनी खपत (उपभोग) 14.5 पाउंड है जो लगभग 7 किलो के बराबर है। सिर्फ 2 देश ही विश्व में हैं, इन्डोनेशिया एवं पाकिस्तान जिनकी प्रति व्यक्ति चीनी खपत भारत से कम है। परंतु खाद्य मंत्री आकर कहते हैं कि देश में चीनी उत्पादन में 10 प्रतिशत कमी की गई है, कौन इसके लिए दोषी है? ऐसी गलत नीति बनाने की भारत सरकार को किसने सलाह दी? मुझे खाद्य मंत्री जी से सहानुभूति है जो अपने साथ खाद्य मंत्रालय में बैठे सम्बंधित नौकरशाहों द्वारा दिए गए गलत आंकडों से देश को गुमराह कर रहे हैं।

महोदया, मैं बताना चाहता हूं कि वर्ष 1961-62 में 30 लाख टन से चीनी उत्पादन गिरकर 26 लाख टन के स्तर पर आ गया और वर्ष 1962-63 में चीनी उत्पादन गिरकर 21.5 लाख टन पर आ गया। इस तरह से 2 वर्षों में चीनी उत्पादन में गिरावट लगभग 13 लाख टन हो गई, और भारत सरकार को लगभग 43.7 करोड़ रुपये की चीनी उत्पादन में टैक्स के रुप में हानि हुई। वे कहते हैं कि चीनी उत्पादन में कमी का कारण मिलों द्वारा कम उत्पादन का होना है। वे कहते हैं, कमी का कारण उद्योगपतियों द्वारा अभाव उत्पन्न किया जाना है। वे कहते हैं, कमी का कारण प्रœति चक्र की तरंग के कारण है। महोदया, मैं कहना चाहता हूं भारत सरकार की गलत नीतियों के कारण चीनी उत्पादन में कमी हुई है। खाद्य मंत्री जी की अदूरदशता के चलते चीनी उत्पादन में कमी पैदा हो गई। चीनी उत्पादन में कमी का एक कारण यह भी हो सकता है वे चीनी उद्योग की समस्याओं को न समझते हों अथवा खाद्य मंत्रालय के नौकरशाहों द्वारा अपने निहित स्वार्थों के कारण चीनी उत्पादन में कमी दिखाकर उन्हें भ्रमित किया जा रहा हो। अब मैं बताना चाहूंगा कि भारत सरकार की गलत नीति से क्या घटित हुआ? वर्ष 1961-62 में उत्तर प्रदेश एवं बिहार में बड़े पैमाने पर गन्ना किसानों को अपना गन्ना खेतों में जलाना पड़ा क्योंकि चीनी मिलों ने गन्ना लेने से इंकार कर दिया था। यह उत्तर प्रदेश विधान सभा के रिकार्ड में दर्ज है। उत्तर प्रदेश सरकार ने माना कि गन्ने को काफी मात्रा में किसानो द्वारा जलाया गया क्योंकि वह मिलों द्वारा इस्तेमाल नहीं किया गया। यह प्रश्न संसद में एवं विधान सभा में भी उठाया गया। तब सरकार को आकर कहना पड़ा कि चीनी मिलों को तत्काल चलाया जाए ताकि गन्ना किसानों की उपज को बचाया जा सके। गन्ना किसानों की उपज का 66 प्रतिशत मिलों को किसानों से लेने को बाध्य किया गया। गन्ना किसानों का जो अतिरिक्त बचा हुआ गन्ना खेतों में पड़ा था ,भारत सरकार ने उसके उपयोग का कोई उत्तरदायित्व नहीं लिया। लेकिन जब उससे कम गन्ना हुआ और वह उसे गुड़ एवं खांडसारी उद्योग को देने लगा, तब भारत सरकार ने ‘‘डिफेंस ऑफ़ इंडिया रूल्स’’ के प्राविधानों में अपनी व्यवस्था दी। उसमें कहते हैं अगर गन्ना किसान अपना गन्ना मिलों को नहीं देगा, तब उसे सजा दी जाएगी और जेल भेज दिया जाएगा। उत्तर प्रदेश में एक अधिनियम ‘‘उ.प्र. शुगरकेन परचेज़ एक्ट’’ पहले से ही था लेकिन सरकार उससे संतुष् नहीं थी। इसे लेकर सरकार ने एक विशेष प्रावधान ‘‘डिफेंस ऑफ़ इंडिया रूल्स’’ बनाया। इसके बावजूद पूर्वी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलंे अपनी पूरी क्षमता के अनुसार गन्ना नहीं ले रही हैं। जब इस समस्या को मैंने इसी सदन के सामने उठाने का प्रयास किया तो माननीय खाद्य मंत्री द्वारा कई अड़चने डाली गई। उन्होंने कहा कि सिर्फ तीन चीनी मिलें ही गन्ने की कम आपूत से प्रभावित हैं।

