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सार्वजनिक उपक्रमों और निगमों के हालात ठीक नहीं, सदन दे सरकार को प्रभावी कमेटी गठित करने का निर्देश

संदर्भ: Committee on Public undertakings 27 नवम्बर 1963 को राज्यसभा में श्री चंद्रशेखर


उपाध्यक्ष महोदय, मैं माननीय मंत्री जी को बधाई देना चाहता हूं कि वह एक ऐसे प्रस्ताव को सदन में लाए हैं जिसे दस वर्ष पहले लोकसभा में डा. लंका सुन्दरम ने दिसम्बर 1953 में उठाया था। आज एक बार फिर दस साल बाद वही सवाल उठाया गया है और उस पर चर्चा की जा रही है। 1953 में लंका सुन्दरम ने इस सवाल को लोकसभा मे उठाते समय कई महत्वपूर्ण और प्रासंगिक बिन्दुओं की तरफ सदन का ध्यान आकषत किया था। महोदय, मैं आपकी अनुमति से लंका सुन्दरम के उस भाषण के कुछ अंश यहां प्रस्तुत करना चाहता हूं क्योंकि कल मेरे मित्र श्री कासलीवाल ने कई बिन्दुओं पर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई थी। महोदय, अगर प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समक्ष यह सवाल उठाया गया था तो उस समय इसे एक उपसमिति के समक्ष भेजा जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। लेकिन सुन्दरम ने 1953 में सवाल उठाते हुए कहा था कि भारत सरकार के निगमों की अपनी मोनोपोली बन गई है कि वह किसी से कोई प्रतियोगिता नहीं करेंगे। इन निगमों के प्रबंध निदेशक या चेयरमैन अपनी मनमर्जी से इन्हें संचालित करेंगे। यही वजह है कि ज्यादातर निगमों की हालत बेहद खराब है और वह घाटे में चल रहे हैं।

महोदय, लंका सुन्दरम के इन शब्दों से निगमों की स्थिति को अच्छी तरह से समझा जा सकता है। उन्होंनें उस समय एक अप्वाइन्टमेंट कमेटी की मांग की थी। 1956 में यह सवाल फिर से श्री जी.डी. सोभानी ने लोकसभा में उठाया और इस मसले पर दो दिन गम्भीर बहस हुई। उसके बाद लोकसभा अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था। आज कई सम्मानित सदस्य œष्णा मेनन समिति की रिर्पोट को उह्ृत कर रहे हैं। हमारे मित्र भूपेश गुप्ता ने श्री œष्णा मेनन के लिए आवेशित शब्द का प्रयोग किया। इसमें आवेशित होने का कोई प्रश्न ही नहीं है।

महोदय, लोकसभा अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को जो पत्र लिखे हैं मैं उसमें से कुछ लाइने यहां आपके सामने रख रहा हूं। यह मामला सदन में कई बार आ चुका है। उस पर लम्बी बहस हो चुकी है। इसलिए मुझे लगता है इसे स्वीकार करके रूल्स कमेटी को संदभत कर देना चाहिए। निगमों को और ज्यादा स्वातंत्रता दी जानी चाहिए। लोकसभा अध्यक्ष ने अपने पत्र में यह भी लिखा है कि निगमों के दिन प्रति दिन के कामकाज में सरकार को कम से कम दखल देना चाहिए। लोकसभा अध्यक्ष ने अपने पत्र में बहुत साफ-साफ कहा है कि उन्होंने रूल्स कमेटी में इस मसले पर विस्तृत विचार विमर्श के बाद इसे कुछ सुझावों के साथ प्रधानमंत्री को भेजा। प्रधानमंत्री ने इसे कांग्रेस पार्टी की एक सब कमेटी को भेज दिया।

