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भारत एक ऐसी अंधेरी गली में जा रहा है, जहां से निकलना आसान नहीं, इसके लिए चिदम्बरम 5 और 95 फीसदी के लिए मनमोहन ज़िम्मेदार

संदर्भ: गुजराल के प्रधानमंत्री चुने जाने पर 22 अप्रैल 1997 को लोकसभा में श्री चंद्रशेखर


अध्यक्ष जी, श्री गुजराल जी देश के प्रधानमंत्री चुने गये। वह मेरे पुराने मित्र हैं, राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, उनमें सूझ-बूझ है। मैं उनको बधाई देता हूं और मेरी शुभकामनाएं हैं कि वह देश को नयी दिशा में ले जाने का प्रयास करें। मुझे उनसे बड़ी आशाएं थीं और हैं, लेकिन आज सवेरे जब उनका वक्तव्य पढ़ा तो मुझे थोड़ी निराशा हुई। उन्होंने अपने भाषण के प्रारम्भ में आज़ादी के दिनों की याद दिलायी। जेल के सीखचों में उन्होंने जो अनुभव किया था, उसकी याद दिलाई, पंडित जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी की याद दिलाई। जिन लोगों ने शहादत दी है, उनकी कुर्बानी की याद दिलाई और साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि गरीबी, बेबसी, पीड़ा, दर्द, दुःख मिटाने का प्रयास करेंगे। लेकिन न मालूम क्या हो गया है, हमारे देश को कि जो भी प्रधानमंत्री होता है, वह यहीं से प्रारम्भ करता है कि उदारीकरण चलता रहेगा, विदेशी कम्पनियां आती रहेंगी, देश की शोभा बढ़ाती रहेंगी। मैं समझता हूं कि सारी दुनिया का एक अनुभव है। सोमनाथ जी, आप मुझसे ज्यादा समझते हैं कि जहां-जहां विदेशी कम्पनियां गई हैं, वहां बर्बादी छोड़ गई हैं। हमारे पुराने वित्तमंत्री और उससे पहले के वाणिज्य मंत्री आ गए। इनकी मैं बड़ी इज़्ज़त करता हूं। यह मेरे पुराने मित्र हैं। इनसे मैंने तब कहा था कि आपके बजट से मैं एक फीसदी भी सहमत नहीं हूं। लेकिन आपकी योग्यता के कारण मैं आपसे निवेदन करता हूं कि सरकार में आ जाइए क्योंकि आप जैसे लोगों के नेतृत्व की ज़रूरत इस सरकार को है। श्री सोमनाथ चटर्जी कितना भी करें, वह इस सरकार को चलाने में कोई योगदान नहीं दे सकते। क्योंकि जिस रास्ते पर यह सरकार चल पड़ी है और हमारे मित्र गुजराल जी ने अपने वक्तव्य में जो कहा है, उससे हमें लगता है कि भारत एक ऐसी अंधेरी गली में जा रहा है जहां से इस देश का निकलना कोई आसान काम नहीं होगा। यह कोई सामान्य बात नहीं है। प्रधानमंत्री बनने के बाद उद्योगपतियों के बीच में जाकर उदारीकरण का आश्वासन देकर हम देश की भाषा, परिभाषा, देश की मानसिकता को कैसे बदल सकेंगे। आप स्थायित्व की बात करते हैं। स्टेबिलिटी और स्टेटस में अंतर होता है। स्थायित्व तो तब आयेगा जब लोगों की पीड़ा से अपनी नीतियों को आप जोड़ने की कोशिश करेंगे। स्थायित्व तो तब आयेगा जब देश का मानस यह समझे कि कुछ ज़माना बदल रहा है। यह चंद लोगों के लिए बजट है। हमारे जो पुराने वित्त मंत्री थे उनके बजट में जो चंद लोगों के भोग की वस्तुएं लाई जा रही हैं, अगर उस पर प्रसन्नता ज़ाहिर की जा रही है, अगर उसी प्रसन्नता को आप भारत की प्रसन्नता मानते हैं तो आप याद रखिये की लोगों की भावनाएं भड़केंगी, अशान्ति होगी, अराजकता होगी। माटन लूथर किंग ने कहा था। ‘‘दबी हुई भावनाओं की अभिव्यक्ति ही हिंसा है।’’ आज देश में लोगों की भावना दबी हुई है, कुचली हुई है और वे हमसे दूसरी आशा करते हैं।