महोदया, मैंने कई टेलीग्राम प्राप्त किए हैं और यह टेलीग्राम मेरे पास नवम्बर के दूसरे और तीसरे सप्ताह से आना शुरू हुए हैं। तबसे मैंने यह प्रश्न इस सदन में उठाने का प्रयास किया है। मैं सिर्फ एक टेलीग्राम को पढ़ना चाहूंगा, जिसे ‘‘इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन’’ कलकत्ता ने हमें भेजा है। इसे किसी आंदोलनकारी द्वारा अथवा किसी गन्ना किसान ने नहीं भेजा है। यह टेलीग्राम ‘‘शुगर मिल्स एसोसिएशन’’ के माध्यम से यहां दिल्ली भेजा गया। हमारे पास निरंतर टेलीग्राम और पत्र आ रहे हैं जिसमें कहा गया है कि इसको निम्नलिखित तरह से पढ़ा जाए

‘‘विष्णु प्रताप शुगर वक्र्स (खड्डा), लक्ष्मी देवी शुगर मिल्स (छितौनी), पंजाब शुगर मिल्स (घुघली), महाबीर शुगर मिल्स (सिसवा बाजार) और सेक्सरिया शुगर मिल्स (बभनान) गन्ना किसानों की हडताल के कारण गन्ना आपूत न हो पाने के कारण बंद पड़ी है। जबकि रामकोला शुगर मिल्स (मुंडेरवा), श्री आनंद शुगर मिल्स (लबाड), ईश्वरी खेतान शुगर मिल्स (लक्ष्मीगंज), नवाबगंज शुगर मिल्स ने असंतोषजनक तरीके में आपूत रोककर बंद कर दी गई। यूनाइटेड प्राविंस शुगर कम्पनी (तमकुही रोड़), पडरौना शुगर वक्र्स (पडरौना), कानपुर शुगर वक्र्स (कानपुर, कठकुइयां), और गौरी बाजार, देवरिया शुगर मिल्स (देवरिया), श्री सीताराम शुगर कम्पनी (बैतालपुर), माहेश्वरी खेतान शुगर मिल्स (रामकोला), सर्रेया शुगर फैक्ट्री, सरदार नगर, गणेश शुगर मिल्स, आनंद नगर, डाइमंड शुगर मिल्स, पिपराइच, बलरामपुर शुगर कम्पनी (बलरामपुर और तुलसीपुर) प्रतिकूल स्थितियों में आंदोलन के कारण बंद है। आंदोलनकारियों से बातकर मिलों को तुरंत गन्ने की आपूत सुनिश्चित कराना चाहिए। मिलों की कार्य प्रणाली को बहुत कठिन बनाकर उन्हें बंद कर दिया गया है। कमेटी को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए। इसलिए आप तत्काल हस्तक्षेप करें।

महोदय, आज 2 दिसम्बर को, एक टेलीग्राम आया जिसे मैंने आज की सुबह प्राप्त किया। यह देवरिया से आया है। जिसमें कहा गया है, ‘‘देवरिया बैतालपुर फैक्ट्री में गन्ना उत्पादकों ने गन्ना आपूत को रोक दिया। इस तरह के कई अन्य टेलीग्राम मैंने प्राप्त किए हैं। परंतु सिर्फ यह टेलीग्राम जो मैंने आज सुबह प्राप्त किया। महोदय, सिर्फ टेलीग्राम ही नहीं, विभिन्न समाचार पत्रों ने इस सम्बन्ध में अपनी रिर्पोटें दी हैं। ‘‘हिन्दुस्तान टाइम्स’’ 30 नवम्बर की अपनी रिर्पोट में कहता है कि ‘‘पूर्वी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलें गन्ने की कमी के कारण गंभीर संकट का सामना कर रही हैं।’’ ‘‘दि स्टेटसमैन’’ 26 नवम्बर की अपनी रिर्पोट में कहता है कि ‘‘पूर्वी उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों द्वारा गन्ने की पेराई बंद कर दी गयी है।’’ ‘‘दि इंडियन एक्सप्रेस’’ ने 2 दिसम्बर के लखनऊ से प्रेषित रिर्पोट में कहा है कि ‘‘पूर्वी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों में उत्पादन ठप है।’’ लेकिन खाद्यमंत्री यहां पर चुप बैठे हुए हैं।