महोदय, मैं जानना चाहता हूं कि जिस मामले पर सदन में लम्बी बहस हुई, विचार-विमर्श हुआ, उसे कांग्रेस पार्टी के सब कमेटी के पास भेजने का क्या औचित्य है? मई 1958 में इस प्रश्न पर बनी कमेटी ने अपनी रिर्पोट सौंप दी थी। इस बारे में प्रेस में काफी कुछ प्रकाशित हो चुका है। 19 और 20 दिसम्बर 1959 को इंडियन इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन ने एक कांफ्रेंस का आयोजन किया जिसमें देश के शीर्ष 20 इंस्टीट्यूट के प्रबंधको ने हिस्सा लिया जिनके नाम इस प्रकार हैं, श्री अशोक मेहता (एम.पी.) डा. ज्ञान चन्द्र (रिटायर्ड प्रोफेसर ऑफ़ इकनामिक्स पटना, यूनिवसिटी), श्री केएन. कौल (चेयरमैन, खनिज उत्पादन निगम), श्री एस.एस. खेडा (सचिव, डिपार्टमेंट ऑफ़ स्टील, माइंस एंड फ्यूल), श्री एस. लाल (अध्यक्ष, डी.वी.सी.), डी.एल. मजमूदार (अध्यक्ष, डिपार्टमेंट आफ कम्पनी लॉ एडमिनिस्ट्रेशन, श्री जी पाण्डे (अध्यक्ष, हिन्दुस्तान स्टील्स), श्री एम.वी. पाइली (देहली स्कूल ऑफ़ इकनामिक्स), आर. प्रसाद (ज्वांइट सेक्रेटरी, मिनिस्ट्री आफ होम अफेयर्स), एस.रतनम, (ओ.एस.डी. मिनिस्ट्री ऑफ़ काॅमर्स एण्ड इंडस्ट्री), आर.पी.सारथी (एडिशनल सेक्रेटरी, मिनिस्ट्री ऑफ़ डिफेन्स), एम.एलसेठ (जनरल मैनेजर, देहली क्लाथ मिल्स), विष्णु सहाय (कैबिनेट सचिव), जे.एमश्रीनागेश (मैनेजिंग डायरेक्टर, इंडियन रिफाइनरीज़), एन.एन.वांचू (सचिव वित्त मंत्रालय व्यय), प्रो.ए.एच.हानसन (विजिटिंग प्रोफेसर, इंडियन इस्टीटयूट ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन), डा. परमानंद प्रसाद (इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन), प्रो. पी.के.एन. मेनन (डायरेक्टर, इंडियन इस्टीटयूट ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन), श्री रामाआइयर (डिप्टी डायरेक्टर इंडियन इस्टीटयूट ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन) और डा. एच.के. परांजपे (इंडियन इस्टीटयूट ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन) कांफ्रेंस में हिस्सा लेने वाले शीर्ष अधिकारियों ने कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए जिन्हें सरकार को भेजा गया। नवम्बर 1963 में सरकार ने इस मामले पर संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग बाते कहीं। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार ने ऐसा क्यों किया? सरकार के इस कदम से देश की जनता में एक गलत संदेश जा रहा है कि हम किसी मसले पर एक जुट होकर उसका समाधान निकालने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।

आज मैं इस सदन में कहना चाहता हूं कि संविधान से कहीं कोई समस्या नहीं पैदा हो रही है। समस्या पैदा हो रही है, सरकार भी गलत धारणा से। इस मामले में सब कुछ साफ-साफ है कि हम किसी वित्तीय मामले को हल करने नहीं जा रहे हैं। हम सार्वजनिक उपक्रमों को लेकर संसद के जरिए नीतिगत फैसला लेने जा रहे हैं। किसी भी नीतिगत फैसले को लागू करना, चाहे उसे सरकार ने बनाया हो, चाहे उसे सदन ने बनाया हो, उसे लागू कराना हम सभी की जिम्मेदारी हैं।

महोदय, मैं कहना चाहता हूं कि इस मामले में कांग्रेस पार्टी की सरकार ठीक तरह से काम नहीं कर रही है। मेरे इस कथन से सत्ता पक्ष के तमाम सदस्य उत्तेजित हो जाते हैं लेकिन सच्चाई को कहने से हम रूकने वाले नहीं है। आखिर क्या वजह है कि संसद के दोनों सदनों में पूर्ण बहुमत होने के बावजूद सरकार एक कमेटी का गठन नहीं कर पा रही है। इससे देश और दुनिया में गलत संदेश जा रहा है। सरकार के सही फैसले नहीं लेने से प्रशासनिक व्यवस्था लुंजपुंज हो गयी है। सार्वजनिक उपक्रमों को लेकर सरकार ने 1956 में एक रिर्पोट तैयार की है जिसे मैं आप लोगों के समक्ष पढ़ना चाहता हूं । रिर्पोट में कहा गया है कि भारत एक ऐसा देश है जहां अकसर प्राœतिक आपदाएं आती रहती हैं, इन प्राœतिक आपदाओं से निपटने के युह् स्तर पर काम करने की जरूरत होती है।

