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ग्रामीण उद्योग के ज़रिये लोग करते हैं जीवनयापन, विदेशियों को हस्तक्षेप का अधिकार नही

संदर्भ: 31 मई 1995 को शरद यादव के एक प्रश्न पर लोकसभा में श्री चंद्रशेखर


अध्यक्ष महोदय, माननीय शरद यादव जी ने एक मौलिक सवाल उठाया है। हर राष्ट्र की अपनी एक परम्परा होती है, जीवन-विधि होती है। हमारे राष्ट्र में आज से नहीं, हजारों वर्षों से ग्रामीण उद्योग के ज़रिये लोग जीवनयापन करते रहे हैं और इसी आधार पर इस देश की सम्पदा भी रही है। जैसा उन्होंने कहा, चाहे वह नृत्य-संगीत हो, चाहे मूतकला हो, चाहे कालीन उद्योग हो, चाहे साड़ी बनाने का काम हो, चाहे जरी का काम हो, यह परम्परागत तरीके से कुछ परिवारों के ज़रिये होता रहा है और उसमें जो बच्चा होता है, छोटेपन से ही उसको काम सिखाया जाता है। वह कोई दूसरी जगह जाकर मजदूरी नहीं करता। अपने ही परिवार में अपने परिवार वालों की मदद करता है। यही हालत भारत के गाँवों में खेती में भी होती है। आज गांवों में लोग खेती में छोटे-मोटे काम जो बच्चे कर सकते हैं, वह उनसे कराते हैं।

हमारी तकलीफ इस बात की है कि भारत सरकार हर समय सफाई देने की मुद्रा में रहती है। कोई भी विदेश से आ जाए तो उसके सामने सफाई देना हम अपना कर्क्राव्य समझते हैं। अभी हमारे मित्र इंटरनेशनल कनवेंशन की बात कर रहे थे। हम जानते हैं कि दुनिया किस तरह से अंतर्राष्टन्न्ीय समझौतों पर चल रही है और किस तरह से लोगों के बच्चों के लिए उनके मन में पीड़ा है। जिस तरह बच्चों की निर्मम हत्या कर दी जाती है, बम गिराए जाते हैं तब बच्चों के हित का सवाल उन्हें दिखाई नहीं पड़ता। मैं कहता हूं कि शरद यादव जी ने जो सवाल उठाया है, क्या उस सवाल के ऊपर यह देश कभी सोचेगा या नहीं कि हमारी परम्परागत जो जीवन-विधि है, उसके लिए कोई स्थान है या नहीं, या दुनिया हमारे लिए जो तय कर देगी, वही हम करेंगे।

क्या भारत सरकार यह नहीं कर सकती थी कि जर्मनी के आदमी को आकर यहां पर हमारे लिए यह तय करना पड़ा कि कौन चाइल्ड लेबर है और कौन परिवार के उद्योग में सहयोग देकर हुनर सीख रहा है? हर आदमी कोई एम.ए., बी.ए. पढ़ेगा या हर आदमी इंजीनियर, डाक्टर होगा? क्या साड़ी बनाने वाले परिवारों के बच्चे साड़ी बनाने के काम को बचपन से नहीं सीखेंगे? क्या मूतयां बनाने वाले 15 वर्ष की उम्र के बाद मूतयां बनाने का ढंग सीखेंगे? इसलिए मैं आपसे कहता हूं कि शरद जी ने एक मौलिक सवाल उठाया है। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हर समय हम अपने आपको एक निरीह व्यक्ति मान लेते हैं, जैसे हम हर समय कठघरे में खड़े हैं। दुनिया के लोग जो कुछ कहेंगे उस पर सफाई देने लगेंगे? मैं समझता हूं कि वीरेंद्र जी और हमारे दूसरे मित्रों ने जो सवाल उठाया है वह बुनियादी सवाल है और भारत सरकार को इस पर सफाई दने के बजाय उनको समझाना चाहिए कि हमारे आंतरिक मामलों में, हमारी परम्पराओं में हस्तक्षेप करने का उनको कोई अधिकार नहीं है।


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चंद्रशेखर जी

राजनीतिक विचारों में अंतर होने के कारण हम एक दूसरे से छुआ - छूत का व्यवहार करने लगे हैं। एक दूसरे से घृणा और नफरत करनें लगे हैं। कोई भी व्यक्ति इस देश में ऐसा नहीं है जिसे आज या कल देश की सेवा करने का मौका न मिले या कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसकी देश को आवश्यकता न पड़े , जिसके सहयोग की ज़रुरत न पड़े। किसी से नफरत क्यों ? किसी से दुराव क्यों ? विचारों में अंतर एक बात है , लेकिन एक दूसरे से नफरत का माहौल बनाने की जो प्रतिक्रिया राजनीति में चल रही है , वह एक बड़ी भयंकर बात है।