बलिया के एक छोटे से गाँव-से आज तक की यात्रा एक ऐसी गाथा है जिसमें जि़न्दगी उतार-चढ़ाव के हिचकोलों से गुजरी है। कितने सहयोगी मिले, कितनों ने उन्मुक्त स्नेह दिया, कितनों ने उदासी के क्षणों में सहारा दिया। अपने ममत्व का सम्बल दिया। साथ ही उनसे भी पे्ररणा मिली जिन्होंने मार्ग में रोड़े अटकाए। अकारण आक्षेप लगाए। मेरे मनसूबों को तोड़ने की हर कोशिश की, पर ऐसे कम ही रहे। जो रहे भी, उनका मेरे मन पर कोई गहरा असर नहीं पड़ा। क्षणिक आक्रोश या उदासी में समय बीता, पर शायद ऐसी ही है जग थी रीति। कोई इससे बच नहीं पाता, फिर मैं ही अपवाद कैसे होता? बचपन के दिन हँसी-खेल में बीत गए। गाँव में गरीबी-अमीरी का अंतर समझ में नहीं आया। निम्न मध्यम वर्ग के परिवार में पालन-पोषण हुआ, फिर वैभव और बेबसी का अनुभव अध्ािक ध्ाारदार हो भी नहीं सकता था उस गाँव की जि़न्दगी में, जो अति गरीब परिवार के बच्चों को हुआ होगा। जिस वर्ग से हमारे जैसे लोग आते हैं, उनके लिए तो विशेष अन्तर का अहसास होना भी कठिन ही था। सब लोग लगभग एक जैसे ही थे। उस समय के गाँव में सब बच्चे समान ही लगते थे। कपड़ों में कोई विशेष विभेद नहीं, खेलकूद में किसी प्रसाध्ान का प्रयोग नहीं-कबड्डी, गुल्ली-डण्डा, ओल्हापाती, कौड़ी का खेल और बड़ा होने पर ताश के पत्ते। फुटबाॅल, बालीबाॅल का कोई स्थान नहीं। क्रिकेट के बारे में तो मैं बहुत बाद में सुनने लगा। अभाव का संतोष भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। न किसी से ईष्र्या, न किसी से द्वेष। इस माने में गाँव की जि़न्दगी में उस समय एक विशेष प्रकार का समन्वय था। अत्यन्त बेबस लोगों से परंपरागत सामाजिक दुराव के कारण संपर्क ही नहीं हो पाता था। अज्ञान से भी मनुष्य सन्तोष पाता है, शायद कुछ ऐसी ही स्थिति उस समय गाँव के बचपन में हम लोगों की थी। छोटा-सा गाँव, पट्टियों में बँटे हुए थोड़े-से लोग, बच्चों में कोई अंतर नहीं; सब मिल कर खेलते-कूदते स्कूल जाते; कुछ थोड़े ही दिनों बाद घर बैठ जाते; शेष चैथी कक्षा के बाद मीलों चल कर स्कूल जाते। सारे दिन की दौड़-ध्ाूप, कोयरी की कोड़ार और परगन बाबा के पीपल के पेड़ ध् 305 306 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर अध्यापक लोगों की डाँट-फटकार, और शाम होते थकान से चूर निद्रा की गोद में। फिर दूसरे दिन वहीं क्रम। जैसे पलक मारते वे दिन यों ही बीत गए। मिडिल स्कूल में हम तीन लोग गाँव से भीमपुरा जाते थे। ऋषिदेव सिंह हम लोगों में उम्र में सबसे बड़े और खेलकूद-कुश्ती में भी तेज थे। लेकिन विद्या के प्रति उनमें अरुचि थी। उनका ज्याद साथ नहीं रहा। उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। वैसे बाद में गाँव के खेल-तमाशे में वे जरूर साथ रहे। रामसूरत सिंह (देवेन्द्र नाथ सिंह) का साथ किसी तरह हाई स्कूल तक रहा। परमानंद सिंह जी का साहचर्य प्राइमरी स्कूल तक ही रहा। बाद में छुट्टियों में दिन-रात एकसाथ रहे। परमानंद सिंह जी पहलवान थे। मेरे अभिन्न मित्र। बाद में बंगाल में जाकर वहीं बस गए। बहुत समय तक आते रहे, पर कई सालों से न मिलना हुआ, न उनका कोई पता रहा। मौसी के बेटे अनिरुद्ध सिंह से भी घनिष्ठता रहीं। बहुत दिनों से बीमार हैं। यों ही लटक रहे हैं। श्रीस्ता काका और रामनरेश काक चल बसे। बल्ली काका और रामकठिन काका भी नहीं रहे। हमारे गाँव में थी एक बूढ़ी। उन्हें लोग पैजनियाँ फूआ कहते थे। हम लड़के उन्हें चिढ़ाते। वे गाली देतीं, मारने की ध्ामकी देतीं, पर किसी पर हाथ नहीं छोड़तीं। मेवा लोहार बड़े बुजुर्ग थे। हम लोग उनका