इलाहाबाद विश्वविद्यालय और समाजवाद का सपना

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1948 में मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय आया और बी.ए. में दाखिला लिया। उस सयम इलाहाबाद विश्वविद्यालय हमारे यहाँ का सबसे अच्छा विश्वविद्यालय माना जाता था। इसी समय बलिया में सतीशचंद्र काॅलेज में बी.ए. की पढ़ाई प्रारम्भ हुई थी। गौरी शंकर राय और दूसरे मित्रों ने वहाँ प्रवेश लिया था। उस समय हम लोग बलिया की राजनीति में प्रभावकारी हिस्सा लेने लगे थे। गौरीशंकर ने खबर भेजी कि मैं बलिया वापस आ जाऊँ, राजनीति में पूरा हिस्सा लेंगे। मुझे भी बात अच्छी लगी। घरवालों को भी यह बात भा गई। पढ़ाई का खर्च कम लगेगा और मैं इलाहाबाद छोड़ कर बलिया आ गया। वहीं से मैंने बी.ए. किया। उसके बाद मैंने राजनीति शास्त्र में एम.ए. करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। मैं एक छोटे शहर से इलाहाबाद जैसे बड़े शहर में पहुँचा था। लेकिन जल्दी ही मैंने खुद को वहाँ के माहौल के अनुरूप ढाल लिया। मैं किसी भी नए माहौल में जाता हूँ तो एक-दो दिन में सब सहज हो जाता है। जल्दी ही मेरे लिए नए माहौल में कोई असुविध्ाा नहीं रह जाती मैं खुद को उसके अनुकलू बना लेता हूँ। चुनौतियों के समाध्ाान के लिए सक्रिय हो जाता हूँ। 1951 में मैंने निर्णय लिया कि सोशलिस्ट पार्टी में रह कर समाजवाद के लिए काम करेंगे। यह भी मन बना लिया कि पूरे समय राजनीतिक काम में ही लगाना है। लेकिन जीवनयापन के लिए कुछ पैसा तो चाहिए। यह कैसे होगा? बहुत सोचने के बाद मुझे एक समाध्ाान सूझा। बलिया में मेरे एक परिचित थे- विश्वनाथ तिवारी। वे जिला बोर्ड में क्लर्क थे। जो पैसा मिलता था, उससे एक होटल चलाते थे। उस होटल में समाजवादी, काँग्रेसी तथा राष्ट्रीय आन्दोलन से जुडे़ लोग खाना खाते थे। वे बहुत स्नेह से जगन्नाथ शास्त्री, गौरीशंकर राय और मेरे लिए घी डाल कर खाना परोसते थे। मैंने निर्णय लिया कि जीवनयापन के लिए इसी तरह का एक छोटा-सा होटल खोलना ठीक रहेगा। आन्दोलन के साथियों को खाना भी मिल जाया करेगा। एक दिन मैं कटरा में टहलते हुए एक किताब की दुकान पर गया। वहाँ नई-पुरानी किताबें मिलतीं थीं। अचानक मुझे वहाँ एक किताब दिखी: ‘हाउ टु रन ए स्माल होटल’। यह एक पुरानी किताब थी, तीन रुपए की। किताब खरीद कर मैं होस्टल आया। उसे पढ़ने लगा। किताब दिलचस्प थी। लेकिन पढ़ने के बाद पता चला कि ऐसा होटल खोलने के लिए तो एक मिलियन डाॅलर चाहिए। इतने पैसे का इंतजाम कहाँ से होगा? इसलिए मैंने होटल खोलने का इरादा छोड़ दिया। इसके बाद मैंने निर्णय लिया कि लेखक बनूँगा। मैं हिन्दी बहुत अच्छी लिखता था। मैंने इसके लिए कोशिश शुरू की। एक लेखक थे गोरखनाथ चैबे। वे नई किताबें लिखने के साथ ही हिन्दी में रूपान्तर भी करते थे। उस समय हिन्दी में राजनीतिशास्त्र की किताबों की बड़ी माँग थी। मैं चैबे जी के यहाँ गया। उनसे निवेदन किया कि क्या मैं लिखने का कुछ काम कर सकता हूँ? उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया और पता नहीं, किस विषय पर एक लेख लिखने को दिया। अगले दिन मैं लेख लिख कर ले गया। चैबे जी बहुत प्रसन्न हुए। कहा, बहुत अच्छा लिखा है। आप किताब लिखिए। उन्होंने किताब लिखने के लिए कोई विषय दिया। लेकिन जब मैं चलने लगा तो कहाः देखिए, किताब तो लिखेंगे आप। इसके लिए मैं आपको पैसा भी दूँगा। लेकिन वह किताब छपेगी मेरे नाम से। मैं भौंचक रह गया। होस्टल लौट कर सोचने लगा, यह तो अजीब है। समाजवादी समाज बनाने के संघर्ष के लिए नौकरी नहीं कर रहा हूँ, शोषण रोकने की बात कर रहा हूँ, लेकिन यहाँ तो पहले मेरा ही शोषण शुरू हो गया। इसलिए मैंने लेखक बनने का इरादा भी छोड़ दिया। इसके बाद थोड़े दिन तो मैं बहुत मुसीबत में रहा। इन मुसीबत के दिनों में कुछ लोगों द्वारा दिए गए स्नेह की याद आज भी है। बस्ती के एक पंडित जी थे, पृथ्वीनाथ। वे हिन्दू होस्टल में मेस चलाते थे। उनके मेस में मैं था। जब हम लोग पार्टी का काम करने लगे तो ज्यादातर समय बाहर ही बिताते थे। बाहर जब रद्दी खाना खाते-खाते परेशान हो जाते थे तो दोस्तों से कहते थे कि कहीं अच्छा खाना खाने चलें। हम पृथ्वी महाराज के मेस में पहुँच जाते। वे हमें बड़ी लगन और प्यार से खिलाते थे। दाल में घी डाल देते थे। आरएसएस वाले इसका विरोध्ा करते। वे कहते थे, हम लोगों को पृथ्वीनाथ मुफ्त में क्यों खिलाते हैं? उत्तर में पृथ्वीनाथ मेरे बारे में कहते थे: ‘इतने दिन से होस्टल में हूँ। एक ही बाबू ऐसे मिले जिनको जो भी बिल मैंने दिया, उसको लेकर कोई सवाल नहीं किया। जितना माँगता था, वह उतना ही पैसा दे देते थे। इसलिए इनके लिए मेरे मन में बहुत इज्जत है।’ उन दिनों मेस चार्ज 25 रुपया मासिक लगता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और समाजवाद का सपना

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