एक पुरानी घटना याद आई। 1942 में एक उमाशंकर थे। मऊ में वे 1942 के आन्दोलन में सक्रिय थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि चलो, तार काटने चलें। हम लोग सात-आठ लड़के तार काटने चले। पिपरीडीह से मऊ रेलवे स्टेशन के किनारे एक सुनसान जगह पर पहुँचे। खम्भे के सहारे एक लड़का दूसरे के कंध्ो पर चढ़ा। उमाशंकर सुनार की सोना काटने वाली आरी ले गए थे। मैं छोटा था। कमजोर भी था। इसलिए मुझे जिम्मेदारी दी गई कि मैं आस-पास निगाह रखूं कि कोई आ तो नहीं रहा है। घटनास्थल से मैं थोड़ी दूर खड़ा था। हममें से किसी को यह ज्ञान नहीं था कि तार काटने के क्या परिणाम होंगे। इसलिए जब तार एक जगह से कटा तो बहुत तेज आवाज हुई और भौचक रह गये। संयोग से कोई तार के नीचे या सामने नहीं था वरना बड़ी दुर्घटना हो जाती। हम लोग थोड़ी देर के लिए इध्ार-उध्ार हो गए। जब देखा, कोई नहीं आ रहा है तो दूसरी जगह से तार काटने लगे। बाद में तार के टुकड़े बना कर सबको बांटे गए ताकि उसे स्मृतिचिन्ह की तरह रख सकें। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में यह मेरी पहली शिरकत थी। उन्हीं दिनों की एक और भी घटना है। डीएवी स्कूल में प्रार्थना-सभा हुई तो उसमें मैंने पहली बार इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा लगा दिया। लोगों ने मुझसे कहा कि मैंने खतरनाक काम किया है, लेकिन उस समय मुझ पर आर्य समाज का बड़ा प्रभाव था और मैं निर्भय था। आर्यसमाज मन्दिर में हम रोज जुटते थे और बैठक करते थे। जहाँ मैं रहता था, आर्यसमाज मन्दिर वहाँ से सिर्फ 100 गज की दूरी पर था। उस मन्दिर से मुझे लोग काफी जागरूक थे। मेंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पूरा पढ़ लिया था और उसे अक्षरशः सत्य मानता था।