मै जानना चाहता हूं कि इस रिर्पोट के अनुपालन के लिए सरकार ने क्या कोई कदम उठाया है। आप उच्च आदर्शों की बात करते हैं, समाजवाद की बात करते हैं, लोकतंत्र की बात करते हैं, सरकारी उपक्रमों की काम करते हैं, राष्न्न्ीयकरण की बात करते हैं और न जाने क्या-क्या बाते करते हैं। आप सभी मसलों पर बातें करते हैं लेकिन जब फैसले लेने का वक्त आता है, तो पीछे हट जाते हैं और मामले को लटका देते हैं। महोदय, मैं कहना चाहता हूं कि सरकार के पास कोई विजन नहीं है। कोई सोच नहीं है। इसलिए वह कोई फैसला नहीं ले पाती है। ये सिर्फ प्रस्ताव पास करते है, कभी जयपुर में तो कभी कहीं और। भुनेश्वर में बहुत अच्छा प्रस्ताव पास किया लेकिन इन प्रस्तावों को ये कभी लागू नहीं कर सकते। इनमें फैसले लेने की क्षमता नहीं है क्योंकि न तो इनकी सोच सही है और न इनकी दिशा तय है। ये लोग दिशाहीन लोग है। जब तक आपके अंदर देश को सही दिशा में ले जाने की सामथ्र्य नहीं होगी, तब तक आप सफलता नहीं हासिल कर सकते। इन्हीं शब्दों के साथ मैं श्री कासलीवाल जी से अनुरोध करता हूं कि वह इस मामले की गम्भीरता को देखते हुए इस पर प्रधानमंत्री से बात करे और इस पर जरूरी कदम उठाएं।

महोदय, मैं सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबंधन और कुछ अन्य सवालों की तरफ आपका ध्यान आœष् करना चाहता हूं। इनमें जब भी प्रबंधन का सवाल आता है, तमाम तरह की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। जिसमें प्रबध्ंान कोई भी कदम अपनी तरफ उठाने में सक्षम नहीं होता। मैं यह नहीं जानता की ऐसा क्यों हैं? इसके पीछे क्या कारण हैं? लेकिन जब भी प्रबंधको से बात करता हूं तो वह हमेशा इसी बात का रोना रोते हैं कि सरकार की तरफ से उन्हें बहुत कम या ना के बराबर अधिकार मिले हैं। अगर यह सही है, प्रबंधकों के पास अधिकारों की कमी है तो फिर आप सार्वजनिक उपक्रमों की सफलता कैसे सुनिश्चित करेंगे? सार्वजनिक उपक्रमों और निगमों के प्रबंधकों और शीर्ष अध् ाकारियों को वित्तीय मामलों को निपटाने के लिए बहुत सीमित अधिकार दिए गए हैं, इसीलिए वह वित्तीय मामलों को हल करने के मामले में कोई रुचि नहीं ले पाते हैं। कुछ समय पहले हिन्दुस्तान स्टील के पुनगर्ठन की बात चली थी लेकिन ब्यूरोक्रेसी ने इस प्रक्रया को पूरी होने नहीं दिया। प्रभारी मंत्री पर दबाव डालकर पुनगर्ठन की प्रक्रया को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। हमारे देश की ब्यूरोक्रेसी इतनी ताकतवर है कि वह सार्वजनिक उपक्रमों को भी ठीक से काम नहीं करने देती है। इनसे लड़ना आसान नहीं है क्योंकि तिल को ताड़ बनाने में ये माहिर हैं।

महोदय, मैं सार्वजनिक उपक्रमों के मुनाफे के बारे में एक बात कहना चाहता हूं। मेरे मित्र श्री भूपेश गुप्ता और मिश्रा जी, कह रहे थे कि जब निजी संस्थान मुनाफा कमा रहे हैं तो सार्वजनिक उपक्रम घाटे में कैसे चल रहे हैं? मैं कहना चाहता हूं कि निजी संस्थान ईमानदारी और समर्पण की भावना के साथ कड़ी मेहनत करके अच्छा परिणाम देते हैं जबकि सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबंधकों के पास ने तो नीतिगण फैसले लेने का अधिकार है और न ही वित्तीय मामलों को हल करने का। इसीलिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से मुनाफे की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की समस्याओं के निदान के लिए एक कमेटी का गठन करे। हिन्दुस्तान मशीन टूल्स (एच.एम.टी) और एन्टीबायोटिक्स कुछ मुनाफा जरूर कमा रहे हैं, लेकिन इन्हें भी और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए अपनी नीतियों में बड़े बदलाव करने होंगे। सार्वजनिक उपक्रम जब तक निजी संस्थानों से मुकाबला करने के लायक नहीं बनेंगे, तब तक वे बाजार में नहीं टिक सकेंगे। महोदय, अब मैं एक और बिन्दु की तरफ आपका ध्यान आœष् करना चाहता हूं। वह यह है कि इस सरकार ने जो कमेटी बनाई है, उसके पास नीतिगत मामलों के सम्बंध में फैसले लेने का कोई अधिकार नहीं है। फिर भी पता नहीं क्यों हमारे मित्र श्री कासलीवाल इसे जस्टीफाई करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन यह सच नहीं है। 1956-1957 में जब लोकसभा अध्यक्ष ने अपनी संस्तुतियां प्रधानमंत्री को दी थीं, तब उन्होंने कहा था कि कमेटी सार्वजनिक उपक्रमों और निगमों के दिन प्रतिदिन के प्रशासनिक काम काज और उनकी कार्यप्रणाली में राहत नहीं देगी।