अध्यक्ष महोदय, हम आपके ज़रिये अपने मित्र प्रधानमंत्री जी से कहना चाहेंगे कि थोड़ी भाषा बदलिये। मैं नहीं कहता कि उदारीकरण की नीति को आप बदल सकते हैं या आपको उसका प्रयास करना चाहिए। अगर कोशिश करेंगे तो शायद यह सरकार जितने दिन चलने वाली है, उतने दिन भी नहीं चलेगी। मैं चाहता हूं कि आपकी सरकार रहे। आप कोई ठोस कदम तो नहीं उठा सकेंगे, लेकिन आवाज़ बदलिए। मैंने तब कांग्रेस के मित्रों से कहा था, कोई दुराव की भावना नहीं है, कांग्रेस हमेशा गरीब लोगों की भाषा बोलती रही है, गरीबी के लिए कितना किया, मैं इस समस्या और इस विवाद में नहीं जाना चाहता। लेकिन गरीबी हटाओ का नारा, पिछड़े इलाके की बात जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक बराबर कही जाती रही है। पंडित नेहरू ने कहा था कि आंचलिक विषमता, रीजनल इम्बेलेंस अगर बढ़ता गया तो यह देश टूट जाएगा। मैं समझता हूं प्रधानमंत्री की आज की जो आर्थिक नीतियां हैं वे विषमता बढ़ाएंगी। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच में विषमता बढ़ाएंगी, इलाके-इलाके के बीच में विषमता बढ़ाएंगी। हमारे मित्र श्री वेंकट स्वामी व्यर्थ ही हम पर नाराज़ हुए, उनके अध्यक्ष का नाम मैंने अपने भाषण में कभी नहीं लिया था। मैं तो अपने को इस योग्य नहीं मानता कि मैं उनके बारे में कुछ कहूं। अनायस वह नाराज़ हो गये। लेकिन मैं उनसे यह जरूर कहना चाहता हूं कि पब्लिक अंडरटेकिंग्स को समाप्त करने के लिए देवेगौड़ा जी उत्तरदायी नहीं थे। उनको समाप्त करने का काम हमारे परम मित्र श्री मनमोहन सिंह जी ने प्रारम्भ किया था, जो यहां पर बैठे हुए हैं। आप उन दिनों को याद करें, पब्लिक अंडरटेकिंग डिसइन्वेस्टमेंट के काम के बारे में बड़े ज़ोरों से आप बोलते थे। आज आपकी वाणी चुप क्यों हो गयी? इसलिए दूसरे पर आरोप मत लगाइए। कांग्रेस के मित्र हमसे नाराज़ मत हों। यह कांग्रेस की पुरानी संस्क्रति है कि जो जा रहा हो, उसको ठोकर मारो और जो आ रहा हो उसको नमन करो। इससे देश नहीं बनता। मैं आपसे पूछता हूं कि उस दिन हमारे मित्र श्री शरद पवार की वाणी मौन थी। आज श्री देवेगौड़ा में सारे अवगुण दिखायी देने लगे। हमारे बुजुर्ग मित्र श्री नरसिम्हा राव के साथ ही आप लोगों ने यही किया है। यह भारत का शिष्टाचार नहीं है, यह कांग्रेस का शिष्टाचार नहीं है। अगर राजनीति में सामान्य शिष्टाचार नहीं रहेगा तो हम कोई नया देश नहीं बना सकते हैं। हमारे राजनीतिक मतभेद हो सकते हैं। अगर अटल जी की हम इज़्ज़त नहीं करते, अगर श्री सोमनाथ चटर्जी की हम इज़्ज़त नहीं करते, अगर श्री इन्द्रजीत गुप्त की इज़्ज़त नहीं करते, अगर हम श्री नरसिम्हाराव जी को सम्मानसूचक शब्द नहीं कह सकते तो हम और कुछ नहीं कर सकते हैं। जो इन बड़े लोगों को मर्यादा की ज़िंदगी नहीं दे सकते वे 40 करोड़ बेबस, लाचार लोगों को मर्यादा की ज़िंदगी देने के कभी हामी नहीं हो सकते। इसलिए मैं कहता हूं कि सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह और क्रन्तिकारी विचार दोनों में कोई अंतर नहीं है।

अध्यक्ष महोदय, मैं एक बात और कहना चाहूंगा, सुषमा जी ने आज बड़ा अच्छा भाषण दिया। मैंने उनको बधाई का नोट लिखकर भेजा। लेकिन सुषमा जी जब अपना भाषण देने लगती हैं तो कभी-कभी गलतफहमी भी बहुत पैदा करती हैं।

