गुरु गोलवकर जी (माधव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’) इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आए। सबने विरोध्ा किया। वैसे मैं इस राय का था कि जब सब पाटियों के लीडर आते हैं तो गोलवलकर को भी अपने देना चाहिए। लेकिन कम्युनिस्ट मित्रों ने जोर दिया कि हर हाल में उनका विरोध्ा होना चाहिए। अन्ततः मैं सहमत हो गया। तय हुआ कि गोलवकर जी को बोलने नहीं देना है। हल्ला मचा। बड़ा झगड़ा हुआ। मारपीट हुई। इलाहाबाद मंडल से बाहर के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी लाठी-डंडा लेकर आ गए। हम लोग यूनियन के दफ्तर के अन्दर घुस गए। बाहर हल्ला मचने लगा। पुलिस आ गई। उसने सबको बाहर निकलने के लिए कहा तो हम बाहर निकल आए। अब क्या करें? साथी रामाध्ाार पाण्डे ने लगभग चिल्लाते हुए मुझसे कहाः चन्द्रशेखर! वह रही ईंट। यूनियन की बिल्डिंग बन रही थी इसलिए वहाँ काफी रोड़े टूटे पड़े थे। हम लोगों ने उन्हें उठाया और फेंकना शुरू कर दिया। किसी के कान पर लगा तो किसी के चेहरे पर। गोलवलकर की सभा दो मिनट में खत्म हो गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग लाठी लेकर टूट पड़े। हम लोग तो बिना लाठी-डंडे के थे। हमारे साथी थे वशिष्ठ नारायण राय। वे हैवीवेट कुश्ती के चैम्पियन थे। मैंने किसी की एक लाठी छीन ली थी। मेरे हाथ में लाठी देखी तो वशिष्ठ ने यह लाठी मुझसे ले ली। मैं जानता नहीं था कि वे लाठी भी चलाते हैं। उन्होंने मुझे हिदायत दी कि तुम हमारी पीठ से पीठ जोड़ कर पीछे की ओर देखते रहो। अगर पीछे से कोई चोट करना चाहे तो मुझे इशारा कर देना। वशिष्ठ लाठी घुमाते हुए निकले तो भगदड़ मच गई। वे जिध्ार से निकलते थे, भीड़ भाग खड़ी होती थी। अन्ततः मार-मार कर उन्होंने लोगों को भगा दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक मुख्य नेता पर उन्होंने प्रहार किया, वह गिर पड़ा। उस पर जब दूसरी लाठी चलाने लगे तो मैंने पकड़ लिया। मैंने रोकते हुए कहा: यह तो मर जाएगा। वशिष्ठ मुझ पर बहुत बिगड़े: मेरा हाथ कभी न पकड़ना। इसी बीच जब थोड़ी देर के लिए उनकी लाठी रुकी तो एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाले ने उनके सिर पर लाठी मार दी। मैंने आव देखा न ताव, तुरन्त वह लाठी पकड़ ली। मेरी एक उँगली टूट कर मुड़ गई। वह आज भी टेढ़ी है। टूटी हुई उँगली को मैंने रूमाल से बाँध्ा लिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग आखिर चले गए। कम्युनिस्टों में आर.के. गर्ग और आसिफ अन्सारी घायल हुए थे। कई साथी गिर गए। कई बेहोश हो गए। गर्ग और आसिफ के साथ मैं मोतीलाल नेहरू अस्पताल गया। डाॅक्टर ने इन दोनों के बारे में कहा, कि वे ठीक हैं। अन्त में मैंने डाॅक्टर से कहा कि मुझे भी उँगली में थोड़ी चोट आई है। जरा इसको देख लीजिए। मेरी उँगली की जाँच करने के बाद डाॅक्टर ने आश्चर्य से कहा कि यू आर ए पिक्यूलियर मैन, यू हैव कम विद ए फ्रेक्वर्ड फिंगर एण्ड यू से दैट इज ए स्लाइट इंजरी। (आप तो एकदम भिन्न किस्म के आदमी हैं। आपकी तो उँगली टूटी हुई है और कह रहे हैं कि जरा-सी चोट लगी है!) इसका तो प्लास्टर करवाना पड़ेगा। मेरे एक साथी ने कहा: प्लास्टर लगा तो इम्तहान नहीं दे पाएँगे। एम.ए. फाइनल का इम्तहान था। साथी रामाध्ाार ने मुझे सलाह दी कि यहाँ बगल में ही एक आदमी है जिसने मौलाना आजाद का मुड़ा हुआ पैर ठीक कर दिया था। चलो, वहीं चलते हैं। फिर मैंने डाॅक्टर को प्लास्टर करने से मना कर दिया और उन्हीं जर्राह से पट्टी बँध्ावा ली। लौट कर मैंने एम.