महोदय, हम यहां पर इस मुद्दे को इस सदन में उठा भी नहीं सकते हैं। चीनी मिलें काम नहीं कर रही हैं। मजदूरों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। गन्ना किसानों को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। परंतु खाद्य मंत्री जी के लिए यह सब छोटे मुद्दे हैं। वह देश को आश्वस्त करना चाहते हैं और इस सदन को भी कि वह 33 लाख टन चीनी उत्पादन के लक्ष्य को इस पेराई सत्र में पूरा करेंगे। मुझे भारत सरकार के इस रूख पर तरस आता है। मैं सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश के संदर्भ में पूछता हूं, क्या भारत सरकार के पास कोई दलील है? सरकार के पास दलील यह है कि गन्ने का भाव वह तय करना चाहती है, टैरिफ कमीशन द्वारा निधारत मानकों के अनुसार गन्ने की प्राप्ति के आधार पर। इसके लिए हर समय माननीय खाद्यमंत्री जी पूर्वी उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादकों को उपदेश दे रहे हैं कि वह अच्छी श्रेणी के गन्ने का उत्पादन करें। मैं उनसे थोड़ा सहमत हो जां परंतु उसमें बड़ी कठिनाइयां हैं। इसलिए मैं उनसे यह जानना चाहूंगा कि क्या भारत सरकार के पास कोई ऐसी मशीनरी है जिससे गन्ने की रियल रिकवरी जानी जा सके। इस सम्बन्ध में मैं कुछ आंकड़ों को देना चाहूंगा। जैसे उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले की एक मिल की शुगर रिकवरी का आंकड़ा 10.3 प्रतिशत है। जबकि अन्य मिलें जो 5 मील के दायरे में ही हैं, वहां 9.5 प्रतिशत की रिकवरी है। इसलिए शुगर की रिकवरी का निरीक्षण होना चाहिए। मैं यह भी जानना चाहता हूं कि माननीय श्री थाॅमस और माननीय सरदार स्र्वण सिंह से कि जब पंजाब में जहां रिकवरी 9.2 प्रतिशत है, दो रुपए मन के हिसाब से भुगतान देना तया हुआ है। केरल जहां केवल एक फैक्ट्री है जहां रिकवरी 9.01 प्रतिशत है वहां भी 2 रुपए मन भुगतान देना तय हुआ एक अन्य मंत्री रामसुभग के राज्य बिहार में भी 2 रुपए मन भुगतान का आदेश हुआ जहां की बिहटा चीनी मिल में सबसे कम रिकवरी है। फिर पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों को यह भुगतान क्यों नहीं? क्या यह न्याय है? क्या यह निष्पक्ष व्यवहार है? इसे लेकर मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि खाद्य मंत्रालय और कुछ भी नहीं, सामाजिक पिशाचों का एक दल है, जो देश भर के किसानों को लूट रहा है। इसका क्या जवाब है? क्यों नहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादकों को भी 2 रुपए मन के भुगतान की अनुमति दी जाए।

मुझे यह भी कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों को अपनी चीनी को सस्ती दर पर बेचनी चाहिए। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है। तब हम यह आवाज़ उठाते हैं कि चीनी मिलें बहुत ज्यादा लाभ उठा रही हैं। इसलिए चीनी मिलों का राष्न्न्ीयकरण होना चाहिए। तब सरकार आगे आकर कहती है कि ‘‘मिलें बहुत कम लाभ पर काम कर रहीं है। उन्हें लाभ दिया जाना चाहिए।’’ मैं सरकार की इस राय से सहमत नहीं हूं। उन्हें अपने मत को सुधारना चाहिए। मैं यह भी जानना चाहता हूं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के चीनी मिल मालिकों ने क्या अपराध किया है कि उनसे यह कहा जा रहा है कि वे अपनी चीनी को 111.5 रुपए प्रति कुन्टल बेचें, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चीनी उद्योगपतियों एवं देश के अनेक हिस्सों के उद्योगपतियों के लिए ऐसा नहीं है।

महोदय, मेरी जानकारी में यह नहीं है कि यह स्थिति कहां-कहां है लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों से यह कहा गया कि वह अपनी चीनी को 111.5 रुपए प्रति कुन्टल में विक्रय करे, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों से कहा गया कि वह अपनी उत्पादित चीनी को 116.5 रुपए प्रति कुन्टल की दर से बेचे। यह क्या मामला है? मैं इस सदन से जानकारी चाहूंगा कि यह कैसा विशेष प्रावधान है या यह एक अनोखा प्रावधान है? हमेशा यह कहा जाता है कि उत्तर भारत द्वारा हमेशा दक्षिण भारत का शोषण किया जाता है, परंतु ये क्या हो रहा है? यदि चीनी मिलें उत्तर प्रदेश में 116 रुपए कुन्टल से चीनी बेच रही हैं। अगर इसे दक्षिण में मैसूर ले जाया जाए और एक रुपये प्रति कुन्टल माल भाड़ा जोड़ा जाए तो वहां पर चीनी मिलें माल भाड़े के रूप में लाभ लेकर इसे 117 रुपए में बेच सकती हैं लेकिन केरल में माल भाड़े के रूप में चीनी मिलें दो रुपए अतिरिक्त वसूल रही हैं। मैं नहीं जानता कि भारत सरकार वास्तव में चाहती क्या है। मैडम, पूर्वी उत्तर प्रदेश में लगभग 12.68 करोड़ मन गन्ने की पेराई मिलों द्वारा की जाती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के इन गन्ना उत्पादकों को 20 पैसा प्रति मन के हिसाब से इनसेंटिव दिया जाए तो यह लगभग ढ़ाई करोड़ बनता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार को आगे आकर एक प्रस्ताव लाना चाहिए। इनके आथक विकास की एक विशेष योजना बनानी होगी। इसका लाभ अन्य क्षेत्रों को भी मिले तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।

