बलिया जिले का इब्राहिम पट्टी मेरा गाँव है। इस छोटे से गाँव में मेरे पूर्व कहाँ से आये, अब तक यह एक अनजान कहानी है। मैंने इस बात का पता लगाने का प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं मिली। गाँव का नाम इब्राहिम पट्टी कैसे पड़ा, इसका पता मुझे जरूर चला। कोई नवाब था बहुत पहले। उनका एक कारिंदा था, जिसका नाम था इब्राहिम। उसी ने अपने नाम पर गाँव का नाम इब्राहिम पट्टी रख दिया। इब्राहिम पट्टी उन दिनों छोटा सा गाँव था। मेरे बचपन में लगभग यहाँ 500 लोगों की आबादी थी। यह आबादी बहुत छोटी कही जाएगी। वहाँ तक पहँुचने का कोई रास्ता और आने-जाने का कोई साध्ान नहीं था। लेकिन वास्तव में मेरा जन्म तो हुआ मेरे ननिहाल कचुअरा में। तारीख थी 17 अप्रैल, 1927, अर्थात् चैत्र शुक्ल पूर्णिमा संवत् 1887। मेरा ननिहाल कचुअरा, सिकन्दरपुर कस्बे के नजदीक है। यह एक बहुत छोटा-सा गाँव है। कचुअरा में हमारे नाना के परिवार में अब कोई नहीं है। इब्राहिम पट्टी में मेरा बचपन गुजरा। यहाँ अपने पूर्वजों के आगमन की कहानी जानने के लिए मैंने एक बार कोशिश की। तब मैं इण्टरमीडिएट में पढ़ता था। हमारे यहाँ एक बड़े बुजुर्ग थे- परगन सिंह। उनको पूर्वजों के नाम याद थे। उनसे पूछकर मैंने कुर्सीनामा बनाया था। बड़ी मेहनत की थी। गर्मी की छुट्टियों में लगा रहा। कई रंगों की रोशनाई से उसे बहुत आकर्षक बनाया था। लेकिन कोई उसे चुरा ले गया। इसलिए मेरे पूर्वजों के इब्राहिम पट्टी आगमन की कहानी अनजान ही है। वैसे तरह-तरह की किंवदंतियाँ कही जाती हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि किसी को सच्चाई मालूम नहीं। मेरे गाँव की आबादी बहुजातीय रही है। मेरे बचपन में वहाँ दो घर पंडितों के थे। 8-10 घर ठाकुरों के रहे होंगे। 8-10 घर बनियों के भी थे। हरिजन बस्ती दो थीं। एक छोटी, एक बड़ी। वह गाँव से बाहर थी। कहार और कुर्मी के भी कुछ घर थे। मेरे गाँव में तब किसी एक जाति का प्रभुत्व नहीं था। वहाँ मुसलमानों के भी दो घर थे। आज भी ये दोनों घर हैं। मेरे बचपन से आज तक उनकी दो पुश्त गुजर गईं। बचपन के वे दिन याद आते हैं जब गाँव विरासत में मिली गुड़-पानी की परम्परा ध् 267 268 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर में मुहर्रम के लिए ताजिया रखा जाता था। हम सब लड़के ताजिया उठाते थे, मर्सिया गाते थे, ताजिया गाँव में घुमाया जाता था, हर दरवाजे पर घर के बड़े-बूढ़े एक घड़ा पानी लुढ़काते थे, गुड़ का एक ढेला चढ़ाते थे। बचपन में ही मुझे बताया गया था कि कर्बला के मैदानों में खलीफा हुसैन आवाम के हक के लिए लड़ते हुए शहीद हुए थे। उन्हें पीने के लिए पानी भी नहीं मिला था, उसी याद में यह पानी और गुड़ देने की परम्परा मेरे गाँव में थी। मैं नहीं जानता, कहीं और है या नहीं।