मैं उनसे कहना चाहूंगा कि मैं उस लिस्ट में नहीं हूं जिनका आपने नाम लिया। हमसे कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस नहीं लिया था। सुषमा जी, आप जानती हैं कि मेरे त्यागपत्र देने के बाद भी, उस समय कांग्रेस के नेता बराबर कहते रहे कि हमने समर्थन वापस नहीं लिया बल्कि चंद्रशेखर जी ने अपने आप त्यागपत्र दिया है। मैं उसका इंतज़ार नहीं करता क्योंकि मैं मानता हूं कि चाहे प्रधानमंत्री के पद पर कोई व्यक्ति हो, प्रधानमंत्री का पद सम्मान का पद है, उसके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता-चाहे वे देवेगौड़ा हो, नरसिंह राव हों या गुजराल साहब हों, क्योंकि वह इस देश के 90-95 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। संतोष मोहन देव जी, अगर आपकी ओर से या मेरी ओर से उसका अपमान होता है तो वह पूरे राष्ट्र का अपमान है। जब तक यह मौलिक बात हम नहीं समझते, संसदीय प्रजातंत्र यहां नहीं चल सकता।

उस दिन भी जब मैंने भाषण दिया था, यह इसी भावना से दिया था कि किसी व्यक्ति से मेरा लेना-देना नहीं है, देवेगौड़ा जी मेरे मित्र हैं। वे उस समय प्रधानमंत्री के पद पर थे। उनका अपमान करके हम इस देश को आगे नहीं बढ़ा सकते। अगर आपको उनसे नाराज़गी थी, वह नाराज़गी जायज़ भी हो सकती है, लेकिन समर्थन वापस लेने का दूसरा अवसर भी हो सकता था। मुझे विश्वास है कि आप इस मौलिक बात पर विचार करेंगे। आप सारा दोष कल के वित्त मंत्री पर मत डालिए कि मंहगाई बढ़ी है, निर्यात कम हो गया है। श्री जे. वेंकट स्वामी ने ऐसे वित्तमंत्री के खिलाफ पूरी चार्जशीट लगा दी, जो जा रहे हैं। अगर चिदम्बरम जी आज उस कुर्सी पर होते तो शायद कांग्रेस के मित्र उन पर ऐसे चार्ज न लगाते लेकिन इसमें कुछ आपका भी हाथ है, खाली चिदम्बरम जी का नहीं है। चिदम्बरम जी ने इसमें 5 फीसदी योगदान किया होगा, 95 फीसदी योगदान हमारे योग्य मित्र मनमोहन सिंह जी का है, जिन्होंने इस रास्ते पर देश को डाल दिया। इसलिए आप ऐसी बात मत कीजिए कि 10 महीने में सब कुछ हो गया। अगर कोई बुराई आपको नज़र आती है, तो उस बुराई पर क्या यह देश जाने-अनजाने में चल पड़ा है?

सोमनाथ जी, इन्द्रजीत जी, मुलायम सिंह जी ने यहां डा. राम मनोहर लोहिया की बात की लेकिन देश का भविष्य इन बातों से तय नहीं होगा कि कौन धर्म-निरपेक्ष है या कौन साम्प्रदायिक है। धर्म-निरपेक्षता या साम्प्रदायिकता का सवाल तब उठता है, जब हम देखें कि देश के लोगों की भावनाएं किस ओर जा रहीं है। धूप, पीड़ा और दर्द से कराहता व्यक्ति जब अपने लिए कोई भविष्य नहीं देखेगा, जब विकास में उसे कोई साझेदारी नहीं दिखाई देगी तो अपनी पुरानी आइडैन्टिटी के साथ, अपने पुराने अस्तित्व के साथ खुद को जोड़ने की वह कोशिश करता है। आज देश के करोड़ों बेबस लोगों को जब आर्थिक विकास में कोई हिस्सा दिखाई नहीं देता तो वे अपने को जाति और धर्म से जोड़कर अपनी पीड़ा कम करने की कोशिश करते हैं। ये जातिवादी शक्तियां, धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली शक्तियां तब तक बढ़ती रहेंगी, जब तक यहां अशिक्षा रहेगी, बेबसी रहेगी, शोषण रहेगा और मनुष्य-मनुष्य को मर्यादा की ज़िंदगी देने के लिए तैयार नहीं होगा। मुलायम सिंह जी ने इन सवालों पर थोड़ी चर्चा ज़रूर की है, नाम जरूर लिया है लेकिन धर्म-निरपेक्षता की बातें आप इतनी दूर तक मत बढ़ा दीजिए कि कट्टरवादी ताकतें, चाहे एक तरफ की हों या दूसरी तरफ की हों, उन्हें ज़्यादा बढ़ावा मिले।