अब मैं गुड के विषय को लेता हूं। माननीय खाद्य मंत्री महोदय ने कल कहा, सिर्फ 5 लाख टन गुड़ का निर्यात अतिरिक्त क्षेत्रों द्वारा किया गया। वह कहते है कि 90 प्रतिशत का उपयोग कर लिया गया। मुझे आश्चर्य हुआ था उनका यह वक्तव्य सुनकर कि माननीय खाद्यमंत्री जी जैसे ज़िम्मेदार व्यक्ति ने इस तरह की बात करी। मेरी जानकारी में नहीं है कि वह यह आंकडे कहां से लाए, परंतु उनका पूरा दावा सिर्फ रेलवे स्टेशन के आधार पर दिया गया था।

गुड के निर्यात में सिर्फ रेलवे यातायात को शामिल किया जाता है जबकि ऐसा नहीं है। कांग्रेस पार्टी के अन्य माननीय सदस्यों ने भी इस विषय में लोकसभा में यह कहा है। मैं माननीय खाद्य मंत्री महोदय को चुनौती देता हूं कि वह जांच करवायें कि 90 प्रतिशत निर्यात रेल से न होकर टन्न्कों से होता है। पूरे देश में गुड़ का उत्पादन कितना होता है। मुझे ठीक-ठीक पता नहीं है लेकिन वर्ष 1961-62 में 23,79,000 टन उत्पादन उत्तर प्रदेश में हुआ। गुड़ की खपत पूरे भारत में 23 पाउंड प्रति व्यक्ति है। इसलिए मैं उत्तर प्रदेश के बारे में कह सकता हंू कि यह अतिरिक्त उत्पादन का राज्य है। जिसमें प्रति व्यक्ति 30 पाउंड की खपत है। उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या 6,42,66,506 ग्रामीण और 7,37,46,401 शहरी क्षेत्र में है। अगर उत्तर प्रदेश के हर आदमी पर औरसत 30 पाउंड गुड़ की खपत है तो कुल खपत उत्तर प्रदेश में लगभग 10,50,000 टन होगी। क्या होगा जब 13,29,000 टन का? खाद्य मंत्री जी कहते हैं कि सिर्फ 5 लाख टन गुड़ का निर्यात उत्पादन क्षेत्रों से हो रहा है। मैं बिहार एवं अन्य राज्यों के विषय में कह रहा, सिर्फ उत्तर प्रदेश में 23,79,000 टन गुड़ का उत्पादन होता है। अगर 7 करोड़ लोग 25 प्रतिशत अधिक खर्च करेंगे, अन्य राज्यों से अधिक मान लें कि 30 पाउंड अधिक प्रति वर्ष करें, वे खर्च करेंगे 10,50,000 टन यह गणना माननीय खाद्य मंत्री ने विस्तार से बताया है। माननीय खाद्य मंत्री अपनी समझ से हमको यह बतलाना चाह रहे हैं कि यह सही तस्वीर है। मैडम यह क्या हो रहा है? यह गुड़ उत्तर प्रदेश में 18 रुपए मन बेचा जा रहा है और यहां दिल्ली में 32 रुपये मन से 35 रुपए मन तक। पंजाब में यह और ज्यादा है। अगर आप 10 रुपए ज्यादा उपभोक्ता से वसूलते हैं, दूसरे प्रदेशों में निर्यात के प्रत्येक टन पर तो उसे 250 रुपए नुकसान उठाना पड़ता है। पूरा घाटा लगभग 32 करोड़ का उठाना पड़ता है। उसका फायदा कौन उठा रहा है? यह उपभोक्ता के हित में नहीं जा रहा है। इसके बाद भी खाद्य मंत्री हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं कि सभी कदम उपभोक्ता के हित में उठाए जा रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उत्तर प्रदेश के व्यापारियों को अपना गुड़ निर्यात करने का अधिकार नहीं है। परन्तु पंजाब, गुजरात और अन्य राज्यों के व्यापारियों को गुड़ के आयात की अनुमति है। इसलिए पंजाब, गुजरात, बम्बई के व्यापारी गुड़ की कमी की परिस्थितियां पैदा कर अतिरिक्त लाभ कमा रहे हैं। मेरी जानकारी में नहीं है। इसका मेरे पास कोई प्रमाण भी नहीं है। लेकिन कोई भी सरकार इस तरह के फायदे निहित स्वार्थों के कारण बनाती है। एक या दो अधिकारी सालों से खाद्य मंत्रालय में बैठकर शुगर पालिसी को जोड़-तोड़कर चला रहे हैं। भारत सरकार की गुड़ पालिसी को चला रहे हैं कि सभी कुछ ठीक से चल रहा है। मैड़म, हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि खाद्य मंत्रालय में बड़े पैमाने पर घपला किया जा रहा है। जब तक पूरा का पूरा ढ़ाचा नहीं बदलेगा, यह रूकने वाला नहीं है इसके लिए पूरा ढ़ाचा बदलना पडे़गा।