आदर करते, पर गाँव के लोग उन्हीं को बुरा-भला कह कर होली गाते। झींगुर दर्जी मेरे दोस्त थे। एक हँसमुख व्यक्ति, रहीमुल्लाह पहलवान थे। मुझसे उनकी अच्छी पटती थी। देवनारायण भइया झाड़-फँूक करते थे। साँप काटने पर मंत्र से पानी को अभिमंत्रित करके पीने के लिए देते थे। एक बार मुझे भी दिया था, जब मुझे साँप ने काटा था। काफी खून निकल आया था। लोगों में कोहराम मचा। पर वह साँप विषैला नहीं था। पानी का साँप था- ध्ाामिन। गाँव में सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति थे ध्ारणीध्ार मिश्र। विद्वान थे। ध्ाार्मिक अनुष्ठान वही कराते थे। मेरे प्रति उनका बड़ा स्नेह था। मैं भी उनका बहुत आदर करता था। उनकी दुःखद मृत्यु हुई। खेते के झगड़े में उनकी हत्या हो गई। मैं आज भी उस बात को भुला नहीं पाता। मेरे गाँव में एक महेन्द्र भैया थे। उन्होंने गाँव में सबसे पहले मैट्रिक पास किया। नौकरी कर रहे थे कि तपेदिक के शिकार हो गए। उनकी मौत से मुझे बड़ा आघात लगा था। दुबर दुसाध्ा मेरे पड़ोसी थे, गाँव के चैकीदार भी। सेवक गोंड, गाँव के बुजुर्ग, सदा सेवा में लगे रहने वाले! गाँव में कोई भी प्रयोजन हो, सेवक उनमें पूरी तरह तल्लीन रहते थे। केशव बनिया के भाई श्यामलाल थे, जो गाँव में सबसे पहले चाय लाए थे। गाँव के बीच में बरगद के नीचे, वे हम लोगों को मुफ्त चाय पिलाते थे। बाद में पागल हो गए और इस दुनिया से चल बसे। जब वे पागल हुए, उन्हीं दिनों गाँध्ाी जी की हत्या हुई। गाँध्ाी जी के मरने के बाद मैंने श्यामलाल को गाँव में घूम-घूमकर यह कहते हुए सुना था: ‘गाँध्ाी मर गए, सती हो गई जिन्ना-जवाहर की बेटी।’ मैं इस उन्मादपूर्ण बात के बारे में बहुत दिनों तक सोचता रहा। क्यों कहा श्यामलाल ने ऐसा? क्या वह यूँ ही एक पागल की बेमतलब बात थी या इसके पीछे उसके मन में समाया स्वतःस्फूर्त कोई गूढ़ अर्थ भी हो सकता है? अचानक मुझे लगा कि उसका निहितार्थ अत्यंत गंभीर था। गाँध्ाी जी के विरोध्ा के बावजूद देश बँटा। बहुत खून बहा। इस घटना के बाद गाँध्ाी जी का जीवन के प्रति लगाव नहीं रहा। कितनी बहू-बेटियाँ विध्ावा हुईं। वे सब भारत माँ की बेटियाँ थीं, चाहे पाकिस्तान में हों या हिन्दुस्तान में-जिन्ना-जवाहर की बेटियाँ। क्या इस कथन के गूढ़ को हम यों ही पागल की बोली मान कर भुला देंगे? याद आती है तारा कोयरी की कोड़ार और परगन बाबा के पीपल के पेड़ की छाँव, जिसके नीचे बैठकर मैंने गर्मी की कितनी दुपहरिया बिताई थी- गाँव के लोगों के बसने का इतिहास लिखने के लिए। गाँव के लोगों का रंग-बिरंगा कुर्सीनामा लिखा था। कोई उठा ले गया मेरे दरवाजे से। कुछ लोग कहते थे कि यह काम वीरा काका ने किया। पर क्यों करते वे यह काम? भला उनकी इसमें कया रुचि थी? जो भी हो, उसके गुम होने से मुझे बहुत दुःख हुआ था। कुर्सीनामा भी गया और उसी बीच परगन बाबा भी चले गए, इस दुनिया से। उनके बेटे रामचंद्र दादा को कुछ नाम याद थे, पर वह काम उनके जरिए होना सम्भव नहीं था। परमानंद मेरे मित्र थे और उनके निकट के पड़ोसी। उनके पिता रजापति भइया भी थे। अपने-आपमें अनोखे व्यक्ति। उसी मुहल्ले में वे मैनेजर सिंह, अपनी कंजूसी के लिए मशहूर। इकलौता बेटा चल बसा पर उसका ठीक उपचार नहीं किया। बाद में पत्नी भी नहीं रहीं। बहुत दिनों तक एकाकी जिन्दगी बिताई। मैं तो गाँव से बाहर था पर सुना कि जब उनकी मृत्यु हुई, तो उनकी लाश की किसी को फिक्र नहीं थी। लोग उनका पैसा, गहना, चीनी-चावल लूटने में लग गए थे। यह एक ऐसी विकृति थी जो उस समय के गाँव की जिन्दगी में कोई सोच भी नहीं सकता था।