ए. फाइनल का पूरा इम्तहान तीन उँगलियों से दिया। टूटी हुई उँगली में सूजन थी। मुझे किसी ने कहा कि अगर सूजी हुई उंगली को शराब में डुबो कर रखें तो सूजन कम हो जाएगी। चिन्तित हुआ कि अब शराब कहाँ से लाऊँ? किसी ने बताया कि मेरे एक मित्र के कमरे में शराब रहती है। वे चोरी से पीते हैं। मैं उनके कमरे में अचानक घुसा। उनकी अलमारी खोली। वहाँ शराब की बोतल रखी थी। मेरे मित्र भौंचक हुए। उन्होंने कहा कि यह आप क्या कर रहे हैं? मैंने उन्हें डाँटा: आपका दिमाग खराब है, देखिए उँगली में चोट लगी है। यह सूज गई है। रात में इसे शराब में डुबो कर रखूँगा तो सूजन कम हो जाएगी। इस तरह किसी प्रकार मैंने एम.ए. के पर्चे खत्म किए। विश्वविद्यालय में मैं नियमित छात्र नहीं था। क्लास नोट्स के आध्ाार पर मैं तैयार नहीं करता था। स्वतन्त्र रूप से सोचने में मेरी गति ज्यादा थी। इस सिलसिले में एक दिलचस्प घटना याद आती है। एम.ए. प्रथम वर्ष में एक मौखिक परीक्षा होती थी। परीक्षक दो होते थे। उनमें एक तो अपने विश्वविद्यालय के होते थे और दूसरे किसी अन्य विश्वविद्यालय के। वे परीक्षार्थी से सवाल पूछते थे। बाहर से आए मुस्लिम यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर तालुकेदार थे। माधव सदाशिव गोलवलकर का विरोध ध् 295 296 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर इलाहाबाद के ए.बी. लाल थे। उस समय वे रीडर थे। बाद में जयपुर में वाइस चांसलर हो गए। लड़कों को उत्साहित करने के लिए ए.बी. लाल अनौपचारिक सवाल पूछते थे। मैं जब वाइवा के लिए गया तो मुझसे पूछा: ‘मिस्टर चन्द्रशेखर!’ ‘व्हाट प्लेस डू यू कम फ्राॅम?’ मैंने कहा: ‘आई ऐम फ्राॅम बलिया।’ इस पर प्रोफेसर तालुकेदार ने कहा, ‘दैट नोटोरियस प्लेस?’ मैंने उन्हें तेज आवाज में उलट कर कहा: नाॅट नोटोरियस बट पापुलर सर!’ वे जरा झेंपे: ‘आई मीन नोटोरियस इन द आइज आॅफ ब्रिटिश रिजीम!’ इस पर मैंने कहा: ‘आई होप यू नो दैट ब्रिटिश रिजीम इज नो मोर इन इण्डिया! जब मैंने यह कहा तो वहाँ एकदम सन्नाटा छा गया। ए.बी. लाल को लगा कि मामला गड़बड़ा रहा है। इसे ठीक करने के लिए उन्होंने पूछा कि: आॅल राइट मिस्टर चन्द्रशेखर! लेट मी नो व्हाट फिलासफर्स हैव यू प्रिपेअर्ड बेस्ट, सो दैट वी मे आस्क क्वेश्चन्स फ्राॅम देयर वर्क। मैंने पहले की तरह रोब में जवाब दिया: आई हैव प्रिपेअर्ड आल फिलासफर्स इक्वली वेल, यू आस्क क्वेश्चन्स फ्राॅम एनीव्हेयर यू लाइक।’ इसके बाद उन लोगों ने चैदह-पंद्रह सवाल पूछे और मैंने ध्ाड़ाध्ाड़ उत्तर दे दिए। मुझे मौखिक परीक्षा में बहुत अच्छे अंक मिले। अपने छात्र-जीवन में मैं क्लास में जरूर जाता था लेकिन इम्तहान आने पर किताबों के सिर्फ पन्ने पलट लेता था। शायद यही वजह थी कि मुझे द्वितीय श्रेणी मिली। उस समय का बौद्धिक माहौल उच्च स्तरीय था। हम लोग समाजवादी आन्दोलन से जुड़े थे। समाजवादी लोगों की गोष्ठियों में उच्च स्तरीय बहस हुआ करती थी। मजदूरों की सभाओं तथा सेमिनारों और कैम्पों में भी काफी बहस-मुबाहसा होता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की बौद्धिकता का यह खास चरित्र था कि राजनीतिक गतिविध्ाियों में शामिल रहते हुए भी हम लोग गंभीर विषयों पर ज्यादा विचार-विमर्श किया करते थे। úùगुरु