मैडम, जब हम यह कहते हैं कि गुड़ के निर्यात में कम-से-कम बाधाएं हों, तो हम गुजरात, पंजाब, और बम्बई के उपभोक्ताओं के हित में बात करते हैं जो उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के हित में भी है। लेकिन वे हमारी मांगो को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि हम परेशानियां पैदा कर रहे हैं। माननीय खाद्यमंत्री जी कई जगहों पर कह चुके हैं कि जो अभियान चलाकर गन्ना उत्पादकों को भड़का रहें हैं कि मिलों को गन्ना नहीं दे। मैं सैकड़ों ऐसे पर्चे दिखा सकता हूं जिसमें जिला कांग्रेस कमेटी ने गन्ना उत्पादकों का आहवान किया है कि गन्ना तब तक नहीं दे जब तक दो रुपए मन भुगतान नहीं करते हैं। उनकी एक सूत्रीय मांग है कि जब तक गन्ना किसानो को यह भुगतान नहीं मिलेगा, जब तक गन्ना उत्पादकों के लिए समान नीति नहीं बनेगी, समस्या का समाधान होने वाला नहीं है।

मैडम, उत्तर प्रदेश और बिहार देश में पैदा होने वाले गुड़ का आधे से अधिक उत्पादन करते हैं। अगर हम इन गन्ना उत्पादकों को प्रेरणादायक भत्ता नहीं दे सके और गन्ना उत्पादकों ने गन्ने की उपज नहीं की तो उत्पादन की सम्पूर्ण प्रक्रया पर असर पडे़गा। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि माननीय मंत्री जी क्या सोच रहे हैं। पिछले एक माह से गन्ना किसान सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर रहे हैं। लेकिन केंद्रीय सरकार ने उन पर ध्यान नहीं दिया है। मैं नहीं जानता हूं कि इसके पीछे कारण क्या है? जो मैं देख रहा हूं उससे लग रहा है कि उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे दुर्भाग्यवती राज्य हैं जहां कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं लेकिन वे अपने हाईकमान की इच्छा के विपरीत कदम नहीं उठा पा रहे हैं। मैडम, शुगर पालिसी को तय करने को लेकर कांग्रेस पार्टी में अंतर्कलह जारी है। इसका खामियाज़ा देश भर के किसानों को भुगतना पड़ रहा है। इसकी वजह से पंजाब और केरल में किसानों को दो रुपए की दर से भुगतान किया जा रहा है जबकि इन दोनों राज्यों में भी कांग्रेस की ही सरकारें हैं। यही नहीं, राम सुमग सिंह के क्षेत्र में भी दो रुपए के दर से भुगतान करने की अनुमति दी गयी है। मैडम, मैंने इस मसले को सदन में इसलिए उठाया है जिससे कि किसी भी राज्य के किसान के साथ अन्याय नहीं होने पाए। खाद्य मंत्रालय को चाहिए कि वह पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों को भी दो रुपए की दर से भुगतान दे, नहीं तो उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादक कांग्रेस पार्टी की सरकार को उखाड़ फेकेंगे। हो सकता है, यह मुझे भी पसंद न हो लेकिन यह साफ है कि आने वाले वर्षों में इसका असर दिखेगा। वैसे इसे लेकर मेरा मुख्य मकसद लोकतंत्र को बचाना है, कांग्रेस को उखाड़ फेकना नहीं। इसलिए मैं नहीं चाहता की चीनी उत्पादन में कमी हो। मैं नहीं चाहूंगा कि देश में अराजक स्थिति पैदा हो। मैं चाहता हूं कि इस गम्भीर स्थिति में शुगर पालिसी जो शासकों की जिद के कारण नहीं बदल रही है, उसका पुनर्गठन हो। इसे लेकर शासकों के दिमाग में जिद भर गयी है जबकि मेरा मकसद उनको सही रास्ता दिखाना है। मैं यह नहीं कह सकता हूं कि वह देख सकेंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो यह देश का दुर्भाग्य होगा।

मैं चीनी और गुड़ की समस्या को ठीक से देख रहा हूं। इसका एक दूसरा बिन्दु भी है जिसे मैं देख रहा हूं। अगर गुड़ सस्ते दाम पर बिका तो इसका असर गन्ना किसानों पर पड़ेगा। इसकी वजह से उन्होंने गन्ने की खेती पर्याप्त मात्रा में नहीं की तो उसका गम्भीर असर चीनी उत्पादन पर भी होगा। कुछ समय पहले भी एक रिर्पोट में टैरिफ कमीशन ने भी कहा है कि गुड़ की कीमत गन्ना उत्पादन को प्रभावित करती है। अगर मुझे सही तरीके से याद है कि 1931 की टैरिफ कमीशन की रिर्पोट में कहा गया है कि गन्ना मूल्य पर प्राœतिक कारणों का प्रभाव भी पड़ता है। गन्ने के उत्पादन पर भी प्रतिकूल मौसम का असर पड़ता है। इसकी वजह से गुड़ की कीमतों में उतार-चढ़ाव भी होता है। जिसका गन्ना किसानों पर विपरीत असर पड़ता है। वह गन्ने की खेती से पीछे हटने लगते हैं। इसलिए मेरा गृहमंत्री से कहना है कि ऐसे में सरकार और खाद्यमंत्री गुड़ की कीमत भी कम कर देते है तो उत्तर प्रदेश के किसान हतोत्साहित होकर कम उत्पादन करेंगे। इसलिए गन्ना किसानों को इन्सेंटिव नहीं दिया गया तो लक्ष्य प्रभावित होंगे।

