आन्दोलन के साथी महानन्द मिश्र जी

--  

--

बलिया में समाजवादी आन्दोलन के दिनों में कितने ही ऐसे लोगों के सम्पर्क में आया जिनके जीवन से मैंने बहुत कुछ सीखा। उनका अनुकरण तो नहीं कर सका, करना भी नहीं चाहता था, क्योंकि आप बीती ने मुझे बहुत कुछ स्वयं अपने अनुभव से सीखने का मौका दिया। कुछ अजीब बात हैं कि जो लोग साध्ाारण जन की दृष्टि में भी अनजान से रहे, वही मुझे प्रेरणा दे सके। उनसे मैंने कई सीख ली। महानंद मिश्र जी उन्हीं लोगों में से एक थे। कम पढ़े-लिखे व्यक्ति, पर उनमें दूर तक सोचने की विलक्षण शक्ति थी। उनका पुरुषार्थ और आत्मविश्वास असीम था। साध्ाारण व्यक्ति के लिए उसे समझ पाना सम्भव नहीं था। किसी की उपेक्षा का उन पर तिल भर असर नहीं होता था। किसी भी साथी की आवश्यकता पूरी करना वे अपनी जिम्मेदारी समझते थे। राष्ट्रीय दायित्व निभाने में आई कठिनाइयों के बीच वे साध्ाारण जन की सहायता पर विश्वास करते थे। उसके लिए हाथ फैलाने में उन्हें संकोच नहीं था। सादगी उनके जीवन में रम गई थी और मंजिल तक पहुँचने का इरादा सदा बना रहा। मिटा नहीं। एकाकी जीवन उन्हें खलेगा, पर उनके मन पर इसका कोई असर नहीं, मृत्यु भी उनके आत्मविश्वास को हिला नहीं सकी। 1942 की कारागार की जिन्दगी का बयान वे कभी नहीं करते क्योंकि इसे वे दैव-गति कहते और उसे सहर्ष स्वीकार करने के लिए सदा तैयार रहते थे। उनकी एक विशेषता और थी। कभी-कभी उनकी लोगों से बहस होती थी। मिश्र जी अपनी पढ़ाई-लिखाई की कमी से प्रभावित नहीं हुए। अपनी बात बिना हिचक कहते, कभी-कभी दूसरों की नाराजगी का उन्हें शिकार होना पड़ता था, पर उध्ार ध्यान दिए बिना अपने कर्तव्य-पालन में लगे रहते थे। उनके साथ काम करने वाले सदा उनकी इस क्षमता पर विश्वास के साथ उनके पास जाते और वे उनकी सहायता भी करते थे। ऐसे थे मिश्र जी, जो अब नहीं रहे। समाजवादी आन्दोलन के प्रारंभिक दिनों में उन्होंने मुझे निरंतर उत्साहित किया। पंडित पारसनाथ मिश्र और विश्वनाथ चैबे जी से मेरा उन्हीं दिनों सम्पर्क हुआ और निरंतर प्रगाढ़ होता गया। मेरे जीवन में ऐसे भी क्षण आए जब गलतफहमी पैदा हुई, पर मैं पूरी तरह आश्वस्त था कि यह केवल अल्पकालिक है। चैबे जी अपनी तरह के निराले व्यक्ति रहे। अपनी टेक पर चलने की उनकी क्षमता असीम रही। मौत को उन्होंने सदा अपने सिर पर मंडराते देखा, कम से कम यह उनके मन की शंका रही पर उसे पास फटकने नहीं दिया, पर पारसनाथ जी सदा के लिए उसकी गोद में सो गए। कितनी चुपचाप आती है मौत। अब कभी नहीं हो सकेगी पारसनाथ जी से वह व्यर्थ की अनचाही बहस। विद्यार्थी-जीवन में ही समाजवादी आन्दोलन में वासुदेव राय ने अपना स्थान बना लिया था। मैं, गौरीशंकर और वासुदेव सदा साथ रहते थे। गौरीशंकर, राय साहब थे, वासुदेव, शर्मा जी और मैं, ठाकुर साहब। अध्ािकतर हम लोग एक-दूसरे को इन्ही नामों से पुकारते थे। वासुदेव अत्यंत मेध्ाावी थे, साथ ही एक विशिष्ट व्यक्तित्व के ध्ानी। कभी उन्होंने किसी बुराई से समझौता नहीं किया। बेलौस बात करने वाले, निकट के लोगों को खरी-खोटी सुना देने वाले ऐसे लोग शायद भगवान को जल्दी प्यारे हो जाते हैं। जिस साल उन्होंने काशी विद्यापीठ में समाज शास्त्र में मास्टर की उपाध्ाि ली, उसी साल वे टाइफाइड से चल बसे। कितना सदमा लगा था मुझे, कितना रोया था। मुझे वे दिन आज भी याद आते हैं तो मन उदास हो जाता है।

प्रतिपुष्टि