आज मुझे सोमनाथ जी का भाषण सुनकर बड़ा संतोष हुआ, बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक बात ज़रूर कही कि आज सहयोग की ज़रूरत है, सहमति की आवश्यकता है, सभी समस्याओं का मिलकर हमें समाधान करना होगा और इस काम में हमें इस तरफ बैठने वाले लोगों का सहयोग भी लेना पड़ेगा, उन्हें समझाने की कोशिश करनी होगी कि हमारे और आपके कार्यक्रम में अंतर नहीं है। चिदम्बरम जी ने बड़ी योग्यता के साथ अपनी बातें कहीं। एक-दो बातों को छोड़कर, केवल सुषमा जी को प्रसन्न करने के लिए आप बजट को पास मत करिये। आपकी दूसरी बातें सब सही हैं। इससे सुषमा जी प्रसन्न हो या न हों लेकिन आडवाणी जी ज़रूर प्रसन्न हो जायेंगे लेकिन मुरली मनोहर जोशी जी उतने ही दुखी हो जाएंगे। यही हमारी परेशानी है। हम भी क्या करें, ऐसे देश में हमें रहना हैं, मैं चाहूंगा कि हमें एक दूसरे से मिलकर काम करना चाहिए। अभी हमारे एक मित्र ने कहा कि जब आप जनता पार्टी में थे तो बी.जी.पी. का साथ आपने लिया था लेकिन उस समय सामान्य राजनीति नहीं थी, भारत तानाशाही के कग़ार पर खड़ा हो गया था। कांग्रेस वकंग कमेटी के मेम्बर की हैसियत से मैं 18 महीने तक सौलिटरी कन्फाइनमैंट में रहा था। उस समय आपके नेता ने कहा था कि आप क्या समझौता करने के लिए तैयार हैं तो मैंने कहा था कि तानाशाही और जनतंत्र के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता। उस समय भी मैंने स्पष्ट रूप से कहा था कि आज केवल जमहूरियत को बचाने का सवाल है। तीसरे विश्व में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों ने, जहां आज़ादी आई, सबने जनतंत्र का प्रयोग किया लेकिन कुछ समय बाद सभी जगह जनतंत्र का दीपक बुझ गया। अकेले हिन्दुस्तान में जनतंत्र का दीपक टिमटिमाता हुआ जल रहा था, उसे बुझाने की कोशिश पूरी दुनिया ने की और राजनीतिक व्याख्याकारों ने यहां तक कहा कि भारत में जमहूरियत का चिराग बुझ गया।

उस समय हमारे जैसे लोगों के लिए, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों के लिए, हमारे मित्र बोम्मई के लिए, हमारे मुरली मनोहर जोशी और राम विलास पासवान के लिए, उस चिराग को फिर से जलाने के लिए सबसे हाथ मिलाने की जरूरत थी। वह आपद् धर्म था।

मैंने ऐसा कभी नहीं कहा कि मुझे छुआछूत लग जायेगी बी.जे.पी. के लोगों के साथ। इस बात को हम अभिमान के साथ कहते हैं कि उस समय हमारे विदेश मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने जो सम्मान प्राप्त किया, एक धर्म निरपेक्ष राजनीतिक के रूप में, शायद कम लोगों को यह सम्मान मिला होगा। हम सब मिलकर काम करें, तो सारी समस्याओं का समाधान हो सकता है। हम मिलकर के काम नहीं करना चाहते। अटल जी कम-से-कम इस बात के गवाह हैं।

बाबरी मस्जिद, जिसके नाम पर बड़ी गालियां बीजेपी के लोगों को दी जाती हैं। बाबरी मस्जिद का सवाल हल होने को था। मुलायम सिंह जी उसके बारे में जानकार हैं। अगर एक या डेढ़ महीना हमारी सरकार और रहती, तो यह सवाल ही नहीं रहता। किसने इस मामले को हल होने नहीं दिया। मुलायम सिंह जी आप जरा उसको भी कभी कह दें। मैं तो नहीं कह सकता, क्योंकि मैंने वायदा किया है कि प्रधानमंत्री के रूप में जो मैंने जाना है, वह कभी किसी से नहीं कहूंगा, लेकिन आप तो स्वतंत्र हैं। आप कह सकते हैं। अगर उस दिन हमने कुछ संयम से बात की होती, अगर हमारे इन्हीं मित्रों ने उस दिन सरकार को नहीं गिराया होता, तो आज धर्मनिरपेक्षता का सवाल, इस रूप में नहीं उठता।

आइए, आप और हम, फिर भी सोचें। भूलों से कुछ सीखें। और अध्यक्ष महोदय, हममें बड़ी कमियां हैं, कमजोरियां हैं, लेकिन अंत में एक ही बात कहूंगा।

श्री रघुपति सहाय फिराक का एक शेर जो मैंने जेल में पढ़ा था, उसको कहकर अपनी बात समाप्त करूंगा-

इस खंडहर में कुछ दिए हैं टूटे हुए,

इन्हीं से काम चलाओं बड़ी उदास है रात।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।