मैं कहना चाहूंगा कुछ शब्द समान खाद्य नीति के संदर्भ में। माननीय खाद्यमंत्री ने यह कहने का प्रयास किया है कि देशभर में कहीं खाद्यान्न की गम्भीर स्थिति नहीं है लेकिन सिर्फ कुछ माह पहले पश्चिम बंगाल में क्या हुआ? मेरे दोस्त माननीय श्री भूपेश गुप्त ने साफ-साफ कहा कि वहां विस्फोटक स्थिति है। इसे लेकर देशभर के अखबारों ने आगे आकर कहा कि यह बंगाल सरकार की कमी नहीं है। इसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जो लोग अपने हाथों में कानून को लेकर बैठे हैं। हमारे मित्र माननीय थाॅमस चाहते तो कलकत्ता की बाजारों पर नियंत्रण करके, चावल की कीमतों को कम करके विस्फोटक स्थिति से बचा सकते थे लेकिन उन्होंने नहीं किया। परिणाम स्वरूप जनता सड़क पर उतर आई। उसने भण्डारों के ताले तोड़ दिए। जमाखोरों को मजबूर कर दिया सस्ता बेचने के लिए। फिर भी सरकार कहती है कि कोई गम्भीर स्थिति नहीं है।

यही नहीं, तीसरी योजना की रिर्पोट में भी कहा गया है कि खाद्यान्न को लेकर प्लान तो बनाया गया लेकिन उस पर सही तरीके से अमल नहीं हुआ। फिर 1959 में इसके लिए योजना बनी, इनसेंटिव एग्रीकल्चर डिस्टिन्न्क्ट प्रोग्राम। इस चार वर्षीय योजना पर युह् स्तर पर काम होना था लेकिन काम नहीं किया गया। यह भी कहा गया कि इसके मुकाबले के लिए खाद्य सामग्री का आयात किया जाएगा साथ ही घरेलू उत्पादन को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। खाद्य सामग्री के आयात की बढ़ोतरी नहीं की जाएगी, लेकिन क्या हुआ? 1952 में कहा गया था कि देश में खाद्यान्न की कमी नहीं है। हम खाद्य सामग्री का उत्पादन बढ़ाकर देश को आत्मनिर्भर बनाने की ओर हैं। हमें कुछ समय चाहिए जो उन्हें दिया गया। परंतु 11 वर्ष बीत गए। आज तक हम वही भाषण सुनते आ रहे हैं।

माननीय खाद्य मंत्री जी आज से 4 वर्ष पहले भी खाद्यान्न की स्थिति पर राज्यसभा में बहस हो चुकी है। 1959 में जो इसे लेकर कहा गया था, उसमें आज भी कोई बदलाव नहीं है। इसे लेकर खाद्य मंत्री को कोई शर्म भी नहीं है। मैडम, यह केवल मेरी व्यथा नहीं है। भारत गणराज्य के राष्न्न्पति ने भी स्पष् कर दिया है कि हमारा घरेलू कृषि उत्पादन लीडरशिप की अनदेखी के कारण प्रभावित हो रहा है। मैं नही जानता कि जब उन्होंने यह कहा तब श्री सरदार स्वर्ण सिंह या फिर श्री थाॅमस ही देश के खाद्य मंत्रालय को चला रहे थे। यह बयान देश के सर्वोच्च व्यक्ति का है जो योजना आयोग तथा अन्य एजेंसियों द्वारा बनाई गई योजनाओं को लागू कराने में अकुशलता को दर्शाता है। मैडम, खाद्यमंत्री ने कल सदन में कहा कि कृषि उत्पादों की कीमतों में बढ़ोक्रारी की जाएगी। यह बढ़ोक्रारी अनुपातिक होगी। यह सच है कि इससे अनाजों की कीमतों में बढ़ोक्रारी होगी लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि 1958 में फूड ग्रेन्स इंक्वायरी कमेटी ने भी यह सुझाव दिया था कि अनाजों की कीमतों की एक निश्चित अंतराल पर समीक्षा की जाए जिससे किसानों को उनकी फसलों का समुचित मूल्य मिल सके। दुखद यह है कि इस पर सरकार ने कभी ध्यान नहीं दिया। अनाजों की कीमतों में वृह् के लिए सरकार ने कोई समुचित कदम नहीं उठाए। सरकार ने पहले कहा था कि औद्योगिक उत्पादों और कृषि उत्पादों की कीमतों में ज्यादा अंतर नहीं होने दिया जाएगा लेकिन आज जो स्थिति है, उससे साफ हो जाता है कि कृषि उत्पादों की कीमतों में वृह् को लेकर सरकार पूरी तरह उदासीन है। जबकि सरकार ने पहले कहा था कि कृषि उत्पादों का उत्पादन बढ़ाने के लिए वह लगातार काम करेगी लेकिन इस मोर्चे पर सरकार का दावा पूरी तरह खोखला है। जिस हिसाब से देश की जनसंख्या में वृह् हो रही है, उस अनुपात में कृषि उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। यह बेहद चिंता का विषय है।