गोलवकर जी (माध्ाव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’) इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आए। सबने विरोध्ा किया। वैसे मैं इस राय का था कि जब सब पाटियों के लीडर आते हैं तो गोलवलकर को भी अपने देना चाहिए। लेकिन कम्युनिस्ट मित्रों ने जोर दिया कि हर हाल में उनका विरोध्ा होना चाहिए। अन्ततः मैं सहमत हो गया। तय हुआ कि गोलवकर जी को बोलने नहीं देना है। हल्ला मचा। बड़ा झगड़ा हुआ। मारपीट हुई। इलाहाबाद मंडल से बाहर के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी लाठी-डंडा लेकर आ गए। हम लोग यूनियन के दफ्तर के अन्दर घुस गए। बाहर हल्ला मचने लगा। पुलिस आ गई। उसने सबको बाहर निकलने के लिए कहा तो हम बाहर निकल आए। अब क्या करें? साथी रामाध्ाार पाण्डे ने लगभग चिल्लाते हुए मुझसे कहाः चन्द्रशेखर! वह रही ईंट। यूनियन की बिल्डिंग बन रही थी इसलिए वहाँ काफी रोड़े टूटे पड़े थे। हम लोगों ने उन्हें उठाया और फेंकना शुरू कर दिया। किसी के कान पर लगा तो किसी के चेहरे पर। गोलवलकर की सभा दो मिनट में खत्म हो गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग लाठी लेकर टूट पड़े। हम लोग तो बिना लाठी-डंडे के थे। हमारे साथी थे वशिष्ठ नारायण राय। वे हैवीवेट कुश्ती के चैम्पियन थे। मैंने किसी की एक लाठी छीन ली थी। मेरे हाथ में लाठी देखी तो वशिष्ठ ने यह लाठी मुझसे ले ली। मैं जानता नहीं था कि वे लाठी भी चलाते हैं। उन्होंने मुझे हिदायत दी कि तुम हमारी पीठ से पीठ जोड़ कर पीछे की ओर देखते रहो। अगर पीछे से कोई चोट करना चाहे तो मुझे इशारा कर देना। वशिष्ठ लाठी घुमाते हुए निकले तो भगदड़ मच गई। वे जिध्ार से निकलते थे, भीड़ भाग खड़ी होती थी। अन्ततः मार-मार कर उन्होंने लोगों को भगा दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक मुख्य नेता पर उन्होंने प्रहार किया, वह गिर पड़ा। उस पर जब दूसरी लाठी चलाने लगे तो मैंने पकड़ लिया। मैंने रोकते हुए कहा: यह तो मर जाएगा। वशिष्ठ मुझ पर बहुत बिगड़े: मेरा हाथ कभी न पकड़ना। इसी बीच जब थोड़ी देर के लिए उनकी लाठी रुकी तो एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाले ने उनके सिर पर लाठी मार दी। मैंने आव देखा न ताव, तुरन्त वह लाठी पकड़ ली। मेरी एक उँगली टूट कर मुड़ गई। वह आज भी टेढ़ी है। टूटी हुई उँगली को मैंने रूमाल से बाँध्ा लिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग आखिर चले गए। कम्युनिस्टों में आर.के. गर्ग और आसिफ अन्सारी घायल हुए थे। कई साथी गिर गए। कई बेहोश हो गए। गर्ग और आसिफ के साथ मैं मोतीलाल नेहरू अस्पताल गया। डाॅक्टर ने इन दोनों के बारे में कहा, कि वे ठीक हैं। अन्त में मैंने डाॅक्टर से कहा कि मुझे भी उँगली में थोड़ी चोट आई है। जरा इसको देख लीजिए। मेरी उँगली की जाँच करने के बाद डाॅक्टर ने आश्चर्य से कहा कि यू आर ए पिक्यूलियर मैन, यू हैव कम विद ए फ्रेक्वर्ड फिंगर एण्ड यू से दैट इज ए स्लाइट इंजरी। (आप तो एकदम भिन्न किस्म के आदमी हैं। आपकी तो उँगली टूटी हुई है और कह रहे हैं कि जरा-सी चोट लगी है!) इसका तो प्लास्टर करवाना पड़ेगा। मेरे एक साथी ने कहा: प्लास्टर लगा तो इम्तहान नहीं दे पाएँगे। एम.ए. फाइनल का इम्तहान था। साथी रामाध्ाार ने मुझे सलाह दी कि यहाँ बगल में ही एक आदमी है जिसने मौलाना आजाद का मुड़ा हुआ पैर ठीक कर दिया था। चलो, वहीं चलते हैं। फिर मैंने डाॅक्टर को प्लास्टर करने से मना कर दिया और उन्हीं जर्राह से पट्टी बँध्ावा ली। लौट कर मैंने एम.