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सिवाय मौत के कोई तुम्हे झुका न सका तेरा मरना भी बस जीने का एक सहारा ह

संदर्भ: बीजू पटनायक के निधन पर 22 अप्रैल 1997 को लोकसभा में श्री चंद्रशेखर


अध्यक्ष महोदय, बीजू जी के देहावसान से भारत की राजनीति में एक रिक्तता आई है। जैसा कि नेता विरोधी दल ने कहा कि बीजू की सामथ्र्य, उनका साहस, उनके बलिदान की भावना, उनका राष्ट्र-प्रेम, नये भारत के लिए उनके मन में जो कल्पना थी, वह हम सबको प्रेरणा देती रहेगी। बीजू को मैंने विशेष तौर से इमरजेंसी के दिनों के बाद से नज़दीक से देखा था। उनमें जो ममत्व की भावना थी, लोगों को आगे बढ़ाने के लिए उत्साह देने की जो क्षमता थी, वह हमारे लिए अनुकरणीय थी। वह उम्र में मुझसे बहुत बड़े थे लेकिन बात करते समय एक सहयोगी के समान, एक सामान्य व्यक्ति के समान बात करते थे। पिछले बीस वर्षों से मुझे जब कभी मिले, एक ही तरह से पुकारते थे ‘बोलो बलिया’ मैं जवाब देता था ‘कहो उड़िया’। यह बात निरन्तर चलती रही। वह जिस दिन बीमार पड़े, उसके दूसरे दिन मैं अस्पताल गया था। डाक्टर ने मुझसे कहा, आप ही समझा सकते हैं क्योंकि वह अस्पताल में रुकने को तैयार नहीं है। मैंने जब उनसे कहा कि क्या सारी बुह् टिआपके पास ही है, डाक्टर की बात नहीं मानोगे। इस पर कहने लगे कि मेरा फेफड़ा खराब हो गया है, इसको यह ठीक नहीं कर सकते, मैं इस अस्पताल में कैसे रहूं। गाली-गलौज के बीस मिनट बाद अस्पताल में रहने के लिए तैयार हुए। दूसरे दिन जब मैं फिर उन्हें देखने गया तो मैंने उनसे पूछा कि बीजू मैं जा सकता हूं तो कहने लगे-

एक शर्त पर, ‘कल जरूर आएंगे।’

दूसरे दिन जब मैं उन्हें देखने गया तो उसी समय उनको दौरा पड़ा। डाक्टरों ने मुझसे कहा कि जब तक हम कहें नहीं, तब तक मत आना। मौत से दो दिन पहले मुझे कहा गया कि उनमें कुछ सुधार है। मैं अस्पताल गया लेकिन जब वहां पहुंचा तो शायद वह अंतिम सांस ले रहे थे। मैंने जो कुछ पुरी में देखा, उसकी मुझे इस समय याद आ रही है। हमारे साथ अटल जी, देवेगौड़ा जी थे। ऐसा लगता था कि सर्मुी के किनारे सारा उड़ीसा सिमट कर आ गया है। सबकी आखों में आंसू और लोगों के मन में उदासी थी। वहां देश का नेतृत्व वर्ग बड़ी संख्या में मौजूद था।

बीजू में जो साहस, उत्साह और शक्ति थी, उसका मैं बखान नहीं कर सकता। अभी अटल जी और दूसरे लोगों ने उनके योगदान के बारे में कहा। 1942 की क्रान्ति में उनका योगदान था, इंडोनेशिया के प्रजातंत्र के आंदोलन में उनका सक्रिय सहयोग था और नेपाल की प्रजातांत्रिक लड़ाई में उनका सहयोग था। लोहिया जी, अरुणा जी, जयप्रकाश जी और आचार्य नरेन्द्र देव जी से बीजू जी का सम्बन्ध था। आज के दिन मुझे एक पंक्ति याद आती है जो कि एक कवि ने आचार्य जी के बारे में लिखी थी। शायद वही पंक्ति बीजू पटनायक की मृत्यु के अवसर पर हमारी भावना को प्रकट करती है-

‘‘जिलाए तो रहूं पर बस कहां हमारा है।

यहीं तो आदि से अब तक मनुष्य हारा है।

सिवाय मौत के कोई तुझे झुका न सका,

तेरा मरना भी बस जीने का एक सहारा है।’’

बीजू के लिए यही मेरी श्रद्धांजलि है।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।