एक और बात की तरफ मैं आपका ध्यान आकषत करना चाहूंगा कि कुछ लोगों ने बडे शहरों में बडे पैमाने पर अनाजों का भण्रारण कर लिया है। इससे कुछ इलाकों में अनाज की कमी देखने को मिल रही है। सरकार ने अगर इस पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाले समय में स्थिति और भी गम्भीर हो जाएगी। इसलिए जिन क्षेत्रों में अनाज की कमी देखने को मिल रही है, सरकार वहां तत्काल अतिरिक्त अनाज भेजकर स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास करे। अनाजो की कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ सरकार सख्त कार्रवाई करे।

एक और समस्या की तरफ मैं ध्यान आकषत करना चाहता हूं यह समस्या उत्पादन की नहीं, वितरण की है। और यह बहुत गम्भीर समस्या है। जब तक वितरण की समस्या को पूरी तरह से ठीक नहीं किया जाएगा, तब तक स्थिति को पूरी तरह ठीक नहीं किया जा सकता। सदन के माननीय सदस्य श्री भूपेश गुप्ता और श्री वाजपेयी जी ने कल सहकारी संस्थाओं और केंद्रीय सहकारी संस्था का मामला उठाया था जिससे पता चला कि दिल्ली के कई बड़े लोग सहकारी संस्थाओं के प्रभारी है। संसद के सम्मानित सदस्य हैं। बताया है कि सहकारी संस्थाओं में गड़बडी़ फैला करके मुनाफा कमाने का कुचक्र रच रहे है। माननीय सदस्य ने यह भी बताया कि रेलवे के अधिकारियों को रिश्वत दी गई जिससे कीमतों में बढ़ोक्रारी हुई। मैं नहीं जानता कि माननीय मंत्री महोदय इस मसले को संज्ञान में लेकर कोई बयान देंगे या नहीं? हालांकि खाद्यमंत्री ने यह कहा कि दिल्ली प्रशासन कुछ जांच कर रहा है। श्री वाजपेयी जी ने कल एक और गम्भीर मसले को सदन में उठाते हुए कहा कि सहकारी संस्थाओं को चार हजार बोरी चावल बाजार में उतारने के लिए दिया गया जिसमें केवल दो हजार बोरी चावल ही बाजार में पहुंचा है। शेष दो हजार बोरी चावल वेयरहाउस में रखा हुआ है। यह बहुत गम्भीर मामला है। इस कारिस्तानी से सहकारी आंदोलन की भारी फज़ीहत होगी और उसकी साख पर आंच आएगी। माननीय सदस्य श्री अटल बिहारी वाजपेयी कुछ सहकारी संस्थाओं की इस तरह की कार्यप्रणाली से बेहद नाराज हैं। मैं माननीय खाद्यमंत्री से अनुरोध करता हूं कि वह भ्रषचार में लिप्त संस्थाओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें जिससे सहकारी संस्थाओं में लोगों का विश्वास बना रहे।