ए. फाइनल का पूरा इम्तहान तीन उँगलियों से दिया। टूटी हुई उँगली में सूजन थी। मुझे किसी ने कहा कि अगर सूजी हुई उंगली को शराब में डुबो कर रखें तो सूजन कम हो जाएगी। चिन्तित हुआ कि अब शराब कहाँ से लाऊँ? किसी ने बताया कि मेरे एक मित्र के कमरे में शराब रहती है। वे चोरी से पीते हैं। मैं उनके कमरे में अचानक घुसा। उनकी अलमारी खोली। वहाँ शराब की बोतल रखी थी। मेरे मित्र भौंचक हुए। उन्होंने कहा कि यह आप क्या कर रहे हैं? मैंने उन्हें डाँटा: आपका दिमाग खराब है, देखिए उँगली में चोट लगी है। यह सूज गई है। रात में इसे शराब में डुबो कर रखूँगा तो सूजन कम हो जाएगी। इस तरह किसी प्रकार मैंने एम.ए. के पर्चे खत्म किए। विश्वविद्यालय में मैं नियमित छात्र नहीं था। क्लास नोट्स के आध्ाार पर मैं तैयार नहीं करता था। स्वतन्त्र रूप से सोचने में मेरी गति ज्यादा थी। इस सिलसिले में एक दिलचस्प घटना याद आती है। एम.ए. प्रथम वर्ष में एक मौखिक परीक्षा होती थी। परीक्षक दो होते थे। उनमें एक तो अपने विश्वविद्यालय के होते थे और दूसरे किसी अन्य विश्वविद्यालय के। वे परीक्षार्थी से सवाल पूछते थे। बाहर से आए मुस्लिम यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर तालुकेदार थे। माधव सदाशिव गोलवलकर का विरोध ध् 295 296 ध् राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर इलाहाबाद के ए.बी. लाल थे। उस समय वे रीडर थे। बाद में जयपुर में वाइस चांसलर हो गए। लड़कों को उत्साहित करने के लिए ए.बी. लाल अनौपचारिक सवाल पूछते थे। मैं जब वाइवा के लिए गया तो मुझसे पूछा: ‘मिस्टर चन्द्रशेखर!’ ‘व्हाट प्लेस डू यू कम फ्राॅम?’ मैंने कहा: ‘आई ऐम फ्राॅम बलिया।’ इस पर प्रोफेसर तालुकेदार ने कहा, ‘दैट नोटोरियस प्लेस?’ मैंने उन्हें तेज आवाज में उलट कर कहा: नाॅट नोटोरियस बट पापुलर सर!’ वे जरा झेंपे: ‘आई मीन नोटोरियस इन द आइज आॅफ ब्रिटिश रिजीम!’ इस पर मैंने कहा: ‘आई होप यू नो दैट ब्रिटिश रिजीम इज नो मोर इन इण्डिया! जब मैंने यह कहा तो वहाँ एकदम सन्नाटा छा गया। ए.बी. लाल को लगा कि मामला गड़बड़ा रहा है। इसे ठीक करने के लिए उन्होंने पूछा कि: आॅल राइट मिस्टर चन्द्रशेखर! लेट मी नो व्हाट फिलासफर्स हैव यू प्रिपेअर्ड बेस्ट, सो दैट वी मे आस्क क्वेश्चन्स फ्राॅम देयर वर्क। मैंने पहले की तरह रोब में जवाब दिया: आई हैव प्रिपेअर्ड आल फिलासफर्स इक्वली वेल, यू आस्क क्वेश्चन्स फ्राॅम एनीव्हेयर यू लाइक।’ इसके बाद उन लोगों ने चैदह-पंद्रह सवाल पूछे और मैंने ध्ाड़ाध्ाड़ उत्तर दे दिए। मुझे मौखिक परीक्षा में बहुत अच्छे अंक मिले। अपने छात्र-जीवन में मैं क्लास में जरूर जाता था लेकिन इम्तहान आने पर किताबों के सिर्फ पन्ने पलट लेता था। शायद यही वजह थी कि मुझे द्वितीय श्रेणी मिली। उस समय का बौद्धिक माहौल उच्च स्तरीय था। हम लोग समाजवादी आन्दोलन से जुड़े थे। समाजवादी लोगों की गोष्ठियों में उच्च स्तरीय बहस हुआ करती थी। मजदूरों की सभाओं तथा सेमिनारों और कैम्पों में भी काफी बहस-मुबाहसा होता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की बौद्धिकता का यह खास चरित्र था कि राजनीतिक गतिविध्ाियों में शामिल रहते हुए भी हम लोग गंभीर विषयों पर ज्यादा विचार-विमर्श किया करते थे।