महोदय, मुझे लगता है कि अगर आप सार्वजनिक उपक्रमों और निगमों को ठीक तरह से चलाना चाहते हैं तो आपको कमेटी को अधिकार देने होंगे। कमेटी को नीतिगत मामलों में भी फैसले लेने के अधिकार देने होंगे। श्री भूपेश गुप्ता ने मजदूरों के सम्बंध में सवाल उठाया है। पिछले दिनों माननीय मंत्री ने राउरकेला के सार्वजनिक उपक्रम और गुजरात की आॅयल फील्ड दौरा करने के बाद कहा कि सरकार ने मजदूरों के लिए जो कानून बनाए हैं, अभी वे पूरी तरह अमल में नहीं लाए जा सके हैं। यह बहुत शर्मनाक हैं। औद्योगिकीकरण में सार्वजनिक क्षेत्र को अहम भूमिका निभानी है, इसके बावजूद सरकार सार्वजनिक उपक्रमों के प्रति बहुत गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाए हुए है।

महोदय, अब मैं कमेटी के सम्बंध में कुछ और बातें कहना चाहता हूं। श्री कासलीवाल ने प्रोफेसर राबसन को उह्ृत करते हुए कहा कि सार्वजनिक उपक्रमों और निगमों की इफेसियेंसी आॅडिट होना चाहिए। आॅडिट कमेटी में एक अर्थशास्त्री, एक व्यवसायी और एक बुह्जिीवी होना चाहिए। इम मसले पर 1956 में लोकसभा में चर्चा हुई श्री अशोक मेहता ने सुझाव दिया था कि इस कमेटी को विशेषज्ञों की सेवाएं मिलनी चाहिए। इस कमेटी का अलग सचिवालय होना चाहिए। इस कमेटी का चेयरमैन लोकसभा अध्यक्ष को बनाया जाए जिससे कि कमेटी को काम करने में कोई बाधा न आए। कुछ और मुद्दे है जिनकों मैं उठाना चाहता हूं। मेरी समझ में अभी तक नहीं आया है कि जब कमेटी केवल प्रशासनिक मामलों को देखेगी तो इतनी हाय तोबा क्यों है? कमेटी को मजदूरों की समस्याएं और सुरक्षा जैसे सवालों को भी देखने का उत्तरदायित्व मिलना चाहिए।

मैं एक बात फिर से कहना चाहता हूं कि कमेटी केवल सार्वजनिक उपक्रमों व निगमों की गलतियों को पकड़ने तक ही सीमित न रहे। मैं कृष्ण मेनन कमेटी की इस संस्तुति से पूरी तरह सहमत हूं कि सार्वजनिक उपक्रमों व निगमों में काम करने वाले श्रमिकों की हालत ठीक नहीं है। इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि श्रमिकों का बहुत उत्पीड़न हो रहा है। कुछ लोग यह कहते घूम रहे हैं कि सार्वजनिक उपक्रमों पर संसद का कोई नियंत्रण नहीं है। सार्वजनिक उपक्रमों और निगमों में शीर्ष पदों पर ऐसे लोगों को स्थापित कर दिया गया है जो अनुभवहीन हैं, पब्लिक डीलिंग नहीं कर सकते हैं, जिन्हें अपनी जिम्मेदारी का कोई अहसास नहीं है, ऐसे लोग समस्याओं को सुलझाने की जगह, उन्हें और उलझाने का काम कर रहे हैं।

मैं इस सदन से मांग करता हूं कि वह इस मामले में दखल दे। सरकार तत्काल एक प्रभावी कमेटी गठन करने का निर्देश दे जिससे सार्वजनिक उपक्रमों और निगमों को बदहाल होने से बचाया जा सके। देशहित में ऐसा किया जाना बहुत जरूरी है।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।