मैडम, अब मैं सिर्फ एक और मुद्दे की तरफ ध्यान आœष् कर अपनी बात को समाप्त करना चाहूंगा कि सहकारी संस्थाओं के जरिए जिन लोगों ने भ्रषचार को अंजाम दिया है, उनके खिलाफ सरकार कड़ी कार्रवाई करे। अगर सहकारी संस्थाओं के जरिए मुनाफा कमाने के लिए भ्रषचार और कालाबाजारी की जाएगी तो यह देश के साथ बहुत बड़ा धोखा होगा। मैडम, सरकार सहकारी संस्थाओं को बढ़ावा देने के लिए बड़े-बड़े वादे करती है लेकिन उनकी आड़ लेकर भ्रषचार किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कहा था कि सहकारी संस्थाएं देश के विकास की रीढ़ हैं। ये संस्थाएं देश के विकास में अहम योगदान निभा रही हैं लेकिन आज मामला पूरी तरह उलटा नजर आ रहा है। इसलिए खाद्यमंत्री को इसे लेकर सदन में बयान देना चाहिए कि जिन संस्थाओं को गुड़, अनाज और अन्य आवश्यक वस्तुओं के लाइसेंस दिए गए हैं, उन्हें रद्द किया जाएगा लेकिन सरकार ऐसा कुछ करने नहीं जा रही है। इस मामले में ज्यादा से ज्यादा छोटे दुकानदारों को जांच के नाम पर बलि का बकरा बनाकर खानापूत की जाएगी। मैडम, अगर लोगों को सरकार की नीतियों में भरोसा नहीं है, किसानों और मजदूरों को लगता है कि सरकार उनकी नहीं सुन रही तो मैं समझता हूं कि सरकार को इस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए अन्यथा लोकतांत्रिक व्यवस्था से देश का भरोसा उठ जाएगा। मैं समझता हूं कि मैंने जिन मुद्दो को उठाया है, खाद्यमंत्री उसे गम्भीरता से लेंगे। वह सभी किसानों को उनके उत्पादों का समुचित मूल्य दिलाएंगे। देश के किसी भी राज्य के किसान के साथ कोई अन्याय नहीं होने देंगे। किसानों को डिफेंस ऑफ़ इण्डिया कानून का सहारा लेकर डराने, धमकाने की कोशिशों पर सरकार विराम लगाएगी। गन्ना किसानों पर कानून की आड़ लेकर दर्ज किए गए मामलों को सरकार वापस लेगी। मैं खाद्य मंत्री से कहना चाहता हूं कि अगर आप गुड और चीनी का उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं, चीनी का विदेशों में निर्यात करके ज्यादा विदेशी र्मुीा कमाना चाहते हैं तो आपको सबसे पहले किसानो को संतुष् करना होगा। किसान संतुष् तब होंगे, जब उन्हें गन्ने का समुचित मूल्य मिलेगा। मुझे नहीं लगता कि दो रुपए मन गन्ने की कीमत बहुत ज्यादा है। सरकार को चाहिए कि वह गन्ना किसानों के हित को ध्यान में रखकर उन्हें दो रुपए प्रति मन की दर से भुगतान करे। जब तक औद्योगिक उत्पादों और कृषि उत्पादों की कीमतों में एकरूपता नहीं आएगी, तब तक देश में कृषि की स्थिति में सुधार नहीं होगा। किसान खुश होगा, तभी कृषि उत्पादन बढ़ेगा, सरकार को इस सोच के आधार पर विचार करने की जरूरत है। मुझे यह कहते हुए बहुत दुख हो रहा है कि किसानो की स्थिति में सुधार के लिए सरकार कुछ भी नहीं कर रही है। अभी कुछ दिनों पहले एक सज्जन ने खाद्य मंत्रालय के अधिकारियों से मुलाकात की थी और कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए सरकारी नीतियों में कुछ बदलाव किए जाने की मांग की थी। मैं उन सज्जन का नाम नहीं लूंगा लेकिन उन्होंने मुझे बताया कि खाद्य मंत्रालय के अधिकारियों ने उनसे दो टूक कहा कि जब तक सरकार नहीं चाहेगी, तब तक वे कुछ भी नहीं कर सकते हैं। सरकार कुछ राजनीतिक कारणों की वजह से इस मामले को आगे नहीं बढ़ा रही है। मैं माननीय खाद्यमंत्री से यह जानना चाहता हूं कि आखिर वह कौन सा राजनीतिक कारण है जिनकी वजह से सरकार कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए जोर नहीं दे रही है। मैडम, अभी जो कुछ सदन में कहा है, वह सच है लेकिन सत्ता पक्ष को हमारी बात नागवार गुजरी है। सत्ता पक्ष के कुछ सदस्यों का कहना है कि मुझे अपने बयान को वापस लेना चाहिए। मैं अपनी बात पर अडिग हूं। मैं अपने बयान को वापस नहीं लूंगा। मैंने जो आरोप लगाए हैं, वह सच हैं और यह मैंने कोई एक बार नहीं कई बार कहा है। 1958 में माननीय सदस्य श्री शिब्बल लाल सक्सेना ने इसी सदन में इसी तरह के आरोप लगाए थे। यह सब कुछ लिखित में मौजूद है। अगर माननीय खाद्यमंत्री चाहें तो मैं वह कागज सामने रख सकता हूं। मैंने जो आरोप लगाएं हैं, उनसे पीछे हटने का कोई सवाल ही नहीं उठता। मैं माननीय खाद्य मंत्री से मांग करता हूं कि वह चीनी निदेशालय की कार्यप्रणाली की जांच के लिए एक आयोग का गठन करें। चीनी निदेशालय में जो गड़बड़िया हैं, उन्हें सामने लाया जाना चाहिए और दोषियों का पता लगाकर उन पर सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। मैं जानना चाहता हूं कि चीनी निदेशालय में आखिर वह कौन लोग हैं जो पूर्वी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों को तबाह करने पर आमादा हैं। अगर खाद्यमंत्री जांच आयोग का गठन करें तो मैं उसे बहुत सारे सबूत उपलब्ध करा सकता हूं जिससे दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाएगा।

मैं माननीय प्रधानमंत्री जी से मांग करता हूं कि वह इस पूरे मामले की जांच के लिए आयोग गठित करने का खाद्य मंत्री को निर्देश दे।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।